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Wednesday, 26 July 2017

अथ प्रतीक कथा ---- दूसरा वर्शन


अपने दोनों हथेलियों  पर अपना सर टिकाये, कोहनियां मेज़ पर  चिपकी हुई ,  प्रतीक  शायद आराम कर रहा है।  पास में परदे के पीछे से एक रसोइया कभी कभी इधर दुकान में झाँक लेता है , दोपहर होने आई है  लेकिन यूँही खाली बैठे हैं।  वैसे ये बीच का वक़्त यूँ  ठाले बैठे ही गुज़रता है , सुबह लोग आते हैं।  वो जो सामने दरवाजा है कांच का बड़ा सा , वहीँ से एक एक कर  लोग अंदर आते हैं  और प्रतीक उनको देखने पढ़ने की कोशिश करता रहता है।   

अमूल बटर की खुशबू  दुकान में  हर समय मौजूद रहती है।  इस खुशबु में प्रतीक को कुछ याद नहीं रहता।   भूलने के लिए भी कोई शगल चाहिए और प्रतीक का शगल है  आलू परांठा  पर अमूल बटर की एक्स्ट्रा परत ।  
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कितनी देर से सोया  हुआ है प्रतीक।  इस कमरे के शोर गुल  की गूंजती हुई  चुप के बीच प्रतीक  सोया है। जब जागेगा तब दुनिया कैसी दिखेगी ?  दुनिया प्रतीक को  कैसे देखेगी ? प्रतीक कब तक सोयेगा ? जगाते हैं तो भी नहीं जागता, लगता है कि  बहुत थक कर सोया है।  

बिस्तर के दोनों तरफ एक जंगल है मशीनों का, टिम टिम करती छोटी छोटी बिंदी जैसी लाइटें  और तारें और ट्यूब  और उन ट्यूब से बहता पानी जैसा कुछ तरल और खून जैसा लाल कोई द्रव धीमे धीमे प्रतीक के शरीर में बूँद बूँद टपकता रहता है।  और  इस सबके   बीच प्रतीक शांत , तसल्लीबख्श  अंदाज़ में सोया रहता है।  लोग आते हैं जाते हैं , बैठे भी रहते हैं लेकिन प्रतीक को कोई नहीं जगाता।  उसे अभी और सोना है ऐसा डॉक्टर  ने बताया है।   कौन जाने कौनसा सूरज उसे जगायेगा ?

नींद के लिए क्या कुछ नहीं करते लोग ... एक गहरी खामोश और सपनों से  भरी नींद के लिए।  और प्रतीक को वही गहरी खामोश नींद  मिली है , बिना मांगे , बिना चाहे , बिना कहे।  कब उठेगा प्रतीक इस नींद से ? 

नींद की गोलियों के पत्ते को हाथ में दबाये , कभी अपने माथे को छूना और कभी प्रतीक के माथे को , दादा जी कितना  कुछ सोचते हैं !!!!  अब बस उनकी ड्यूटी ख़त्म होने वाली है रात को यहां सोने के लिए छोटा अभी आता होगा।  दोपहर बाद से ही वो यहां आकर बैठ जाते हैं , अपने  बड़े बेटे के इस इकलौते बेटे की देखरेख के लिए  और ज्यादातर वक़्त केवल उसे देखने के लिए।  कौन जाने प्रतीक कब जाग जाए !!! 

छोटे काका ड्यूटी पर टाइम से पहुँच गए।  आज ये उनकी तीसरी रात है इस   आई सी यू के बाहर।  लेकिन प्रतीक पिछली सात रातों से जागा  नहीं है।  रात भी  अपनी पारी  की ड्यूटी पूरी करके सुबह वापिस घर लौट जाती है , छोटे काका भी सुबह चले जाते हैं फिर प्रतीक के पापा आ जाते हैं।    

आठवें  दिन की सुबह प्रतीक जाग गया। शरीर हरकत करता है , आँखें इधर उधर देखती हैं,  कान सुनते हैं। 

