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Sunday, 2 December 2012

ज़िन्दगी आधी हकीकत आधा फ़साना : अंतिम भाग



घर, मम्मी पापा,  ऋचा,  दोस्त ....और फिर .. 

और फिर .. वही चौराहा ..वे भिखारी .. और फिर यहाँ  ये आश्रम की दुनिया .. 

अपना मन पढने की कोशिश कर रहा है वीरेन, क्यों आया था यहाँ .. क्या हासिल करने .. क्या साबित करने ? किसको दिखाने बताने या साबित करने के लिए ?  क्या सच में सिर्फ सत्य की तलाश या संसार से वैराग्य या फिर  उस के बहाने अपनी ही  कोई  कमी या दुःख जिसे ढकने या छिपाने के लिए वो यहाँ चला आया ..याद आया वीरेन को, किस तरह अपने मन की कुंठा, हताशा, डर और उलझनों को दूर हटाने के लिए, उनसे जीतने के लिए वो आश्रम जाकर धर्म और भगवान् के साए में छिपने की कोशिश करता था।  

सबसे दूर जाने की कोशिश में "सब कुछ" के कितना पास आ गया। 


 उसे महसूस हुआ कि  दुनिया को मोक्ष या  अध्यात्म का रास्ता दिखाना उसकी ख्वाहिश नहीं थी .. लोगों को ज्ञान देना भी उसका शौक नहीं था .. ना उसे कोई साधु  या महात्मा या संत जैसा कुछ बनना था, जिसने अपने लिए वैराग्य और ईश्वर  की आराधना, पंथ का प्रचार .. इस सब को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य मान लिया है।  लोगों के आंसू पोंछने या उनके दुखों को दूर कर सके ऐसी उसके पास कोई जादू की छड़ी भी नहीं है और ना वो खुद को उसके काबिल समझता है।  तो फिर क्या करने आया था यहाँ .. "दुनिया से भागने .. अपना मुंह छुपाने" .. स्वामी अमृतानंद के शब्द कानों में गूंजने लगे .. "हमारा आश्रम दुनिया से भागने वालों के लिए सर छुपाने की जगह नहीं है".  त्याग-तपस्या-संयम-परमार्थ .. सब अचानक कोरे शब्द बन गए।     एक बार फिर वीरेन आईने  में खुद को तलाश कर रहा है।  

अपने लिए शांति तलाश कर रहा था, मन का सुकून जो खो गया गया था .. उसे फिर से पाने के लिए .. अन्दर एक प्यास थी जो रेगिस्तान की तरह फ़ैल रही थी उसे बुझाने, शांत करने के लिए आश्रम जाता था वीरेन .. दिन  वहाँ बैठा रहता था कि जो शांति बाहर कहीं  नहीं  है वो शायद आश्रम की चार दीवारों के भीतर  और इन  तस्वीरों से छनकर आती रौशनी के ज़रिये उस तक पहुँच जाए ..

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वीरेन एक बार फिर स्वामी प्रकाशानंद के सामने खड़ा है .. वातावरण काफी शांत और थोडा बोझिल है। 

" ..तो अब क्या चाहिए ?" स्वामी प्रकाशानंद कुर्सी पर बैठे, कोहनी टिकाये, कहीं खाली दीवार को देख रहे थे या सोच रहे थे .. वीरेन को पता नहीं ..  

"इजाजत". 

"तुम हमारी मर्ज़ी से आये नहीं थे ...अपने मन से आये थे और अपने मन से जा भी रहे हो .. तुम इस जगह के लिए नहीं बने वीरेन ..यही नाम है ना तुम्हारा।"  (आज पहली बार पंथ में दीक्षित होने के बाद स्वामी जी ने उसे  "वीरेन" कह कर बुलाया था वर्ना हमेशा राम ही कहते रहे ) 

"मैं मानता हूँ कि  मैं आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और मेरे कारण आश्रम को काफी शर्मिंदगी भी झेलनी होगी" ..वाक्य अधूरा रह गया .. स्वामी प्रकाशंद ने एक हाथ उठा कर उसे रोका ...      

"नहीं वीरेन, कैसी शर्मिंदगी, हमारा पंथ और इसके आदर्श  दुनियादारी की इस निंदा स्तुति से बहुत ऊँचे हैं ..हमने यहाँ लोगों को खुश रखने के लिए दूकान नहीं सजा रखी  है कि  उनके कहे सुने की परवाह करें .. तुम्हारे जाने से हमें फर्क नहीं पड़ेगा .. तुमसे बेहतर और तुम जैसे हमारे पास और बहुत साधू साध्वियां हैं जो पूरे समर्पण और श्रद्धा से पंथ को आगे बढ़ा रहे हैं ...लेकिन तुम्हारा भटकाव तुम्हे अभी और कहाँ कहाँ ले जाएगा ये मैं नहीं जानता .. हाँ तुम्हे और तुम्हारे उद्देश्य को परखने में हमने भूल की .. स्वामी अमृतानंद ने भूल की .. पर यही विधि का लेखा था ..पर अब तुम जाओ .. अपना रास्ता तलाश करो .. " 

उन्होंने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया .. वीरेन उनके पैरों पर झुका .."भगवान् तुम्हें शांति और सदबुद्धि  दें" .

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मनाली ... 2 साल बाद 

"ये हमारा ब्लूप्रिंट है इस पूरे प्रोजेक्ट का ... एक  IT सेण्टर,  एक Geo -Thermal  एनर्जी प्लांट, एक कम्युनिटी सेंटर  और हाँ एक स्कूल।"

"सर, मिस्टर बैनर्जी आज आ नहीं पाए हैं इसलिए उनकी जगह उनके असिस्टें

ट वीरेन सिंह  आपको आईटी सेण्टर के प्लान की प्रेजेंटेशन देंगे।" 

वीरेन अब घर लौट आया है ...ज़िन्दगी अब एक नए रास्ते पर चल रही है, एक नई  पहचान, एक नए उद्देश्य और एक नए सपने के साथ ...  मंजिल अभी भी अनजानी है, दूर है पर अब मन आज़ाद पंछी है .. जिसके मज़बूत  पंखों  की उड़ान अभी बस शुरू ही हुई है। 


   Image Courtesy : Google

 3rd Part of the Story is Here

Wednesday, 28 November 2012

ज़िन्दगी आधी हकीकत आधा फ़साना : भाग 3


पर अब जो आदेश आ गया है तो जाना ही है ... आखिर यही तो मूल आधार है इस पंथ का, उनके संगठन की मजबूती का ... आदेश की पालना हर हाल में, बिलकुल फौजी अनुशासन .. 

अब वीरेन को भेजा गया रायगढ़, उड़ीसा का एक शहर .. इस जगह का कभी नाम भी उसने नहीं सुना था पर अब वहाँ आश्रम है और आध्यात्म की रौशनी को इन धुर आदिवासी इलाकों तक ले जाना ही है ... शुरू में सामंजस्य बिठाने में दिक्कत आई .. भाषा और उसका बोलने का लहजा बिलकुल अजनबी, फिर यहाँ आकर तो ऐसा लगा कि  सचमुच भारत के किसी दूरस्थ कोने में आ गए हैं .. जो ना पूरी तरह शहर है और ना गाँव .. काफी पुराना पर अब नया बनने  का प्रयास करता हुआ .. अपने पिछले अनुभव से वीरेन  ने काफी कुछ   सीख लिया था .. उसे पता था कि अलग अलग  लोग उसे देखकर, उसके तौर  तरीके देखकर कैसी प्रतिक्रियाएं देंगे।  और इस बार वो रमण भाई जैसे लोगों के लिए भी मानसिक रूप से तैयार ही है। 

आते ही पहला काम उसने  सेवा समिति के सदस्यों   से मिलने का किया, मालूम पड़ा कि  यहाँ समिति उतनी सक्रिय और मज़बूत नहीं, ज़रूरत मुताबिक़ कुछ लोगों को बुला लिया जाता है काम करवाने या हाथ बंटाने के लिए और उनमे भी जो आ पाएं। ये स्थिति वीरेन को मनमाफिक लगी , न किसी का बेवजह दखल और ना कोई नियंत्रण। चटपट उसने अपनी तरफ से  सेवा समिति  बना ली ..जिसमे रोज़ आने वाले कुछ लड़के शामिल थे और कुछेक ऐसे उम्रदराज लोगों को रखा गया जो सक्रियता से काम कर सकें।  शुरुआत बढ़िया हुई, रोज़ के कामों के लिए अलग अलग लोगों को नियत कर दिया गया कि  कौन  क्या सेवा संभालेगा  .. पंथ के कुछ पहले के महात्माओं की पुण्यतिथि के लंगर और  कुछ त्योहारों के प्रीतिभोज को सुव्यवस्थित तरीके से संभाला गया .. ऐसा लगा कि  उस छोटे से आश्रम में वीरेन ने जान फूंक दी है .. लड़कों का उत्साह बढ़ा और  उनका आश्रम आना भी .. बड़े बुजुर्गों को और कुछ नहीं तो छोटी उम्र के इस नए साधु का सबको साथ लेकर चलना ही अच्छा लगा .. औरतें तो खैर उसकी कम उम्र देख के ही अगाध श्रद्धा से नतमस्तक हो लेतीं।  यहाँ का माहौल गुजरात से बेहतर है, ऐसा वीरेन को .. ओह नहीं, राम को लगने लगा था ..

"ये भी कोई तरीका है काम करने का .. जो अनुभवी बुजुर्ग हैं उनको एक किनारे कर के ये लड़के दोनों वक़्त आरती के समय और बाकी कामों में भी  हुडदंग मचाये रहते हैं .. ना किसी से व्यवहार की तमीज है ना बड़ों का सम्मान।"

"सब राम दादा की मेहरबानी है  जो इन लडको को इतना  चढ़ा रखा है .. अब कौन कहे .."

"अभी चन्द्रदर्शन वाले  दिन जो प्रीतिभोज हुआ था उसमे और उसके पहले जो  तीन दिन का विशेष सत्संग कार्यक्रम था उसकी तैयारियों में ही कौनसी हमारी सलाह ली या बुलाया ... ये लड़के ही सब कर लेंगे".


