पर अब जो आदेश आ गया है तो जाना ही है ... आखिर यही तो मूल आधार है इस पंथ का, उनके संगठन की मजबूती का ... आदेश की पालना हर हाल में, बिलकुल फौजी अनुशासन ..
अब वीरेन को भेजा गया रायगढ़, उड़ीसा का एक शहर .. इस जगह का कभी नाम भी उसने नहीं सुना था पर अब वहाँ आश्रम है और आध्यात्म की रौशनी को इन धुर आदिवासी इलाकों तक ले जाना ही है ... शुरू में सामंजस्य बिठाने में दिक्कत आई .. भाषा और उसका बोलने का लहजा बिलकुल अजनबी, फिर यहाँ आकर तो ऐसा लगा कि सचमुच भारत के किसी दूरस्थ कोने में आ गए हैं .. जो ना पूरी तरह शहर है और ना गाँव .. काफी पुराना पर अब नया बनने का प्रयास करता हुआ .. अपने पिछले अनुभव से वीरेन ने काफी कुछ सीख लिया था .. उसे पता था कि अलग अलग लोग उसे देखकर, उसके तौर तरीके देखकर कैसी प्रतिक्रियाएं देंगे। और इस बार वो रमण भाई जैसे लोगों के लिए भी मानसिक रूप से तैयार ही है।
आते ही पहला काम उसने सेवा समिति के सदस्यों से मिलने का किया, मालूम पड़ा कि यहाँ समिति उतनी सक्रिय और मज़बूत नहीं, ज़रूरत मुताबिक़ कुछ लोगों को बुला लिया जाता है काम करवाने या हाथ बंटाने के लिए और उनमे भी जो आ पाएं। ये स्थिति वीरेन को मनमाफिक लगी , न किसी का बेवजह दखल और ना कोई नियंत्रण। चटपट उसने अपनी तरफ से सेवा समिति बना ली ..जिसमे रोज़ आने वाले कुछ लड़के शामिल थे और कुछेक ऐसे उम्रदराज लोगों को रखा गया जो सक्रियता से काम कर सकें। शुरुआत बढ़िया हुई, रोज़ के कामों के लिए अलग अलग लोगों को नियत कर दिया गया कि कौन क्या सेवा संभालेगा .. पंथ के कुछ पहले के महात्माओं की पुण्यतिथि के लंगर और कुछ त्योहारों के प्रीतिभोज को सुव्यवस्थित तरीके से संभाला गया .. ऐसा लगा कि उस छोटे से आश्रम में वीरेन ने जान फूंक दी है .. लड़कों का उत्साह बढ़ा और उनका आश्रम आना भी .. बड़े बुजुर्गों को और कुछ नहीं तो छोटी उम्र के इस नए साधु का सबको साथ लेकर चलना ही अच्छा लगा .. औरतें तो खैर उसकी कम उम्र देख के ही अगाध श्रद्धा से नतमस्तक हो लेतीं। यहाँ का माहौल गुजरात से बेहतर है, ऐसा वीरेन को .. ओह नहीं, राम को लगने लगा था ..
"सब राम दादा की मेहरबानी है जो इन लडको को इतना चढ़ा रखा है .. अब कौन कहे .."
"अभी चन्द्रदर्शन वाले दिन जो प्रीतिभोज हुआ था उसमे और उसके पहले जो तीन दिन का विशेष सत्संग कार्यक्रम था उसकी तैयारियों में ही कौनसी हमारी सलाह ली या बुलाया ... ये लड़के ही सब कर लेंगे".
"मेरी समझ में नहीं आता कि ये सोमेश्वर अंकल हर काम में दखल क्यों देते हैं .. हर बात में इनकी सलाह लेना ज़रूरी है क्या ? हर बात में टोकते रहेंगे .."
"अरे इनको अब कोई काम तो है नहीं, घर पर फ्री बैठे रहते हैं .. और इनके अलावा बाकी लोग, ये किशनदास, रामसुख जी और इनका पूरा ग्रुप .."
दो महीने बीते और आश्रम अच्छा खासा जोर आज़माइश का मंच बन गया .. लड़कों को बुजुर्गों का कहा सुना पसंद नहीं और बुजुर्गों को अपना थोडा सा भी महत्व कम होना पसंद नहीं ..
खैर गलती थोड़ी वीरेन की भी है ही .. उसे अपनी उम्र के लडको का साथ ज्यादा सुविधाजनक लगता है, उनको समझाना या किसी काम के लिए कहना बजाय अपने से कहीं बड़े उम्रदराज लोगों को कुछ समझाना ... पर अब खींचातानी रोज़ का किस्सा बन गई , आरती का थाल उठाने से लेकर साफ़ सफाई तक के छोटे मोटे कामों में भी बहस होने लगी ... सही गलत, ठीक से नहीं करते, आश्रम के गेट पर खड़े ये लड़के क्या करते हैं, लोगों को परेशान कर रखा है वगैरह वगैरह .. अब तो हाल यहाँ तक पहुँच गया कि कुछ प्रौढ़ लोगों ने तो नियमित आना भी छोड़ दिया ..
