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Wednesday, 25 September 2019

old school charm

मुझे यात्राओं का कोई बहुत ज्यादा मौका नहीं मिला है; पुराने ज़माने के लोगों की तरह मेरी यात्रा भी छुट्टियों में ननिहाल जाने या बहुत हुआ तो किसी और रिश्तेदार के यहां जाने तक का एक सीमित अनुभव है ।  पर इस सीमित यात्रा में भी जो कभी रोडवेज की बस से और कभी भारतीय रेल से की गई; उसमे कुछ जगहें  ऐसी हैं कि उनको देख कर या याद कर के आप किसी और ही  संसार में पहुँच जाते हैं।  यह एक तरह से हमारा देसी नार्निया वाला छोटा मोटा अनुभव है। बस से आते जाते वक़्त कुछ तयशुदा जगहों पर हाल्ट होता था और ट्रेन तो खैर अपने आप में एक हाल्ट स्टेशन है जो निरंतर चलायमान रहता है। अब ये तय जगहें ही आदमी का एक परिचित आकर्षण बन जाती हैं; यहां चाय पिएंगे, यहां कचौड़ी या लस्सी बढ़िया मिलती है, यहां का दहीबड़ा नहीं खाया तो फिर यात्रा का आनंद ही क्या रहा !!! उन्ही तयशुदा  जगहों की यात्रा  में भी हर बार रास्ता कुछ नया ही लगता है; कुछ स्वाद, कुछ पहचान के पत्थर और कुछ स्मृति के चिह्न। 

कोई चीज़ कितनी पुरानी हो सकती है ?  या पुरानी होते हुए भी उसका ओल्ड स्कूल चार्म बना रह सकता है क्या ?  ये ओल्ड स्कूल किसको कहते हैं ? शायद पुराने ज़माने से चिपके रहने की आदत को ?? 

बहरहाल, अभी पिछले कुछ वक़्त से हाईवे के होटल, गेस्ट हाउस, मिडवे रेस्टॉरेंट को देखते देखते यह ओल्ड स्कूल जैसा कुछ जाग गया।  अजमेर जोधपुर हाईवे पर बना "बर" का मिडवे।  जहां का कटलेट और  इडली सांभर, ऑमलेट ब्रेड और चाय  जिसके लिए हम पूरे रास्ते इंतज़ार करते थे बर पहुँचने का ।  कटलेट होता कुछ नहीं है सिर्फ आलू बेसन की एक बड़ी सी टिकिया, पर यही टिकिया उस मिडवे का बड़ा आकर्षण थी।  इडली सांभर और नारियल की चटनी हर वक़्त ताज़ी मिलती थी। खैर, खाना  वहाँ आज भी ताजा ही मिलता है।  यह चमत्कार कभी समझ नहीं आया कि हर चीज़ उस बियाबान में इतनी फ्रेश और स्वादिष्ट कैसे है ?  और वहाँ की वो छोटी सी knick  knacks  बेचने वाली दुकान;  जहां से कई बार काफी कुछ ख़रीदा. अब वो काउंटर नुमा दुकान अपनी पुरानी चमक की परछाई जैसी कुछ बची है.  मिडवे की इमारत  भी जैसे कोई पुराना  सरकारी गेस्ट हाउस; उभरे हुए सफ़ेद भूरे रंग के पत्थरों की बाहरी दीवारें जिन पर वक़्त  और मौसम की मार से अब काई जमने लगी है. सामने गेट से आता हुआ एक खुला लम्बा रास्ता और इतना बड़ा कंपाउंड कि  जहां दो तीन बसें आराम से खड़ी  रह सकती हैं।  यह इमारत भी एक हिस्सा है नास्टैल्जिया का; बीते समय के फ्रेम का।  बारिश के मौसम में यहां अक्सर सब कुछ भीगा हुआ दीखता है.  इमारत की बाहरी दीवारें, कंक्रीट की सड़क वाला रास्ता और सारे पेड़ पौधे ।  ऐसा लगता है कि बरसात बस अभी ही हुई है ।  अक्सर मुझे ऐसा वहम होता है कि बरसात का मौसम इस जगह पर हमेशा के लिए थमा हुआ है । इस जगह को देखकर लगता था  कि जैसे कोई कोलोनियल ज़माने का  गेस्ट हाउस जो किसी दूर दराज  हिल स्टेशन पर बसा है । निर्मल वर्मा के उपन्यासों के हिल स्टेशन और कॉटेज हाउस का नक़्शा शायद ऐसा ही कुछ होता होगा !!! ( रेगिस्तान के पश्चिमी कोने पर बसे  शहर के लिए ये बरसात का मौसम वाला हाईवे का ये अर्ध सरकारी मिड वे  होटल ही हिल स्टेशन जैसा मालूम होता है )

