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Friday, 7 March 2014

सड़कें और ट्रेन : एक अनुभव

सड़कें  आजकल मुझे एक अजब फिलॉसॉफी की तरह लगती हैं. हर रोज़ दफ्तर तक जाने के लिए मुझे दस किलोमीटर का रास्ता तय करना होता है.  और तब थोड़ी थोड़ी देर में मुझे सड़क के कई रंग रूप और नक़्शे दिखाई देने लगते हैं. जाने क्या क्या विचार सूझने लगते हैं. 

सड़कें एक फैले हुए जाल की तरह लगती हैं,  और सिर्फ जाल होता तो उसका कोई आदि - अंत भी हो सकता था लेकिन ये एक अंतर्जाल है, एक जंगल की तरह; गाड़ियों का, ट्रैफिक सिग्नल्स का और लोगों का.  यहाँ तेज़ रफ़्तार से पहियों पर सररर्र से भागती छोटी बड़ी गाड़ियां है, चार पहिया हो या दो पहिया सबको जल्दी से भी ज्यादा जल्दी है. और तब एक अजब सा ख्याल मुझे आता है कि भारतीय  सड़कें पूरी तरह समाजवादी हैं. हमारे यहाँ, दो पहिया, चार पहिया, बिना पहिया, साइकिल, रिक्शा, ट्रक, ट्रेक्टर,  ऑटो, बैलगाड़ी और पैदल सबके लिए एक ही सड़क है, जिस पर सबके लिए एक से  गडडे, धक्के, यहाँ वहाँ फैले पत्थर और किनारों से बुरी तरह कटी फटी, उधड़ी हुई  सड़क हैं. इस  निर्जीव  डेकोरेशन के बाद सड़कों पर रहने वाले या उनको खुला मैदान गार्डन वगरैह समझ कर वहाँ घूमने वाले जानवर भी समाजवादी ही हैं और किसी भी किस्म के भेदभाव में विश्वास नहीं करते। 

इसके अलावा समाजवाद का एक रूप ये भी है कि गाडी चलाने वाले सभी लोग (छोटी बड़ी सब तरह की गाड़ियां ) पक्के तौर पर संसाधनों पर समाज के सामूहिक स्वामित्व में मजबूत आस्था रखते हैं सब लोग मानकर चलते हैं कि सड़कें उनकी हैं, केवल उनके लिए बनी है  इसलिए वे जैसे चाहें  अपनी गाडी को चला दौड़ा सकते हैं. wrong side, right side, कहीं से भी कट मार के निकलना, जगह हो ना हो पर ज़बरदस्ती साइड से जगह बनाना या बीच में घुस जाना हम  सबका विशेष अधिकार है. (खबरदार जो इस पर किसी ने ऐतराज उठाया ) 

दो पहिया वाहन चालकों का ख्याल है कि उनकी ये दुबली पतली, हलकी फुलकी  गाडी  बेहद कम जगह घेरती है (bikers तो खैर सब "धूम" प्रेरित हैं ) इसलिए आड़ा तिरछा इधर उधर कहीं से भी गाडी निकालना उनकी ख़ास "स्टाइल" है. 

एक हैं चार पहिया वाले, इनमे ज़रा श्रेणीक्रम है … एक हैं बड़ी गाड़ियां जैसे  बोलेरो, स्कार्पियो, फिर हैं मध्यम साइज़ और आखिर में छुटकू कार जैसे बिचारी मारुती 800. तो ये सब लोग अपनी कार की साइज़ के हिसाब से सड़क पर अपना हक़ मानते हैं और उसी अनुपात में दूसरों से जल्दी आगे निकलने में लगे रहते हैं. जैसे बोलेरो और बड़ी लक्ज़री कार वाले छुटकू कार को  हड़काएँगे और ऑटो वाले को तो किसी गिनती में नहीं रखेंगे। अब बड़ी गाडी की बात हो और सरकारी गाडी  का ज़िकर ना हो ये हो नहीं सकता। ये गाड़ियां स्पेशल हैं, इनके ड्राईवर और अंदर बैठे लोग भी स्पेशल हैं. इनको फुल स्पीड भागने का विशेषाधिकार है, कृपया इसकी अवमानना ना की  जाए. 

