Friday, 30 September 2011

रजनीगंधा --Part 2

"सौम्या" अगले कुछ क्षणों  तक उस लड़के की तरफ देखती रही , जैसे सोच रही थी कि क्या वो पुराना परिचय इतना प्रगाढ़ था कि उसके लिए ये अजनबी (हाँ अजनबी ही कहा जाना चाहिए क्यूंकि सौम्या अभी  तक उसका नाम नहीं जानती थी, कितनी अजीब सी बात थी पर सच थी.. ) इतना खुश हो रहा है . फिर शांत और संयत  आवाज़ में कहा, "मैं आपका नाम भूल गई हूँ"....कहते हुए मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया  और उत्तर की अपेक्षा में उसकी और देखने लगी ..पर शायद वो लड़का कुछ बेहतर प्रतिक्रिया या यूँ कहें कि एक गर्मजोशी और प्रसन्नता से भरी आवाज़ की अपेक्षा कर रहा था. खैर कुछ सेकंड के लिए लगा कि वो थोडा निराश हुआ है, फिर अगले ही पल संभल कर उसने कहा, " आप भूली नहीं है,  हम दोनों का ऐसा कभी कोई औपचारिक परिचय कभी हुआ नहीं कि नाम बताने की नौबत आई हो ...वैसे मेरा नाम "जय"  है और आपका नाम सौम्या है  इतना मैं जानता हूँ." 
मुझे हैरानी हुई, पर क्या कहूँ ये समझ नहीं आया...और मैं वही उलझी हुई निगाहों से उसे  देखने लगी ...क्या कहूँ , कुछ कहना तो चाहिए पर क्या....पहचान का जो सूत्र ये अजनबी उर्फ़ जय ढूंढ लाया है..वो धागा अब भी मेरी स्मृति में दर्ज है...जैसे किसी किताब के पन्नों में हम गुलाब की पत्तियां छुपा के रखते हैं .. ...पर जिस तरह समय के साथ वो पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी खुशबू कम  होने लगती है , कुछ वैसा ही अहसास मुझे भी हो रहा था ....पर मैं ये ज़ाहिर  नहीं करना चाहती थी..लेकिन मेरी ख़ामोशी और चेहरे की सपाट भाव-भंगिमा ने माहौल को और ज्यादा  असुविधाजनक बना दिया ..खैर फिर जाने कहाँ से दिमाग में  कुछ स्पंदन हुआ और मुझे शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार के सारे सबक याद आ गए ..

 मैंने मुस्कुराने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, "this is really surprising to meet you once again, that too here in rishikesh..I never anticipated any such thing ".( ये अंग्रेजी बड़ी सुविधाजनक भाषा है, इसमें बगैर किसी परेशानी के  बड़ी से बड़ी औपचारिक बात को बड़े सहज ढंग से कह दिया जाता है ..और हमारा लहजा भी बेहद  casual हो जाता है .)   खैर, इस एक वाक्य  ने माहौल को काफी हल्का बना दिया और जय को भी लगा कि वो unwanted - entry नहीं है. इतने में निशिता ने उसे  हमारे साथ बैठने का भी निमंत्रण दिया जिसे उसने ये कहते हुए नकार दिया कि " आप को देखकर, मैं  बस यूँही मिलने आ गया ". 

"लेकिन आप यहाँ कैसे और आजकल क्या कर रहे हैं?"    मेरा ये  सवाल जय के लिए काफी उत्साहवर्धक साबित हुआ क्योंकि  उसकी वो पहले वाली मुस्कराहट अब वापिस लौट आई  और कुछ संक्षेप, कुछ विस्तार और कुछ बेहद दिलचस्पी से उसने बताना शुरू किया ,  "मैं यहाँ दोस्तों के साथ हिमालयन mountaneering इंस्टिट्यूट  में ट्रेनिंग के लिए आया था. basic  course ख़त्म करने के बाद यहाँ कुमायूं हिमालय  में trekking की. और इसके बाद उसने कुछ trekk pass और पहाड़ों के स्थानीय नाम बताये जहां वो लोग अब तक जा चुके थे,,  ये सब नाम मेरे लिए अजनबी ही सही पर काफी दिलचस्प थे. देखा जाये तो अब तक मेरे सभी दोस्त जय में काफी रूचि लेने लगे थे..   
जय और आगे कहता गया कि वो आजकल एक फ्रेंच कंपनी का बिज़नस develpoment manager है और   भी पता नहीं क्या- क्या......  

जाते-जाते उसने मेरा फोन नंबर माँगा जो कुछ झिझकते हुए मैंने दे भी दिया ..कहने की ज़रुरत नहीं कि शाम तक उसके massage और एकाध कॉल भी आ गए..अगले दिन हमें वापिस जाना था और जय का जब फोन आया तब हम ऋषिकेश से आधा  रास्ता तय कर चुके थे..उसे शायद ये लगा था कि जाने से पहले मैं उस से मिल कर जाउंगी लेकिन अब मैं इतनी अच्छी  कब से हो गई .   