इस मिडवे को देख कर हमेशा हिल स्टेशन  जैसा क्यों  महसूस होता था, इसका  कारण तो नहीं पता पर शायद आस पास मध्य अरावली के पहाड़ है, जिनके कारण यहां काफी हरियाली है और बरसात में इस हाईवे पर और पहाड़ों पर धुंध और बादलों का डेरा रहता ही है ।  सफ़ेद रुई जैसे बादल  पहाड़ो पर ही उतर आते हैं, पहाड़ का ऊपरी हिस्सा इन बादलों से अक्सर ढका हुआ ही दिखता है।  बारिश ऐसी जम कर होती है कि हाईवे पर विजिबिलिटी ही ख़त्म हो जाती है , केवल गाड़ियों की हेड और टेल लाइट्स की रौशनी के धब्बे  पानी के धुंधले बहाव में दिखाई देते हैं। 

RTDC  के राजस्थान भर में फैले हुए होटल्स का भी ऐसा ही किस्सा है।  पुरानी लेकिन मजबूत इमारत । बाहर से और भीतर से ।  बाहर एक बड़ा खुला बगीचा जिसमे एक फाउंटेन लगा होता है,लोहे  की कुर्सियां और टेबल पड़ी रहती हैं जहां बैठ कर ओपन एयर ब्रेकफास्ट या लंच का आनंद लिया जा सकता है।  एक बड़ा सा कंपाउंड  या अहाता जहां गाड़ियों की पार्किंग बेहद आराम से की जा सकती है।  इन होटल्स को देख कर लगता है कि इनको बनाने की प्रेरणा पुराने ज़माने के सरकरी डाक बंगले या रेस्ट हाउस वगैरह से मिली होगी जिनको सरकारी अफसरों के लिए बनाया जाता था।  लकड़ी का भारी फर्नीचर जिस पर सादी लेकिन एलिगेंट नक्काशी या डिज़ाइन होती है।  कमरे और लाउंज का इंटीरियर साधारण ही होता है; राजस्थानी पेंटिंग्स जो दीवारों  के खालीपन को भरने की कोशिश करती हैं ।  जो सबसे  आकर्षित करने वाली चीज़ है, वो  है कमरों का साइज़।  खुले, हवादार कमरे जिसमे  एक डबल बेड  या तीन बेड  और भारी  कुर्सियां, मेज़ और ड्रेसिंग टेबल रखी होने के बावजूद कहीं से भी बंद जैसा नहीं लगता।  बाथरूम्स में सारी आधुनिक सुविधाएं मिलेंगी। चमक दमक तो नहीं है पर आराम और तसल्ली पूरी है।

अब जब हाईवे और होटल का किस्सा निकला ही है तो एक पुराना किस्सा उदयपुर हाईवे का याद आ रहा है जिसे लिखे बिना मन नहीं मान रहा। 