साल भर तक वीरेन मदारी की तरह रस्सी पर संतुलन साधने की कोशिश करता रहा उसकी समझ में नहीं आता था कि आखिर इतनी छोटी मोटी चीज़ों के लिए लोग इतना क्यों झगड़ रहे हैं।। क्या फर्क पड़ जाएगा अगर आरती का थाल इसने या उसने उठाया या वो नहीं उठा सका .. या कौनसा आसमान टूट पड़ा अगर रसोई में प्रसाद की ज़िम्मेदारी किसी को मिली या किसी को ना मिली। पर इन सब फालतू मसलों का हल कभी नहीं निकला ... आखिर उसने खुद ही स्वामी प्रकाशानंद से कहकर रायगढ़ से पिंड छुड़ाया ..
अबकी बार उसे छः छः महीने के लिए दो तीन आश्रमों में भेजा गया .. वहाँ उन शहरों में आश्रम की नई इमारतों का निर्माण चल रहा था या फिर पुरानी वाली का रेनोवेशन .. और वीरेन को इसमें super-wiser की ज़िम्मेदारी संभालनी थी .. स्वामी प्रकाशानंद का ख्याल था कि वीरेन की इंजीनियरिंग की डिग्री और आर्किटेक्चर में उसकी दिलचस्पी इस काम के लिए बिलकुल उपयुक्त ही है और उनको लग भी रहा था कि वीरेन अभी तक खुद को नए माहौल और एक पूरे आश्रम को संभालने की गुरु गंभीर ज़िम्मेदारी के लिए तैयार कर नहीं पाया सो उसके लिए इस तरह के काम फिलहाल के लिए ठीक रहेंगे। उम्मीद के मुताबिक़ वीरेन ने काम संभाला भी ..और सच में उसे लगा कि ये काम उस अध्यात्म की रौशनी फैलाने वाला या पथ प्रदर्शक की भूमिका वाले काम से तो बेहतर है। स्वामी जी ने उसे बताया भी था कि इस तरह के निर्माण और रेनोवेशन के काम तो हमेशा किसी ना किसी शहर में चलते ही रहते हैं .. तो वीरेन को इसमें अपने लिए अच्छी खासी गुंजाइश दिखी .. पर अभी इस ख्याली पुलाव का चूल्हा जलना बाकी था ..
रेनोवेशन का काम पूरा हुआ और नई इमारत के उदघाटन के लिए आश्रम की एक वरिष्ठ साध्वी को बुलाया जाना तय हुआ। उनको दो दिन रहना था और इस पूरे आयोजन की व्यवस्था के लिए कुछ लोगों को आश्रम के मुख्यालय से भेजा गया। वे आये और बाकी सारे काम खुद संभाले, वीरेन को एक अलग ही ज़िम्मेदारी दे दी। कुछ रसीद बुक दी गई कि इनके ज़रिये श्रद्धालु लोगों से चंदा लिया जाए और फिर हर रसीद बुक का नकद सहित हिसाब वहाँ से आये एक साधु को देना होगा। वीरेन ने सेवा समिति के कुछ लोगों को, जिनके लिए लगता था कि ऐसा "वसूली" का काम वे कर सकते हैं, और जो पहले भी ये काम कर चुके थे, उनको रसीद बुक थमा दी। काम शुरू भी हो गया, चंदे की रकम के बारे में काफी उत्साहजनक खबरें भी मिलने लगीं।
आखिर उदघाटन का आयोजन हुआ और पूरी भव्यता से हुआ .. दो दिन में जाने कितने सौ या हज़ार लोग आये, कितनी रसीदें बनी .. वीरेन को हिसाब करना ही मुश्किल हो गया। आयोजन ख़त्म होने के बाद उसने उन रसीदों का हिसाब सेवा समिति वालों से माँगा , लेकिन उल्टा जवाब आया कि इसका हिसाब तो सीधे ही स्वामी निरंजन को दे दिया गया .. पर वीरेन का दिमाग संतुष्ट नहीं हुआ .. "निरंजन तो समारोह के अगले दिन दोपहर तक लौट गया फिर इन लोगों ने हिसाब कब दिया .. इतना कैश कैसे और कब ले जाया गया" . निरंजन को फोन करके पूछा तो जवाब आया कि ..." अरे उन सबको कह दिया है कि वे लोग इस पैसे को सीधे आश्रम के बैंक अकाउंट में जमा करवा दें .. अब तुम सोचो राम, वक़्त कहाँ था इतनी सब रसीदों का हिसाब किताब देखने का ..."