पर जय को उपेक्षित करना आसान नहीं था..जयपुर के उस workshop कि स्मृति अभी इतनी भी धुंधली नहीं हुई थी और ना मैं उस संक्षिप्त सी और कभी कभी ही होने वाली बातचीत को और उस मुस्कुराते चेहरे को भूल सकी थी..इसलिए घर लौट कर भी मेरा जय से फोन, mail  के ज़रिये संपर्क बना रहा... अब ऐसा तो नहीं कह सकती थी कि मुझे जय से प्यार हो गया था या ऐसा कभी कुछ था , पर  मैं आसानी से उसे खुद से परे नहीं हटा पा रही थी... लेकिन इतना ज़रूर था कि  मेरे अन्दर के एक खाली कोने को जय की  उपस्थिति   ने भर दिया था... वक़्त अपने तरीके से गुज़रता रहता है...कहीं एक अजनबी शहर में मिला कोई पुराना परिचित ..कब आपका बड़ा अच्छा दोस्त बन जाता है ..कुछ पता नहीं चलता ...

और कभी कभी तो उस अजनबी की एक आदत सी हो जाती है.. और शायद जय अब "सौम्या" की आदत बनता जा रहा था... वक़्त अपनी गति से चलता जा रहा था..कुछ और महीने बीते ..और समय के साथ अब इसे हम दोस्ती कह लें या और कोई समीकरण बनाएं ..जो भी था..कुछ ऐसा कि जो अच्छा लग रहा था..और जिसकी अब आदत होने लगी थी. लेकिन  फिर भी जय और उसके किस्से, कहकहों, उसके साथ लड़ने-झगड़ने के अलावा और भी दुनिया थी,  है  और हमेशा रहनी ही है.

जय में मेरी बढती दिलचस्पी को सबसे  पहले निशिता ने पकड़ा और तोप के गोले की तरह उसने  एक सवाल मेरी तरफ उछाला .." तुझे जय पसंद है ना ?"

उसके चेहरे पर एक तीखी सी मुस्कराहट  थी , जैसे उसने कोई बहुत बड़ा राज़ जान लिया है और अब अपनी  इस सफलता की पुष्टि मुझसे चाहती हो...

"अच्छा लड़का है, पर ऐसा भी कुछ नहीं सोचा है मैंने..पर हाँ, "we are  good  friends " (बताया था ना  कि  अंग्रेजी बड़ी सरल भाषा है)

"अच्छा, good friends !!!!!!!!!, उसने कभी  कुछ कहा तुझसे???"

"ओफ्फ्हो, निशि, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, ऐसा कोई सीन नहीं है , बेकार ख्याली पुलाव मत बना" .
खैर उस वक़्त बात आई -गई हो गई. पर शायद ऐसा नहीं था.. अब  जैसे जय के बात करने या कुछ कहने या पूछने के तरीके में, मैं कुछ फर्क महसूस कर रही थी..कभी-२ कोई बात कहते -कहते रुक जाना या उसे अधूरा ही छोड़ देना ..समझ नहीं आ पा रहा था.. पर फिर उसने एक दिन सीधे से ही सवाल कर दिया .." तुम शादी कब कर रही हो ..."
सवाल कोई बहुत अप्रत्याशित  तो नहीं था ..अक्सर दोस्त, रिश्तेदार ऐसा सवाल पूछते ही हैं और इसलिए मैंने भी बेफिक्र तरीके से यूँही टालने भर के लिए कह दिया कि "कर लूंगी जब कोई पसंद का लड़का मिल जाएगा"...

"और क्या पसंद है तुम्हारी?" ये अगला सवाल था. मुझे समझ नहीं आय़ा कि वो ऐसे ही पूछ रहा है या सचमुच उसे जानने में दिलचस्पी है या पता नहीं क्या..लेकिन इस मुद्दे मेरी दिलचस्पी ना देखकर उसने आगे कुछ नहीं पूछा.

खैर, उन दिनों ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी की  फिकर मम्मी और निशिता के लिए दुनिया का सबसे अहम् मुद्दा बन गई थी. लगभग हर तीसरे-चौथे दिन मेरे सामने कोई  ना कोई नाम, उससे जुडी जानकारियाँ और संभव हो तो तसवीरें भी रख दी जातीं. जितनी बार मैं मम्मी या पापा को किसी रिश्ते के बारे में या किसी लड़के के बारे में बात करते सुनती , उतनी ही बार मेरा दिल कांपने लगता, बस यही मनाती कि किसी भी बहाने , कारण से ये रिश्ता, ये नाम रिजेक्ट हो जाए. और सचमुच ऐसा हो भी  जाता, कभी हमारी तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से कोई ना कोई ऐसी वजह बन जाती कि शुरू होता सूत्र वहीँ समाप्त हो जाता. और मैं चैन की  सांस ले लेती. (कुछ देर के लिए ही सही). फिर सोचती कि ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई अंत नहीं? ..