धीरे धीरे  मशीनें कम हुईं।  फिर  कमरा बदल गया।  एक महीना गुज़र गया।

 और  जीवन की कहानी का एक अध्याय समाप्त होकर दूसरा शुरू हुआ ।  प्रतीक ने कितनी ही बार उस कहानी को मन में दोहराया , जब लद्दाख गया था, जहां ट्रैकिंग और क्लाइम्बिंग करते दोस्तों के संग  खूब सारी  तसवीरें और वीडियो और फिर कहीं एक जगह पैर फिसला था और उसके बाद कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद नींद आ गई थी।  और जब जागेगा  तो  सिर्फ ये हॉस्पिटल और पास बैठे परिवार वाले बस इतनी ही दुनिया है।  हेड इंजरी कहा था ना  डॉक्टर ने।  वक़्त लगता है रिकवरी में, प्रतीक को भी वक़्त की ही ज़रूरत है।

वक़्त रेत की तरह हाथ से फिसलता है।  

और इसी वक़्त की ऊँगली थामे प्रतीक और उसके मम्मी पापा दिल्ली , अहमदाबाद और मुंबई के हॉस्पिटल्स के चक्कर अगले कुछ महीनों तक काटते रहे।  और आखिर साल भर बाद जब अस्पतालों में जाने,  वहाँ रहने इलाज  करवाने का दौर ख़त्म  हुआ तब तक धरती  अपनी धुरी  पर  एक पूरा चक्कर  काट चुकी थी। प्रतीक की बैंगलोर सिलिकॉन वैली वाली  नौकरी जो उसका स्टेटस सिंबल और परिवार का गर्व थी,  जा चुकी थी। प्रतीक घर पर आराम करता है।  

रिश्तेदारों में किसी के बेटे  या बेटी का सिलेक्शन जब कभी  आई आई टी ,  इंजीनियरिंग  के कोर्स में या किसी ऐसी ही प्रतिष्ठित नौकरी में होता और बधाइयां दी जाती,  तब प्रतीक की मम्मी को अपने बेटे का डिस्टिंक्शन से पास होना, सेमेस्टर में टॉप करना और फिर कैंपस सिलेक्शन  में सबसे आगे रहना सब याद आता। प्रतीक  इतना सब याद नहीं करता , उसकी मेमोरी ज़रा कमज़ोर हो चली है , कभी कुछ याद करता है तो कभी कुछ भूल जाता है।  डॉक्टर ने  कह रखा है ज्यादा दिमाग खपाने की ज़रूरत नहीं।  जो भूल गए सो बढ़िया और जो याद है उतने से ही काम  चलाओ।

काम चलाने को, अस्पताल के रिहैबिलिटेशन सेशंस के बिल चुकाने को  और सबसे बड़ी बात ज़िन्दगी को वापिस पटरी पर लाने के लिए  कोई काम चाहिए।  और इस काम चलाने की कश्मकश के बीच प्रतीक कई बार सोचने की कोशिश करता है कि इस तरह यूँ अचानक ज़िदगी कैसे पलटा खा गई ?? वो बंगलौर का वेल फर्निश्ड फ्लैट, दोस्तों के संग धमाचौकड़ी और  वो सुनहरे दिन ....   सब कुछ कहाँ गया ? और अब उस फील्ड में वापसी भी संभव नहीं।  अब तो यहीं कुछ रास्ता निकालना होगा।  और इस  चिंता करने योग्य मुद्दे को लेकर भी प्रतीक कभी चिंता  नहीं कर पाता , क्योंकि अब इतना सब सोचने के लिए  प्रतीक के पास कल्पनाएं और ख्याल नहीं है।  मम्मी पापा को ज़रूर  प्रतीक के भविष्य की चिंता है ,  उसके आर्थिक और वैवाहिक भविष्य की भी चिंता है।  


"पिक एन पैक"   ये नाम कैसा रहेगा ,  शार्ट एंड स्वीट !!!!" प्रतीक का आईडिया। 

"कुछ और भी सोच , ये तो बहुत अँगरेज़ टाइप लग रहा है ", पापा को नहीं जमा। 

" अच्छा फिर,  "देसी ढाबा " कैसा रहेगा ?" 