"पर मुझसे कहते तो मैं ही देख लेता "
"अरे रहने दो, क्यों बेकार अपना दिमाग खपाते हो, ये सब लोग हर बार ही ऐसे समारोहों में चन्दा इकट्ठा करते हैं, अपने आप करा देंगे ज़मा।"
वीरेन अब भी निश्चिन्त नहीं हुआ ..पर सावधानी बरतते हुए उसने समिति के एक सदस्य से उन रसीदों और चन्दे की रकम के बारे में पूछा और पता चला ... "इन रसीदों का कभी कोई पक्का हिसाब नहीं लिया जाता, चंदा इकट्ठा करने वाले एक मोटा मोटा आंकड़ा बता देते हैं निरंजन जी को या और किसी को इसके आगे कोई ज्यादा पूछताछ नहीं होती ... कभी पैसा इकट्ठा करने वाला बैंक में जमा करा देता है तो कभी यहीं आश्रम की पेटी में डाल देते हैं तो कभी ..." आगे का वाक्य जान बूझ कर अधूरा छोड़ दिया गया। फिर कहने वाला कुछ संभला और अपनी बात पूरी की ... "वैसे जो लोग चन्दा इकट्ठा करते हैं वो सब स्वामी निरंजन के अच्छे परिचित है .. सब जिम्मेदार लोग ही हैं।"
रेनोवेशन का काम पूरा हुआ और नई इमारत के उदघाटन के लिए आश्रम की एक वरिष्ठ साध्वी को बुलाया जाना तय हुआ। उनको दो दिन रहना था और इस पूरे आयोजन की व्यवस्था के लिए कुछ लोगों को आश्रम के मुख्यालय से भेजा गया। वे आये और बाकी सारे काम खुद संभाले, वीरेन को एक अलग ही ज़िम्मेदारी दे दी। कुछ रसीद बुक दी गई कि इनके ज़रिये श्रद्धालु लोगों से चंदा लिया जाए और फिर हर रसीद बुक का नकद सहित हिसाब वहाँ से आये एक साधु को देना होगा। वीरेन ने सेवा समिति के कुछ लोगों को, जिनके लिए लगता था कि ऐसा "वसूली" का काम वे कर सकते हैं, और जो पहले भी ये काम कर चुके थे, उनको रसीद बुक थमा दी। काम शुरू भी हो गया, चंदे की रकम के बारे में काफी उत्साहजनक खबरें भी मिलने लगीं।
आखिर उदघाटन का आयोजन हुआ और पूरी भव्यता से हुआ .. दो दिन में जाने कितने सौ या हज़ार लोग आये, कितनी रसीदें बनी .. वीरेन को हिसाब करना ही मुश्किल हो गया। आयोजन ख़त्म होने के बाद उसने उन रसीदों का हिसाब सेवा समिति वालों से माँगा , लेकिन उल्टा जवाब आया कि इसका हिसाब तो सीधे ही स्वामी निरंजन को दे दिया गया .. पर वीरेन का दिमाग संतुष्ट नहीं हुआ .. "निरंजन तो समारोह के अगले दिन दोपहर तक लौट गया फिर इन लोगों ने हिसाब कब दिया .. इतना कैश कैसे और कब ले जाया गया" . निरंजन को फोन करके पूछा तो जवाब आया कि ..." अरे उन सबको कह दिया है कि वे लोग इस पैसे को सीधे आश्रम के बैंक अकाउंट में जमा करवा दें .. अब तुम सोचो राम, वक़्त कहाँ था इतनी सब रसीदों का हिसाब किताब देखने का ..."
"पर मुझसे कहते तो मैं ही देख लेता "
"अरे रहने दो, क्यों बेकार अपना दिमाग खपाते हो, ये सब लोग हर बार ही ऐसे समारोहों में चन्दा इकट्ठा करते हैं, अपने आप करा देंगे ज़मा।"
वीरेन अब भी निश्चिन्त नहीं हुआ ..पर सावधानी बरतते हुए उसने समिति के एक सदस्य से उन रसीदों और चन्दे की रकम के बारे में पूछा और पता चला ... "इन रसीदों का कभी कोई पक्का हिसाब नहीं लिया जाता, चंदा इकट्ठा करने वाले एक मोटा मोटा आंकड़ा बता देते हैं निरंजन जी को या और किसी को इसके आगे कोई ज्यादा पूछताछ नहीं होती ... कभी पैसा इकट्ठा करने वाला बैंक में जमा करा देता है तो कभी यहीं आश्रम की पेटी में डाल देते हैं तो कभी ..." आगे का वाक्य जान बूझ कर अधूरा छोड़ दिया गया। फिर कहने वाला कुछ संभला और अपनी बात पूरी की ... "वैसे जो लोग चन्दा इकट्ठा करते हैं वो सब स्वामी निरंजन के अच्छे परिचित है .. सब जिम्मेदार लोग ही हैं।"
वीरेन को कुछ समझ आया और जो कुछ ना समझ आया तो उस पर विश्वास भी न आया कि भगवान् के दरवाजे पर तो कोई ऐसा धोखाधड़ी या कपट नहीं कर सकता।
फिर उसे याद आया, जगदलपुर के दिनों की एक घटना, जब गुरुपूनम की वार्षिक सेवा ली जा रही थी और उसे निर्देश मिले थे कि जो लोग लम्बे समय से काफी कम अंशदान दे रहे हैं, उन्हें उनका अंश बढाने के लिए "प्रेरित" किया जाए और "सेवा" की राशि को बढाने के प्रयास किये जाएँ। और उसी "प्रेरणा" वाले काम के दौरान एक दिन सत्संग ख़त्म होने के बाद एक उम्रदराज आदमी जिसकी उम्र शायद 60 पार रही होगी ... रुक गया .. कुछ कहना था उसे ..
