रात का वक़्त सोने के लिए होता है और आमतौर पर लोग रात को सोते ही हैं. पर कभी- कभी ऐसा होता है की नींद आती नहीं है या शायद हम खुद ही सोना नहीं चाहते. बिस्तर पर लेटे कभी छत को देखते हुए और कभी खिड़की से बाहर देखते हुए जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं.
अब यहाँ अगर मैं ये कहूं कि खिड़की के बाहर मैं चाँद तारों या नीले आसमान को देखती हूँ और उन्हें देख कर मुझे बड़े ऊँचे दर्जे के साहित्यिक ख्याल मन में आते हैं, तो ये बिलकुल गलत होगा और काफी नाटकीय भी लगेगा. गलत इसीलिए कि मेरी खिड़की से चाँद तारे कभी-कभार ही दिखते हैं. इन housing कॉलोनियों में जहाँ मनमर्जी से घरों की designing की गई है वहाँ खिडकियों के लिए चाँद तारे और दूर तक फैले नीले आसमान के लिए कुछ बहुत ज्यादा गुंजाईश नहीं बची है.
और नाटकीय इस तरह की चाँद तारे और नीला आसमान ये सब तो किसी कविता,ग़ज़ल या फ़िल्मी गाने जैसा लगता है.
खैर, ये सब तो मूल विषय से हटकर कही गई बातें हैं. हमारा मुद्दा तो इस समय "रात्रि-जागरण" है.
कभी ऐसा भी होता है की कुछ ख्याल, कल्पनाएँ,विचार और सपने इतने सुन्दर होते हैं की उनके बारे में सोचना नींद लेने से ज्यादा अच्छा लगता है.
रात के समय जबतरफ शांति होती है, घर के सब लोग सो चुके होते हैं, यहाँ तक की चूहे और झींगुर भी किसी कोने में चुपचाप बैठे हैं या शायद हम खुद ही अपने ख्यालों में इस तरह खो जाते हैं की हमें "प्रकृति के इन violin वादकों " और "घरेलू घुसपैठियों" की आवाजें सुनाई ही नहीं देती. इस तरह ख्यालों का एक लम्बा सिलसिला चल निकलता है, जो समय, स्थान और अन्य सभी वास्तविकताओं, बंधनों के परे हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाता है. ऐसी दुनिया जो हमारी बनाई हुई है, उसकी अच्छाई-बुराई, सुख-दुःख के अहसास सब हमारे ही बनाये हुए हैं.
इन ख्यालों का अंत तब तक नहीं हो पता जब तक हम खुद को नींद लेने के लिए विवश ना करें. कम से कम अपने बारे में तो मैं यही कहूँगी . क्योंकि एक बार जब कुछ सोचना शुरू करो तो फिर नींद का हाल कुछ ऐसा हो जाता है की आँखें भारी हैं पर नींद आ नहीं रही. आँखें बंद करने पर भी दिल-दिमाग जागता रहता है और आँखों को ज्यादा देर तक बंद रहने नहीं देता. और फिर से एक बार खिड़की, दरवाजों पर लगे पर्दों, दीवार पर लगी घडी और खिड़की से नज़र आते टुकड़ा भर आसमान पर नज़रें उलझने लगती है.
पर सभी ख्याल अच्छे हों ऐसा ज़रूरी नहीं, कुछ ख्याल बुरे भी होते हैं, कुछ डरावने, कुछ तरह-तरह की आशंकाओं , चिंताओं और संदेहों से भरे होते हैं. गुस्सा , निराशा, तनाव, परेशानियां जो हम किसी से कह नहीं पाते, जिनसे हम दूर भागना चाहते हैं, वो सब रात होने पर हमारे साथ बिस्तर पर सोते हैं. जब तक आँखें खुली हैं, दिमाग जाग रहा है, तब तक वे ख्याल भी जागते हैं. जब आँखें सो जाती हैं तब ज़रूरी नहीं की दिमाग भी सो ही जाए, वो सिर्फ एक अवचेतन स्तिथि में चला जाता है और उन्ही ख्यालों से जो सोने से पहले आँखों में थे , उनके सपने बुनता है . और उन्ही सपनो को देखते-देखते रात गुज़रती है, अगली सुबह जब हम जागते हैं, तो बीती रात के ख्याल और सपने हमारे साथ जागते हैं. लेकिन दिन भर की भाग दौड़ में हम उन ख्यालों को भूल जाते हैं. उन्हें अपने से दूर छिटका देने का प्रयास करते हैं. पर फिर रात आती है और एक बार फिर अच्छे -बुरे , सुन्दर-असुंदर, सुख-दुःख, शांति-बैचेनी और डर-निश्चिन्ताओं के ख्याल अपने साथ लाती है, ताकि पिछली रात के सिलसिले को फिर से दोहराया जा सके, नए शब्दों में , नई कल्पनाओं में, नए दृष्टिकोण से.