" हाँ ये फिर भी थोड़ा सा ठीक है , पर कुछ और बढ़िया नाम सोच। "

" पिक एन  पैक ही ठीक है पापा , अब इतना तो कोई बड़ा रेस्टॉरेंट  हैं नहीं अपना। टेक अवे ही तो कर रहे हैं। " प्रतीक ने मुरझाई सी आवाज़ में कहा।  

"बेटा , शुरुआत तो छोटी ही होती है. खैर  आजकल के हिसाब से ये नाम भी सही है। " 

 "पिक एन  पैक"    फ़ास्ट फ़ूड , कुल्छे, परांठे , छोले भटूरे और आइस क्रीम वगैरह  पैक करवाइये,  टेक अवे पार्सल के लिए फोन पर आर्डर करिये  और यहीं बैठना चाहें तो जगह ज़रा छोटी है।  दुकान में घुसते ही सामने एक काउंटर है जहां प्रतीक बैठेगा उसके पीछे बाईं तरफ किचन का दरवाजा दीखता है  और दुकान के दोनों तरफ की दीवारों पर एक से दुसरे कोने तक  स्टील की लम्बी मेज़ लगवाई गई है और  प्लास्टिक के कुछ स्टूल रखे हैं।  परांठों और कुल्छों की कुछ  वैराइटियां हैं , भटूरे और पूरियां भी तीन चार तरह के मिलेंगे।  और  गेंहूं की चपाती  तो हर समय आर्डर पर  उपलब्ध है।  

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कांच के दरवाजे से अब धूप आ रही है,  दरवाजा खुलता है,  कोई स्टूडेंट्स आये हैं , स्टूल पर बैठे हैं और आलू परांठा दही राजमा  दाल और सादा परांठा  के आर्डर हवा में तिरने लगे हैं।  रसोइये  के लिए साँस लेने का भी वक़्त नहीं,  प्रतीक की नज़रें उस धूप के टुकड़े पर हैं जो खुले दरवाजे के ज़रिये दुकान के अंदर  तक पसर गया है।  अचानक उस रौशनी में  हवा की  परछाइयाँ  तैरने लगीं।  स्टील की लम्बी मेज़ पर थालियां सजने लगी हैं और परांठे की ऊपरी परत पर मक्खन का सुनहरा इंद्रधनुष दमक रहा है।  खाने वाले ने खुद से कहा , " इतना  ऑयली  है।"  ये ऑइल उसके चेहरे पर चमकने लगा है।  

प्रतीक ने देखा - पढ़ा।  

"अरे सुन  मास्टर , परांठों पर मक्खन ज़रा कम लगाया कर , आजकल के बच्चों से इतना ऑइल खाया नहीं जाता। " 


*Image Courtesy : Google 

Friday, 19 July 2013

उस पार --- भाग 2

  हालांकि ये   स्थिति भी ज्यादा देर  तक  नहीं  ठहर सकी .. उसने  खुद को एकबारगी फिर से फूलों की टहनियों और उस खरगोश की तलाश में व्यस्त कर लिया। पर जाने क्यों वो उत्साह अब मंद पड़  गया था।  और तभी उसकी आँखें जा टिकीं उस "फूल" पर .. वही जो झील में था .. अब भी वहीँ था .. उसे वो फूल चाहिए था ..बस चाहिए था .. लेकिन कैसे मिले .. दूर था .. "उह्ह किसे परवाह है .. मुझे चाहिए बस " .. उसने सोचा। 

उसने यहाँ वहाँ देखना और  तलाशना शुरू किया शायद कुछ   मिल जाए .. थोड़ी देर बाद उसे किसी पेड़ की एक टूटी  हुई लेकिन कुछ लम्बी टहनी या डाल  जैसा मिल गया .. "शायद ये  काम  कर जाए". 