"राम दादा, आपसे एक बात कहनी थी, थोडा समझने की कोशिश करिए, मैं रिटायर हूँ, पेंशन मिलती है, मेरा और मेरी बीवी की दवाइयों का खर्चा ही भारी पड़ता है .." वीरेन कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि मामला क्या है ..." मैं ये बढ़ी हुई सेवा का पैसा नहीं दे सकूंगा, इसे कुछ कम कर दें .. वैसे भी मैं और मेरी बीवी अलग अलग चंदा और उसके अलावा भी कई तरह की सेवा तो देते ही हैं".
वीरेन उस झुर्रियों भरे, उम्र के असर से थके और बोझिल चेहरे को देखता रहा .. उसकी आवाज़ में झिझक, मजबूरी और अपनी असमर्थता को छुपा ना पाने की लाचारी .. सब कुछ साफ़ सुनाई पड़ता था .. वीरेन ने उसकी बात मन ली और आगे से उसे किस तरह की सेवा के लिए ज्यादा कुछ कहना या किसी तरह की बढ़ोतरी के लिए "प्रेरित" करना का इरादा भी छोड़ दिया। और वो अकेला ही क्या ऐसे और भी कई परिवार थे जिनको प्रेरित करना वीरेन को अपने बूते के बाहर लगा ..
कुछ और महीने ऐसे ही इस उस आश्रम में भटकते हुए गुज़रे .. फिर दिवाली के त्यौहार पर उसे आश्रम मुख्यालय पर बुलाया गया .. अकेला वीरेन ही नहीं, उसके कई और संगी साथी, नए-पुराने , वरिष्ठ-कनिष्ठ, अनेक साधु -महात्मा भी वहाँ आये, ये एक साधारण सा रिवाज था कि आश्रम के हर एक साधू को (औरत या मर्द) सभी को साल में कम से एक बार तो यहाँ आना ही होता था .
यहाँ वीरेन को ऐसा लगता है जैसे भटकता हुआ मन किसी ठिकाने पहुँच रहा हो .. वहाँ सब अपने जैसे ही लगते हैं (या शायद सब एक दुसरे से अलग हैं)
एक दोपहर सब लोग थोड़ी फुर्सत में थे। हर कोई अपने अलग अनुभव बता रहा था .. पर अचानक एक विषय छिड़ गया जिसमे सबकी एक सी दिलचस्पी नज़र आई .. मुद्दा था .. आश्रमों का मासिक और वार्षिक revenue ..और उसे बढाने या नई ऊँचाइयों तक ले जाने में उन सबका योगदान .. निश्चित रूप से कई लोगों के पास बताने के लिए काफो अच्छे आंकड़े थे .. लेकिन वीरेन को इसमें कुछ भी समझ नहीं आया, वो उठा और सीधा गया स्वामी प्रकाशानंद से मिलने। जिन्होंने अपने व्यस्त रूटीन के बावजूद उसे बुला लिया।
"हम क्या बनिए हैं या गल्ले के व्यापारी ?"
निश्चित रूप से ऐसे किसी सवाल या मुद्दे की अपेक्षा स्वामी जी को नहीं थी।
फिर उसे याद आया, जगदलपुर के दिनों की एक घटना, जब गुरुपूनम की वार्षिक सेवा ली जा रही थी और उसे निर्देश मिले थे कि जो लोग लम्बे समय से काफी कम अंशदान दे रहे हैं, उन्हें उनका अंश बढाने के लिए "प्रेरित" किया जाए और "सेवा" की राशि को बढाने के प्रयास किये जाएँ। और उसी "प्रेरणा" वाले काम के दौरान एक दिन सत्संग ख़त्म होने के बाद एक उम्रदराज आदमी जिसकी उम्र शायद 60 पार रही होगी ... रुक गया .. कुछ कहना था उसे ..
"राम दादा, आपसे एक बात कहनी थी, थोडा समझने की कोशिश करिए, मैं रिटायर हूँ, पेंशन मिलती है, मेरा और मेरी बीवी की दवाइयों का खर्चा ही भारी पड़ता है .." वीरेन कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि मामला क्या है ..." मैं ये बढ़ी हुई सेवा का पैसा नहीं दे सकूंगा, इसे कुछ कम कर दें .. वैसे भी मैं और मेरी बीवी अलग अलग चंदा और उसके अलावा भी कई तरह की सेवा तो देते ही हैं".