"मेरी समझ में नहीं आता कि  ये सोमेश्वर अंकल हर काम में दखल  क्यों देते हैं .. हर बात में इनकी सलाह लेना ज़रूरी है क्या ? हर बात में टोकते रहेंगे .."

"अरे इनको अब कोई काम तो है नहीं, घर पर फ्री बैठे रहते हैं .. और इनके अलावा बाकी लोग, ये किशनदास, रामसुख जी और इनका पूरा ग्रुप .."

दो महीने बीते और आश्रम अच्छा खासा जोर आज़माइश का मंच बन गया .. लड़कों को बुजुर्गों का कहा सुना पसंद नहीं और बुजुर्गों को  अपना थोडा सा भी महत्व कम होना पसंद नहीं ..

खैर गलती थोड़ी वीरेन की भी है ही .. उसे अपनी उम्र के लडको का साथ ज्यादा सुविधाजनक लगता है, उनको समझाना या किसी काम के लिए कहना बजाय  अपने से कहीं बड़े उम्रदराज लोगों को कुछ समझाना ... पर अब खींचातानी रोज़ का किस्सा बन गई , आरती का थाल  उठाने से लेकर साफ़ सफाई तक के छोटे मोटे कामों में भी बहस होने लगी ... सही गलत, ठीक से नहीं करते, आश्रम के गेट पर खड़े ये लड़के क्या करते हैं, लोगों को परेशान कर रखा है वगैरह वगैरह .. अब तो हाल यहाँ तक पहुँच गया कि  कुछ प्रौढ़ लोगों ने तो नियमित आना भी छोड़ दिया ..


साल भर तक वीरेन मदारी की तरह रस्सी पर संतुलन साधने की कोशिश करता रहा उसकी समझ में नहीं आता था कि आखिर इतनी छोटी मोटी  चीज़ों के लिए लोग इतना क्यों झगड़ रहे हैं।। क्या फर्क पड़  जाएगा अगर आरती का थाल इसने या उसने उठाया  या वो नहीं उठा सका .. या कौनसा आसमान  टूट पड़ा अगर रसोई में प्रसाद की ज़िम्मेदारी किसी को मिली या किसी को ना मिली। पर इन सब फालतू मसलों  का हल कभी नहीं निकला ... आखिर उसने खुद ही स्वामी प्रकाशानंद से कहकर रायगढ़  से पिंड छुड़ाया ..

अबकी बार उसे छः छः महीने के लिए दो तीन आश्रमों में भेजा गया .. वहाँ उन शहरों में आश्रम की नई  इमारतों  का निर्माण चल रहा था या फिर पुरानी  वाली का रेनोवेशन .. और वीरेन को इसमें super-wiser  की ज़िम्मेदारी संभालनी थी .. स्वामी प्रकाशानंद  का ख्याल था कि  वीरेन की इंजीनियरिंग की डिग्री और आर्किटेक्चर में उसकी दिलचस्पी इस काम  के लिए बिलकुल उपयुक्त ही है और उनको लग भी रहा था कि  वीरेन अभी तक खुद को नए माहौल और एक पूरे आश्रम को संभालने की  गुरु गंभीर ज़िम्मेदारी के लिए तैयार कर नहीं पाया सो उसके लिए इस तरह के काम फिलहाल के लिए ठीक रहेंगे।     उम्मीद के मुताबिक़ वीरेन ने काम संभाला भी ..और सच में उसे लगा कि  ये काम उस अध्यात्म की रौशनी फैलाने वाला या पथ प्रदर्शक की भूमिका वाले काम से तो बेहतर है। स्वामी जी ने उसे बताया  भी था कि  इस तरह के निर्माण और रेनोवेशन के काम तो हमेशा किसी ना किसी शहर में चलते ही रहते हैं .. तो वीरेन को इसमें अपने लिए  अच्छी  खासी गुंजाइश दिखी .. पर अभी इस ख्याली पुलाव का चूल्हा जलना बाकी था ..


रेनोवेशन का काम पूरा हुआ और नई इमारत  के उदघाटन के लिए  आश्रम की एक वरिष्ठ साध्वी को बुलाया  जाना तय हुआ। उनको दो दिन रहना था और इस पूरे आयोजन की व्यवस्था के लिए कुछ लोगों को आश्रम के मुख्यालय से भेजा गया। वे आये  और बाकी सारे काम खुद संभाले, वीरेन को एक अलग ही ज़िम्मेदारी दे दी। कुछ रसीद बुक दी गई कि  इनके ज़रिये श्रद्धालु लोगों से चंदा लिया जाए और फिर हर रसीद बुक का नकद सहित हिसाब वहाँ से आये एक साधु  को देना होगा।  वीरेन ने सेवा समिति के कुछ लोगों को, जिनके लिए लगता था कि   ऐसा "वसूली" का काम वे कर सकते हैं, और जो पहले भी ये काम कर चुके थे,  उनको रसीद बुक थमा दी।  काम शुरू भी हो गया, चंदे की रकम के बारे में काफी उत्साहजनक खबरें भी मिलने लगीं।


आखिर उदघाटन  का आयोजन हुआ और पूरी भव्यता से हुआ .. दो दिन में जाने कितने सौ या हज़ार लोग आये, कितनी रसीदें बनी .. वीरेन को हिसाब करना ही मुश्किल हो गया।  आयोजन ख़त्म होने के बाद उसने उन रसीदों का हिसाब सेवा समिति वालों से  माँगा , लेकिन उल्टा जवाब आया कि  इसका हिसाब  तो सीधे  ही स्वामी निरंजन को दे दिया गया .. पर वीरेन का दिमाग संतुष्ट नहीं हुआ .. "निरंजन तो  समारोह के अगले दिन दोपहर तक लौट गया फिर इन लोगों ने हिसाब कब दिया .. इतना कैश कैसे और  कब  ले जाया गया" .  निरंजन को फोन करके पूछा तो जवाब आया कि  ..." अरे उन सबको  कह दिया है  कि  वे लोग इस पैसे को सीधे आश्रम के बैंक अकाउंट में जमा करवा दें .. अब तुम सोचो राम,  वक़्त कहाँ था  इतनी सब रसीदों  का हिसाब किताब देखने  का ..."

"पर मुझसे कहते तो मैं ही देख लेता "

"अरे रहने दो, क्यों बेकार अपना दिमाग खपाते हो, ये सब लोग हर बार ही ऐसे समारोहों में चन्दा इकट्ठा करते हैं, अपने आप करा देंगे ज़मा।"

वीरेन अब भी निश्चिन्त नहीं हुआ ..पर सावधानी बरतते हुए उसने समिति के एक सदस्य से उन रसीदों और चन्दे की रकम के बारे में पूछा  और पता चला ... "इन रसीदों का कभी कोई पक्का हिसाब नहीं लिया जाता, चंदा इकट्ठा करने वाले एक मोटा मोटा आंकड़ा बता देते हैं निरंजन जी को या और किसी को इसके आगे कोई ज्यादा पूछताछ नहीं होती ... कभी पैसा इकट्ठा करने वाला बैंक में जमा करा देता है तो  कभी यहीं आश्रम की पेटी में डाल  देते हैं तो कभी ..." आगे का वाक्य जान बूझ कर अधूरा छोड़ दिया गया। फिर कहने वाला कुछ संभला और अपनी बात पूरी की ... "वैसे जो लोग चन्दा इकट्ठा करते हैं वो सब स्वामी निरंजन के अच्छे परिचित है .. सब जिम्मेदार लोग ही हैं।"

वीरेन को कुछ समझ आया और जो कुछ ना समझ आया तो उस पर विश्वास भी न आया कि  भगवान् के दरवाजे पर तो कोई ऐसा धोखाधड़ी या कपट नहीं कर सकता।
फिर उसे याद आया, जगदलपुर के दिनों की एक घटना, जब गुरुपूनम की  वार्षिक सेवा  ली जा रही थी और उसे निर्देश मिले  थे कि जो लोग लम्बे समय से काफी कम अंशदान दे रहे हैं, उन्हें उनका अंश बढाने के लिए "प्रेरित" किया जाए और "सेवा" की राशि  को बढाने के प्रयास किये जाएँ। और उसी "प्रेरणा" वाले काम के दौरान एक दिन सत्संग ख़त्म होने के बाद एक उम्रदराज आदमी जिसकी उम्र शायद 60 पार रही होगी ... रुक गया .. कुछ कहना था उसे ..

"राम दादा, आपसे एक बात कहनी थी, थोडा समझने की कोशिश करिए, मैं रिटायर हूँ, पेंशन मिलती है, मेरा और मेरी बीवी की दवाइयों का खर्चा ही भारी पड़ता है .." वीरेन कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि  मामला क्या है ..." मैं ये बढ़ी  हुई सेवा का पैसा नहीं दे सकूंगा, इसे कुछ कम कर दें .. वैसे भी मैं और मेरी बीवी अलग अलग चंदा और उसके अलावा भी कई तरह की सेवा तो देते ही हैं".

वीरेन उस झुर्रियों भरे, उम्र के असर से थके  और बोझिल  चेहरे को देखता रहा .. उसकी आवाज़ में झिझक, मजबूरी और  अपनी असमर्थता को छुपा ना पाने की लाचारी .. सब कुछ साफ़  सुनाई पड़ता था .. वीरेन ने उसकी बात मन ली और आगे से उसे किस तरह की सेवा के लिए ज्यादा कुछ कहना या किसी तरह की बढ़ोतरी के लिए "प्रेरित" करना का इरादा भी छोड़ दिया।  और वो अकेला ही क्या ऐसे और भी कई परिवार थे जिनको प्रेरित करना वीरेन को अपने बूते के बाहर लगा ..


कुछ और महीने ऐसे ही इस उस आश्रम में भटकते हुए गुज़रे .. फिर दिवाली के त्यौहार पर उसे आश्रम मुख्यालय  पर बुलाया गया ..  अकेला वीरेन ही नहीं, उसके कई और संगी साथी, नए-पुराने , वरिष्ठ-कनिष्ठ, अनेक  साधु -महात्मा भी वहाँ आये, ये एक साधारण सा रिवाज था कि आश्रम के  हर एक साधू को (औरत या मर्द) सभी को साल में कम से एक बार तो यहाँ आना ही होता था .