निशिता के पास भी जैसे बात करने के लिए यही एक विषय था.." तो कुछ सोचा तुमने, कुछ तय हुआ ..?" मेरा नकारात्मक  जवाब सुनकर मुझ पर नाराज़ होती...अब जब निशिता का ये हाल था तो मम्मी के कहने -सुनाने के बारे में अलग से क्या बताया जाए..

पर इस सारी माथा-पच्ची में,  मैं जैसे इस पूरी प्रक्रिया से दूर भागने लगी थी. मेरा द्वंद, जाने कौनसी   अनजानी चिंताएं और कुछ न तय कर पाने की  उलझन बढती ही जा रही थी. और जब ऐसे ही एक बोझिल दिन पर जब माँ और निशिता फिर से  मेरी शादी और उस से जुडी परेशानियों पर बात कर रही थीं....और माँ ने हमेशा कि तरह कहा...
"पता नहीं कब होगी इसकी शादी, मैं तो अब थक गई हूँ...? कब कोई लड़का मिलेगा.."
उस समय अचानक से यूँ लगा कि इतना बड़ा सिरदर्द और इसकी वजह मैं...निशि कुछ कहने वाली थी पर उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने सपाट आवाज़ में कहा.." मेरी शादी की  अब आप लोग फिकर करना बंद कर दें... मुझे नहीं करनी शादी. मुझे किसी से शादी नहीं करनी."

"क्या बोल रही है.. पागल हो गई है क्या ?" मम्मी गुस्से में कहने लगी...निशि ने मुझे चुप रहने का इशारा किया लेकिन मैं सब कुछ सुनी-अनसुनी करते हुए वहाँ से चली आई.. कुछ और सूझा नहीं तो छत पर चली गई.. निशि मेरे पीछे आई..

"ये क्या नाटक है सौम्या?  क्यों नहीं करनी शादी?  क्या हो गया ?"

"कुछ नहीं..."

"अब ये मत कहना कि तू अब भी वैभव के बारे में सोच रही है?"

" No, he is a closed chapter and whatever happened was good for both of us."

"फिर...क्या बात है?"

"किसी को पसंद करती है तो वो भी बता दे..कोई बात अगर मन में है तो बताती क्यों नहीं? "

ये मम्मी की  आवाज़ थी जो हमारे पीछे आकर  खड़ी हो गई थी.  मैं वैसे ही चुप खड़ी रही.

"आंटी आप जाइये, मैं बात कर रही हूँ ना.." निशिता फिर मेरी तरफ मुड़ी..और मैं सर नीचे लटकाए जाने कौनसे  शून्य में घूर रही थी..

"सौम्या तू क्या सोचती है ...अपनी ख़्वाबों की  दुनिया से बाहर निकल. क्या लगता है तुझे कि,  कोई सपनों का राजकुमार तेरे लिए धरती पर उतर आएगा.?"
उसने धीरे से  मेरा  हाथ पकड़ कर कहा..

"मुझे कोई राजकुमार नहीं चाहिए ..और सपने मैंने कभी देखे नहीं."  मैंने धीमी लेकिन
एक सूखी गंभीर आवाज़ में कहा.

"तो क्या सारी ज़िन्दगी अकेले ही गुजारनी है?"
"क्यों अकेले नहीं रहा जा सकता क्या??  क्या शादी करना ज़रूरी है ..लोग बिना शादी किये ज़िन्दगी नहीं गुजारते ?"

"बेकार की बातें मत कर ..ये कोई मज़ाक नहीं है. तू सोचती है कि  सारी उम्र यूँही अकेले बिता सकती है  ..बिना किसी साथी के ? तुझे कुछ अंदाज़ा भी है ज़िन्दगी की कडवी  हक़ीक़तों का ??"

मैं अब भी वैसी ही चुप रही पर एक असहमति या विरोध या और कोई भाव कह लें, वो चेहरे पर साफ़ ज़ाहिर था.

निशि और ज्यादा चिढ गई, झल्ला गई, " मेमसाहब अगर आपको लगता है कि,  आप दुनिया से जुदा कोई अनूठा नमूना हैं तो ये ग़लतफ़हमी दूर कर लें." ....फिर जैसे अचानक उसे कुछ सूझा, उसने पूरी गंभीरता से मेरे चेहरे पर अपनी नज़रें ज़मा दी..." Jai..it's Jai..I knew that.."

जय इस सब में  कहां से आ गया..मैं बिफर पड़ी.." he has nothing to do with this..don't drag him into my personal matter."

"alright, then what is the matter?"

"बस अब मैं रोज़- रोज़ की इन बातों से तंग आ चुकी हूँ . एक बेकार की कवायद लग रही है,  मैं रिश्तों  को किसी समझौते या बेस्ट deal की तरह नहीं ले सकती . और  ये सब मुझे किसी बाज़ार के जैसा लग रहा है ....जैसे हम कपडे खरीदने जाते हैं ... दस पीस try  करने के बाद कहीं एक चीज़ पसंद आती है..कुछ वैसा ही लग रहा है.."