वीरेन उस झुर्रियों भरे, उम्र के असर से थके और बोझिल चेहरे को देखता रहा .. उसकी आवाज़ में झिझक, मजबूरी और अपनी असमर्थता को छुपा ना पाने की लाचारी .. सब कुछ साफ़ सुनाई पड़ता था .. वीरेन ने उसकी बात मन ली और आगे से उसे किस तरह की सेवा के लिए ज्यादा कुछ कहना या किसी तरह की बढ़ोतरी के लिए "प्रेरित" करना का इरादा भी छोड़ दिया। और वो अकेला ही क्या ऐसे और भी कई परिवार थे जिनको प्रेरित करना वीरेन को अपने बूते के बाहर लगा ..
कुछ और महीने ऐसे ही इस उस आश्रम में भटकते हुए गुज़रे .. फिर दिवाली के त्यौहार पर उसे आश्रम मुख्यालय पर बुलाया गया .. अकेला वीरेन ही नहीं, उसके कई और संगी साथी, नए-पुराने , वरिष्ठ-कनिष्ठ, अनेक साधु -महात्मा भी वहाँ आये, ये एक साधारण सा रिवाज था कि आश्रम के हर एक साधू को (औरत या मर्द) सभी को साल में कम से एक बार तो यहाँ आना ही होता था .
यहाँ वीरेन को ऐसा लगता है जैसे भटकता हुआ मन किसी ठिकाने पहुँच रहा हो .. वहाँ सब अपने जैसे ही लगते हैं (या शायद सब एक दुसरे से अलग हैं)
एक दोपहर सब लोग थोड़ी फुर्सत में थे। हर कोई अपने अलग अनुभव बता रहा था .. पर अचानक एक विषय छिड़ गया जिसमे सबकी एक सी दिलचस्पी नज़र आई .. मुद्दा था .. आश्रमों का मासिक और वार्षिक revenue ..और उसे बढाने या नई ऊँचाइयों तक ले जाने में उन सबका योगदान .. निश्चित रूप से कई लोगों के पास बताने के लिए काफो अच्छे आंकड़े थे .. लेकिन वीरेन को इसमें कुछ भी समझ नहीं आया, वो उठा और सीधा गया स्वामी प्रकाशानंद से मिलने। जिन्होंने अपने व्यस्त रूटीन के बावजूद उसे बुला लिया।
"हम क्या बनिए हैं या गल्ले के व्यापारी ?"
निश्चित रूप से ऐसे किसी सवाल या मुद्दे की अपेक्षा स्वामी जी को नहीं थी।
"क्या हुआ है?"
"तो फिर ये सब क्या है, हमारा काम अध्यात्म का सन्देश आम लोगों तक ले जाना है या फिर उनसे धर्म के और पुण्य के नाम पर पैसा लेना और इसी को अपनी उपलब्धि मान कर उसका बखान करना।"
स्वामी प्रकाशानंद पहले थोड़ी देर तक वीरेन के चेहरे को देखते रहे फिर एक गहरी नज़र से शून्य में निहारते हुए बोले .." मुझे पता है कि सब चीज़ें, सब कुछ ठीक नहीं चल रहा हमारे यहाँ। कुछ गंभीर समस्याएं जड़ जमाने लगी हैं। हम अपने लोगों को सिखा समझा सकते हैं पर बाहर वालों को नहीं। अपने लोगों में भी कितने हैं जो पूरे समर्पण से शब्दश: "आसन" की आज्ञा का पालन करते हैं?"
"दरअसल राम, समस्या ये है कि इतने लम्बे चौड़े संगठन को चलाने और इसकी सार सस्म्भाल के लिए पैसा तो चाहिए और वो आता भी बहुत है पर ज़ाहिर सी बात है कि वो पैसा अपने साथ अपने सारे रंग--रूप, चाल-चलन और रास रंग लेकर आता है। पैसा देने वाले और उसे लेने वाले, हर कोई सोचता है उसके पास कुछ पॉवर है, कुछ सामर्थ्य, कुछ उपलब्धि .... लेकिन बेटा वो दोनों गलत हैं क्योंकि ये पैसा आता है आश्रम की सामर्थ्य के कारण, उसकी उपलब्धियों के कारण पर कई लोग ये मान लेते हैं कि इन सब उपलब्धियों का माध्यम और आधार उनकी उपस्थिति है। उन्होंने व्यक्ति को संगठन से और साधारण मानव को एक असाधारण परम सत्ता से ऊँचा मान लिया है ... "
शायद अभी स्वामी जी और भी कुछ समझाते पर समय नहीं था उनके पास पर एक प्रश्न का समय ज़रूर था .." राम, तुम ये बताओ कि क्या तुम अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभा पा रहे हो?" जवाब सुनने का समय नहीं था उनके पास पर वीरेन को जवाब ज़रूर चाहिए था।
क्या सोच कर आया था कि संन्यास जीवन की दशा-दिशा सब कुछ बदल डालेगा .. और शायद ये भी सोचा था कि खुद वीरेन भी इस दुनिया को कुछ बदल देगा या कोई ऐसी उपलब्धि हासिल कर दिखाएगा ... " larger than Life"... जैसी। पर ऐसा तो कहीं कुछ होता नहीं दिखाई देता। पर फिर मन को यही सोच कर तसल्ली देने की कोशिश की कि अभी यहाँ आये वक़्त ही कितना हुआ है और फिर वो कुछ हासिल करने नहीं "सब कुछ" को छोड़ देने के लिए .. हर ख्वाहिश, हर लालसा को परे हटा कर, हर कामना को पीछे छोड़ कहीं आगे बढ़ने के लिए यहाँ आया है .. कुछ पाने के लिए नहीं, सब कुछ को लुटा देने के लिए ... शायद खुद को भी मिटा कर एक नया जीवन लेने के लिए ..