फाउंडेशन कोर्स की ट्रेनिंग के दिनों में एक बार अपने कुछ batchmates के साथ उदयपुर से घर जाने के लिए बस में रवाना हुए।  दोपहर को १२:३० बजे रवानगी का समय था लेकिन कुछ हमारा आलस और कुछ बस चलाने वाले की दरियादिली कि बस आखिर कर १:३० पर  रवाना हुई।  हमने जल्दबाजी के चलते हॉस्टल से टिफ़िन भी नहीं लिया और अब खाने का वक़्त था।  बस वाले ने अपना शुरूआती हाल्ट शहर के बाहर हाईवे पर कतार में बने ढाबों और दुकानों के सामने  किया, इस  उद्घोषणा के साथ कि पंद्रह मिनट यहां रुकेंगे।  मैं और मेरी सहेली बस से उतरे ये सोच कर कि रास्ते के लिए चिप्स नमकीन खरीद लिए जाएँ।  लेकिन सामने एक ढाबा देख कर विचार बदल गया।  अपने एक साथी को चिप्स बिस्कुट और माज़ा की बोतल लाने का आदेश देकर हम दोनों ढाबे में घुसे।  दुकान बिलकुल खाली थी, एक भी ग्राहक उस वक़्त तक नहीं था । जाते  ही सवाल दागा, थाली का क्या रेट है और उसमे क्या क्या मिलेगा ? जवाब भी तुरंत था, चार रोटी, चावल, दाल, सब्ज़ी, दही ; दुबारा कुछ नहीं मिलेगा उसके एक्स्ट्रा पैसे लगेंगे वैसे थाली का रेट साठ  रुपया बताया।  सुनते ही तुरंत गुप्त  मंत्रणा हुई।  आदेश हुआ, फटाफट एक थाली लगा दो जिसमे चावल के बजाय एक कटोरी दही एक्स्ट्रा कर दो और सब्ज़ी भी नहीं चाहिए उसके बजाय दाल एक्स्ट्रा दे दो।  और खाना कितनी देर में लगा दोगे  या पैक कर दो ? कितना टाइम लगेगा ? पांच सात  मिनट में कर दोगे ? ढाबे वाले ने अजीब ढंग से हम जीन्स कुरता स्पोर्ट्स शू धारित प्राणियों को घूरा और कहा, बैठो तो अभी लगा देंगे थाली।  हम दोनों एक कुर्सी टेबल घेर के बैठ गए।

सचमुच तुरंत बैठते ही थाली आ गई और हम लोग हड़बड़ हड़बड़ करते खाना शुरू हुए।  उसी लम्हे हम दोनों लापता को ढूंढ़ते  वही batchmate  आया जिसको चिप्स बिस्कुट लाने भेजा था।  उसका रिएक्शन ऐसा था कि ये कौन भुक्खड़ है जिनकी सूरत तो ...… ख़ैर, सवाल  जवाब हुए ; तय हुआ कि भूख तो सबको लगी है, थाली का दाम वाजिब है, हम  भी यहीं खाएंगे और बस वाले को रुकने का कह देते हैं वैसे भी बस में हमारी २० लोगो की बारात के अलावा और कोई था नहीं। और देखते ही देखते उस खाली ढाबे में एक कुर्सी भी खाली नहीं बची।  सभी ने अपने लिए एक एक थाली मंगवाई। यानि हमारी कंजूसी या किफायतशारी की भरपाई बाकी लोगों से हो गई।  या अपने मुंह मियाँ मिठ्ठू बनने के लिए कह सकते हैं कि हमारे आते ही उसकी ग्राहकी बढ़ गई। साठ रूपए की उस थाली में उस दिन दो प्राणियों का भरपेट भोजन हुआ; ऐसा सस्ता सुन्दर दाम और  इतने मितभोजी ग्राहक,  कहीं  मिलेगा भला ??

 वह यात्रा मेरी सबसे यादगार यात्रा है क्योंकि उस दिन मेरा जन्मदिन भी था और उस दिन चलती बस में जो केक काटा और सबने खाया वह भूल सकने जैसी स्मृति नहीं। उस दिन दो केक काटे गए थे, एक जो मैं हॉस्टल के किचन में रखवा के आई थी बाकी  सब batchmates के लिए और एक यहां रास्ते में सेलिब्रेशन के लिए लाया गया था। 

यह ओल्ड स्कूल का चार्म अजीब है जो स्मृतियों के कबाड़ से पुराने रिकॉर्ड खंगालता रहता है। 


Image Courtesy : my mobile camera photography.