यहाँ वीरेन को ऐसा लगता  है जैसे भटकता हुआ  मन  किसी ठिकाने पहुँच रहा हो .. वहाँ सब अपने जैसे ही लगते हैं (या शायद सब एक दुसरे से अलग हैं)
एक दोपहर सब लोग थोड़ी फुर्सत में थे।  हर कोई अपने अलग अनुभव बता रहा था .. पर अचानक एक विषय छिड़ गया जिसमे सबकी एक सी  दिलचस्पी नज़र आई .. मुद्दा था ..  आश्रमों का मासिक और वार्षिक revenue ..और उसे बढाने या नई  ऊँचाइयों तक ले जाने में उन सबका योगदान .. निश्चित रूप से कई लोगों के पास बताने के लिए काफो अच्छे आंकड़े थे .. लेकिन वीरेन को इसमें कुछ भी समझ नहीं आया, वो उठा और सीधा गया स्वामी प्रकाशानंद से मिलने। जिन्होंने अपने व्यस्त रूटीन के बावजूद उसे बुला लिया।

"हम क्या बनिए हैं या गल्ले के व्यापारी ?"
निश्चित रूप से ऐसे किसी सवाल या मुद्दे की अपेक्षा स्वामी जी को नहीं थी।


"क्या हुआ है?"

"तो फिर ये सब क्या है, हमारा काम अध्यात्म का सन्देश आम लोगों तक ले जाना है या फिर उनसे धर्म के और पुण्य के नाम पर पैसा लेना और इसी को अपनी उपलब्धि मान कर उसका बखान करना।"

स्वामी प्रकाशानंद पहले थोड़ी देर तक वीरेन  के चेहरे को देखते रहे फिर  एक गहरी नज़र से शून्य में निहारते हुए बोले .." मुझे पता है कि  सब चीज़ें, सब कुछ ठीक नहीं चल रहा हमारे यहाँ। कुछ गंभीर समस्याएं जड़ जमाने लगी  हैं। हम अपने लोगों को सिखा समझा सकते हैं पर बाहर वालों को नहीं। अपने लोगों में भी कितने हैं जो पूरे समर्पण से शब्दश: "आसन" की आज्ञा का पालन करते हैं?"

"दरअसल राम, समस्या ये है कि इतने लम्बे चौड़े संगठन को चलाने और इसकी सार सस्म्भाल के लिए पैसा तो चाहिए और वो आता भी बहुत है पर ज़ाहिर सी बात है कि  वो पैसा अपने साथ अपने सारे रंग--रूप, चाल-चलन और रास रंग लेकर आता है।  पैसा देने वाले और उसे लेने वाले, हर कोई सोचता है उसके पास कुछ पॉवर है, कुछ सामर्थ्य, कुछ उपलब्धि .... लेकिन बेटा  वो दोनों गलत हैं क्योंकि ये पैसा आता है आश्रम की सामर्थ्य के कारण, उसकी उपलब्धियों के कारण पर कई लोग ये मान लेते हैं कि  इन सब उपलब्धियों का माध्यम और आधार उनकी उपस्थिति है। उन्होंने व्यक्ति को संगठन से और साधारण मानव को एक असाधारण परम सत्ता से ऊँचा मान लिया है ... "

शायद अभी स्वामी जी और भी कुछ समझाते पर समय नहीं था उनके पास पर एक प्रश्न का समय ज़रूर था .." राम, तुम ये बताओ कि  क्या तुम अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभा पा रहे हो?"  जवाब सुनने का  समय नहीं था उनके पास पर वीरेन को जवाब ज़रूर चाहिए था।

क्या सोच कर आया था कि  संन्यास जीवन की दशा-दिशा सब कुछ बदल डालेगा .. और शायद ये भी सोचा था कि  खुद वीरेन भी इस दुनिया को कुछ बदल देगा या कोई ऐसी उपलब्धि हासिल कर दिखाएगा ...  " larger than Life"... जैसी। पर ऐसा तो कहीं कुछ होता नहीं दिखाई देता।  पर फिर मन को यही सोच कर तसल्ली देने की कोशिश की कि  अभी यहाँ आये वक़्त ही कितना हुआ है और फिर  वो कुछ हासिल करने नहीं  "सब कुछ" को छोड़ देने के लिए .. हर ख्वाहिश, हर लालसा को परे हटा कर, हर कामना को पीछे छोड़  कहीं आगे बढ़ने के  लिए यहाँ आया है .. कुछ पाने के लिए नहीं, सब कुछ को लुटा देने के लिए ... शायद खुद को भी मिटा कर एक  नया जीवन लेने के लिए ..

और भी बहुत सारी  ऊँची बातें वीरेन के मन में चलती रहीं।

समारोह समाप्त हुआ और अबकी बार वीरेन को फिर नई जगह भेज दिया गया। यहाँ  भी कुछ  रेनोवेशन का काम था और आश्रम भी संभालना था। वैसे ये तो नहीं  कह सकते  की सभी जगहों पर एक सा माहौल या एक जैसे ही लोग है .. सब जगह एक जैसी ही उठा पटक मची हो .. वैसा कुछ नहीं लेकिन फिर भी एक बात साफ़ दिखती है कि   अक्सर ये आश्रम या इस तरह के संगठनों की स्थानीय शाखाएं किसी एक या कुछ लोगों के लिए  अपना एक छोटा मोटा अधिकार क्षेत्र बनाने का और उसके ज़रिये अपने को सामाजिक दायरे में ऊँचा उठाने का साधन बन जाते हैं। लोग मान  के चलते हैं कि  उनके बिना या उनके कुछ किये बिना इस संस्था संगठन का काम चल नहीं सकता और इसलिए हर छोटे बड़े, मामूली, गैर मामूली काम पर अपनी पैनी नज़र और कठोर पकड़  रखना उनकी आदत बन चुका  है ..वीरेन ने अब इस पर ध्यान   देना और किसी तरह का "सुधार" या  "परिवर्तन" का ख्याल भी दिमाग से निकाल  दिया। 


इस नए आश्रम में आये भी कुछ महीने हो गए .. एकदिन किसी के घर जाना हुआ .. परिवार  के एक सदस्य को विशेष रूप  से बुलाकर वीरेन से मिलवाया गया .. एक तेईस या चौबीस साल का लड़का ... लड़के के पिता चाहते थे कि  वीरेन  उनके बेटे को आश्रम आने और इश्वर में आस्था जगाने के लिए कुछ समझाए, कुछ उपदेश ही दे .. वीरेन ने थोड़ी बहुत कोशिश की भी .. कुछ रटे  रटाये से शब्द कहे लेकिन असर हुआ ऐसा लगा नहीं .. लड़के ने आँखें नीचे कर के सुन लिया, सर हिला दिया .. जैसे इंतज़ार कर रहा हो कि  कब ये भाषण ख़त्म हो और वो पिंड छुड़ा के भागे। वीरेन ने भी इशारा समझा और अपनी बात को इतना कह कर समेटा कि  कभी वक़्त निकाल कर आश्रम आया करो और कुछ नहीं तो मुझसे मिलने ही आ जाओ।

कुछ दिन बाद वही लड़का आश्रम में दिखा, किसी के साथ आया था .. वीरेन को  लगा "भाषण असर कर गया शायद".  उसने लड़के को अपने कमरे में बुलाया .. सोचा थोडा और समझाए, कुछ ज्ञान की रौशनी उस तक पहुंचा सके। थोड़ी देर तक तो जैसे तैसे वो सुनता रहा .. फिर उसने थोड़ी तीखी आवाज़ में सवाल किया ..." आपको तो बहुत आस्था है ना इन तस्वीरों और इस भगवान् में ..आपकी हर ख्वाहिश इस दरवाजे पर पूरी हुई होगी ना ..पर मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं है .. ना आस्था ना श्रद्धा .. आपके इस भगवान् ने  आज तक कभी मेरी एक बात भी नहीं सुनी .. मेरी तो आवाज़ भी कभी इसको सुनाई नहीं देती होगी ... वक़्त ही कहाँ है आपके इस तस्वीरों वाले  भगवान् को हम आम लोगों की  बात सुनने का .. कभी एयर कंडिशन्ड हॉल से बाहर निकल कर देखा है ???" लड़का शायद गुस्से में था ..आगे और भी बोलता पर वीरेन ने रोका, समझाने के मूड से कुछ कहा भी .. पर लड़का सुनने के मूड में नही था ..बोलता गया ..

"संन्यास लेकर यहाँ आश्रम में बैठकर उपदेश  देना आसान  है, आम लोगों की तरह्  ज़िन्दगी जीना मुश्किल है, ना आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी है सिवाय इस आश्रम के और ना किसी को आपसे कोई उम्मीदें या अपेक्षाएं हैं .. ना आपको आने वाले कल की फिकर ना आज के दिन की चिंता .. बस यहाँ बैठ कर लोगों से  कहना कि  भगवान् के लिए भी वक़्त निकालो .. क्या हो जाएगा उस से .. ज़िन्दगी की सब समस्याएं सुलझ जायेंगी, कम हो जायेंगी ? कोई समाधान  निकलेगा ? कुछ नहीं होता ..कहते रहिये आप .."

लड़का अभी और चिल्लाता या बोलता पर कुछ लोगों ने आकर उसे शांत करवाया और जिसके साथ आया वो वीरेन से माफ़ी मांगते हुए उसे वहाँ से ले गया।

इतने सब के बीच वीरेन चुपचाप खड़ा रहा .. एक तूफ़ान फिर से  आकर गुज़र गया और किसी को खबर भी ना हुई।  उसके बाद किसी काम में मन नहीं लगा .. रात हुई, वीरेन आकर प्रार्थना  हॉल में बैठ गया, देखता रहा उन तस्वीरों को,  महंगे फ्रेम में मढ़ी  हुई,  बड़ी-बड़ी प्रभावशाली  तसवीरें .. जिनके बारे में वो लड़का कहे जा रहा था .. पर याद नहीं कि  उसके exact  लफ्ज़ क्या थे। खुद से सवाल करने लगा वीरेन .. एक बार फिर .. आज चार साल होने को आये हैं .. नया जीवन अब पुराना हो चला है .. एक नज़र पीछे मुड  के देखता है तो सबकुछ एक फिल्म की तरह आँखों के आगे चलने लगता है ...

