दिन गुज़रते हैं फिर भी वक़्त थमा हुआ सा है.
ये एक अजीब मौसम है, इसमें दिन और रात का हिसाब आपस में गड्डमड्ड सा हो गया है. यहां उत्तरी ध्रुव की लम्बी रौशनियों वाली रातें भी हैं और महासागर के अथाह विस्तार जैसे अनंत तक पसरे हुए दिन भी. कब और कहाँ से दिन की या रात की सीमा रेखा शुरू होती है, इसकी थाह पाना मुश्किल है. इस मौसम को यहां किसने बुलाया, किसने रोक के रखा है. यहां समय रबड़ की तरह फ़ैल भी गया है और रेत की तरह हथेलियों से फिसल भी रहा है, फिर भी नए पुराने दिनों का फर्क पता नहीं चलता है. यहां रोज़ सुबह चौराहों से कई रास्ते निकलते हैं जो कहीं नहीं पहुँचते बस एक गोल घेरे जैसा चक्कर काट कर वापिस वहीँ पहुँच जाते हैं जहां से शुरू हुए थे. यहां से कहीं नहीं जाया जा सकता और कोई कहीं से आ भी नहीं सकता।
घड़ी की टिक टिक दिन और रात के प्रहर बीतने की सूचना देती है लेकिन इस मौसम के बीतने के कोई आसार नहीं दिखते। ये एक लम्बी गर्मियों की तरह है जिसमे दिन कभी नहीं ढलता, दोपहर सुबह से शुरू होकर अँधेरा घिरने के बाद भी कुछ देर तक बनी रहती है और घड़ी लम्बे पॉज लेकर चलती है. और इस गर्म मौसम के पार कोई और मौसम है भी या नहीं इसकी भी कोई खबर नहीं। अक्सर इस थमे हुए दिनों वाले मौसम के लिए उस शख्स को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिसकी ज़िन्दगी में ये उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के छह छह महीनो वाला मौसम आकर रुक गया है. पर अक्सर खुद उस शख्स को भी नहीं होती कि आखिर इतनी तेज़ गति से भागने के बावजूद समय रुका क्यों है ? अनंत तक फैले हुए ये दिन किसी झिलमिलाती खुशनुमा साँझ तक क्यों नहीं पहुँचते ? यहां रात को नींद में सपने क्यों नहीं आते ? यहां शाम कब आती है और कितने बजे आती है और कब ख़त्म हो जाती है, इसके बारे में घड़ी देख कर क्यों नहीं पता चलता ?
कलैंडर में तारीखें बदलती हैं लेकिन मौसम नहीं बदलता। दिन बीत जाता है लेकिन वक़्त थमा हुआ ही लगता है. उत्तरी रौशनियों के साये और महासागर के गहरे रंग कभी एक नया मौसम बना सकेंगे ? समय का एक नया आयाम ? दिन और रात का कोई नया हिसाब जो चौबीस घंटो और सात, तीस, बावन, बारह और 365 की गिनती से अलग और घड़ी की पाबंदी से दूर हो ?
घड़ी की टिक टिक दिन और रात के प्रहर बीतने की सूचना देती है लेकिन इस मौसम के बीतने के कोई आसार नहीं दिखते। ये एक लम्बी गर्मियों की तरह है जिसमे दिन कभी नहीं ढलता, दोपहर सुबह से शुरू होकर अँधेरा घिरने के बाद भी कुछ देर तक बनी रहती है और घड़ी लम्बे पॉज लेकर चलती है. और इस गर्म मौसम के पार कोई और मौसम है भी या नहीं इसकी भी कोई खबर नहीं। अक्सर इस थमे हुए दिनों वाले मौसम के लिए उस शख्स को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिसकी ज़िन्दगी में ये उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के छह छह महीनो वाला मौसम आकर रुक गया है. पर अक्सर खुद उस शख्स को भी नहीं होती कि आखिर इतनी तेज़ गति से भागने के बावजूद समय रुका क्यों है ? अनंत तक फैले हुए ये दिन किसी झिलमिलाती खुशनुमा साँझ तक क्यों नहीं पहुँचते ? यहां रात को नींद में सपने क्यों नहीं आते ? यहां शाम कब आती है और कितने बजे आती है और कब ख़त्म हो जाती है, इसके बारे में घड़ी देख कर क्यों नहीं पता चलता ?
कलैंडर में तारीखें बदलती हैं लेकिन मौसम नहीं बदलता। दिन बीत जाता है लेकिन वक़्त थमा हुआ ही लगता है. उत्तरी रौशनियों के साये और महासागर के गहरे रंग कभी एक नया मौसम बना सकेंगे ? समय का एक नया आयाम ? दिन और रात का कोई नया हिसाब जो चौबीस घंटो और सात, तीस, बावन, बारह और 365 की गिनती से अलग और घड़ी की पाबंदी से दूर हो ?
3 comments:
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुती, धन्यबाद।
जीवन की अपनी गति और अपना मनमानापन. हम बस देखनेवाले.
बहुत ही प्राकृतिक जिज्ञासा प्रकट की है। बहुत ही सुन्दर।
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