कुछ देर के लिए निशिता चुप हो गई, फिर जैसे उसने थकी हुई सी आवाज़ में कहा .. "चल रहने दे इस वक़्त इन सब बातों को. अभी तुझे कुछ समझाने से कोई फायदा नहीं."

इस पूरे चैप्टर के बाद भी कहीं कुछ ना बदला  और ना बदलने की कोई उम्मीद ही थी. वही  सब  अजनबी नाम और उनकी बातें..  इसी बीच एक  बात और हो गई...एक पब्लिक policy  research इंस्टिट्यूट में मेरी PhD application  approve  हो गई.  इंस्टिट्यूट NCR में ही था..हालांकि घर से दूर पर delhi से बहुत ज्यादा दूर  नहीं. तो बस इसे एक नई शुरुआत मान कर, घरवालों को थोड़ा समझा कर और निशि के ढेर सारे instructions साथ लेकर मैं चली आई एक नई जगह,  एक नए landscape के बीच....

शुरू के कुछ दिन तो मुश्किल बीते,  कभी ये  तो कभी वो समस्या ..पर जैसे-तैसे २-३ महीने गुज़रते  ना गुज़रते आदत पड़ने लगी,  अच्छा भी लगने लगा और सबसे बड़ी बात मुझे यूँ लगा कि जैसे मेरा क्षितिज अब बहुत विस्तृत हूँ गया है ..ऊँचा, खुला, आसमान जैसे अनंत की  खोज करने के लिए उकसा रहा हो...कुछ दिन बाद मुझे एक ऑनलाइन magazine के लिए कुछ education एंड policy  based articles लिखने का भी  ऑफर मिला ..काम शुरू में तो मुश्किल लगा..लेकिन धीरे- धीरे हर हफ्ते के एक नए task  की  आदत पड़ने लगी..



मेरे यहाँ आने के बाद से २-३ महीने में निशिता अपनी official  मीटिंग  के बहाने ३-४ चक्कर तो मेरे अपार्टमेन्ट के  लगा ही चुकी थी और अब निश्चिन्त होने लगी थी कि मैं यहाँ ठीक से और आराम से रहूंगी. और जय तो खैर हर weekend या १० दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आ ही जाता था. समय अब भी गुज़र  रहा था पर अब वो पहले वाला बोझ नहीं था. पर उन दिनों जय में आये बदलाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

और आखिर वो दिन, वो लम्हा भी आय़ा जिसका मुझे कुछ - कुछ अंदाज़ा तो होने लगा था पर मैं फिर भी उसे  एक वहम  समझकर दूर हटा रही थी.

...जय ने वही कहा या मुझसे पूछा जिसका अंदाज़ा निशि को  काफी पहले हो गया था. लेकिन उस वक़्त मैं जय को वो जवाब नहीं दे पायी जिसकी उसे  ख्वाहिश  थी  और जो निशि के लिए  " ये तो होना ही था"  वाली बात होती.

कारण, वजह सिर्फ इतनी थी कि ज़िन्दगी में पहली  बार मुझे लग रहा था कि मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी अपनी आँखों से विस्तृत क्षितिज को पार करती जा रही हूँ.  पहली बार लग रहा था कि ज़िन्दगी सिर्फ शादी-ब्याह -घर -परिवार नहीं और भी कुछ है.  मैं सिर्फ एक perfect bride के अलावा भी कोई नाम-पहचान-ख्वाब हूँ  और ये सब समंदर की एक ऐसी लहर की  तरह था जिस पर surfing करते मैं थक नहीं रही थी. ....और जब,  जय ने वो सवाल सामने रखा तो समन्दर  और लहरों के रोमांच के बावजूद  घर, मम्मी और जाने कितने चेहरे आँखों के आगे तैर गए.... "क्या मैं इतना बड़ा फैसला अकेले ले सकती हूँ?" .....लेकिन अगले ही पल मैंने अपना सर झटक कर उस ख्याल को ही दूर हटा दिया ...

 
जय से सिर्फ इतना कहा..." आज नहीं, अभी नहीं ...फिर कभी..फिर कहीं..."

"ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे... कल की कुछ खबर नहीं... कल कौन सी सुबह होगी, कैसा सूरज  होगा ...होगा भी या नहीं ..लेकिन इस लम्हे को अभी यहीं थाम ले..इसे अभी यहीं बाँध ले.... आज इस वक़्त को यहीं थोड़ी देर और ठहर जाने दे .."