To  Be  Continued ...



Image Courtesy:Google

 2nd part of the Story is Here

Wednesday, 7 November 2012

ज़िन्दगी आधी हकीकत आधा फ़साना : भाग 2


उसी चौराहे पर, उन भिखारियों की हंसी में। फिर से जैसे वो  बेचैनी का माहौल लौट आया जब वीरेन अपने से ही लड़ता, अपने ही रचे संसार में खुद को तलाशता और आखिर में आईने में परछाइयां देखकर रो पड़ता। एक बवंडर मचा था उसके भीतर जो बाहर किसी को न दीखता था ना सुनाई देता था .. किसी को उसकी आहट  तक ना थी .. पर वीरेन हर रोज़ उस तूफ़ान से संघर्ष कर रहा था। हर रोज़ पूछता था सवाल कि  "तुम कौन हो?  क्यों चले आये हो ? वापिस क्यों नहीं चले जाते ?  क्यों मुझे सता रहे हो ? मैं तुमसे लड़ना नहीं चाहता .. चले जाओ .. "  एक रात यूँही हमेशा की तरह नींद गायब थी,  वो उठा और चुपचाप घर से बाहर निकल गया, किसी को पता  नहीं पड़ा .. चलता गया सड़क  पर .. ऐसा लगता था जैसे वो बंधनों में बंधा है और उसे मुक्ति की तलाश है .. छुटकारे की ..


" इस तरह टुकड़ों टुकड़ों में हारने से, हर रोज़ थोडा थोडा रोने से एक बार हमेशा के लिए हार जाना ... एक बार ही सही हमेशा के लिए जीत जाना ... हाथों की लकीरें या किसी किस्मत नाम की परछाई या निरुद्देश्य से जीवन की परिस्थितियों से हारना ... ?"

"नहीं ये नहीं होगा .. मैं ये नहीं होने दूंगा।। अपनी ज़िन्दगी पर, इस आज पर, इस लम्हे पर तो मेरा ही अधिकार है ... " वीरेन जोर से चीखा , उसकी आवाज़ सुनसान रात में गूंजती रही .. घरों में सोये लोगों को खबर तक न हुई, चौकीदार ने इसे किसी पागल की हरकत समझ कर अनसुना कर दिया।  

वीरेन फिर चीखा .. " मैं इस ज़िन्दगी को वहाँ ले जाऊँगा जहां सारी  ख्वाहिशें ख़त्म हो जायेंगी .. जहां कुछ बाकी नहीं रहेगा ... जहां एक बार फिर मैं अपनी सारी  कमजोरियों  और  नाकामियों से जीत जाऊँग .. मैं दिखा दूंगा इस दुनिया को, ऋचा को ... " चीखता गया वीरेन और भी जाने क्या क्या। तभी लगा जैसे सामने कोई खड़ा है, एक धुंधली सी आकृति, उस बदहवासी की हालत में भी उसके कपड़ों से  वीरेन ने अंदाज़ा लगाया कि  कोई लड़की है पर चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा, अँधेरे में ही खड़ी है। फिर एक हंसने की आवाज़ आई ... "क्या हुआ है तुमको? क्या चाहिए ? घर लौट जाओ , सो जाओ।  " 

"तुम कौन हो? अपना काम करो". 
"मैं ..!!! " फिर से हंसने की आवाज़ आई .... "मैं वही हूँ जिस से तुम भागते फिरते हो, तुम्हारी परछाई, तुम्हारी सांसें, तुम्हारा वजूद, मैं तुम्हारे ही हाथों की लकीरों में रहती हूँ। "  इतना कहते उसना अपना हाथ बढाया वीरेन की तरफ जैसे आगे आकर उसका हाथ पकड़ लेगी। पर वीरेन थोडा पीछे हटा .. "दूर हटो, मुझसे दूर रहो ... पास मत आना" .. डर  वीरेन के चेहरे पर था और उसके पैर कांपने लगे। पर फिर  उसने हिम्मत जुटाई, "तुम सोचती हो कि  मैं तुमसे हार जाऊँगा,  तुम मुझे बाँध कर रखोगी और मैं देखता रहूँगा .. ऐसा नहीं होगा ... कभी भी नहीं होगा .. तुम देखना .. अब तुम देखना .."  और वीरेन ऐसे ही बोलता गया .. अँधेरे में, पीछे हटता रहा, हंसने की आवाज़ सुनाई देती रही फिर धीरे धीरे गायब हो गई।            

और फिर सूरज निकला, सुबह हुई .. वीरेन कहीं रास्ते में किसी पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठा है . अब उसका मन शांत है पर बेहद थका हुआ है .. पर जैसे उसने कोई फैसला ले ही लिया है।  घर लौटा तो देखा,  पापा और मम्मी और उसका छोटा भाई  तीनों बाहर बरामदे में ही खड़े हैं, "क्या मेरा ही इंतज़ार कर रहे हैं? "  पर उसने कुछ कहा नहीं, नज़र बचा के निकल जाने का सोचा पर कुछ सवाल आये, कहाँ थे, कब गए ,  माँ का उलाहना, भाई का खामोश गुस्सा ... पर वीरेन निकल ही गया।  आज सीधा ही आश्रम चला गया।  स्वामी अमृतानंद से पूछने को  कोई  सवाल नहीं था पर कहने को बहुत कुछ था। 

बावन साल के उस आदमी ने जिसके चेहरे पर अनुभव और परख की लकीरें थीं, जिसने वीरेन से भी छोटी उम्र में गेरुए रंग को अपना लिया था  ... सब सुना, समझा और  कुछ देर की चुप्पी के बाद समझाने के तरीके से कुछ बातें कहीं। पर थोड़ी देर में ही जब लगा कि  वीरेन नहीं सुन रहा, नहीं मान रहा तब स्वामी अमृतानंद को शायद गुस्सा ही आ गया .. " क्या सोचते हो, संन्यास लेना कोई मज़ाक है,  कोई खेल है, कोई नया शौक है या बाज़ार में बिकने वाली कोई चीज़ कि  तुम जाओ और पैसे देकर खरीद लाओ। यहाँ खुद को, अपनी हर ख्वाहिश को कुर्बान करना होगा, घर, परिवार, दुनिया के ये सारे नज़ारे, ये  तुम्हारी लाइफस्टाइल सब छोड़ देना होगा।  ये जो आज इतने महंगे कपडे पहने हो, कार में घूमते  हो, दोस्तों के साथ पार्टी  करते हो,ये सब छोड़ देना होगा .... कर सकोगे क्या ... सारी ज़िन्दगी ये सादे सफ़ेद और गेरुए कपडे पहनने होंगे, ज़बान के स्वाद और पसंद नापसंद सब भूलना होगा .. शादी -ब्याह तो भूल ही जाना .. किसी लड़की का ख्याल भी मन में ना लाना .. कर सकोगे?"  सवाल में चुनौती थी, व्यंग्य था, उपेक्षा थी और साथ ही सामने वाले को तौलने की खनक भी थी।                      

"मैं कर लूँगा .. मैं ये सब जानता हूँ .. और मैं आप को और खुद को निराश नहीं करूँगा ." 

"हमारा  आश्रम  और इसकी छत, दुनिया से भागने वाले का ठौर ठिकाना नहीं है, यहाँ वही रह सकेगा जो खुद को पूरी तरह मिटा सके और गुरु की आज्ञा  का पालन हर हाल में कर सके।" 

और उस दिन ये बात यहीं रह गई, वीरेन का फैसला तो नहीं बदला पर उस वक़्त उसने ज्यादा बहस भी नहीं की।  फिर कुछ महीने और बीते।  वीरेन अब भी आश्रम आता  था .. और अक्सर अपनी यही ख्वाहिश दोहराता था .. घर वाले भी अब जान ही गए, माँ ने स्वामी अमृतानंद को साफ़ शब्दों  से कह  दिया था कि  वो अपने बेटे को नहीं जाने देंगी।  पर अब वीरेन ने आश्रम  को ही अपना दूसरा घर बना लिया था .. जो और जैसा काम स्वामी जी  बताते वीरेन करता .. भूल गया कि  वो किसी प्रसिध्द बिज़नेस  कॉलेज का डिग्री होल्डर है ,  उसे कैंपस इंटरव्यू में एक अच्छा खासा पैकेज मिला था। लेकिन वो सब छोड़कर वो यहाँ अपने घर किसी और मकसद आया था, अपने फॅमिली बिज़नस को expand करने के लिए।  अब उसे कुछ और ही करना था, कहीं और, किसी अनजाने लेकिन सबसे अलहदा रास्ते पर चलते जाना था .. ऐसे रास्ते पर जहां उसका अस्तित्व भी मिट जाए पर फिर भी वो सबसे उंचा उठ जाये ... 

आखिर वो वक्त भी आया, वीरेन को ना माँ का रोना और पुकारना रोक पाया और ना पिता का पथराया हुआ चेहरा ...

