कहानी का ये शीर्षक मेरी मौलिक खोज नहीं है. "कोयलिया मत कर पुकार" मैंने शिवानी गौरा पन्त की किताब "स्मृति कलश" में पढ़ा था. इसी शीर्षक से उन्होंने "बेगम अख्तर पर एक लेख लिखा है, अब शिवानी के उस लेख और मेरी इस कहानी में कोई साम्य नहीं है , जहाँ शिवानी का लेख उस महान गायिका के कंठ को समर्पित है वहीँ मैंने ये शीर्षक इसीलिए चुना क्योंकि मुझे अपनी बात कहने, समझाने और खुद को व्यक्त करने के लिए इससे बेहतर शब्द नहीं सूझे. वहीँ मेघे ढाका तारा ऋत्विक घटक की एक बहुत प्रसिद्ध फिल्म "मेघे ढाका तारा" से लिया है, जिसका अर्थ है बादलों से ढका हुआ तारा. अब मेरी कहानी से ये कैसे मिलता है ये जानने के लिए आपको इस कहानी के दूसरे भाग का इंतज़ार करना होगा
ये कहानी २००७ से २००९ तक के मेरे जीवन की उन घटनाओ को दर्शाती है जिन्हें मैंने पूरी तरह से अपनी diary में भी नहीं लिखा.पर जिन्हें मैंने मैंने कई बार अपने मन में दोहराया है. जो गुज़रा वो मेरे जीवन का एक अमिट दस्तावेज़ है. एक ऐसा अध्याय जो मैं कभी भूल नहीं सकूंगी, जो हमेशा मेरी स्मृतियों में एक चुभते हुए कांटे या टूटे हुए कांच के टुकड़ों की तरह रहेगा.
आज शाम को छत पर टहलते हुए मैं सुरेश के साथ g-mail पर हुई बातों पर विचार कर रही थी. सुरेश नंदिगम , मेरा ऑरकुट फ्रेंड है और IAS aspirant भी था. २०१० उसका चौथा और आखिरी attempt था, लेकिन PT ही clear नहीं हुआ. उसके बाद से काफी निराश और व्यथित है. आज भी उसे तो मैंने जैसे-तैसे समझा दिया, उसे cheer-up भी कर दिया, लेकिन उसके बाद मेरे मन में फिर से उस गुज़रे वक़्त की यादों ने हलचल मचा दी. और कितनी ही बार दोहराई हुई वो सब बातें मैंने फिर से एक बार याद करनी शुरू की. एक के बाद एक हुई घटनाएं, उनके परिणाम और उनके साथ दौडती -भागती मेरी ज़िन्दगी..
२००७ के अप्रैल में जब मैं delhi से वापिस लौट कर आई या यूँ कहू कि मुझे लौटना पड़ा, तब कुछ भी वैसा नहीं रह गया था जो delhi जाने से पहले था. मैं काफी बीमार और कमजोर हो चुकी थी. हालाँकि उस वक़्त तक मुझे अहसास नहीं था कि मेरा स्वास्थ्य कितना खराब है या सही तौर पर क्या समस्या है. मैं सिर्फ इतना जानती थी कि मैं अब दिल्ली के उस hectic schedule से थक चुकी थी और मुझे एक ब्रेक की ज़रुरत थी मेरा ख्याल था कि मैं जून batch की coaching के लिए लौट जाउंगी लेकिन मैं कभी भी वापिस नहीं जा पायी.
घर लौटने के बाद कुछ दिन सब ठीक ही रहा, हालाँकि कुछ छोटे- बड़े health -issues रहते ही थे जिन पर मैं ध्यान नहीं दे रही थी. पर फिर मई की एक रात तबियत बहुत ज्यादा खराब होने पर अगले दिन सुबह-सवेरे ही मुझे जोधपुर के टॉप-मोस्ट gasteroenterologist ले पास ले जाया गया. उन्होंने चेक-up करने के बाद कहा कि, "ऐसी कोई बड़ी समस्या नहीं है, बस gastric -trouble है , लेकिन मुझे तुरंत ३ दिन के लिए हॉस्पिटल में admit होना पड़ेगा, कुछ टेस्ट के लिए." उस दिन पहली बार मैंने एंडोस्कोपी का नाम सुना....मालूम नहीं था कि ये किस तरह का टेस्ट होता है.