उस टहनी को थामे वो पानी में उतरी .. पानी ठंडा था, इसके अलावा झील की तली काफी चिकनी और फिसलन भरी भी  थी .. इसलिए वो धीरे धीरे सावधानी से कदम बढ़ा रही थी .. और अब काफी हद तक पानी के भीतर थी। वो सब फूलों के गहने, जो उसने पहन रखे थे, अब धीरे धीरे ढीले होकर खुलने लगे थे और पानी की सतह पे बिखरने लगे थे  सिर्फ वो फूलों का ताज उसके सर पर  अभी  तक खिला  हुआ था लेकिन उसने खुद ही उसे हटा  दिया। अचानक से उसे  कुछ महसूस हुआ ... ठंडा पानी .. जिसकी  छुअन बेहद रहस्यमय थी ..एक मदहोश कर देने वाला नशा उस पर छा  रहा था .. उसने खुद को खो जाने दिया .. उस जादुई लम्हे और उस अलौकिक अनुभव में .. गहरे तक डूब जाने दिया खुद को  ..पानी जैसे उसके शरीर की बाहरी परत को भेदता हुआ अन्दर तक समा रहा था .. उसकी आत्मा को भिगो रहा था ..कुछ वक़्त  तक  वो ऐसे ही रही .. पानी में ..  उस वजह को भी भूल गई जो (फूल) उसे यहाँ पानी के भीतर लेकर आया था .

कुछ देर बाद अचानक जैसे वो नींद से जागी .. एक ख्याल उसके दिमाग में आया और उसे थोडा डर  लगा .. वो उस जादुई दुनिया से बाहर निकल आई .. उसने अपने होश संभाले और एक बार फिर  से उस फूल की तरफ देखा .. धीरे से .. ध्यान से उसने अपने हाथ में थामी हुई टहनी को आगे बढाया और उस फूल को उसके डंठल के साथ खींचा .. दो चार कोशिशों  के बाद उसने फूल को अपनी तरफ खींच लिया और डंठल समेत तोड़ भी लिया और फिर वो झील से बाहर निकल आई।


वो फूल, दुसरे आम फूलों से कुछ ज्यादा ही बड़ा था .. उसकी खुशबू , लड़की के मन मस्तिष्क पर छाने लगी थी या शायद अब भी वो उस रहस्य के आवरण में खोई हुई थी,  उसे महसूस  कर रही थी । उसने  अपने बालों का एक ढीला सा जूडा सा बनाया और वो फूल उसमे लगा दिया ..और फिर दुबारा झील की तरफ गई .. झील के आईने में खुद को देखा .. फूल उसके बालों में बेहद खूबसूरत लग रहा था या  ये महज़ उसकी कल्पना थी जो उस फूल को  और उसे भी  खूबसूरत बना रही थी ? उसे मालूम नहीं था   

और तभी एक बार फिर से उसने वो खरगोश देखा .. पेड़ के पास जाने क्या कर रहा था .. दोनॊ को एक एक दूसरे की उपस्थिति का पूरा अहसास था और दोनों एक दूसरे से कभी नज़रें मिलाते तो कभी नज़रें चुराते .. लड़की मुस्कुरा रही थी और खरगोश  अपनी चमकीली आँखें झपका रहा था। कुछ देर  बाद  खरगोश  पेड़ों के एक झुरमुट की और भाग चला .. जिज्ञासा,  लड़की को खरगोश के पीछे ले गई .. उस झुरमुट के अन्दर .. 

