भगवान् की परिभाषा ढूँढने की ज़रूरत आज इसीलिए आ पड़ी कि कभी-२ जीवन में ऐसा समय आता है कि हम सोचते हैं कि कहीं कोई ईश्वर है भी या नहीं. अगर है तो फिर हमारी आवाज़ उस तक क्यों नहीं पहुँच पाती. या ऐसा क्यों है कि वो हमारी आवाज़ सुन कर भी अनसुनी किये जा रहा है.
जार्ज बर्नार्ड शा या मार्क ट्वेन (पता नहीं किसने) ये कहा था कि अगर ईश्वर ना होता तो हमें उसका आविष्कार करना ही पड़ता.
अब अगर हम इस बात को सच मान लें तो ईश्वर एक आवश्यकता है, जिसकी ज़रुरत सभी को है. खाने-पीने-सोने-दुनिया-जहान के और सब कामों की तरह ये भी एक ज़रूरी हिस्सा है ज़िन्दगी का...और ये ज़रुरत ही ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को जन्म देती है. जब जितनी मात्रा में और जिस सीमा तक हमारी ये ज़रुरत पूरी होती रहती है, हमारा विश्वास भी बढ़ता रहता है, मज़बूत होता रहता है.
लेकिन उस स्थिति में क्या हो जब आपकी ज़रुरत पूरी ना हो पा रही है. जवाब कुछ घिसे-पिटे और वही पीढ़ियों पुराने तरीके से मिलेगा कि , " आप निस्वार्थ भाव रखिये, नियमित रूप से पूजा-आराधना कीजिये, मन में सच्ची श्रद्धा रखिये वगैरह. पर सवाल तो यही है कि क्या मंदिर में जाने वाले हर शख्स के दिल में कोई स्वार्थ, कोई झूठ नहीं होता ? हर सोमवार, मंगलवार, बुधवार, शुक्र और शनिवार को क्रमश: शिव, हनुमान, गणेश, संतोषी माता और शनिदेव के मंदिरों में लगने वाली भीड़ क्या बिना किसी कामना और इच्छा के सिर्फ यूँही भगवान से मिलने और hello -hi करने आती है ?
निश्चित रूप से जवाब नकारात्मक है . हम मंदिर जाते हैं, गुरूद्वारे या कहीं भी तो अपने वर्तमान और भविष्य के सुख, समृद्धि, सुरक्षा और सफलता की कामनाएं भगवान के सामने रखते हैं और उनके पूरे होने की उम्मीद भी. फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोगों की हर ख्वाहिश पूरी होती जाती है और कुछ लोग छोटी से छोटी इच्छा को पूरा होता देखने के लिए भी तरस जाते हैं.
उस समय कहां चला जाता है ईश्वर, और कहाँ चली जाती हैं उसकी महानता और शक्तियों के बारे में कही गई बातें ? ईश्वर का होना, उसके अस्तित्व में विश्वास , उसके लिए श्रद्धा, सिर्फ तभी आ सकती है जब लोगों की ज़रूरतों और आवश्यकताओं की पूर्ति थोड़ी -बहुत होती रहे. पर अगर मैं ऐसा कहूँ और ईश्वर को महज़ एक भौतिक आवश्यकता के स्तर पर ले आऊं तो शायद बहुत सारे लोगों को ये अखरेगा, बुरा लगेगा और हो सकता है कि गुस्सा भी आये.
क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि ईश्वर हर सवाल, शंका और संदेह से परे कोई बहुत ऊँची श्रद्धा की चीज़ है. इसलिए ये कहा जाता है कि "मानो तो भगवान् है वरना पत्थर है ". यानी विश्वास और आस्था हमारे भीतर ही है, कोई बाहरी दुनिया की चीज़ नहीं. और यही वजह है कि हम ये कहते हैं कि ईश्वर हमारे भीतर है, उसे अपने अन्दर तलाशो...
लेकिन अन्दर की तरफ तलाश तभी हो सकती है जब आपके पास आशा और विश्वास का प्रकाश हो, अगर इनमे से एक नहीं है तो फिर ईश्वर भी नहीं सिर्फ पत्थर है. जिसके सामने आप सिर्फ इसलिए झुक रहे है, हाथ जोड़ रहे हैं, माथा टेक रहे हैं कि ऐसा करना उस समय लोक-व्यवहार सामाजिक संस्कार और परिवार के दबाव की दृष्टि से आवश्यक है.
आप कह सकते हैं कि मैं बहुत ज्यादा नकारात्मक तरीके से या एक पूर्वाग्रह वाली मानसिकता से ईश्वर का "महिमा-मंडन" करने का प्रयास कर रही हूँ. पर मैं सिर्फ वही कह रही हूँ , जो अब तक का मेरा अनुभव रहा है और जैसा मैंने अपने आस-पास के लोगों के जीवन के पर्यवेक्षण से जाना या समझा है. ऐसा भी नहीं है कि मैं सिर्फ अपने मन की शिकायतें सामने रख रही हूँ.... नहीं ...मैं ऐसा उन लोगों के अनुभव से कह रही हूँ जिनमे से कुछ ईश्वर को बहुत मानते हैं, कुछ बिलकुल नहीं मानते और कुछ उस सीमा तक ही जहाँ तक ऐसा करना उन्हें ज़रूरी लगता है.