खैर, यही से शुरुआत हुई उस लम्बे, अंतहीन तकलीफों भरे सफ़र की जो अगले दो साल तक किसी न किसी रूप में ज़ारी रहा.
शायद वो १९ या २० मई 2007 का दिन था जब मेरी एंडोस्कोपी हुई . उस दिन मेरी नींद सुबह ५ बजे से भी पहले से खुल चुकी थी, इसका कारण उन दवाइयों का असर था जो मुझे एंडोस्कोपी से पहले वाली रात को दी गई थीं. ५ बजे के आस-पास nurse ने आकर बताया कि ८ बजे मुझे एंडोस्कोपी के लिए ले जाया जाएगा, इसीलिए कुछ भी खाना या पीना नहीं है, इस कुछ भी में पानी ना पीना भी शामिल था . ८ बजे के बजाय एंडोस्कोपी हुई दोपहर १२ बजे और तब तक मई की तपती गर्मी में भूख और प्यास की वजह से मेरा बुरा हाल हो चुका था . उस मन:स्थिति में टेस्ट हुआ, जो लोग एंडोस्कोपी के अनुभव से गुज़र चुके हैं उन्हें तो कुछ बताने की ज़रुरत ही नहीं लेकिन जिनके लिए ये नई चीज़ है उनको सिर्फ इतना ही कह सकती हूँ कि उस डरावने अनुभव को मैं शब्दों में तो नहीं बता सकती.
हॉस्पिटल में बिताए गए वे तीन दिन मेरे लिए जीते जी नरक की यात्रा के समान रहे, कई टेस्ट हुए जिन्होंने सिवाय मेरे लिए नई-२ तकलीफे खड़ी करने के और कुछ नहीं किया. कहने को मुझे best treatment दिया जा रहा था पर वो मेरे लिए worse से कम नहीं था, जो अनुभव मुझे उन तीन दिनों में हुए उन्हें बता पाना संभव नहीं क्योंकि वो सिर्फ आँखों के आगे खुद देखने या भुगतने की ही चीज़ थे.
अस्पताल से लौटने के बाद भी मेरी तबियत बिगडती ही गई. अगले ६-७ महीने मैंने ज्यादातर वक़्त बिस्तर पर ही गुज़ारा. ये वो वक़्त था जब मैं खुद अपने पूरी तरह ठीक होने की या पहले जैसी एक नॉर्मल ज़िन्दगी की उम्मीद छोड़ चुकी थी, IAS बनाने का सपना या उसकी पढाई करने जैसी मेरी हालत ही नहीं थी. उन दिनों ऐसा लगता था कि जैसे इन्द्रधनुषी रंगों से भरी मेरी ज़िन्दगी एकदम black and white हो गई हो. ३ महीने के treatment के बाद आखिर डॉक्टर मेहता ने भी मान लिया कि उनका दिया treatment मेरे लिए गलत साबित हुआ.. जो heavy anti-biotics मुझे दी गई थी, उन्होंने मेरा स्वास्थ्य बिगाड़ने के अलावा और कुछ नहीं किया. आखिर तक वे यही ठीक से नहीं बता सके कि आखिर बीमारी क्या है....gastric -trouble ऐसा तो हो नहीं सकता था ना ? पर इसका जवाब कभी नहीं मिला.... अप्रैल से दिसम्बर तक मैंने अनंत शारीरिक और मानसिक तकलीफे सहीं, ऐसा लगता था कि इन परेशानियों का कोई अंत ही नहीं होगा. इन महीनों में एलॉपथी, आयुर्वेदिक ...कौनसा इलाज नहीं हुआ...मंदिर -मस्जिद, दरवेश-फ़कीर कौनसा ऐसा दरवाजा होगा जहाँ पापा नहीं गए होंगे.