इस सब के बाद हैं ट्रेक्टर, ट्रॉली, ट्रक, सिटी बस, टैक्सी वाले। जिनके बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के बराबर; कारण कि समाजवाद का मूल  आधार, शक्ति का स्त्रोत, क्रान्ति के वाहक यही लोग है. सर्वहारा  वर्ग, मजदूर किसान, निम्न वर्ग या निम्न मध्यम  वर्ग (बुर्जुआ सर्वहारा).  समाजवाद इन्ही कि कृपा से आया है और इनके कारण ही बना हुआ है. अतः सड़क पर इनके अधिकार किसी भी शाब्दिक  व्याख्या  से बाहर की चीज़ है. 

इतने अलग अलग किस्म की विविधता को समेटे भारतीय सड़कें अपनी सम्पूर्ण गम्भीरता, सहनशीलता और निस्पृहता के कारण मुझे एक बड़ा बहुत बड़ा डरावना जाल   लगती हैं. कभी chess बोर्ड वाला जाल, जहां चलने के नियम तो बने पर ऊंट, घोडा, हाथी कब कहाँ कैसे मुड़ेंगे, बैठेंगे पता लगना मुश्किल है.  और कभी ये मकड़ी का जला लगता है, समझ नहीं पड़ता कि कहाँ से निकलें, कैसे फंसे और कहाँ रुकेंगे। 

हर रोज़ गाडी चलाते वक़्त ऐसा लगता है कि गाडी के पहिये जिस तरह सड़क पर दौड़ते हैं वैसे पहिये ज़िन्दगी को भी लगे हैं तभी तो ये लगातार भागती जाती है बिना रुके बिना थके.  इसकी गति, लय ताल का कोई जोड़ नहीं, केवल सफ़र है मंज़िल नहीं।  जाने क्यों ये भागने का विचार मन में गहरे तक पैठ गया है. लगता है कि "सबकुछ" भाग रहा है समस्त ब्रह्माण्ड भाग रहा है लेकिन भागने के साथ ही कहीं कुछ अटका हुआ भी है. कुछ ऐसा जो बेहद मामूली है, कुछ फालतू है और कुछ कीमती या बेशकीमती भी है.   

सडकों से भी ज्यादा अगर कुछ जादुई है तो वो रेल की पटरियां है. लोहे की बनी पर बेहद लचीली पटरियां …ट्रेन के साथ साथ पटरियां भी भागती है, मुड़ती हैं, कभी साथ मिलती कभी अलग होती है. कहने को  है कि पटरियां कहीं नहीं जाती एक ही जगह स्थिर रहती हैं पर फिर भी नज़रों को साफ़ धोखा देते हुए वे ट्रेन के बराबर वेग से दौड़ती दिखती हैं. कभी आपने चलती ट्रेन में खिड़की से नीचे की तरफ देखा होगा तो वहाँ पटरियां अपना अलग ही खेल खेलती दिखेंगी। जैसे कोई मैजिक शो चलता हो वैसे ही ट्रेन भी जब धीमे धीमे रफ़्तार पकड़ती है तब आहिस्ता आहिस्ता पटरियां भी बदलती है, कैसे बड़ी सफाई से एक  से दूसरी पटरी पर पहुँच जाती है. कैसे अभी ये वाली पटरी इतनी दूरी पर समानांतर चल रही थी और कैसे अभी एकदम पास और फिर ट्रेन झट से उस पर चढ़ गई. कैसे  भागती दौड़ती पटरी बीच में ही रुक गई क्योंकि उसकी लाइन ख़त्म हो गई. आपस में क्रॉस होती, नदी की धाराओं की तरह शाखाएं बनाती पटरियां … किसी रहस्य से कम नहीं हैं.


सड़क पर जब बड़ी सफाई से खराब ट्रैफिक या टूटी हुई सड़कों पर हम गाड़ियां मोड़ते या निकालते हैं तब खुद पर बड़ा नाज़ होता है, बड़े ही सधे  हाथों से तेज़ रफ़्तार से 4th  या 5th गियर में गाडी दौड़ाते अपने ही अंदाज़ पर फ़िदा हुए जाते हैं हम. और तब मुझे ट्रेन  याद आने लगती है. ट्रेन  के लोको पाइलट जो पटरियों पर ट्रेनो को दिन रात दौड़ाते सकुशल अपनी मंज़िल तक ले जाते हैं तब लगता है कि उनसे ज्यादा एक्सपर्ट और daring ड्राईवर और कोई नहीं हो सकता।

जाने ये किस चीज़ का सम्मोहन है, स्पीड का, या रास्ते का या उन साधनो का जो रास्ता तय करने में हमारी मदद करते हैं. नहीं जानती।