© all rights reserved

Thursday, 15 June 2017

एक कहानी : तीन किस्से

कहानियां लिखे एक  अरसा बीत गया है. पहले कहानियां  अपने आप दिमाग की फैक्ट्री से बनकर आती और  यहां की बोर्ड पर टाइप हो जातीं। अब फैक्ट्री बंद है और चालू  होने के ऐसे कोई आसार भी  नहीं दिखते। फिर भी यूँही रस्ते चलते, घूमते  फिरते, कहानियां  और उनके पात्र दिखाई दे जाते हैं ।  ऐसी ही एक कहानी और उसके मुख्य पात्र यानि कि  हीरो हीरोइन ( एक सुंदरी कन्या जो १६-१७ की होगी और एक भली सूरत वाला लड़का जो लगभग इतनी उम्र  का होगा)  मुझे एक झुग्गी बस्ती के  किनारे पर लगी काँटों  झाड़ियों की बाड़ पर खड़े मिले; (नहीं, खड़े नहीं थे;  असल में मोटर साइकिल पर सवार थे). या यूँ कहूँ कि  वो दोनों बस्ती के बच्चों से घिरे मिले या दिखे तो ज्यादा  सही रहेगा। लड़की ने स्लीवलेस टॉप के साथ  शॉर्ट्स पहने हुए थे और लड़का जीन्स शर्ट में काफी स्मार्ट लग रहा था.   अब आप इधर उधर दिमाग मत लगाइये और इस संभावित कहानी के उतने ही संभावित हीरो हीरोइन की कथा, गाथा, किस्से के तीन अलग अलग versions पढ़िए.  


कहानी १ 

"ए जसोदा मुझे भी  काम  दिला दे, झाड़ू पोछे का।"
"देखूं, बात करुँगी मम्मी जी से.  उनके लड़के के बंगले  पर ज़रूरत है."

"ए छोरा, तू ये गाड़ी कहाँ से लाया रे ?" 
"सेठ जी ने दी है, दुकान के काम के लिए। "
" बड़े ठाठ हैं रे तुम लोगों के आजकल। काय रे बिज्जू मेरे को भी कहीं लगवा दे ना तेरे सेठ के दूकान पे।"

"सेठ जी नए आदमी को आसानी से नहीं रखते।"
"तेरे को कैसे रख लिया रे?" 
"वो तो माँ ने मेमसाब से कह के ...." जसोदा मुस्कुराई। 
"और ये तेरी डिरेस, मेमसाब ने दी ?" 
"हाँ वो उनकी एक लड़की मेरे बराबर की है ना. उसी की है ये डेरेस।" 
"पुरानी तो नहीं लगती। "कौशल्या ने टॉप को हाथ लगा के कहा. फिर जसोदा की बाँहें छुई।  
"इत्ती चिकनी कैसे?" कौशल्या ने हैरानगी से पूछा।  
"वो क्रीम लगाती हूँ। "
"क्या क्रीम ? मेरे को भी लाके देगी ना ?" कौशल्या की आवाज़ में आशा है, अनुरोध है।  
"  तेरी माँ ने ठीक घर पकड़ा, क्यों रे बिज्जू ? लछमी को कित्ती पगार दे मेमसाब ? पांच हज़्ज़ार महीना और ऊपर से खाना कपडा ?" 
" ये अभी दो साल पहले तक लछमी यहीं हमारे साथ इधर  इसी मैदान में टपरे में रहती थी.  झाड़ू पोंछा करने वाली के ऐसे ठाठ। " कुछ आवाज़ें प्लास्टिक के टपरे के पीछे से उभरी।  
"ए जस्सू, तू भी झाड़ू पोंछा करे ?"
"नहीं, मैं  ..... खाना बनाती हूँ, बाहर से सामान लाना वगैरह । " जस्सू की आवाज़ अटकी लेकिन फिर संभल गई।  बिज्जू ने जस्सू को देखा। 
"सेठानी तो सुना है बिस्तरे से उठ भी नहीं सकती, उसी की सार संभाल, खिलाने पिलाने, सब काम के लिए जस्सू को रखा है सेठ ने, तभी तो इतने ऐश हैं इनके।" कुछ आवाज़ें राज़दार तरीके से उभरींऔर फिर दब गईं। 

"चलें, लेट हो रही है सेठ जी इंतज़ार कर रहे हैं। " सवालों की कतार वहीँ थम गई और मोटरसाइकल देखते देखते धूल  उड़ाती  भाग चली।  


कहानी २ 

" ऐ जस्सू ,  आज तू कित्ते दिन बाद आई। ये लड़का कौन है, तेरी सादी हो गई क्या ?"  लडकियां बच्चे हैरान है जस्सू की इस नई सज धज पर. 