और भी बहुत सारी ऊँची बातें वीरेन के मन में चलती रहीं।
समारोह समाप्त हुआ और अबकी बार वीरेन को फिर नई जगह भेज दिया गया। यहाँ भी कुछ रेनोवेशन का काम था और आश्रम भी संभालना था। वैसे ये तो नहीं कह सकते की सभी जगहों पर एक सा माहौल या एक जैसे ही लोग है .. सब जगह एक जैसी ही उठा पटक मची हो .. वैसा कुछ नहीं लेकिन फिर भी एक बात साफ़ दिखती है कि अक्सर ये आश्रम या इस तरह के संगठनों की स्थानीय शाखाएं किसी एक या कुछ लोगों के लिए अपना एक छोटा मोटा अधिकार क्षेत्र बनाने का और उसके ज़रिये अपने को सामाजिक दायरे में ऊँचा उठाने का साधन बन जाते हैं। लोग मान के चलते हैं कि उनके बिना या उनके कुछ किये बिना इस संस्था संगठन का काम चल नहीं सकता और इसलिए हर छोटे बड़े, मामूली, गैर मामूली काम पर अपनी पैनी नज़र और कठोर पकड़ रखना उनकी आदत बन चुका है ..वीरेन ने अब इस पर ध्यान देना और किसी तरह का "सुधार" या "परिवर्तन" का ख्याल भी दिमाग से निकाल दिया।
"तो फिर ये सब क्या है, हमारा काम अध्यात्म का सन्देश आम लोगों तक ले जाना है या फिर उनसे धर्म के और पुण्य के नाम पर पैसा लेना और इसी को अपनी उपलब्धि मान कर उसका बखान करना।"
स्वामी प्रकाशानंद पहले थोड़ी देर तक वीरेन के चेहरे को देखते रहे फिर एक गहरी नज़र से शून्य में निहारते हुए बोले .." मुझे पता है कि सब चीज़ें, सब कुछ ठीक नहीं चल रहा हमारे यहाँ। कुछ गंभीर समस्याएं जड़ जमाने लगी हैं। हम अपने लोगों को सिखा समझा सकते हैं पर बाहर वालों को नहीं। अपने लोगों में भी कितने हैं जो पूरे समर्पण से शब्दश: "आसन" की आज्ञा का पालन करते हैं?"
"दरअसल राम, समस्या ये है कि इतने लम्बे चौड़े संगठन को चलाने और इसकी सार सस्म्भाल के लिए पैसा तो चाहिए और वो आता भी बहुत है पर ज़ाहिर सी बात है कि वो पैसा अपने साथ अपने सारे रंग--रूप, चाल-चलन और रास रंग लेकर आता है। पैसा देने वाले और उसे लेने वाले, हर कोई सोचता है उसके पास कुछ पॉवर है, कुछ सामर्थ्य, कुछ उपलब्धि .... लेकिन बेटा वो दोनों गलत हैं क्योंकि ये पैसा आता है आश्रम की सामर्थ्य के कारण, उसकी उपलब्धियों के कारण पर कई लोग ये मान लेते हैं कि इन सब उपलब्धियों का माध्यम और आधार उनकी उपस्थिति है। उन्होंने व्यक्ति को संगठन से और साधारण मानव को एक असाधारण परम सत्ता से ऊँचा मान लिया है ... "
शायद अभी स्वामी जी और भी कुछ समझाते पर समय नहीं था उनके पास पर एक प्रश्न का समय ज़रूर था .." राम, तुम ये बताओ कि क्या तुम अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभा पा रहे हो?" जवाब सुनने का समय नहीं था उनके पास पर वीरेन को जवाब ज़रूर चाहिए था।
क्या सोच कर आया था कि संन्यास जीवन की दशा-दिशा सब कुछ बदल डालेगा .. और शायद ये भी सोचा था कि खुद वीरेन भी इस दुनिया को कुछ बदल देगा या कोई ऐसी उपलब्धि हासिल कर दिखाएगा ... " larger than Life"... जैसी। पर ऐसा तो कहीं कुछ होता नहीं दिखाई देता। पर फिर मन को यही सोच कर तसल्ली देने की कोशिश की कि अभी यहाँ आये वक़्त ही कितना हुआ है और फिर वो कुछ हासिल करने नहीं "सब कुछ" को छोड़ देने के लिए .. हर ख्वाहिश, हर लालसा को परे हटा कर, हर कामना को पीछे छोड़ कहीं आगे बढ़ने के लिए यहाँ आया है .. कुछ पाने के लिए नहीं, सब कुछ को लुटा देने के लिए ... शायद खुद को भी मिटा कर एक नया जीवन लेने के लिए ..
