घर, मम्मी पापा, ऋचा, दोस्त ....और फिर ..
और फिर .. वही चौराहा ..वे भिखारी .. और फिर यहाँ ये आश्रम की दुनिया ..
अपना मन पढने की कोशिश कर रहा है वीरेन, क्यों आया था यहाँ .. क्या हासिल करने .. क्या साबित करने ? किसको दिखाने बताने या साबित करने के लिए ? क्या सच में सिर्फ सत्य की तलाश या संसार से वैराग्य या फिर उस के बहाने अपनी ही कोई कमी या दुःख जिसे ढकने या छिपाने के लिए वो यहाँ चला आया ..याद आया वीरेन को, किस तरह अपने मन की कुंठा, हताशा, डर और उलझनों को दूर हटाने के लिए, उनसे जीतने के लिए वो आश्रम जाकर धर्म और भगवान् के साए में छिपने की कोशिश करता था।
सबसे दूर जाने की कोशिश में "सब कुछ" के कितना पास आ गया।
उसे महसूस हुआ कि दुनिया को मोक्ष या अध्यात्म का रास्ता दिखाना उसकी ख्वाहिश नहीं थी .. लोगों को ज्ञान देना भी उसका शौक नहीं था .. ना उसे कोई साधु या महात्मा या संत जैसा कुछ बनना था, जिसने अपने लिए वैराग्य और ईश्वर की आराधना, पंथ का प्रचार .. इस सब को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य मान लिया है। लोगों के आंसू पोंछने या उनके दुखों को दूर कर सके ऐसी उसके पास कोई जादू की छड़ी भी नहीं है और ना वो खुद को उसके काबिल समझता है। तो फिर क्या करने आया था यहाँ .. "दुनिया से भागने .. अपना मुंह छुपाने" .. स्वामी अमृतानंद के शब्द कानों में गूंजने लगे .. "हमारा आश्रम दुनिया से भागने वालों के लिए सर छुपाने की जगह नहीं है". त्याग-तपस्या-संयम-परमार्थ .. सब अचानक कोरे शब्द बन गए। एक बार फिर वीरेन आईने में खुद को तलाश कर रहा है।
अपने लिए शांति तलाश कर रहा था, मन का सुकून जो खो गया गया था .. उसे फिर से पाने के लिए .. अन्दर एक प्यास थी जो रेगिस्तान की तरह फ़ैल रही थी उसे बुझाने, शांत करने के लिए आश्रम जाता था वीरेन .. दिन वहाँ बैठा रहता था कि जो शांति बाहर कहीं नहीं है वो शायद आश्रम की चार दीवारों के भीतर और इन तस्वीरों से छनकर आती रौशनी के ज़रिये उस तक पहुँच जाए ..
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वीरेन एक बार फिर स्वामी प्रकाशानंद के सामने खड़ा है .. वातावरण काफी शांत और थोडा बोझिल है।
" ..तो अब क्या चाहिए ?" स्वामी प्रकाशानंद कुर्सी पर बैठे, कोहनी टिकाये, कहीं खाली दीवार को देख रहे थे या सोच रहे थे .. वीरेन को पता नहीं ..
"इजाजत".
"तुम हमारी मर्ज़ी से आये नहीं थे ...अपने मन से आये थे और अपने मन से जा भी रहे हो .. तुम इस जगह के लिए नहीं बने वीरेन ..यही नाम है ना तुम्हारा।" (आज पहली बार पंथ में दीक्षित होने के बाद स्वामी जी ने उसे "वीरेन" कह कर बुलाया था वर्ना हमेशा राम ही कहते रहे )
"मैं मानता हूँ कि मैं आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और मेरे कारण आश्रम को काफी शर्मिंदगी भी झेलनी होगी" ..वाक्य अधूरा रह गया .. स्वामी प्रकाशंद ने एक हाथ उठा कर उसे रोका ...