और क्या था वहाँ  .. वहाँ तीन चार खरगोश और भी थे।  उसने अपने चारों और देखा और उसका चेहरा चमक उठा बच्चों जैसी ख़ुशी और उत्साह से .. एक बार फिर से उसके मन  मस्तिष्क और उसकी आत्मा  झूम उठी उस नज़ारे को देखकर, भूल गई कि थोड़ी देर पहले क्या था, क्या नहीं था ..  और फिर अगले कुछ ही क्षणों में लड़की ने उन नर्म नाजुक छोटे दोस्तों के साथ खेलना शुरू कर दिया या उन्होंने उसका हाथ थाम लिया,  कह पाना मुश्किल है .. लेकिन इतना ज़रूर था कि  एक दुसरे का साथ उन्हें बहुत पसंद आ रहा था और वो उसका पूरा मज़ा ले रहे थे। कुछ घंटे और बीत गए .. वो भूल गई, समय को, समय के बंधनों को और शेष जगत को .. यहाँ तक कि  उसे नींद आ गई .. नींद में उसे ख्वाब आ रहे थे .. ख्वाब "उस पार" के, ख्वाब परछाइयों के, प्रतिबिम्बों के और हाँ खरगोशों के भी। 

अचानक एक तेज़ आवाज़ ने उस जगह की खामोशी को तोडा .. कोई पुकार रहा है .. वो जाग गई ..  

"ये किस  किस्म का शोर है?" वो बुदबुदाई और झील की तरफ  लौटी। 

वो लड़का, वोही .. यहाँ वहाँ घूम रहा था .. सब तरफ उसका नाम पुकारता ढूंढ रहा था .. 

"जून .. जून .. कहाँ हो तुम ?" 

वो उसे वापिस आया  देख कर हैरान थी .. कुछ देर यूँही खामोश खड़ी  रही और उसकी हरकतों को देखती रही। 

आखिर लड़के की नज़र उस पर पड़ी .. " तो तुम यहाँ हो " .. लड़का उसे देख कर खुश था ... हालाँकि वो हांफ रहा था लेकिन एक बड़ी सी मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई। लड़की ने इसे देखा, समझा और  उसकी तरफ बढ़ आई .. वो अब भी उसे आश्चर्य से देख रही थी। 

"कुछ बोलो ना .. मैंने तो सोचा था कि  तुम अब तक जा चुकी होंगी लेकिन देखता हूँ कि  तुम अब भी .."

"हाँ मैं यहीं थी .." लड़की ने धीरे से जवाब दिया। लड़के ने उस अनकही ख़ुशी को और उस छुपाये गए उत्साह  को देख लिया था ..जान लिया था, समझ लिया था जो उसके शब्दों के पीछे से झाँक रहा था। 

"तो तुम वापिस कैसे आ गए .. मैंने सोचा था कि  तुम चले गए हो, तुम्हारे लोग तुम्हे बुला रहे थे ना .."


"हाँ, कुछ काम था, पर मैंने कर लिया और वापिस आ गया .. ये देखने कि  क्या तुम अब भी यहीं हो या .."  अब उसकी साँसे सामान्य होने लगी थी। 

वो उसके शब्दों को गौर से सुन रही थी ..

"तो क्या कर रही थी तुम इतनी देर  तक ..और डर  नहीं लगा तुम्हे". 

"डर  किस बात का ?" 

"ये जगह, बिलकुल अकेले .."  लड़के ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया और अचानक जोर से चिल्ला कर पूछा ... "वो सारे फूल कहाँ गए?" 

पहले तो वो हंसी,  फिर थोडा रुक कर उसने कहा .. " चले गए, खो गए". 

"खो गए?? कहाँ?"  वो कुछ समझ नहीं पाया .. हज़ारों ख्याल उसके मन को झिंझोड़ने लगे। 

लेकिन लड़की अब भी मुस्कुरा रही थी, उसकी आँखें एक रहस्यपूर्ण  तरीके से चमक  रही थी, कुछ देर तक खामोश रही वो जैसे कोई बड़ा राज़ छुपा रही हो, फिर एक बार  खिलखिलाई और उसने वही जवाब दोहरा दिया .. " खो गये." 

लड़का अब् भी  उलझन में था .. कुछ पूछना चाहता था लेकिन जानता नहीं  था कि  कैसे पूछे ..