और भी बहुत सारी ऊँची बातें वीरेन के मन में चलती रहीं।
समारोह समाप्त हुआ और अबकी बार वीरेन को फिर नई जगह भेज दिया गया। यहाँ भी कुछ रेनोवेशन का काम था और आश्रम भी संभालना था। वैसे ये तो नहीं कह सकते की सभी जगहों पर एक सा माहौल या एक जैसे ही लोग है .. सब जगह एक जैसी ही उठा पटक मची हो .. वैसा कुछ नहीं लेकिन फिर भी एक बात साफ़ दिखती है कि अक्सर ये आश्रम या इस तरह के संगठनों की स्थानीय शाखाएं किसी एक या कुछ लोगों के लिए अपना एक छोटा मोटा अधिकार क्षेत्र बनाने का और उसके ज़रिये अपने को सामाजिक दायरे में ऊँचा उठाने का साधन बन जाते हैं। लोग मान के चलते हैं कि उनके बिना या उनके कुछ किये बिना इस संस्था संगठन का काम चल नहीं सकता और इसलिए हर छोटे बड़े, मामूली, गैर मामूली काम पर अपनी पैनी नज़र और कठोर पकड़ रखना उनकी आदत बन चुका है ..वीरेन ने अब इस पर ध्यान देना और किसी तरह का "सुधार" या "परिवर्तन" का ख्याल भी दिमाग से निकाल दिया।
इस नए आश्रम में आये भी कुछ महीने हो गए .. एकदिन किसी के घर जाना हुआ .. परिवार के एक सदस्य को विशेष रूप से बुलाकर वीरेन से मिलवाया गया .. एक तेईस या चौबीस साल का लड़का ... लड़के के पिता चाहते थे कि वीरेन उनके बेटे को आश्रम आने और इश्वर में आस्था जगाने के लिए कुछ समझाए, कुछ उपदेश ही दे .. वीरेन ने थोड़ी बहुत कोशिश की भी .. कुछ रटे रटाये से शब्द कहे लेकिन असर हुआ ऐसा लगा नहीं .. लड़के ने आँखें नीचे कर के सुन लिया, सर हिला दिया .. जैसे इंतज़ार कर रहा हो कि कब ये भाषण ख़त्म हो और वो पिंड छुड़ा के भागे। वीरेन ने भी इशारा समझा और अपनी बात को इतना कह कर समेटा कि कभी वक़्त निकाल कर आश्रम आया करो और कुछ नहीं तो मुझसे मिलने ही आ जाओ।
कुछ दिन बाद वही लड़का आश्रम में दिखा, किसी के साथ आया था .. वीरेन को लगा "भाषण असर कर गया शायद". उसने लड़के को अपने कमरे में बुलाया .. सोचा थोडा और समझाए, कुछ ज्ञान की रौशनी उस तक पहुंचा सके। थोड़ी देर तक तो जैसे तैसे वो सुनता रहा .. फिर उसने थोड़ी तीखी आवाज़ में सवाल किया ..." आपको तो बहुत आस्था है ना इन तस्वीरों और इस भगवान् में ..आपकी हर ख्वाहिश इस दरवाजे पर पूरी हुई होगी ना ..पर मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं है .. ना आस्था ना श्रद्धा .. आपके इस भगवान् ने आज तक कभी मेरी एक बात भी नहीं सुनी .. मेरी तो आवाज़ भी कभी इसको सुनाई नहीं देती होगी ... वक़्त ही कहाँ है आपके इस तस्वीरों वाले भगवान् को हम आम लोगों की बात सुनने का .. कभी एयर कंडिशन्ड हॉल से बाहर निकल कर देखा है ???" लड़का शायद गुस्से में था ..आगे और भी बोलता पर वीरेन ने रोका, समझाने के मूड से कुछ कहा भी .. पर लड़का सुनने के मूड में नही था ..बोलता गया ..