Thursday, 22 September 2011

एक थी दुनिया

एक थी दुनिया..इस भरे-पूरे ब्रह्मांड में कहीं किसी एक कोने, अपने में सिमटी हुई एक छोटी सी दुनिया.
(अब शीर्षक से और इस introduction से आप confuse  ना हों..."एक थी दुनिया"  कहने का मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि जिस संसार में हम सब रहते है ..वहाँ हम सब की अपनी अलग-अलग दुनिया होती है... छोटे छोटे संसार, मेरा , आपका , किसी और का या कह लीजिये लगभग हर इंसान की अपनी एक दुनिया होती है..जो उसके आस-पास रहती है, उसके साथ सोती-जागती और सांस लेती है. ये दुनिया बनती है, घर-परिवार, दोस्त-रिश्तेदार, पास-पड़ोस, दफ्तर, स्कूल-कॉलेज , बाज़ार वगैरह  से. कहने का अर्थ है कि जितना हम चाहें , उतना इस दुनिया का विस्तार किया जा सकता है और ना चाहें तो  इसे  छोटा भी किया जा  सकता है )


...तो ऐसी ही कहीं एक दुनिया थी, जिसमें रहती थी एक राजकुमारी .(एक मिनट , फिर confusion की गुंजाइश है) कोई सचमुच की राजकुमारी की बात नहीं हो रही..और ना ही उसका नाम राजकुमारी था.   पर फिर भी अपनी customized  दुनिया में हर कोई राजा-रानी और राजकुमार होता है. इसलिए हम इस लड़की को भी उसकी छोटी सी मगर उसकी अपनी  दुनिया की राजकुमारी माने लेते हैं. ( इस से कहानी सुनाने  में आसानी होती है और दादी-नानी के वक़्त से यही रिवाज भी चला आ रहा है).

राजकुमारी की ये दुनिया बहुत साधारण थी, छोटी ही थी , बेहद सीधी-सादी और सरल तरीके से बनी हुई थी. इस एक थी दुनिया का हर रंग पानी की तरह साफ़, चमकीला और पारदर्शी था. जिसका हर रूप, सुबह के सूरज की तरह शांत, सुन्दर और आँखों को ठंडक देने वाला था. जिसका हर चेहरा हिमालय  की बर्फ की  तरह बेदाग़ था.  ऐसी एक थी दुनिया , जिसकी एक थी राजकुमारी.

 एक थी दुनिया, राजकुमारी के लिए उसकी  ज़रूरतों के लिए शुरुआत में  पर्याप्त ही  थी . दुनिया सुन्दर थी, दुनिया का हर शख्स अच्छा  था , राजकुमारी से सब प्यार करते थे. उसके पैदा होने से लेकर बड़े होकर  स्कूल -college  तक या उसके बाद भी,  हर तरह से उसे बड़े लाड प्यार से ही रखा गया था.  दुनिया बड़ी ही नर्म-नाज़ुक, फूलों  और रंगों से सजी थी.  हाँ, कहीं कहीं, कभी कुछ कांटे भी उग आते थे, घर के बगीचे में खरपतवार भी.  पर सब मिलाकर सब कुछ बढ़िया चल रहा था. राजकुमारी का अब तक उस बाहर की  बड़ी, बहुत बड़ी, अनेकानेक रंगों, परतों, चेहरों और  आयामों से भरी  दुनिया से अब तक कुछ ख़ास  वास्ता नहीं पड़ा था ..या यूँ कहें कि पड़ने ही नहीं  दिया गया .और शायद यही वजह रही होगी कि राजकुमारी ने इस समतल , चिकनी सतह (smooth  and  flat  surface )  वाली दुनिया को ही शाश्वत सत्य मान लिया ..उसे लगा कि सब कुछ हमेशा ऐसे ही सुन्दर और प्यारा सा बना रहेगा..उसका ख्याल था कि आने वाले जीवन में चाहे जो पड़ाव आयें..पर ये दुनिया ऐसी ही रहेगी ...(अब वहम का तो कहीं कोई इलाज नहीं..हकीम लुकमान के पास भी नहीं था...)

तो...राजकुमारी अपनी इस दुनिया में मजे से  रह रही थी. लेकिन अब धीरे धीरे  उसकी आँखों में किसी और ही नई, विस्तृत दुनिया, किसी अनजानी, समय के किसी और ही आयाम में बसी हुई  एक दुनिया के सपने जगह बनाने लगे. उसकी बड़ी-बड़ी आँखों  के सपने अब बहुत बड़े  होने लगे ..इतने कि पलकें उन सपनों को आँखों में समेट नहीं पाती थी. पर उस नई, अनजानी दुनिया  में जाना आसान  न था..पर जाने की  इस चाहत में राजकुमारी की ज़िन्दगी में बहुत से उतार-चढ़ाव आये ..जिनके लिए हमारी ये नाजों से पली रानी ज़रा भी तैयार ना थी. (sympathy ना दिखायें और ना ही चिंतित हों ..हाँ यहाँ आप राजकुमारी के unprepared होने पर हंस ज़रूर सकते हैं)  अब इसकी वजह ये हो सकती है कि हर इंसान को अपनी निजी दुनिया के तौर-तरीकों से रहने की आदत हो जाती है  यही समस्या हमारी राजकुमारी के सामने भी आ रही थी...खैर..एक लम्बी कशमकश शुरू हुई ..छोटी दुनिया के अन्दर भी और बाहर भी ..एक लम्बी कठिन प्रक्रिया..कह लीजिये कि दुनिया का हुलिया ही बदल गया.