जिस आश्रम में वीरेन और माँ जाते थे वो असल में ऐसे कई आश्रमों की श्रृंखला का एक हिस्सा था  .. और पूरे देश में उनके ऐसे कई आश्रम थे .. अनेक शहरों में, शायद लगभग हर शहर में।  और इन सबका एक  केन्द्रीय स्थान था, जो महाराष्ट्र में कहीं था।   जिसे इस सम्प्रदाय का तीर्थ कहा जाता था। यहीं से बाकी सब आश्रमों को superwise  किया जाता था, और यहीं उन लड़के लड़कियों का प्रशिक्षण भी होता था जो अपना घर और इस तथा कथित नश्वर संसार को त्याग कर आध्यात्मिकता की राह पर चल पड़ते थे। वीरेन का नया पता ठिकाना भी यही जगह थी। 

यहाँ आने के बाद वीरेन को समझ आया कि  जितना वो इस आश्रम को जानता था ... ये उस से कहीं ज्यादा जटिल और विस्तृत संगठन है।  और  महज घर छोड़कर  यहाँ चले आना ही संन्यास नहीं ... असल सफ़र तो अब शुरू हुआ .. कई तरह की औपचारिकताएं हुई,  जिनमे सम्प्रदाय के प्रमुख से मिलने और उसे एक नया नाम देने की रस्म सबसे महत्वपूर्ण थी।  ये नया नाम वीरेन की नई  ज़िन्दगी, एक नए जन्म और उसकी आत्मा के नए रूप में ढलने का सूचक है .. ऐसा  श्री महाराज स्वरूपानंद ने फ़रमाया .. वीरेन को भी यही लगा .. और अब वो वीरेन नहीं था .. अब उसका नाम था  "राम" .. वीरेन को ये नया नाम पसंद भी आया।  और हाँ अब उसके बाल भी काट दिए गए। अब उसे सिर्फ सफ़ेद कपडे ही पहनने थे।  पर अभी आगे और रास्ता बाकी था .. बाकायदा साधु  बनने का प्रशिक्षण शुरू हुआ .. जिसमे   धर्मग्रंथों का, आध्यात्म का और गुरुवाणी  की गहरी जानकारी दी गई। आश्रम के सन्यासियों की क्या जिम्मेदारियां है, क्या उद्देश्य होने चाहिए, किस तरह उनको मोह माया के जाल में फंसे बेचारे संसारी मनुष्यों को "सच्चे सुख",  "कल्याण" और  मोक्ष के मार्ग  पर ले जाना ये सब आश्रम के सन्यासियों की ही ज़िम्मेदारी है। दुनियादारी के फेर में फंसे इंसानों को ज्ञान की  रौशनी देना, उनको उस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करना ... ये सब जिम्मेदारियां निभाने के लिए  और उसके साथ और भी कई लड़के लड़कियों को जो उसी की तरह अपना घर और दुनिया के सारे आकर्षण छोड़ आये थे .. उन सबको प्रशिक्षित किया गया। 

और फिर  एक दिन आया जब सब नए recruits को अलग अलग शहरों में भेज दिया गया .. किसी ना किसी आश्रम में .. किसी सीनियर "स्वामी" या महात्मा के निगरानी में  सीखने-समझने और नए माहौल में ढलने  के लिए ... वीरेन को भी फिलहाल महाराष्ट्र के ही किसी छोटे से शहर में भेज दिया गया। हाँ इस बीच कभी कभी घर याद आता  था ..अब कभी कभी तो क्या होता है , घर तो सबको याद आता ही है .. घर के लोगों से कितना भी नाराज़ हो,  उनकी याद तो आती ही है। पर अब जो एक बार इस रास्ते पर पैर रख दिया तो पीछे लौटना संभव नहीं .. कुछ वक़्त तक माँ और पापा वीरेन की खोज खबर  की कोशिश करते रहे पर आखिर उन्हें स्वामी अमृतानंद ने समझाया .. "अब वीरेन तुम्हारा बेटा  नहीं है  अब वो हमारा हो गया है , आश्रम का, इस पंथ का, उसका जन्म  एक बड़े उद्देश्य के लिए हुआ है .. क्यों उसके रास्ते में रुकावटें खड़ी  करते हो .."

लेकिन वीरेन का  मन अभी भी भटकता है .. अक्सर सोचता है कि  दुनिया को रौशनी  दिखानी है, उनको राह दिखानी है पर खुद उसे ही अपनी राह का अता  पता नहीं . वो चला आया है यहाँ पर क्या सच में वो बन सकेगा जो उस से  उम्मीदें है  ?? नहीं जानता ... नहीं समझता .. पर इतना तो जानता ही है कि  अब वो कोई मामूली इंसान नहीं रहा.. अब वो  "राम"  है .. "वीरेन"  अब उस से अलग हो गया है , ऐसा लगता है कि  जैसे उसने अपने पुराने शरीर को छोड़ कर  जीते जी ही नया शरीर, नया रूप धारण कर लिया है , बहुत हल्का और शांत चित्त महसूस करता है अब "राम" ... 

आखिर उसे एक साल के बाद  गुजरात के किसी शहर में स्वतंत्र रूप से भेज दिया गया, आश्रम संभालने के लिए .. अब यहाँ  उसके अलावा एक वरिष्ठ सन्यासिनी और भी है जिसे सब बहन जी कहते हैं .. सब अच्छा ही लग रहा था, लोग आकर पैर छूते हैं, आशीर्वाद लेते हैं,  रोज़ सुबह शाम कुछ प्रवचन भी देने होते हैं दोनों समय की आरती और पूजा के बाद, आश्रम की सार संभाल और हाँ, नए आये हुए संत को जो अभी इतनी छोटी उम्र का है .. लोग अपने घर भी बुलाते ये कह कर कि  स्वामीजी अपने चरण तो फेर जाइए हमारे घर से .. कुल मिलाकर इस नए माहौल, नई  जिम्मेदारियों और नई भूमिका ने   वीरेन को  सम्मोहित कर दिया  है।  वीरेन को देखकर लोग हैरान होते, जब उसके गुज़रे जीवन की थोड़ी बहुत जानकारी पाते (उसकी शिक्षा, नौकरी, पारिवारिक पृष्ठभूमि ) तो  कहते ... " इतना पढ़ा लिखा, ऐसा सुन्दर सुदर्शन लड़का और  इतनी छोटी उम्र में वैराग्य .." 

वीरेन अपना लैपटॉप साथ लाया था, जिसमे अब भजन -- कीर्तन, प्रवचन के विडियो  सेव किये हैं। वीरेन का प्रवचन सचमुच बहुत गंभीर, गहन और प्रभावपूर्ण होता, साफ़ ज़ाहिर होता था कि  जो कुछ उसे सिखाया पढाया.. उसने , उस से कहीं ज्यादा जान लिया है।  आश्रम आने वालों को वीरेन सचमुच  highteck  सन्यासी लगता था।  औरतें, लडकियां उसे देखतीं और विश्वास ना कर पाती कि  इतना खूबसूरत नौजवान सफ़ेद कपड़ों में सन्यासी बन कर आश्रम आया है।  वीरेन, लोगों के इस असमंजस और आश्चर्य को देखता समझता और कहीं ना कहीं दिल में खुश भी  होता, लगता जैसे कुछ achieve  कर लिया .. आखिरकार कुछ ऐसा जो बहुत ऊँचे और गैर मामूली दर्जे का है, असाधारण है !!!! ...कोई सोच भी ना सके जो वो मैंने कर दिखाया .. (हाँ सही समझे, थोडा अहंकार आ ही जाता है इंसान में इतना सब झेल जाने के बाद फिर वीरेन को ही दोष क्यों दें ). 

शुरू के कुछ खुशनुमा  हफ़्तों के गुजरने के साथ साथ अब वीरेन आश्रम के कुछ प्रमुख लोगों को भी जानने लगा, प्रमुख यानी ऐसे लोग लगभग हर जगह मिल जायेंगे जो हर तरह की गतिविधि में, प्रबंधन में आगे रहते हैं और  धार्मिक आश्रम जैसी जगहों पर तो इनका होना बेहद ज़रूरी है, आखिर यही लोग सबसे ज्यादा चंदा देते हैं, हर बार जब कोई बड़ा खर्च हो या ऐसा कोई मौका हो तो उसमे उनका अच्छा खासा आर्थिक योगदान होता है।  आश्रम के बड़े स्वामी और महाराज भी विशेष निमंत्रण पर  कभी कभी  इन्ही लोगों के घर आकर रुकते हैं और इनकी गाड़ियाँ इस्तेमाल करते हैं। आश्रम के दिन प्रतिदिन के प्रबंधन और नियंत्रण में इन लोगों की बड़ी - छोटी  सारी  भूमिकाएं रहती ही हैं, कह लीजिये कि  इनके बिना आश्रम का कोई काम हो नहीं सकता (ऐसा ये लोग मान के चलते हैं, यानी कि  आश्रम ना हुआ इनकी व्यक्तिगत सम्पति हो गई)  और यही एक बड़ी वजह भी है कि  आश्रम के सन्यासियों को भी थोडा बहुत इन लोगों के अनुसार चलना ही होता है, इनके दखल को सहन भी करना होता है। वीरेन को शुरू में तो इस सब का इतना ज्यादा अहसास नहीं हुआ पर  कुछ त्योहारों के सत्संग वाले दिनों में ये बात कुछ हद तक वीरेन  को समझ  आई, जब उसने  देखा कि  आश्रम में होने वाले लगभग हर काम पर एक ख़ास व्यक्ति का नियन्त्रण है .. रमण भाई .. बाकी के सब लोग हर बात में उनसे सलाह ज़रूर ले रहे हैं। 

आश्रम में एक सेवा समिति है जो साफ़ सफाई से लेकर दोनों  समय की आरती -पूजा और प्रसाद बांटने तक के सारे काम संभालती है। यहाँ तक कि  कौन सदस्य क्या काम करेगा और कौनसा नहीं करेगा, ये भी  है और तय करते  हैं रमण भाई।  आरती के समय समिति के सदस्य ही आरती का थाल लेकर खड़े हो सकते हैं, बाकी लोग केवल थाल  को हाथ लगा हाथ जोड़ कर ही संतुष्ट हो लेते हैं। प्रसाद बांटने के वक़्त रसोई और भण्डार पर जैसे सेवा समिति के सदस्यों का वर्चस्व हो जाता है ...कोई वहाँ आ नहीं सकता, आएगा तो उससे वजह  पूछी जायेगी और फिर डांट  के भगा दिया जाएगा।  एक दो बार वीरेन ने ऐसा देखा तो रोकने और समझाने की कोशिश की लेकिन कुछ हुआ  नहीं। रमण भाई की भुवन मोहिनी हंसी के सामने  किसी की नहीं चल सकती। वीरेन को महसूस हो रहा था कि  रमण भाई का दखल कुछ ज्यादा है .. पर उनका प्रभाव कितना है इसका अंदाज़ा उसे तब हुआ जब उसने सेवा समिति में अपनी मर्ज़ी से कुछ लोगों को शामिल करने की कोशिश की।  पर जल्दी ही उन नए लोगों को और खुद वीरेन को समझ आ गया कि  वे लोग  सिवाय डेकोरेशन पीस के कुछ नहीं।  कुछ लोगों ने वीरेन से शिकायत भी की और  वीरेन ने कुछ कह सुन कर सामंजस्य बिठाना भी चाहा ...