फिर आखिर धीरे -धीरे कुछ दवा और कुछ दुआ के असर से मेरा स्वास्थ्य ठीक होने लगा, और एक दिन दिसम्बर की एक सुबह मैंने कई महीनों के बाद अपनी diary उठाई. उस दिन मुझे एहसास हुआ क़ि "जो कुछ मेरे साथ अब तक हो चुका उससे ज्यादा और कुछ बुरा होने की अब गुंजाईश नहीं है. ये मेरी ज़िन्दगी की bottom layer है, यहाँ से और नीचे नहीं जाया जा सकता, यहाँ से अब सिर्फ एक ही रास्ता है और वो ऊपर की तरफ जाता है." अब आप इसे मेरा खुद को तसल्ली देने का बहाना समझे या और कुछ ....पर उस वक़्त इतना सोचना भी बहुत लग रहा था.
फिर उन्ही दिनों IAS २००८ का notification आया और जाने क्या सोच कर मैंने फॉर्म भी भर दिया. जिस समय फॉर्म भरा उस समय मम्मी-पापा तो क्या मैं खुद भी अपने-आप से ये उम्मीद नहीं कर रही थी कि मैं IAS PT की तैयारी अच्छी तरह से कर सकूंगी, पास होना तो दूर की बात थी.फिर भी जैसे-तैसे पढना शुरू किया. उन दिनों हाल ये था कि forehead से लेकर पीछे neck -end तक के पूरे हिस्से में बहुत दर्द रहता था, ३०-४५ मिनट पढने के बाद लम्बा ब्रेक लेना पड़ता था आराम के लिए.
ऐसे हाल में आधे - अधूरे syllabus की तैयारी के साथ exam दिया. पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी, इसीलिए रिजल्ट निकलने तक मैंने mains exam की कोई तैयारी भी नहीं की. खैर, रिजल्ट आय़ा और मैं पास भी हो गई. जब एक magazine से अन्स्वेर्स tally किये तो पता चला कि history में ७०-७५ और GS में ६५ का score था. अब इसे बहुत बढ़िया score तो नहीं कह सकते लेकिन जिन हालातों में exam दिया था उसके हिसाब से तो संतोषजनक ही कहा जा सकता था.
उसके बाद मैं जी-जान से mains की तैयारी में लग गई. पर अभी एक बड़ी मुसीबत मेरा इंतज़ार कर रही थी. exam में १५-२० दिन बचे थे, जब मेरे दायें हाथ की index finger में एक मामूली cut लग गया, नाखून के ठीक उपरी हिस्से के पास. ऐसे cut रसोई में आमतौर पर लगते ही रहते हैं कोई बड़ी बात नहीं, यही सोच कर मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया. पर जब सूजन बढ़ने लगी और उंगली में दर्द बहुत दर्द होने लगा तो मैं पास के ही एक क्लिनिक पर चली गई....और यही मेरी सबसे बड़ी गलती साबित हुई. उस डॉक्टर ने अपने अनगढ़ तरीके से इलाज करने की कोशिश की. जिसने ना सिर्फ मेरे ज़ख्म को बढ़ा दिया साथ ही मेरे लिए एक नए night -mere की भी शुरुआत कर दी.
अगले १५ दिन तक मैं उंगली के दर्द की वजह से बेहाल रही. १० रातें exam के पहले मैं एक घंटा भी चैन से सो सकी हूँ, ऐसा मुझे याद नहीं आता. उंगली की हालत ऐसी थी कि लगता था दिन -रात जैसे कोई चाकू लेकर उंगली के अन्दर उसे काट रहा हो, लगातार...
