कहानियां लिखे एक अरसा बीत गया है. पहले कहानियां अपने आप दिमाग की फैक्ट्री से बनकर आती और यहां की बोर्ड पर टाइप हो जातीं। अब फैक्ट्री बंद है और चालू होने के ऐसे कोई आसार भी नहीं दिखते। फिर भी यूँही रस्ते चलते, घूमते फिरते, कहानियां और उनके पात्र दिखाई दे जाते हैं । ऐसी ही एक कहानी और उसके मुख्य पात्र यानि कि हीरो हीरोइन ( एक सुंदरी कन्या जो १६-१७ की होगी और एक भली सूरत वाला लड़का जो लगभग इतनी उम्र का होगा) मुझे एक झुग्गी बस्ती के किनारे पर लगी काँटों झाड़ियों की बाड़ पर खड़े मिले; (नहीं, खड़े नहीं थे; असल में मोटर साइकिल पर सवार थे). या यूँ कहूँ कि वो दोनों बस्ती के बच्चों से घिरे मिले या दिखे तो ज्यादा सही रहेगा। लड़की ने स्लीवलेस टॉप के साथ शॉर्ट्स पहने हुए थे और लड़का जीन्स शर्ट में काफी स्मार्ट लग रहा था. अब आप इधर उधर दिमाग मत लगाइये और इस संभावित कहानी के उतने ही संभावित हीरो हीरोइन की कथा, गाथा, किस्से के तीन अलग अलग versions पढ़िए.
कहानी १
"ए जसोदा मुझे भी काम दिला दे, झाड़ू पोछे का।"
"देखूं, बात करुँगी मम्मी जी से. उनके लड़के के बंगले पर ज़रूरत है."
"ए छोरा, तू ये गाड़ी कहाँ से लाया रे ?"
"सेठ जी ने दी है, दुकान के काम के लिए। "
" बड़े ठाठ हैं रे तुम लोगों के आजकल। काय रे बिज्जू मेरे को भी कहीं लगवा दे ना तेरे सेठ के दूकान पे।"
"सेठ जी नए आदमी को आसानी से नहीं रखते।"
"तेरे को कैसे रख लिया रे?"
"वो तो माँ ने मेमसाब से कह के ...." जसोदा मुस्कुराई।
"और ये तेरी डिरेस, मेमसाब ने दी ?"
"हाँ वो उनकी एक लड़की मेरे बराबर की है ना. उसी की है ये डेरेस।"
"पुरानी तो नहीं लगती। "कौशल्या ने टॉप को हाथ लगा के कहा. फिर जसोदा की बाँहें छुई।
"इत्ती चिकनी कैसे?" कौशल्या ने हैरानगी से पूछा।
"वो क्रीम लगाती हूँ। "
"क्या क्रीम ? मेरे को भी लाके देगी ना ?" कौशल्या की आवाज़ में आशा है, अनुरोध है।
" तेरी माँ ने ठीक घर पकड़ा, क्यों रे बिज्जू ? लछमी को कित्ती पगार दे मेमसाब ? पांच हज़्ज़ार महीना और ऊपर से खाना कपडा ?"
" ये अभी दो साल पहले तक लछमी यहीं हमारे साथ इधर इसी मैदान में टपरे में रहती थी. झाड़ू पोंछा करने वाली के ऐसे ठाठ। " कुछ आवाज़ें प्लास्टिक के टपरे के पीछे से उभरी।
"ए जस्सू, तू भी झाड़ू पोंछा करे ?"
"नहीं, मैं ..... खाना बनाती हूँ, बाहर से सामान लाना वगैरह । " जस्सू की आवाज़ अटकी लेकिन फिर संभल गई। बिज्जू ने जस्सू को देखा।
"सेठानी तो सुना है बिस्तरे से उठ भी नहीं सकती, उसी की सार संभाल, खिलाने पिलाने, सब काम के लिए जस्सू को रखा है सेठ ने, तभी तो इतने ऐश हैं इनके।" कुछ आवाज़ें राज़दार तरीके से उभरींऔर फिर दब गईं।
"चलें, लेट हो रही है सेठ जी इंतज़ार कर रहे हैं। " सवालों की कतार वहीँ थम गई और मोटरसाइकल देखते देखते धूल उड़ाती भाग चली।
कहानी २
" ऐ जस्सू , आज तू कित्ते दिन बाद आई। ये लड़का कौन है, तेरी सादी हो गई क्या ?" लडकियां बच्चे हैरान है जस्सू की इस नई सज धज पर.