"अरे राम दादा आप क्यों  परेशान  होते हैं, हम लोग सब संभाल रहे हैं, नए लोगों की ज़रूरत ही नहीं। हम सब कर लेंगे। आप अपना काम  संभालिये, इतने वक़्त से मैं, संजीव, रोहन और मनीष और हमारे बाकी लोग ये सब काम कर रहे हैं .. आप क्यों उलझते हैं इसमें " ये रमण भाई की स्नेह भरी वाणी थी।  वीरेन बहुत कुछ देख रहा था, प्रसाद बनता है और बहुत बनता है, कोई कमी नहीं है भगवान् के दरवाजे पर .. पर सही ढंग से तो केवल आगे की कतार में  लोगों को ही मिलता है, जो पीछे बैठे हैं  उनको तो सिर्फ खानापूर्ति भर का मिलता है।  और जिनको रमण भाई नया कह रहे हैं असल में  वे कोई कल के आये हुए श्रद्धालु नहीं, बरसों से आ रहे हैं आश्रम पर ...

पर वीरेन भी कहाँ मानने वाला  था .. उसने अगली बार गुरु पूर्णिमा के त्यौहार के समारोह के लिए अपनी एक योजना बनाई, जिसमे लंगर का मेनू, आश्रम की सजावट और यहाँ तक कि  उसने कुछ और लोगों को भी, इनमे कुछ बुजुर्ग और कुछ लड़के शामिल थे, इनको अलग अलग कामों की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी।  तैयारी के एक दो दिन ठीक ही बीते लेकिन फिर सेवा समिति के संजीव और रोहन कुछ अनमने से दिखे .. फिर रमण भाई ने नए सेवादारों के काम पर ऐतराज जताया ..गुरुपूर्णिमा का त्यौहार तो वीरेन की पसंद के हिसाब से हो गया  पर अगले ही दिन स्वामी प्रकाशानंद का जो सम्प्रदाय के प्रमुखों में से एक थे, उनका फोन आया वीरेन को, पहले हाल चाल पूछते रहे, फिर पूछा कि  सब कुछ ठीक चल रहा है ना ... कोई समस्या .. 

उनके आने का प्रोग्राम तय था दस दिन बाद का ... वे आये और तीन दिन रहे ... बहुत धूम रही, लगातार भजन कीर्तन के कार्यक्रम चलते रहे .. सुबह यहाँ शाम वहाँ, लोगों  की भीड़ लगी रही उनके दर्शन के लिए .. यहाँ फिर वीरेन ने देखा कि  "बहन जी"  "कुछ"  लोगों को तो  बहुत तसल्ली से स्वामी जी से मिलवा रही हैं,  उनका परिवार समेत परिचय भी करवा रही हैं, वहीँ बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो बस आते और यूँही माथा टेक कर चले जाते उनको जल्दी प्रसाद देकर रवाना कर दिया जाता,  परिचय आधा अधूरा सा होता और बस ... ऐसा भी नहीं था कि  वे लोग  "भेंट" कम देते हैं या आश्रम को दिया जाने वाला चंदा बहुत कम है, पर फिर भी सालों से आने के बावजूद उनका कोई ख़ास वजूद नहीं था। 

रात को सब तरह से फुर्सत मिलने के बाद स्वामी प्रकाशानंद ने वीरेन को अलग से बुलाया और कमरा बंद कर के काफी देर को समझाते रहे या कहते रहे .. और उनके कहे का सार यही था कि  जैसा लोग चाहते हैं, जैसा चल रहा है, चलने दो , इसी में उनकी ख़ुशी है , हम सन्यासी हैं, हमें आज यहाँ और कल कहीं और जाना है, क्यों इनके काम में दखल देते हो।  तुम्हे यहाँ जिस उद्देश्य से भेजा गया है बस उतने पर ही ध्यान दो।  अब वीरेन बस यही नहीं समझ पाया कि  उसे "किस उद्देश्य" के लिए भेजा गया है .. "लोगों को ज्ञान की रौशनी दिखाने के लिए ?????????? 

खैर, दिन गुजरे,  अब एक और बात वीरेन को दिखाई देने लगी ... शुरू  में तो  उसने खुद को ही लताड़ा कि  क्या वाहियात चीज़ें सोच रहा है ... पर फिर यकीन हो गया .. कई दिनों से देख रहा था वीरेन,  कुछ लडकियां और औरतें (जी हाँ जवान, मध्यम  आयु की, सभी ) अक्सर जब आश्रम आती हैं तो वजह बिना वजह उसके कमरे में भी चली आती हैं .. और कुछ नहीं तो यूँही नमस्कार करने, प्रणाम करने, पैर छूने ....  वीरेन उनके कपड़ों को देखता है और सोचता है कि  क्या और कितना  फर्क है इस छोटे शहर की औरतों में और उन बड़े मेट्रोज की क्राउड में ... फिर सोचता .. आखिर तो सब इंसान ही हैं , अन्दर से सब एक से ... पर उन लड़कियों का इस तरह बार बार आकर कमरे में बैठ जाना .. वीरेन को परेशान करने के लिए काफी होता ... और वीरेन इतना भी मूर्ख नहीं कि  नज़रों के भाव ना समझ सके .. पर उसे पता है कि  वो क्या कुछ पीछे छोड़ आया है और इन लोगों को नहं पता कि  ये सब आकर्षण और लालसाएं अब अर्थहीन हो गई हैं।

जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे, वीरेन रमण भाई और उनकी "जागीर" बन गए आश्रम  के रंग रूप को देखता और हैरान होता जाता कि  भगवान् के दरवाजे पर भी लोगों को आपस में छोटी छोटी बातों के लिए लड़ने  और राजनीति  करने से फुर्सत नहीं।  "ये  सेवा मेरे जिम्मे  है, सिर्फ मैं ही कर सकता हूँ, आपने क्यों हाथ लगाया ..." " सब लोग लाइन में खड़े रहिये।। ऐ अम्माजी, कहाँ लाइन से बाहर  जा रही हो .." " क्यों क्या काम है, यहाँ क्या कर रहे हो ... पीछे बैठो, इस जगह पर हम बैठते हैं .." और भी पता नहीं क्या क्या .. वीरेन ने कई बार इस सब को रोकने और समाधान की कोशिश की पर बेकार गया .. उसकी बात को सुना अनसुना कर सेवा समिति के लड़के अपनी मनमानी करते रहते ..   


 यहाँ तक अब कई बार रमण भाई वीरेन को भी झिड़क देते थे।

"वैसे राम दादा, कितना  वक़्त हो गया  आपको ये चोला धारण किये हुए .." सवाल था या व्यंग्य समझना कठिन था .

" यही एक साल हुआ होगा .. "

"बस !!!!! .. मैं तो अपने पिता के समय से आ रहा हूँ आश्रम में और तब से ही  ये  सारी व्यवस्था संभाल रहा हूँ। आज तक कितने ही संत आपके जैसे यहाँ आये और गए .. सब के साथ मेरा अच्छा सम्बन्ध रहा .." 

अब इसका अर्थ समझना  मुश्किल नहीं  था।  वीरेन समझ गया कि  रमण भाई के  साम्राज्य में हरेक को सोच समझ कर चलना होगा .. उसने "बहनजी" को बता कर कुछ समाधान करने की कोशिश की। पर वहाँ  बेहद ठंडा  जवाब मिला और उसकी वजह भी जल्दी समझ आ गई .. आश्रम की रसोइ में modular किचन लगवाने की तैयारी हो रही थी। और उसका पूरा खर्च रमण भाई और उनकी सेवा समिति के कुछ सदस्य उठा रहे थे। 

और फिर एक दिन, शाम को स्वामी प्रकाशानंद का फोन आया ... "राम, तुमको छत्तीसगढ़ भेज रहे हैं .. आज रात ही कोशिश करो रवाना होने की।" 

"पर स्वामी जी, अभी तो यहाँ आये सिर्फ आठ महीने ही हुए हैं, अभी तो यहाँ .."

"राम, सन्यासी का कोई निश्चित ठिकाना या घर नहीं होता और ना किसी जगह से इतना मोह पालो ..वैसे भी तुम यहाँ ठीक से संभाल नहीं पा रहे .."

"क्या ...???"       

       
To Be Continued.. 
     
 

  1st Part of The Story is Here

The Story, Charactors and Events are all FICTIOUS.
  



    
   

  



Thursday, 25 October 2012

ज़िन्दगी : आधी हकीकत, आधा फ़साना भाग --1

छत का पंखा तेज़ गति से चल रहा था .. नवम्बर के आखिरी दिन थे और ऐसी कोई गर्मी भी अब नहीं थी। लेकिन ऐसे  में भी  वीरेन के माथे से  पसीना बह रहा था। उसकी आँखें छत के पंखे को घूर रही थी, एकटक ... कमरे में जीरो बल्ब जल रहा था जिसकी हलकी रौशनी में उसका भावहीन  चेहरा   और पथराई आँखें एक डरावना  दृश्य बना रही थी।  अचानक वो उठा,  एक झटके से और तेज़ क़दमों से अपने फ्लैट से बाहर निकल गया .. चलता गया .. सड़क पर भीड़ है, ट्रैफिक का शोर है पर वीरेन को कुछ नहीं दिख रहा .. कोई उसे नहीं देख रहा । किसी ने उसकी तरफ ध्यान भी नहीं दिया।  वो चलता गया , कोई उस से टकराया तक नहीं .. सब जैसे  आज वीरेन से नज़र बचा कर, अपना कंधा बचा कर ही निकल रहे थे। आज वीरेन अकेला है .. आज इतनी बड़ी दुनिया में  उसका एक छोटा सा कोना भी नहीं।  ऐसा कैसे और क्यों हो गया ... क्या गलत हो गया .. कौन गलत था .. कौन, कितना गलत या सही था .. और अब आगे ?? और जो पिछला बीत गया .. ?? क्या सब बीता हुआ वक़्त हो गया ? क्या कुछ नहीं लौटेगा ? क्या कोई भी नहीं लौटेगा ?  क्या कभी कोई मुझसे फिर से बात नहीं करेगा वैसे ही जैसे पहले था ?  क्या, क्यों, कैसे ??? सवाल ही सवाल .. बवंडर सा मचा है उसके अन्दर .. उसका दिमाग चकराने लगा है ... लगता है जैसे अभी  गिर पड़ेगा .. पर वीरेन चलता गया .. उसका गला सूख रहा है ... नवम्बर की गुलाबी सर्दी की जगह जून की तपती दोपहर ने उसके शरीर और आत्मा को घेर लिया है .. उसकी आँखें सड़क पर फिसल रही है पर कहीं रूकती नहीं .. आखिर उसे रुकना पड़ा .. पैर कहीं टकराया है, शायद पत्थर है .. उसका सर घूम रहा है ..