"नहीं वीरेन, कैसी शर्मिंदगी, हमारा पंथ और इसके आदर्श दुनियादारी की इस निंदा स्तुति से बहुत ऊँचे हैं ..हमने यहाँ लोगों को खुश रखने के लिए दूकान नहीं सजा रखी है कि उनके कहे सुने की परवाह करें .. तुम्हारे जाने से हमें फर्क नहीं पड़ेगा .. तुमसे बेहतर और तुम जैसे हमारे पास और बहुत साधू साध्वियां हैं जो पूरे समर्पण और श्रद्धा से पंथ को आगे बढ़ा रहे हैं ...लेकिन तुम्हारा भटकाव तुम्हे अभी और कहाँ कहाँ ले जाएगा ये मैं नहीं जानता .. हाँ तुम्हे और तुम्हारे उद्देश्य को परखने में हमने भूल की .. स्वामी अमृतानंद ने भूल की .. पर यही विधि का लेखा था ..पर अब तुम जाओ .. अपना रास्ता तलाश करो .. "
उन्होंने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया .. वीरेन उनके पैरों पर झुका .."भगवान् तुम्हें शांति और सदबुद्धि दें" .
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मनाली ... 2 साल बाद
"सर, मिस्टर बैनर्जी आज आ नहीं पाए हैं इसलिए उनकी जगह उनके असिस्टें
ट वीरेन सिंह आपको आईटी सेण्टर के प्लान की प्रेजेंटेशन देंगे।"
वीरेन अब घर लौट आया है ...ज़िन्दगी अब एक नए रास्ते पर चल रही है, एक नई पहचान, एक नए उद्देश्य और एक नए सपने के साथ ... मंजिल अभी भी अनजानी है, दूर है पर अब मन आज़ाद पंछी है .. जिसके मज़बूत पंखों की उड़ान अभी बस शुरू ही हुई है।
13 comments:
सुन्दर रचना,
बधाई
Thank u Rajneesh ji
बेहतरीन रचना।
सादर
जिस राह पर मन दृढ हो , वही सही है !
आपको पहली बार पढ़ा बढ़िया लगा ...आप भी पधारो पता है http://pankajkrsah.blogspot.com आपका स्वागत है
Thank u Yashwanti ji.
Thank u Vani
loved it..beautifully penned down :)
Thank u .. would like to know your name..
नाटकीय शुरुआत जो कथा में पाठक को एक पात्र बना लेती है। पहला पैरा कहानी के मुख्य पात्र को introduce करता है फिर नाटकीयता को, वातावरण के अलावा हीरो के सवाल और घनीभूत कर देते हैं। और आधुनिक मानव के नव शाश्वत सवाल, कहानी की पीठिका के तौर पर उभर आते हैं। यह जानते हुए भी कि, कहानी लम्बी होगी, पढने का मन हो जाता है। लेखिका पहले मोर्चे पर सफल है।
कहानी discription देते देते लम्बी होती जाती है। लेखिका इस समाज के कलेक्टिव अनुभवों को शब्दों से परे कुछ भी पाठक के इमेजिनेशन के लिए छोड़ना नहीं चाहती या छोड़ पाती नहीं, कुछ कुछ उपन्यासों की तरह। लेकिन पुनः विवरणों में भी कहानी भावनाओं की उथल पुथल से चौंकाती भी रहती है। कहानी के कथ्य मोड़ और भाषा की चमकती सहजता बांधे रहती है। पाठक, पार्ट दर पार्ट कहानी पढता जाता है। आज के दौर में लम्बी कहानी लिखना रिस्की बिज़नेस है। 'भावना' को कहानी कहने की कला पता है।
कहानी अंत में भारतीय कथा आदर्श को ही महत्व देती है। काश जीवन भी ऐसा होता।
अच्छा लिखा है। भावना, लिखते रहिये।
Mishra ji ... aapne toh mujhe speechless kar diya .. kahaani kahna aata hai ya nahin ye toh nahin jaanati par kahaani sunaana zarur aata hai ..
:) :) :)
बेहतरीन लिखा है, कहानी बहुत ही रोचक है, कहानी में दोनों पक्ष, विरेन का जीवन और आश्रम का वातावरण को सहजता से दर्शाया है | आपकी सोच, अनुभव और विचारशीलता परिलक्षित हो रही है| अंतिम भाग के बारे में शिकायत है, जैसे लगता है कि इसे जबरजस्ती ख़त्म किया गया है |
बहरहाल, ढेर सारी शुभकामनाएं...
Thank u Manish .. aap hi sochiye agar 4th part mein bhi the end naa hota toh 5th part ko koi padhta bhi nahin :) shesh aapki taareef k liye bahut bahut dhanywaad :)
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