एक थी दुनिया की वो पुरानी नरमी अब सख्त ज़मीन में ढल गई ..सबसे पहले उस सख्त फर्श पर राजकुमारी के काँटों  और पत्थरों से  छिले पैरों का खून बिखरा,  फिर पैर भी उस सख्ती के आदी बन गए (adjustment you see )..फिर धीरे-धीरे दुनिया के हर कोने में राजकुमारी की आँखों से  बहे  पानी की नमी दिखाई देने लगी, पानी में घुला नमक , राजकुमारी की हर ख़ुशी, हर ख्वाहिश, हर सपने  में खारापन घोलता चला गया...मिठास का तो जैसे नामो-निशान ही मिट गया ..ना अन्दर, ना बाहर ..बचा रहा तो सिर्फ नमक, सफ़ेद, खारा नमक...

पर आखिर उस कशमकश का भी अंत आय़ा. transformation  की  प्रक्रिया पूरी तरह रुकी तो  नहीं लेकिन अब उसकी रफ़्तार काफी  धीमी पड़ गई.  राजकुमारी ने चैन की  सांस ली..उसे लगा कि जैसे पूर्ण परिवरतन के ऐन पहले कालचक्र का पहिया दूसरी दिशा में  घूम गया.. पर जैसे फिर भी जब तक पहिये ने दिशा और दशा बदली तब तक बहुत बड़े -बड़े परिवर्तन  हो गए थे..अब राजकुमारी वो पहले वाली राजकुमारी नहीं रही थी..(अब आप पूछेंगे कि यहाँ तो हमको यही नहीं  पता कि पहले कैसी थी तो अब क्या बदल गया,  ये कहां से समझ आये..खैर छोडिये, बस इतना जानिये कि अब राजकुमारी ज़रा सयानी हो गई और परीकथा पीछे छूट गई). वो सब सपने देखे या अनदेखे..सोचे हुए, सजाये हुए,  दूर क्षितिज के ख्वाब ..अब अचानक ही हाथ से छिटक गए.. लगा कि अब ना वो सब राजकुमारी के लिए है  ना राजकुमारी उनके लिए..राजकुमारी को बड़ी हैरानी हुई कि ये क्या हुआ..क्या ये हो सकता है कि समय का एक  हिस्सा, उसकी ज़िन्दगी में आय़ा ही नहीं और गुज़र भी गया ..? कब..किस वक़्त..और जो बातें,  जो ज़िन्दगी उस हिस्से में होनी चाहिए थी..वो भी गायब है ..अजीब गोरखधंधा है ..क्या तिलिस्म है..खैर...अब क्या किया जा सकता था..गया सो गया ..या गुम हो गया..कुछ भी कह लीजिये ..

पर फिर भी राजकुमारी को अपनी पुरानी दुनिया की कुछ चीज़ें बेहद पसंद थीं..इतनी कि लगता था कि उन चीज़ों के बिना, उन खूबसूरत अहसासों के बिना ज़िन्दगी अधूरी , कठोर और बेजान हो जायेगी. और हर नए परिवर्तन  को अपनाते हुए भी राजकुमारी बस इतना  भर चाहती थी कि ये कुछ पुरानी कोने में पड़ी, बहुत ज्यादा ज़रूरी ना सही पर फिर भी ये कुछ छोटी -मोटी चीज़ें, जो राजकुमारी के ख्याल से उसके अस्तित्व को थामे रखती थीं, वो कैसे भी करके बस बनी रहे ..शायद राजकुमारी को इन outdated चीज़ों से प्यार था. पर जैसा कि अब दिखने लगा था कि transformation प्रोसेस के दौरान जो उथल-पुथल मची, उसका सबक ये था कि अब इस नए परिदृश्य  में, नए वातावरण में इन चीज़ों की अब कोई ख़ास जगह रह नहीं गई है ..और अब तो शायद वो राजकुमारी से "belong "  भी नहीं करती. अब चाह कर भी उन पीछे छूट गई चीज़ों को इस रंग-रूप बदल चुकी दुनिया में नहीं लाया जा सकता..शायद वो अब यहाँ मिसफिट होंगी.