वीरेन कब घर वापिस लौटा उस खुद  ही खबर नहीं .. कैसे लौटा, नहीं पता .. वही बिस्तर है, छत का पंखा और उसको घूरती दो आँखें .  पिछले चार दिन से यही चल रहा है .. दोस्तों, परिवार वालों को नहीं पता कि  वीरेन कहाँ है .. उसके फोन पर मिस्ड कॉल्स और sms की संख्या बढती ही जा रही है .. पर उसने एक बार भी नहीं देखा ... खुद वीरेन को नहीं पता कि वो खुद कहाँ है .. लेकिन  ऋचा इस समय   कहाँ है , ये उसे ज़रूर पता है ... और उसे सवाल पूछने हैं ऋचा से .. पूछ भी चुका  है पर जितने जवाब सुनता है उतना ही उसके अन्दर के  तूफ़ान की चीखें बढ़ने लगती हैं।  



" क्या सिर्फ यही वजह है? क्या सिर्फ यही स्पष्टीकरण है तुम्हारे पास? और वो सात साल उनके लिए क्या कहोगी ? ये सब तुमने पहले नहीं सोचा था या तुम्हे पता नहीं था ? "


"देखो वीरेन , तुम जानते हो मुझे .. मैं अपनी सारी  ज़िन्दगी यहाँ नहीं गुजारना चाहती ... इतनी पढ़ाई लिखाई और उस पर इतना इन्वेस्टमेंट क्या यहाँ भारत में रहने के लिए किया था ..मैंने कभी नहीं सोचा था  कि  तुम अपने अच्छे  खासे  करियर और नौकरी के अवसरों  को छोड़ कर मध्यप्रदेश के किसी छोटे से शहर में  ये फॅमिली बिज़नेस  संभालने के लिए चले आओगे ।" क्या तुम कह सकते हो कि  तुम वही वीरेन हो जिस से मैंने कॉलेज में प्यार किया था ?"

" लेकिन ऋचा ये कोई मामूली बिज़नेस  तो नहीं .. पैसा है, पोजीशन है,  स्टेटस है सोसाइटी में .. और क्या चाहिए ?"

"मुझे यहाँ नहीं रहना .. जैसी ज़िन्दगी मुझे चाहिए वो तुम मुझे नहीं दे सकोगे। ज़रा देखो इस disgusting  शहर को ... क्या मैं यहाँ रहूंगी ? मैं अपनी लाइफ स्टाइल क्या तुम्हारे इस नए एडवेंचर या वेंचर के लिए बदल डालूँ ... क्या मैं अपनी सारी   ज़िन्दगी यहाँ इन मुर्गीखानों में गुज़ार दूँगी? "

"नहीं वीरेन, मुझसे ये नहीं होगा .."

और ऋचा चली गई, कनाडा .. अपने पति के साथ, जो वहाँ का परमानेंट सिटीजन कार्ड होल्डर भी है।   


सब बेकार है, बकवास है, a big bullshit ..
वीरेन अपने आप में ही बोले जा रहा है .. छत का पंखा वैसा ही तेज़ चल रहा है।  उसका चेहरा विवर्ण  होता जा रहा है .. आईने के सामने खडा वो चीख रहा है, उसी पागलपन की हालत में उसने कांच को जोर से मार कर तोड़ दिया .. उसके हाथ और बांह से खून बहने लगा  और  तभी एक धारदार कांच का टुकड़ा उसने अपने हाथ में उठा लिया .. और शायद वो टुकड़ा अभी अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ता इसके पहले ही दरवाजे पर घंटी बजी । और ऐसा लगा जैसे वीरेन एकदम से किसी गहरी नींद से जागा हो .. कांच का टुकड़ा हाथ से गिर गया .  कुछ देर बाद जाकर उसने दरवाजा खोला ... वहाँ अब कोई नहीं था।


"बेटा  कब तक ऐसा चलेगा .. कब तक तू ऐसे ही .."

"प्लीज माँ .."

"अच्छा , सुन  आज मुझे आश्रम जाना है तू भी चलेगा साथ में?"
"मैं??"

और यही कोई एक घंटे के वाद  वीरेन  माँ के साथ एक बड़े से हॉल में बैठा किसी गेरुए वस्त्र पहने, हलकी दाढ़ी और गेरुए कपडे से ही सर को ढके हुए,  किसी उम्रदराज लेकिन प्रभावशाली व्यक्ति का प्रवचन सुन रहा था। कहना मुश्किल है कि  वीरेन सच में सुन रहा था या सिर्फ देख रहा था या खुद में ही कहीं गुम  था . आखिर प्रवचन भी ख़त्म हो गया, सबको प्रसाद दिया गया और जब वो गेरुए कपड़ों वाला आदमी भी जाने लगा तो वीरेन की माँ ने उसे जाकर कुछ कहा और फिर इशारे से वीरेन  को भी बुलाया.  वे श्रीमान  थोड़ी देर तक कुछ कहते रहे समझाते रहे वीरेन को जो सब उसने सुना और फिर भूल गया .

पर उस दिन के बाद जैसे कैसे भी, माँ रोज़ या हर दूसरे  दिन अपने उदास बेटे को  आश्रम ले जाने लगीं। इस उम्मीद में कि  उसका मन संभल जाएगा (आश्रम और साधू सन्यासियों के प्रवचन मन को बहलाने की चीज़ नहीं होते ) .  कुछ दिन और बीते और अब खुद वीरेन को भी वहाँ अच्छा लगने लगा .. प्रवचन होता था , वो सुनता था .. उसमे ज़िन्दगी की व्यर्थता, हमारे चारों और मोह माया के बंधन, हमारे  जीवन के वास्तविक लक्ष्य यानी मोक्ष प्राप्ति और इस जीवन में वास्तविक सुख कैसे पाएं और ऐसी जाने कितनी बातों का जिक्र रहता था .

वीरेन का थका हुआ मन था और उलझा हुआ दिमाग था .. ऋचा के जाने के बाद वैसे भी उसके लिए संसार सचमुच मोह माया जैसी ही कोई बेकार सी चीज़ बन गया था और आश्रम उसका नया शगल था .. यहाँ कुछ तो बात थी .. माहौल बेहद शांत रहता है, जैसे कोई अदृश्य सा aura  यहाँ की दीवारों, छत और हर छोटी बड़ी चीज़ को घेरे  हुए है।  सबसे शांत और रहस्यमय व्यक्तित्व था, स्वामी  अमृतानंद जी का।  जैसा उनका नाम था वैसा ही उनका aura था ..  धीमी  और गहरी  आवाज़ ... बस सुनता  ही जाए इंसान। स्वामीजी ने वीरेन की माँ को तसल्ली दी थी और अपने ही अंदाज़ में भविष्यवाणी भी  की थी, कि   उसका  बेटा  फिर से अपनी ज़िन्दगी में रम  जाएगा, उस बेकार सी लड़की की कोई परछाई भी उस पर बाकी नहीं रहेगी।  और इसलिए जब वीरेन ने अपनी शामें और कभी कभी दोपहर भी आश्रम में बिताने शुरू किये तो माँ को कोई ऐतराज नहीं हुआ।

"अरे संतों की सेवा तो जितनी करो उतनी कम है ... इतने साल तो कभी गया नहीं .. अब जाकर कुछ सदबुद्धि आई है ". 

अब वीरेन को नहीं पता कि  उसे कौनसी सदबुद्धि  या और कोई बुद्धि मिल गई है पर वहाँ जाना उसे ज़रूर अच्छा लगता है . वहाँ से किताबें लाकर पढना , उनका अर्थ समझना और ये महसूस करना , यकीन करना कि  दुनिया में कोई तो है जिसे हम दिल खोल कर अपना हाल बता सकते हैं उसके आगे रो सकते हैं और उम्मीद भी कर सकते हैं हमारी प्रार्थनाओं और पुकार की कहीं तो सुनवाई होगी ही .. हो भी रही होगी .  (वैसे अब वीरेन की  प्रार्थनाएं ना तो करियर को लेकर थी ना और किसी सुख सुविधा के लिए, ऋचा का तो खैर अब सवाल ही नहीं उठता था)  अब उसकी प्रार्थनाये अपने लिए शान्ति और एक नए रास्ते की खोज के लिए हैं । वीरेन को विश्वास हो चला है कि  इस नश्वर संसार में अब और कुछ नहीं बचा जो देखा नहीं, जिसका अनुभव नहीं किया और  जिसकी कोई ख्वाहिश बाकी रह गई।

"कहाँ  है आजकल,  कोई खबर ही नहीं तेरी ?"

"बस यूँही .. "

" अच्छा सुन आज चलते हैं,  वहीं ... तू पहुँच जाना। कहाँ रहता  है आजकल ?"

"कहीं नहीं बस माँ  को आश्रम ले जाता हूँ तो वहीँ देर हो जाती है .."  एक सीधा सरल बहाना जो बेकार  गया .

"क्या??? आश्रम ... तू कब से इन जगहों पर जाने लगा ..क्या चक्कर है भाई  ??"