"क्या तुमने इसे नहीं देखा ?" लड़की ने अपने बालों में लगे फूल की तरफ इशारा किया .. उसका चेहरा अब एक विजेता के जैसी ख़ुशी से दमक रहा था।  एक पल को लड़का कुछ समझ नहीं पाया लेकिन फिर अगले ही क्षण उसने झील की तरफ देखा (झील ज्यादा दूर नहीं थी ) और फिर उस फूल की तरफ .. .

"तुमने ये कैसे किया .."? लड़के की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गई। 

वो मुस्कुराई .. "बस कर लिया ... मैं पानी में गई, और फूल को एक  टूटी टहनी की मदद से तोड़ लिया।"  वो  ऐसे  बता रही थी  जैसे कोई छोटा बच्चा स्कूल में  होमवर्क के लिए मिली तारीफ़ के बारे में बता रहा  हो।     

  "तुम पागल हो हो ..?? पानी में गई !!!!!!!!!!!!"

"हाँ .." उसने लापरवाही से जवाब दिया।

"तुम पागल हो, बिलकुल पागल. ये  खतरनाक हो सकता था .. तुम जानती नहीं क्या ?"

" ऐसा कुछ भी नहीं था,  ना तो ये कोई बड़ा खतरनाक  काम था और ना ही इसमें कोई परेशानी लगी।" 

लड़की की आवाज़ में एक लापरवाही और उपेक्षा सी थी उसके सवालों के लिये. और शायद इसलिए, लड़के ने कहे गए शब्दों से कहीं  ज्यादा सुना और जितना उसके कहने का अर्थ था उस से कहीं  ज्यादा समझा भी. और अब लड़के का उत्साह और ख़ुशी जो उस से  मिलने पर  था, अब फीका पड़ने लगा. 

लेकन इस सबसे बेखबर वो अब फिर से पेड़ों के झुरमुट की ओर  जा रही थी।     

"अब तुम कहाँ जा रही हो?" वो अब भी उलझन से घिरा था। 


"मैं ... मैं वो ..मैं तुम्हे कुछ दिखाना चाहती हूँ ..चलो .. चलो ना ".

लड़के ने हालाँकि आगे कुछ नहीं पूछा और वो उसके पीछे चलता गया लेकिन अब दिल में एक भारीपन था. और अब वो दोनों झुरमुट के पास थे. लगा जैसे लड़की थोड़ी निराश सी हुई हो, खरगोश और उनका कोई नामोनिशान आस पास नहीं था। 

"वो खरगोश कहाँ गए?" 

"कौनसे खरगोश?"

"यहीं तो थे, उन्ही के साथ तो मैं पूरा वक़्त खेल रही थी जब तुम यहाँ नहीं थे".  

अब लड़का थोडा और हैरान परेशान हो गया .. "मैंने तो यहाँ कभी कोई खरगोश नहीं देखे." 

'पर वो यहीं थे ..अच्छा  चलो रहने दो .. ज़रा इसे देखो  तो .." 

लड़की अब एक बड़े से  बरगद के पेड़ की तरफ गई और पेड़ से लटकती उसकी लम्बी जड़ों के एक जोड़े को थाम लिया, जो बिलकुल एक कुदरत के बनाये झूले जैसा लग रहा था। वो उस पर बैठ गई और धीरे धीरे झूलने लगी .. झूला गति पकड़ने लगा .. ऊपर उठता हुआ और फिर नीचे आता हुआ ..

"अरे, ध्यान से, कहीं गिर ना जाओ". लड़का परेशान था।

लड़की हंसी .. और उस लम्हे में लगा जैसे कोई झरना बह निकला  हो ... ऊँचे पहाड़ों से गिरता हुआ .. आश्चर्य के साथ लड़का उसे फिर से देख रहा था .. " तुम पागल हो .."