अब हालांकि इस नई बनी दुनिया में थोड़ा कुछ ऐसा है जो राजकुमारी का जाना-पहचाना है. पर बहुत कुछ ऐसा है जो अजनबी है या जो अब जाना-पहचाना होते हुए भी कहीं दूर खडा दिखता  है , जिसका चेहरा अब उतना जाना-पहचाना नहीं लगता. पर अजनबी रास्तों से भरी इस इस नई दुनिया में  राजकुमारी को कोई डर नहीं  कि वो खो जायेगी या ऐसा कुछ.. (बेकार कल्पनाएँ ना करें,  राजकुमारी  इतनी भी परीकथा वाली राजकुमारी नहीं)

राजकुमारी की "एक थी दुनिया"  कुछ बदली, कुछ ना बदली. कुछ राजकुमारी बदली और कुछ ना बदली. पर फिर भी इस नई दुनिया  से तालमेल बिठाते हुए भी, राजकुमारी रह-रह कर अपनी उस पीछे छूट गई दुनिया को याद करती है और कभी खुद से और कभी दूसरों से कहती है, " एक थी दुनिया"....मेरी दुनिया..कहां चली गई, क्या फिर कभी मिलेगी, या कभी फिर से  में वहाँ जा सकूंगी...या अब तो किसी अगले ही जन्म में; (जो अगर होता हो तो, हमारे धार्मिक मिथक-मान्यताएं बहुत सारी बातें  कहते हैं इस बारे में..अब झूठ तो नहीं कहते ना..)....मिलेगी वो एक दुनिया...

Wednesday, 21 September 2011

कुछ सही कुछ थोड़ा कम सही

आज George Hegel का एक quote पढ़ा अखबार में, जो बहुत तर्कपूर्ण बात कहता है ..


"असल त्रासदी सही और गलत के बीच टकराव या मतभेद होना नहीं,  असल त्रासदी दो सही के बीच टकराव का होना है.."


सबकुछ सही है, कोई चीज़, कोई शख्स अपनी जगह  गलत नहीं है ...लेकिन फिर भी कुछ तो खटक रहा है... कुछ तो ऐसा है जो होना  नहीं चाहिए. जो अपनी  सही जगह पर ना होकर  किसी गलत जगह पर है. सम्पूर्ण परिदृश्य में कुछ तो कमी है.  ये जो पिक्चर परफेक्ट है इसमें सब कुछ  सही, सुन्दर और सम्पूर्ण नही है. और यही है दो सही के बीच का टकराव. किसी को तो हार माननी होगी, किसी एक को झुकना होगा, पीछे हटना होगा, अपना दावा वापिस लेना होगा , सच होते हुए भी, सही होते हुए भी गलत होने कि स्वीकृति देनी होगी.

इसके अलावा समन्वय, सामंजस्य का कोई दूसरा बहुत सुविधाजनक मार्ग है नहीं.  ऐसा इसलिए कि जो सही है, सत्य है, वो  एक खुली तलवार है  और उस तलवार की पहली चोट उसे थामने वाले को ही लगती है . और दो सही धारणाएं जो दो विपरीत ध्रुवों  पर खड़ी हैं, जिनकी दिशा, उद्देश्य, साधन सब एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं. ऐसी दो सही तलवारें एक साथ, एक वक़्त में, एक ही जगह पर, एक म्यान में नहीं हो सकतीं.  अगर एक साथ रखा गया तो वे  एक -- दूसरे को चोट पहुंचाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगी.

दो सही के बीच का टकराव ही हमारी जिंदगियों की  सबसे बड़ी  उलझन, सबसे  बड़ी  समस्या, सबसे बड़ी  रुकावट और सबसे बड़ी दुखदायी वजह है. जब दो सही चीज़ें टकराती हैं.  तो किसी को, उन टकराने वालों को भी  ख़ुशी नहीं मिलती. लेकिन अपने सही होने का अहसास, समझौतों का रास्ता मुश्किल कर देता है.

हम सब अपनी-अपनी जगह पर सही हैं..हम में से कोई भी गलत नहीं है और इसलिए पिक्चर परफेक्ट को देखने का हमारा नज़रिया भी अलग-अलग है. हम सबके पास सही होने, सही देखने , सही समझने के अपने कारण, अपने चश्मे और अपनी मान्यताएं है..बस फर्क सिर्फ ये है कि ये सब चीज़ें एक - दूसरे से  मेल नहीं खातीं.

Saturday, 10 September 2011

कहानी के किरदार मर जाते हैं

कहानी के किरदार मर जाते हैं पर कहानी जिंदा  रहती है.. कहानी में कोई नाम, कोई किरदार जिसका रंग, रूप, आकार हम अपनी पसंद , अपनी कल्पना से गढ़ लेते हैं, जिनका  जीना, मरना, सोचना, समझना हमको अपना सा, अपने करीब सा लगने लगता है. कहानी में  किरदार मरते  हैं, कभी कहानी को आगे बढाने के लिए तो कभी कहानी को वहीँ ख़त्म कर देने के लिए ..किरदारों का जीना मरना सब पहले से तय होता है, उनकी तकदीर कहानी लिखने वाला तय करता है..ठीक   वैसे ही जैसे असल दुनिया में होता है जहाँ भगवान् की मनमर्जी और हुकुम  चलता है ..पर कभी कभी लगता है कि किरदार ना मरे ..फिर से जी उठे ..उसी रंग में, उसी नाम से , उसी चेहरे में ..एक बार फिर से बोल उठे.. और फिर से कहानी वहीँ से वापिस आगे शुरू हो जाए जहाँ वो किरदार उसे  छोड़ गया था ..और अगर कहीं वो कहानी ख़त्म हो जानी हो किरदार के मरने पर तो कहानी और आगे से आगे चलती जाए ...