अब इस नए का अर्थ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूपों में निकलने के लिए आप स्वतंत्र हैं. मुझे इस पर कोई निर्णय देने या निष्कर्ष निकालने के लिए ना कहें.
अब यहाँ अगर मैं ये कहूं कि खिड़की के बाहर मैं चाँद तारों या नीले आसमान को देखती हूँ और उन्हें देख कर मुझे बड़े ऊँचे दर्जे के साहित्यिक ख्याल मन में आते हैं, तो ये बिलकुल गलत होगा और काफी नाटकीय भी लगेगा. गलत इसीलिए कि मेरी खिड़की से चाँद तारे कभी-कभार ही दिखते हैं. इन housing कॉलोनियों में जहाँ मनमर्जी से घरों की designing की गई है वहाँ खिडकियों के लिए चाँद तारे और दूर तक फैले नीले आसमान के लिए कुछ बहुत ज्यादा गुंजाईश नहीं बची है.
और नाटकीय इस तरह की चाँद तारे और नीला आसमान ये सब तो किसी कविता,ग़ज़ल या फ़िल्मी गाने जैसा लगता है.
खैर, ये सब तो मूल विषय से हटकर कही गई बातें हैं. हमारा मुद्दा तो इस समय "रात्रि-जागरण" है.
कभी ऐसा भी होता है की कुछ ख्याल, कल्पनाएँ,विचार और सपने इतने सुन्दर होते हैं की उनके बारे में सोचना नींद लेने से ज्यादा अच्छा लगता है.
रात के समय जबतरफ शांति होती है, घर के सब लोग सो चुके होते हैं, यहाँ तक की चूहे और झींगुर भी किसी कोने में चुपचाप बैठे हैं या शायद हम खुद ही अपने ख्यालों में इस तरह खो जाते हैं की हमें "प्रकृति के इन violin वादकों " और "घरेलू घुसपैठियों" की आवाजें सुनाई ही नहीं देती. इस तरह ख्यालों का एक लम्बा सिलसिला चल निकलता है, जो समय, स्थान और अन्य सभी वास्तविकताओं, बंधनों के परे हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाता है. ऐसी दुनिया जो हमारी बनाई हुई है, उसकी अच्छाई-बुराई, सुख-दुःख के अहसास सब हमारे ही बनाये हुए हैं.
इन ख्यालों का अंत तब तक नहीं हो पता जब तक हम खुद को नींद लेने के लिए विवश ना करें. कम से कम अपने बारे में तो मैं यही कहूँगी . क्योंकि एक बार जब कुछ सोचना शुरू करो तो फिर नींद का हाल कुछ ऐसा हो जाता है की आँखें भारी हैं पर नींद आ नहीं रही. आँखें बंद करने पर भी दिल-दिमाग जागता रहता है और आँखों को ज्यादा देर तक बंद रहने नहीं देता. और फिर से एक बार खिड़की, दरवाजों पर लगे पर्दों, दीवार पर लगी घडी और खिड़की से नज़र आते टुकड़ा भर आसमान पर नज़रें उलझने लगती है.
पर सभी ख्याल अच्छे हों ऐसा ज़रूरी नहीं, कुछ ख्याल बुरे भी होते हैं, कुछ डरावने, कुछ तरह-तरह की आशंकाओं , चिंताओं और संदेहों से भरे होते हैं. गुस्सा , निराशा, तनाव, परेशानियां जो हम किसी से कह नहीं पाते, जिनसे हम दूर भागना चाहते हैं, वो सब रात होने पर हमारे साथ बिस्तर पर सोते हैं. जब तक आँखें खुली हैं, दिमाग जाग रहा है, तब तक वे ख्याल भी जागते हैं. जब आँखें सो जाती हैं तब ज़रूरी नहीं की दिमाग भी सो ही जाए, वो सिर्फ एक अवचेतन स्तिथि में चला जाता है और उन्ही ख्यालों से जो सोने से पहले आँखों में थे , उनके सपने बुनता है . और उन्ही सपनो को देखते-देखते रात गुज़रती है, अगली सुबह जब हम जागते हैं, तो बीती रात के ख्याल और सपने हमारे साथ जागते हैं. लेकिन दिन भर की भाग दौड़ में हम उन ख्यालों को भूल जाते हैं. उन्हें अपने से दूर छिटका देने का प्रयास करते हैं. पर फिर रात आती है और एक बार फिर अच्छे -बुरे , सुन्दर-असुंदर, सुख-दुःख, शांति-बैचेनी और डर-निश्चिन्ताओं के ख्याल अपने साथ लाती है, ताकि पिछली रात के सिलसिले को फिर से दोहराया जा सके, नए शब्दों में , नई कल्पनाओं में, नए दृष्टिकोण से.
अब इस नए का अर्थ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूपों में निकलने के लिए आप स्वतंत्र हैं. मुझे इस पर कोई निर्णय देने या निष्कर्ष निकालने के लिए ना कहें.