झूले की गति अब काफी बढ़ गई थी पर जैसे इतना काफी नहीं था .. लड़की ने अब उन टहनियों के झूले को गोल घेरे में घुमा के झूलना शुरू किया  और लड़का अब पूरी तरह अचंभित था .. उस लड़की की हंसी और उमंगें जैसे हवा में चुम्बकीय तरंगें पैदा कर रही थी और हर उस चीज़ को अपने में समाती जा रही थी जो वक़्त के उस लम्हे में, धरती के उस टुकड़े पर मौजूद था। लेकिन लगता नहीं था कि  लड़की को इस सबका भान था, वो तो सिर्फ झूलने का आनद ले रही थी। लड़के ने महसूस किया वो अपनी आँखें नहीं हटा पा रहा उस से .. उस लड़की से .. या शायद वो हटाना ही नहीं चाहता .. जो भी था .. लड़की ने इस बात को समझ लिया। 

लड़की ने उसकी आँखों को देखा .. उनमे लालसाएं थीं, आकांक्षाएं थीं, महत्वाकांक्षाएं थी, अपेक्षाएं थीं और … और बहुत कुछ  था … और उसकी आँखों में लड़के ने एक  सपना देखा जो झिलमिलाते हुए पर्दों के पीछे छिपा था . वो आगे बढा … 

"तुमने अभी तक मेरा  नाम नहीं पूछा". 

"मैं जानती हूँ तुम्हारा नाम ।" एक और बेपरवाह जवाब. 

" तुम जानती हो !!!!!!!!!!!!,  लेकिन  मैंने तो  तुम्हे नहीं बताया, फिर कैसे । कैसे तुम जानती हो ?"  लड़का अब उसके ठीक  सामने आकर खड़ा हो गया. 
  
"क्या …"  एक क्षण के लिए उसकी हंसी रुक गई और वो निरुत्तर हो गई. 

लड़के ने अपना सवाल दोहराया … लड़की की मुस्कान फिर से लौट आई. दूर अज्ञात क्षितिज को देखते हुए उसने कहा …

" तुम्हारा नाम छलावा  है … तुम्हारा नाम है सतरंगी आभास, भ्रम, तृष्णा … "

लड़के ने झूले को कस कर पकड़ लिया और उसकी तरफ देखने लगा  लेकिन लड़की ने  कोमलता से उसका हाथ हटाया और रुक चुके झूले से उठ खड़ी हुई. 

लड़का खामोश था लेकिन शायद कुछ  कहना चाहता था. 

लड़की ने सुन लिया … वो मुड़ी … लेकिन ये क्या … 

हर चीज़ … उसके चारों ओर, वो लड़का … सब कुछ एक भंवर में समाता और गायब होता जा रहा था.  वो डर कर चीखी … उसने अपना हाथ आगे बढाया शायद कुछ थामने के लिए या पकड़ने के लिए … लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 


"रुकॊऒऒओ … " उसकी साँसे तेज़ तेज़ चल रही थी पसीने से नहा  गई थी वो. 

" बिटिया, सोना … क्या हुआ  … कुछ नहीं बस एक बुरा सपना ही था, शांत हो जा".  ये उसके माता पिता थे.   

और तभी उसके सेलफोन की रिंग टोन बज उठी … "छोटी सी कहानी से बारिशों के पानी से सारी वादी भर गई … " 






Thursday, 15 November 2012



हर रोज़ आसमान से रात उतरती है और साथ लेकर आती है नीदं का प्यार ..

हर रात नीद की बांहों में सोती हूँ मैं , सपनों के सीने पर सर रखे ..ख्यालों की गर्म  चादर ओढ़े ... 

सपनों के सीने से आती धडकनों की आवाज़ मेरे दिल को ऊष्मा देती है ... मुझे जिलाए रखती है ..

हर रात  एक ही ख्वाब को अपनी बांहों में समेट  अपने सीने से लगा कर सोती हूँ .. रात भर में जी जाती हूँ जागती  ज़िन्दगी का एक भरा पूरा हिस्सा .