" वो अच्छी नौकरी मिल गई है एक अस्पताल में, लिखा पढ़ी की।  ये मोहन है  मेरा धर्मेला भाई है, ये भी वहीँ नौकरी करता है । " आवाज़ तो मजबूत और विश्वास से भरी है जस्सू की।  

"ऐ जस्सू ,  ये कपडे बहुत सूंदर है ,  मेरे को भी ला दे ना , "  ...... शोभा ने टॉप का कोना पकड़ के इच्छाभरी निगाहों से जस्सू को देखा, हंसी और फिर अपनी चुन्नी  को कंधो  पर संभाला।

"हाँ ला दूंगी, तू भी मेरी तरह नौकरी कर ले,  उधर अस्पताल में जगह खाली है, बोल तेरी भी लगवाऊं नौकरी ?" खनकती आवाज़ है जस्सू की. 

" ऐ जस्सू पगार कित्ती है तेरी ? अस्पताल की नौकरी किसने दिलाई और कौनसे अस्पताल में ? तू तो दसवीं पास है और तेरी मां तो घास बेचे है  और बाप कमठे पर चौकीदार है। और ऐसे कपडे पहन के नौकरी करे है तू ? सच बोल।" एक आवाज़ टपरे के पीछे से झाँकने लगी. 

" दसवीं क्या कम होती है, किसी ने ही दिलाई नौकरी ; तुम्हारे क्या ? नर्स का काम भी सीख रही हूँ, सरकारी योजना में मुफ्त सिखाते हैं और हर महीने पैसे भी मिलते हैं." जस्सू की आवाज़ में एक लापरवाही और गुमान सा है।  

" ऐ छोरी, अस्पताल में नौकरी करे है कि और कोई काम ?  ये छोरा क्या काम करे  जो इत्ती महँगी गाडी चलावे  है ? उधर श्रमिकपुरा   में ही तो दो कमरा का किराए का मकान है तुम लोगों का, मैदान के पास कब्ज़े की ज़मीन पर। किराया  कित्ता है रे मकान का ? " एक तीखी, लम्बी और सख्त आवाज़ उभरी। 

जवाब शायद मिला था पर बच्चों के हंसने और मोटरसाइकिल पर घूमने की ज़िद की आवाज़ों के बीच  गुम हो गया. 




कहानी 3 

" Oh, Come on, चलो ना, किसी को कुछ देर की ख़ुशी देने में क्या हर्ज़ है ?"

" तुम्हारा ये एडवेंचर  अगर घर पे पता चल गया ना तो भाई और डैड will kill me."

"every time भाई और भाई का डर, don't  talk to  me."

" ok, चलो."

फ़ूड पैकेट्स और कुछ पुराने ऊनी कपड़ों की एक पोटली भी साथ ही चली. 

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"ऐ दीदी, कल भी लाएगी ना ये सारा खाना ?"
"और ये ऐसी डिरेस भी ला दे ना मेरे को. " महंगे लेकिन खूबसूरत टॉप का कोना किसी ने खींचा। 

"चलो अब बहुत हो गई तुम्हारी दरियादिली". 
"हाँ, हाँ चलते हैं. ऐ तुम लोग ऐसी ड्रेस पहनते हो क्या ? और पढ़ते क्यों नहीं हो ?" 

वही घिसे पिटे से किताबी सवाल हैं जिनमे बच्चे दिलचस्पी नहीं लेते। अपनी चुन्नी  संभालती  एक बड़ी लड़की बार बार उस सुकन्या की सुन्दर बाँहें छू कर देखती है कि  भगवान् ने कितने अलग ढंग से इसका रंग रूप और शरीर बनाया है, उसका क्यों ऐसा नहीं बनाया ? 

"दिमाग  ही ख़राब है तुम्हारा।" 
 मोटरसाइकिल अब तेज़ स्पीड से भाग रही थी. 


Thursday, 23 January 2014

Old Friend

old friend I’m sure you will never forget, Where we used to wildly play. 

The night was never an obstacle; To us, it was forever day. 

I’m sure you will never regret, The quarrels we used to have. 

We have offended each other well; But by it, learnt good from bad. 

I’m sure you will never trash, The memories we have constructed. 

The ones we often summon, When our souls become corrupted. 

I’m sure you will never reject, That I was ever a friend. 

Oh, how we spent the years fully; Years that surpassed an end. I’m sure you will never appear, At my doorstep ever again. I’ve never shown appreciation; So thank you dearly, old friends...



This Beautiful Poem is Written by My Amazing Brother Kamlesh Lalwani


Image Courtesy : Google