अरे कुछ नहीं ...अच्छा मैं आ जाउंगा।"

लेकिन वीरेन कहीं नहीं गया , कभी नहीं गया।  उसे जाने में दिलचस्पी ही नहीं।  उसने कहीं जाना ही छोड़ दिया ... साथ ले जाने वालों के साथ कभी कभार जाता पर फिर जल्दी   लौट आता . वो ठिकाने, वो महफिलें, वो दोस्तों का मेला ..सब बेमजा और बेगाना होने लगा था ..जाने कैसा हो गया था वीरेन का मन, लगता था जैसे इंसानों  के इस जंगल में उसका कहीं कोई संगी साथी नहीं .. केमिस्ट्री, जियोग्राफी और मैथमेटिक्स अब सब अर्थहीन होने लगे थे ...  कोई कहता कि  वीरेन अब आधुनिक देवदास बनेगा, कोई कहता नहीं ये तो  नया ही अवतार लेगा .. कोई कोई हँसते कि  इसका दिमाग खराब हो गया है ... कुछ इलाज की ज़रूरत है।  कहने वाले दोस्त -यार सब ने  आखिर  तंग आकर कहना और पूछना और याद दिलाना भी छोड़ दिया . उन्होंने मान लिया कि  वीरेन को अब कुछ नहीं समझाया जा सकता।

पर वीरेन को अब कुछ नहीं बनना है .. बीते दिनों का एक छोटा सा टुकड़ा भी याद नहीं करना . बीती हुई कोई चीज़ वापिस नहीं चाहिए।  पर फिर भी उसे कुछ तो चाहिए, कुछ .. एक अपमान सा महसूस होता है उसे .. लगता है जैसे उसका अपना  एक हिस्सा छिन  गया  है।  बदला चाहिए उसे .. पर फिर सोचता कि  बदला किस से ले .. किस बात का .. और लेने या छीन सके ऐसा क्या शेष रहा।

आश्रम आकर एक अच्छी  चीज़ ये हुई कि  वीरेन के मन को यहाँ कुछ सुकून और  शांति मिलने लगी।  इस जगह आकर उसे लगता जैसे  दुनियादारी और  उसके नुमाइंदों की परछाई भी उससे दूर भाग गई है। उसे नफरत हो गई है रिश्तों से, शब्दों के जंजाल से, चेहरों के नकाब से और अंतहीन सामाजिक व्यवहारों के तरीकों से ... जिनमे आप लोगों को नापसंद करते हुए भी उनसे निभाते चले जाते हैं , सामने हंस हंस के बोलते हैं और मुंह फेरते ही बुराइयां गिनाने लग जाते हैं। जहां ज़रूरत के,  लालच के सम्बन्ध है।  जहां लोग अपने अलावा बाकी हर इंसान में, हर चीज़ में खामियां निकालते फिरते हैं। जिस चीज़ से शिकायत है उसी से चिपके हुए हैं।  जहां हर कोई अपनी ही सफलता, समृद्धि और उपलब्धि  के गीत गाये जा रहा है, दूसरों को उनकी कमतरी का अहसास दिलाये जा रहा है।  जहां हर तरफ घुटन है, हवा में सड़े  गले मांस की बदबू है ... और कई सारे पुराने कंकाल हैं .. जाने किन किन नामों का कफ़न ओढ़े हुए ... 

वीरेन को सांस लेना भी मुश्किल लगता है इस हवा में ... यहाँ रहना और जीना उसकी  बर्दाश्त से बाहर है।  पर जिम्मेदारियों और  दायित्वों  से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता  इसलिए इस बोझ को उठाये वीरेन भागता फिरता है दिनभर ...

और अब वीरेन कुछ तलाशने में जुट गया है, उसे ऐसा लगता है जैसे वो इस आस पास के माहौल से belong नहीं करता .. उसे कहीं और होना चाहिए .. ये हर रोज़ का गल्ले का हिसाब, ये खरीद - बेचान के समीकरण, ये मुनाफे और घाटे का हिसाब ...इनमे अब उसका मन नहीं टिकता .
उसकी प्यास नहीं मिटती .. उसकी तृष्णा  शांत नहीं होती .. सवाल के बिच्छू डंक मारते ही रहते हैं। सब से दूर कहीं खो जाने, किसी  अनजानी मगर उजली मिटटी में मिल जाने का उसका मन चाहता है।

वीरेन अपने इन सब सवालों को स्वामी अमृतानंद  के सामने रख देता  .. और हैरानी की बात ये भी थी कि  आजकल अब वो बहुत दार्शनिक  नज़रिए से सोचने और सवाल करने लगा था।

"ऐसा क्यों होता है ... वैसा क्यों नहीं होता ? और अगर ऐसा ही होना है तो फिर हम क्या सिर्फ  मूक दर्शक है अपने ही जीवन की घटनाओं के ?"

" और इस जीवन के परे इस संसार के परे सच में कोई स्वर्ग है क्या ? ये मोक्ष क्या है ..और अभी जो नरक इस जीवन में झेल रहे हैं वो मरने के बाद के नरक के अतिरिक्त यानी एक्स्ट्रा addition है क्या ?"

उसका सबसे बड़ा सवाल था कि  इस आम साधारण ज़िन्दगी को  असाधारण  कैसे बनाया जाए ???? स्वामी अमृतानानद  सुनते .. मुस्कुराते .. अपनी आँखों को थोडा सा बंद करते फिर अपने नज़रिए और ज्ञान के मुताबिक़ जवाब देते।  कई बार वीरेन के सवाल शांत हो जाते कई बार नहीं भी होते।

अपने  काबिल बेटे के बदले रंग ढंग और उसका नई  चाल ढाल घरवालों की खासतौर पर पिता का सरदर्द बन रही है और माँ ये सोचती कि  कोई नहीं सब ठीक हो जाएगा ... वीरेन की शादी हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा ..पर लड़का माने जब ना।  अब उसे शादी नहीं करनी अपना परिवार, गृहस्थी, बीवी  ये सब शब्द वीरेन को बेहद दकियानूस और बोझ लगते हैं ... (जिसके साथ सात साल गुज़ारे जब वही ज़िन्दगी में साथ निभाने को राज़ी ना हुई तो ये मम्मी और डैड की ढूंढी हुई राजरानी कौनसा साथ निभाएगी ) 

और फिर इसी मुद्दे पर घर में बहसें चलती ... लम्बी लम्बी .. जिनका कोई निष्कर्ष नहीं था .. वीरेन शादी नहीं करेगा और ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढता फिरेगा ... माँ और बूढ़े पिता के माथे पे मारे चिंता के पड़ने वाली रेखाएं और गहरी होती जातीं ... ज़िन्दगी  अपने इन चेहरों से बेहाल हो उठी थी।

कुछ हफ्ते, महीने बीते ... वीरेन को इतना तो समझ आ ही गया कि  ऋचा वाला अध्याय ना उसकी कोई व्यक्तिगत असफलता है, ना उसका अपमान और ना ही उसकी कोई गलती ... बीती ज़िन्दगी को जब सोचता, बैंगलोर, मुंबई और पूना में गुज़रे सालों को याद करता।। वो सच में ज़िन्दगी का एक बेहद खुशगवार वक़्त था .. बेफिक्री थी .. भविष्य के सपने थे ..वीरेन तो अब भी वही है   पर अब उसे लगता कि  अपनी ज़िन्दगी को ऐसे किसी आयाम पर ले जाए जहां  ये  सो-कॉल्ड  असफलताएं , ये निराशाएं और वो पूरी ना हुई ख्वाहिशें अपने आप में ही छोटी पड़  जाएँ।  कुछ ऐसा जो उसे इस दकियानूसी माहौल से दूर ले जाए। अब उसे ना स्टेटस चाहिए था, ना पैसा, ना कोई और चीज़ अब उसकी आँखों को आकर्षित कर पा रही है ... पैसा और उस से खरीदी जाने वाली ख़ुशी अब ख़ुशी नहीं लगती  थी .. स्टेटस तो पहले भी था  और अभी भी है पर  उसे बना संवार के रखने की कोशिशें सिवाय बोझ के और कुछ नहीं ...

लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं निकाल  सकते हम कि  वीरेन को इस संसार से, इस  तथाकथित नश्वर संसार से कोई वितृष्णा हो गई थी या उसने  वैराग्य  लेने का इरादा कर लिया था।  अगर कोई गौर से देखता तो समझ पाता  कि  वेरेन दरअसल अपने ही तरीके से उस भूतकाल से छुटकारा पाने की कोशिश में लगा था .यानी उसके हिसाब से ज़िन्दगी वापिस नार्मल ट्रैक पर आ रही थी।

पर अभी सब कुछ  नार्मल कहाँ हुआ है .. जब हम सोचते हैं कि  अब  सब  ठीक है तभी ज़िन्दगी अपने तरीके से कोई यू  टर्न लेती है। एक अच्छी खासी शाम को, एक लम्बे वक़्त के बाद दोस्तों के साथ एक पूरी शाम और शायद रात भी गुज़ार देने का इरादा बनता, पर घर से कोई ज़रूरी  काम के लिए फोन  आया और वीरेन रवाना हुआ . मस्ती से, आराम से  अपनी बाइक  चलाते हुए .. रास्ते से कुछ सामान  लेना था , इसलिए वीरेन रुका शहर के सबसे व्यस्त चौराहे के सामने वाले बाज़ार की किसी दूकान पर। दूकान पर भीड़ थी, उसका नंबर आने और सामान मिलने में अभी वक़्त लगना था .. इसलिए उसकी आँखें यूँही  "बाज़ार दर्शन" करने लगी .. और निगाहें रुकी चौराहे पर बने सर्किल के किनारों पर बैठे एक परिवार पर .. उसमे बच्चे थे, बड़े भी थे और वो भिखारी ही थे। पर वीरेन ने कुछ और भी देखा ... उसने हँसते हुए बच्चे  देखे, अपने से छोटों को हाथ से कुछ  खिलाते हुए , बड़े प्यार से आपस में बतियाते हुए परिवार के लोग देखे, एक दुसरे से हंसी मजाक करते हुए, किसी नन्हे को गोद में खिलाते हुए एक काले गंदे से भिखारी को भी देखा। ऐसा लग रहा था कि  उन लोगों को  इस वक़्त इस पूरे जहान  में किसी से कोई लेना देना नहीं .. ये जो शाम का भागता दौड़ता ट्रैफिक है, ये बाजारों की व्यस्तताएं,  ये भीड़ का शोर .. किसी बात से कोई मतलब नहीं उनको।  चौराहे पर बसी अपनी ही उस टेम्पररी दुनिया में खुश थे।

ये नज़ारा जैसे वीरेन के दिल पर नक्श हो गया। वो घर लौटा और एक बार फिर  से  "खो" गया ... उसी चौराहे पर, उन भिखारियों की हंसी में।       

To Be Continued ...

The second part of the story is Here