आखिरकार इसका भी अंत हुआ, exams से ठीक ३ दिन पहले मेरी उंगली की surgery हुई. doctors के लिए minor पर मेरे major हो गई. क्योंकि अब उंगली इस हालत में बिलकुल भी नहीं थी की उसके सहारे पेन पकड़ कर लिखा जा सके. लेकिन exam तो देना ही था. आखिर मैंने middle finger के सहारे ही पूरा mains लिखा. exams के दौरान मैं ३ पेन-किलर एक दिन में लेती थी, लेकिन उनका कोई बहुत असर पड़ता हो ऐसा नहीं लगता था. लेकिन वो वक़्त भी जैसे तैसे गुज़र ही गया. देखा जाए तो इस finger -case में मेरी ही गलती थी, अगर मैं शुरू में ही लापरवाही नहीं करती तो exams के काफी पहले मेरी उंगली ठीक हो सकती थी. पर जब तक मेरी नींद खुली तब तक सत्यानाश हो ही चुका था. exam की तैयारी पर पानी फिर गया था, revision कुछ ख़ास हो नहीं पाया और दिन रात के दर्द के बाद पढ़ा हुआ कुछ भी ठीक से याद रहा नहीं गया था . तिस पर doctors ने ये कह कर और डरा दिया कि " your finger is in a worse condition, we can't guarantee whether it will ever be able to come back in original shape".
खैर जैसे-तैसे exams भी हो गए और घर वापिस लौटते ही सबसे पहले मैं हॉस्पिटल गई. जहां x -ray के बाद डॉक्टर ने साफ़ कह दिया कि "you have got a pathological fracture in finger -bone ". अब ये pathological fracture शब्द मैं पहली बार सुन रही थी. समझ में सिर्फ इतना ही आय़ा कि surgery के तुरंत बाद finger को और हाथ को आराम नहीं मिला. इसके कारण wound heal -up होने के बजाय ज्यादा ओपन हो गया. जो सबसे ज्यादा shocking न्यूज़ थी, वो ये कि डॉक्टर ने मुझे साफ़ कह दिया कि finger -bone बहुत कमज़ोर हो गई है और खराब भी हो गई है, इसीलिए हो सकता है कि हमें finger काटनी पड़े..
जी हाँ, पढ़ कर हैरान मत होइए, मैं कोई बढ़ा- चढ़ा कर नहीं कह रही ना ही आपकी sympathy चाहती हूँ. आप चाहे तो डॉक्टर राम गोयल..जो राजस्थान के बेहतरीन surgeons में से एक है, उनसे इस घटना को verify कर सकते हैं. उन दिनों वे अपने केबिन में हर आने-जाने वाले, पहचान वाले को मेरा यानि एक IAS aspirant की finger surgery का किस्सा ज़रूर बताते थे.
खैर, भगवान की मेहरबानी से finger के और ज्यादा operations होने कि नौबत नहीं आई. अगले १-२ महीनों तक लगातार heavy antibiotic और dressing ने ज़ख़्म को ठीक कर दिया. पर हाँ, उस surgery और ज़ख़्म के निशान अब भी मेरी उंगली पर हैं. मेरी index finger बाकी fingers से अलग दिखाई देती है. और लगभग यही वो वक़्त था जब मेरा भगवान से विश्वास भी उठता चला गया...अब मुझे यकीन होने लगा था कि दुनिया में ईश्वर नाम की कोई चीज़ है तो आसानी से उसके होने का एहसास नहीं होता.
इस finger-episode के बाद कोई बड़ी घटना नहीं हुई. सिवाय इसके कि मार्च २००९ में mains का रिजल्ट आ गया और मैं clear नहीं कर सकी. मार्क्स आये तो ७३८ का score हुआ था जो किसी भी हालत में अच्छा नहीं कहा जा सकता था. और इसके लिए किसी को दोष भी नहीं दिया जा सकता था. मैं एक बार फिर से IAS PT की तैयारी में लग गई.
3 comments:
No critical reviews this time...
just a request-cum-advice-
Don't think much about, whatever happened in past.
Think about the future...
You've a long way to go, this is not the end of the world...
उस दिन मुझे एहसास हुआ क़ि "जो कुछ मेरे साथ अब तक हो चुका उससे ज्यादा और कुछ बुरा होने की अब गुंजाईश नहीं है. ये मेरी ज़िन्दगी की bottom layer है, यहाँ से और नीचे नहीं जाया जा सकता, यहाँ से अब सिर्फ एक ही रास्ता है और वो ऊपर की तरफ जाता है."
ur these lines can inspire any1.....u r a survivor
@Namish..Thank you..I have no words to explain my feelings. :)
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