पर कहानी में किरदार मर जाते हैं ..उनका मरना अच्छा नहीं लगता लेकिन फिर देखा जाए तो किरदार के साथ कहानी नहीं मरती ..वो जीती रहती है ..हमारे दिमाग में ..हमारे ख्यालों में ..हमारी कल्पनाओं में..जहाँ हम उन किरदारों से  मेल खाते कुछ चेहरे या लोग अपने आस पास ढूंढ निकालने की कोशिश करते हैं ...और कभी कभी वो चेहरा मिल भी जाता है तो कभी कुछ कम -ज्यादा  का समझौता भी कर लिया जाता है ..

कहानी के किरदार मर कर भी जिंदा रह जाते हैं...और हम उन्हीं को सोचते रहते हैं..कि ऐसा  क्यों हुआ कि कहीं कोई preppy ...कोई जेनिफ़र ..कोई नताशा रोस्तोवा ..कोई एमा, कोई मरक्युरी  या कोई johnathan या कोई और नाम या रूप   ..अगर कहीं होगा तो कैसा होगा ..क्या सोच रहा होगा ..या कहीं  नहीं हो सकते ये किरदार ..जो किसी कहानी में ..कहानी की  ज़रुरत भर के लिए पैदा हुए फिर मर भी गए ...पर उनके मरने के साथ ही  थोड़ी देर के लिए हमारे दिन का, हमारे ख्यालों का एक हिस्सा भी मर जाता है.. और फिर उसको एक बार फिर जिंदा देखने  के लिए हम अपनी ही तरफ से नए ख्याल बुनते रहते हैं...

एक ख़याल कि कहीं एक ऐसा नाम इस दुनिया में है या होना चाहिए ..जिसका अस्तित्व सिर्फ कहानी तक ना हो..कहानी के पन्नों के बाहर जीता -जागता एक किरदार ...जो हमारे आस-पास जी उठे ..हँसे -बोले, मुस्कुराए और कहे कि देखो मैं तो यहीं हूँ ..तुम मुझे कहां तलाश कर रहे हो..

Thursday, 1 September 2011

एक अधूरा ..सुना अनसुना सपना ..

मैं ज़िन्दगी का  एक अधूरा ख्वाब हूँ जिसे उसने अपने सफ़र के सबसे सुहाने और बेपरवाह दौर में देखा... मैं उसकी रात के आखिरी पहर की गहरी बेफिक्र मीठी  नींद का हिस्सा हूँ, उसकी सुबह की प्रभात बेला की अलसाई, अधमुंदी - अधखुली आँखों की धुंधली सी चमक ... वो ख्वाब जो अब शायद अब उसे कुछ याद है, कुछ भूला हुआ सा..  कुछ फीकी लकीरें, कुछ गहरे निशान, कुछ मिट गए , कुछ रह गए...इस ख्वाब की ताबीर कब, किस रास्ते, किस मोड़ पर, कैसे होगी या ना होगी... अब ये सवाल वक़्त और ज़िन्दगी की अपनी सामर्थ्य के परे जा चुका सा लगता है..

कैसा है ये सपना कि जिसकी मृगतृष्णा  का कोई ओर छोर नहीं, जिसकी कभी ना बुझ सकने वाली प्यास शायद आबे-हयात से भी ना बुझे, जिसकी रात कभी ख़त्म नहीं होती और सुबह आती है दबे पाँव... और फिर जल्दी ही शाम की मटमैली सी परछाइयों में डूबते सूरज के काले-भूरे, लाल-नारंगी और पता नहीं कौन कौन से रंगों में घुल जाती है ऐसे  कि  उसके आने या चले जाने का भी पता नहीं चलता ... समय भागता जाता है और ज़िन्दगी अपने अधूरे ख्वाब के लिए हर लम्हे से कुछ और ..थोड़ा और ..बस ज़रा सा और ...मांग लेना चाहती है..समेट के मुट्ठी में रोक लेना चाहती है..और इसलिए इस अधूरे से,  कुछ टूटे , कुछ बिखरे और कुछ सिमटे हुए और कुछ बनते- बिगड़ते ख्वाब का हर हिस्सा अब सिर्फ अपनी अधूरी तस्वीर को किसी तरह कुछ सुन्दर रंगों के धब्बों से पूरा कर लेना चाहता है.. पर कौन जाने कि ज़िन्दगी को किन रंगों के धब्बे ...मिल पायेंगे और उनका रंग कितना चमकीला, कितना फीका या कितना मुकम्मल होगा....ये भी तो अधूरा सा ही सवाल है ...