निष्कर्ष रूप से देखा जाए तो इस बहस का कोई अंत नहीं है. हरेक के पास अपनी बात को साबित करने के लिए अकाट्य तर्क मौजूद हो सकते हैं, लेकिन दूसरे लोग उन तर्कों पर कितना विश्वास करेंगे ये उनकी इच्छा पर निर्भर करता है.
जो भी है, कारणों की पड़ताल करने और उसका समाधान करने की अब मुझमे सहनशक्ति और श्रद्धा रह नहीं गई. मेरे अन्दर जो कडवाहट भर गई है, ईश्वर के नाम पर, क्या उसके लिए खुद को सर्वशक्तिमान कहने, मानने और दुनिया- जहान से मनवाने का दावा करने वाला क्या खुद भी ज़िम्मेदार नहीं है.
जार्ज बर्नार्ड शा या मार्क ट्वेन (पता नहीं किसने) ये कहा था कि अगर ईश्वर ना होता तो हमें उसका आविष्कार करना ही पड़ता.
अब अगर हम इस बात को सच मान लें तो ईश्वर एक आवश्यकता है, जिसकी ज़रुरत सभी को है. खाने-पीने-सोने-दुनिया-जहान के और सब कामों की तरह ये भी एक ज़रूरी हिस्सा है ज़िन्दगी का...और ये ज़रुरत ही ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को जन्म देती है. जब जितनी मात्रा में और जिस सीमा तक हमारी ये ज़रुरत पूरी होती रहती है, हमारा विश्वास भी बढ़ता रहता है, मज़बूत होता रहता है.
लेकिन उस स्थिति में क्या हो जब आपकी ज़रुरत पूरी ना हो पा रही है. जवाब कुछ घिसे-पिटे और वही पीढ़ियों पुराने तरीके से मिलेगा कि , " आप निस्वार्थ भाव रखिये, नियमित रूप से पूजा-आराधना कीजिये, मन में सच्ची श्रद्धा रखिये वगैरह. पर सवाल तो यही है कि क्या मंदिर में जाने वाले हर शख्स के दिल में कोई स्वार्थ, कोई झूठ नहीं होता ? हर सोमवार, मंगलवार, बुधवार, शुक्र और शनिवार को क्रमश: शिव, हनुमान, गणेश, संतोषी माता और शनिदेव के मंदिरों में लगने वाली भीड़ क्या बिना किसी कामना और इच्छा के सिर्फ यूँही भगवान से मिलने और hello -hi करने आती है ?
निश्चित रूप से जवाब नकारात्मक है . हम मंदिर जाते हैं, गुरूद्वारे या कहीं भी तो अपने वर्तमान और भविष्य के सुख, समृद्धि, सुरक्षा और सफलता की कामनाएं भगवान के सामने रखते हैं और उनके पूरे होने की उम्मीद भी. फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोगों की हर ख्वाहिश पूरी होती जाती है और कुछ लोग छोटी से छोटी इच्छा को पूरा होता देखने के लिए भी तरस जाते हैं.
उस समय कहां चला जाता है ईश्वर, और कहाँ चली जाती हैं उसकी महानता और शक्तियों के बारे में कही गई बातें ? ईश्वर का होना, उसके अस्तित्व में विश्वास , उसके लिए श्रद्धा, सिर्फ तभी आ सकती है जब लोगों की ज़रूरतों और आवश्यकताओं की पूर्ति थोड़ी -बहुत होती रहे. पर अगर मैं ऐसा कहूँ और ईश्वर को महज़ एक भौतिक आवश्यकता के स्तर पर ले आऊं तो शायद बहुत सारे लोगों को ये अखरेगा, बुरा लगेगा और हो सकता है कि गुस्सा भी आये.
क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि ईश्वर हर सवाल, शंका और संदेह से परे कोई बहुत ऊँची श्रद्धा की चीज़ है. इसलिए ये कहा जाता है कि "मानो तो भगवान् है वरना पत्थर है ". यानी विश्वास और आस्था हमारे भीतर ही है, कोई बाहरी दुनिया की चीज़ नहीं. और यही वजह है कि हम ये कहते हैं कि ईश्वर हमारे भीतर है, उसे अपने अन्दर तलाशो...
लेकिन अन्दर की तरफ तलाश तभी हो सकती है जब आपके पास आशा और विश्वास का प्रकाश हो, अगर इनमे से एक नहीं है तो फिर ईश्वर भी नहीं सिर्फ पत्थर है. जिसके सामने आप सिर्फ इसलिए झुक रहे है, हाथ जोड़ रहे हैं, माथा टेक रहे हैं कि ऐसा करना उस समय लोक-व्यवहार सामाजिक संस्कार और परिवार के दबाव की दृष्टि से आवश्यक है.