"संन्यास लेकर यहाँ आश्रम में बैठकर उपदेश देना आसान है, आम लोगों की तरह् ज़िन्दगी जीना मुश्किल है, ना आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी है सिवाय इस आश्रम के और ना किसी को आपसे कोई उम्मीदें या अपेक्षाएं हैं .. ना आपको आने वाले कल की फिकर ना आज के दिन की चिंता .. बस यहाँ बैठ कर लोगों से कहना कि भगवान् के लिए भी वक़्त निकालो .. क्या हो जाएगा उस से .. ज़िन्दगी की सब समस्याएं सुलझ जायेंगी, कम हो जायेंगी ? कोई समाधान निकलेगा ? कुछ नहीं होता ..कहते रहिये आप .."
लड़का अभी और चिल्लाता या बोलता पर कुछ लोगों ने आकर उसे शांत करवाया और जिसके साथ आया वो वीरेन से माफ़ी मांगते हुए उसे वहाँ से ले गया।
इतने सब के बीच वीरेन चुपचाप खड़ा रहा .. एक तूफ़ान फिर से आकर गुज़र गया और किसी को खबर भी ना हुई। उसके बाद किसी काम में मन नहीं लगा .. रात हुई, वीरेन आकर प्रार्थना हॉल में बैठ गया, देखता रहा उन तस्वीरों को, महंगे फ्रेम में मढ़ी हुई, बड़ी-बड़ी प्रभावशाली तसवीरें .. जिनके बारे में वो लड़का कहे जा रहा था .. पर याद नहीं कि उसके exact लफ्ज़ क्या थे। खुद से सवाल करने लगा वीरेन .. एक बार फिर .. आज चार साल होने को आये हैं .. नया जीवन अब पुराना हो चला है .. एक नज़र पीछे मुड के देखता है तो सबकुछ एक फिल्म की तरह आँखों के आगे चलने लगता है ...
To Be Continued ...
कुछ दिन बाद वही लड़का आश्रम में दिखा, किसी के साथ आया था .. वीरेन को लगा "भाषण असर कर गया शायद". उसने लड़के को अपने कमरे में बुलाया .. सोचा थोडा और समझाए, कुछ ज्ञान की रौशनी उस तक पहुंचा सके। थोड़ी देर तक तो जैसे तैसे वो सुनता रहा .. फिर उसने थोड़ी तीखी आवाज़ में सवाल किया ..." आपको तो बहुत आस्था है ना इन तस्वीरों और इस भगवान् में ..आपकी हर ख्वाहिश इस दरवाजे पर पूरी हुई होगी ना ..पर मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं है .. ना आस्था ना श्रद्धा .. आपके इस भगवान् ने आज तक कभी मेरी एक बात भी नहीं सुनी .. मेरी तो आवाज़ भी कभी इसको सुनाई नहीं देती होगी ... वक़्त ही कहाँ है आपके इस तस्वीरों वाले भगवान् को हम आम लोगों की बात सुनने का .. कभी एयर कंडिशन्ड हॉल से बाहर निकल कर देखा है ???" लड़का शायद गुस्से में था ..आगे और भी बोलता पर वीरेन ने रोका, समझाने के मूड से कुछ कहा भी .. पर लड़का सुनने के मूड में नही था ..बोलता गया ..
"संन्यास लेकर यहाँ आश्रम में बैठकर उपदेश देना आसान है, आम लोगों की तरह् ज़िन्दगी जीना मुश्किल है, ना आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी है सिवाय इस आश्रम के और ना किसी को आपसे कोई उम्मीदें या अपेक्षाएं हैं .. ना आपको आने वाले कल की फिकर ना आज के दिन की चिंता .. बस यहाँ बैठ कर लोगों से कहना कि भगवान् के लिए भी वक़्त निकालो .. क्या हो जाएगा उस से .. ज़िन्दगी की सब समस्याएं सुलझ जायेंगी, कम हो जायेंगी ? कोई समाधान निकलेगा ? कुछ नहीं होता ..कहते रहिये आप .."
लड़का अभी और चिल्लाता या बोलता पर कुछ लोगों ने आकर उसे शांत करवाया और जिसके साथ आया वो वीरेन से माफ़ी मांगते हुए उसे वहाँ से ले गया।
इतने सब के बीच वीरेन चुपचाप खड़ा रहा .. एक तूफ़ान फिर से आकर गुज़र गया और किसी को खबर भी ना हुई। उसके बाद किसी काम में मन नहीं लगा .. रात हुई, वीरेन आकर प्रार्थना हॉल में बैठ गया, देखता रहा उन तस्वीरों को, महंगे फ्रेम में मढ़ी हुई, बड़ी-बड़ी प्रभावशाली तसवीरें .. जिनके बारे में वो लड़का कहे जा रहा था .. पर याद नहीं कि उसके exact लफ्ज़ क्या थे। खुद से सवाल करने लगा वीरेन .. एक बार फिर .. आज चार साल होने को आये हैं .. नया जीवन अब पुराना हो चला है .. एक नज़र पीछे मुड के देखता है तो सबकुछ एक फिल्म की तरह आँखों के आगे चलने लगता है ...
To Be Continued ...
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