" वो अच्छी नौकरी मिल गई है एक अस्पताल में, लिखा पढ़ी की। ये मोहन है मेरा धर्मेला भाई है, ये भी वहीँ नौकरी करता है । " आवाज़ तो मजबूत और विश्वास से भरी है जस्सू की।
"ऐ जस्सू , ये कपडे बहुत सूंदर है , मेरे को भी ला दे ना , " ...... शोभा ने टॉप का कोना पकड़ के इच्छाभरी निगाहों से जस्सू को देखा, हंसी और फिर अपनी चुन्नी को कंधो पर संभाला।
"हाँ ला दूंगी, तू भी मेरी तरह नौकरी कर ले, उधर अस्पताल में जगह खाली है, बोल तेरी भी लगवाऊं नौकरी ?" खनकती आवाज़ है जस्सू की.
" ऐ जस्सू पगार कित्ती है तेरी ? अस्पताल की नौकरी किसने दिलाई और कौनसे अस्पताल में ? तू तो दसवीं पास है और तेरी मां तो घास बेचे है और बाप कमठे पर चौकीदार है। और ऐसे कपडे पहन के नौकरी करे है तू ? सच बोल।" एक आवाज़ टपरे के पीछे से झाँकने लगी.
" दसवीं क्या कम होती है, किसी ने ही दिलाई नौकरी ; तुम्हारे क्या ? नर्स का काम भी सीख रही हूँ, सरकारी योजना में मुफ्त सिखाते हैं और हर महीने पैसे भी मिलते हैं." जस्सू की आवाज़ में एक लापरवाही और गुमान सा है।
" ऐ छोरी, अस्पताल में नौकरी करे है कि और कोई काम ? ये छोरा क्या काम करे जो इत्ती महँगी गाडी चलावे है ? उधर श्रमिकपुरा में ही तो दो कमरा का किराए का मकान है तुम लोगों का, मैदान के पास कब्ज़े की ज़मीन पर। किराया कित्ता है रे मकान का ? " एक तीखी, लम्बी और सख्त आवाज़ उभरी।
जवाब शायद मिला था पर बच्चों के हंसने और मोटरसाइकिल पर घूमने की ज़िद की आवाज़ों के बीच गुम हो गया.
कहानी 3
" Oh, Come on, चलो ना, किसी को कुछ देर की ख़ुशी देने में क्या हर्ज़ है ?"
" तुम्हारा ये एडवेंचर अगर घर पे पता चल गया ना तो भाई और डैड will kill me."
"every time भाई और भाई का डर, don't talk to me."
" ok, चलो."
फ़ूड पैकेट्स और कुछ पुराने ऊनी कपड़ों की एक पोटली भी साथ ही चली.
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"ऐ दीदी, कल भी लाएगी ना ये सारा खाना ?"
"और ये ऐसी डिरेस भी ला दे ना मेरे को. " महंगे लेकिन खूबसूरत टॉप का कोना किसी ने खींचा।
"चलो अब बहुत हो गई तुम्हारी दरियादिली".
"हाँ, हाँ चलते हैं. ऐ तुम लोग ऐसी ड्रेस पहनते हो क्या ? और पढ़ते क्यों नहीं हो ?"
वही घिसे पिटे से किताबी सवाल हैं जिनमे बच्चे दिलचस्पी नहीं लेते। अपनी चुन्नी संभालती एक बड़ी लड़की बार बार उस सुकन्या की सुन्दर बाँहें छू कर देखती है कि भगवान् ने कितने अलग ढंग से इसका रंग रूप और शरीर बनाया है, उसका क्यों ऐसा नहीं बनाया ?
"दिमाग ही ख़राब है तुम्हारा।"
मोटरसाइकिल अब तेज़ स्पीड से भाग रही थी.
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन को छूती कहानियां
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