आप कह सकते हैं कि मैं बहुत ज्यादा नकारात्मक तरीके से या एक पूर्वाग्रह वाली मानसिकता से ईश्वर का "महिमा-मंडन" करने का प्रयास कर रही हूँ. पर मैं सिर्फ वही कह रही हूँ , जो अब तक का मेरा अनुभव रहा है और जैसा मैंने अपने आस-पास के लोगों के जीवन के पर्यवेक्षण से जाना या समझा है. ऐसा भी नहीं है कि मैं सिर्फ अपने मन की शिकायतें सामने रख रही हूँ.... नहीं ...मैं ऐसा उन लोगों के अनुभव से कह रही हूँ जिनमे से कुछ ईश्वर को बहुत मानते हैं, कुछ बिलकुल नहीं मानते और कुछ उस सीमा तक ही जहाँ तक ऐसा करना उन्हें ज़रूरी लगता है.
निष्कर्ष रूप से देखा जाए तो इस बहस का कोई अंत नहीं है. हरेक के पास अपनी बात को साबित करने के लिए अकाट्य तर्क मौजूद हो सकते हैं, लेकिन दूसरे लोग उन तर्कों पर कितना विश्वास करेंगे ये उनकी इच्छा पर निर्भर करता है.
पर फिर भी मुझे कुछ सवाल पूछने का हक तो मिला ही रहता है. सवाल ये हैं कि ऐसा ही कोई चमत्कार कर दिखाने की शक्ति है तो कभी मैं भी देखूं, मैं भी तो
जानूं कि सचमुच वहाँ कोई ईश्वर बैठा सुन रहा है. पर ज्यादातर यही पाया कि
मेरी आवाज़ शून्य से टकरा कर या तो बूम र्रेंग की तरह लौट आती है या किसी
blackhole में गुम हो जाती है. अगर ऐसा ही भगवान् होने का गर्व है तो जब कोई असफलता सामने आती है तब दोष इंसान का, कि भाई गलती तो तुम्हारी तरफ से ही कुछ रही होगी. लेकिन अगर कुछ अच्छा हो जाए तो क्रेडिट लेने के लिए ईश्वर नाम का ये प्राणी (अगर ब्रह्माण्ड के किसी कोने में है तो..) सबसे आगे आकर खड़ा हो जाता है
फिर क्यों ना मैं सवाल करूँ, क्यों ना
नाराज़ हो जाऊं, क्यों ना कहूँ कि अब एक नए ईश्वर को ढूँढने का वक़्त आ ही
गया है. क्योंकि अब तक जिसकी पूजा-प्रार्थना करते रहे, उसके पास तो सुनने
और जवाब देने का समय नहीं. या शायद वो मुझे जानता ही नहीं या शायद भूल गया
है या ऐसा ही कोई और कारण.
जो भी है, कारणों की पड़ताल करने और उसका समाधान करने की अब मुझमे सहनशक्ति और श्रद्धा रह नहीं गई. मेरे अन्दर जो कडवाहट भर गई है, ईश्वर के नाम पर, क्या उसके लिए खुद को सर्वशक्तिमान कहने, मानने और दुनिया- जहान से मनवाने का दावा करने वाला क्या खुद भी ज़िम्मेदार नहीं है.
यदि है, तो फिर मुझे किसी सवाल का कोई जवाब नहीं चाहिए. यदि नहीं है है
ज़िम्मेदार तो फिर जहाँ भी है कभी तो, किसी तरीके से तो जवाब दे.
और फिलहाल के लिए तो मैं यही मान पाती हूँ कि जब कहीं कोई है ही नहीं, तो कैसे सवाल, कैसे जवाब, किसकी ज़िम्मेदारी, किसका ख्याल. ये दुनिया डार्विन के survival of the fittest के सिद्धांत पर चलती है और शायद मुझे इसके लिए fit होने में अभी और समय लगेगा.
और फिलहाल के लिए तो मैं यही मान पाती हूँ कि जब कहीं कोई है ही नहीं, तो कैसे सवाल, कैसे जवाब, किसकी ज़िम्मेदारी, किसका ख्याल. ये दुनिया डार्विन के survival of the fittest के सिद्धांत पर चलती है और शायद मुझे इसके लिए fit होने में अभी और समय लगेगा.
1 comment:
हम तो यह जानता हूँ.....इसलिए यही कहूँगा कि --
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G O D
Generator Operator Destroyer
ब्रह्मा विष्णु महेश
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भगवान -
भ----------भूमि
ग----------गगन
व-----------वायु
।(आ की मात्रा)-अग्नि
न-----------नीर
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खुदा---जो खुद ही बना है (जिसे किसी ने बनाया नहीं है--पंच तत्व)
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