हर रात एक ही सपना मुझे बांहों  में लेता है और हर रात मैं  उसकी शक्ल बदलते देखती हूँ ...

हर रात वो ख्वाब मुझमे जिंदा होता है और हर सुबह मेरे साथ ही मर जाता है ..अगली रात तक के लिए ..

हर रात मेरी थकी, मुंदती पलकों  पर सोहणे  ख्वाब  तारी होते हैं , रात रौशन होती है ख्यालों की चमक से, होंठों की मुस्कराहट और दिल की ख़ुशी से  .. हर सुबह  सूरज आता है ....रात की रौशनी को अपनी परछाई से ढक  देने के लिए ..

हर रात ख्वाब जागते हैं, मैं सोती हूँ ... कि  कभी आँखें ना खुले सुबह की परछाई से .. कभी रात की रौशनी मद्धिम  ना पड़े .. 

रातें यूँही हमारी साँसों की गर्मी से जवान बनी रहे ... हमारे सपनों की चमक से उजली बनी रहे .. 

मैं यूँही नींदों की बांहों में सोती रहूँ ...   

Saturday, 22 January 2011

जागते ख्यालों की रातें

रात का वक़्त सोने के लिए होता है और आमतौर पर लोग रात को सोते ही हैं. पर कभी- कभी ऐसा होता है की नींद आती नहीं है या शायद हम खुद ही सोना नहीं चाहते. बिस्तर पर लेटे कभी छत को देखते हुए और कभी खिड़की से बाहर  देखते हुए जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं.

अब यहाँ अगर मैं ये  कहूं  कि खिड़की के बाहर मैं चाँद तारों या नीले आसमान को देखती हूँ और उन्हें देख कर मुझे बड़े ऊँचे दर्जे के साहित्यिक ख्याल मन में आते हैं, तो ये बिलकुल गलत होगा और काफी नाटकीय भी लगेगा. गलत इसीलिए कि मेरी खिड़की से चाँद तारे कभी-कभार ही दिखते हैं. इन housing कॉलोनियों में जहाँ मनमर्जी से घरों की designing की गई है वहाँ खिडकियों के लिए चाँद तारे और दूर तक फैले नीले आसमान के लिए कुछ बहुत ज्यादा गुंजाईश नहीं बची है.
 और नाटकीय इस तरह की चाँद तारे और नीला आसमान ये सब तो किसी कविता,ग़ज़ल या फ़िल्मी गाने जैसा लगता है.
                          खैर, ये सब तो मूल विषय से हटकर कही गई बातें हैं. हमारा मुद्दा तो इस समय "रात्रि-जागरण" है.
 कभी ऐसा भी होता है की कुछ ख्याल, कल्पनाएँ,विचार और सपने इतने सुन्दर होते हैं की उनके बारे में सोचना नींद लेने से ज्यादा अच्छा लगता है.
                रात के समय जबतरफ शांति होती है, घर के सब लोग सो चुके होते हैं, यहाँ तक की चूहे और झींगुर भी किसी कोने में चुपचाप बैठे हैं या शायद हम खुद ही अपने ख्यालों में इस तरह खो जाते हैं की हमें "प्रकृति के इन violin वादकों " और "घरेलू घुसपैठियों" की आवाजें सुनाई ही नहीं देती. इस तरह ख्यालों का एक लम्बा सिलसिला चल निकलता है, जो समय, स्थान और  अन्य सभी वास्तविकताओं, बंधनों के परे हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाता है. ऐसी दुनिया जो हमारी बनाई  हुई है, उसकी अच्छाई-बुराई, सुख-दुःख के अहसास सब हमारे ही बनाये हुए हैं.
इन ख्यालों का अंत तब तक नहीं हो पता जब तक हम खुद को नींद लेने के लिए विवश ना  करें. कम से कम अपने  बारे में तो मैं यही कहूँगी . क्योंकि एक बार जब कुछ सोचना शुरू करो तो फिर नींद का हाल कुछ ऐसा हो जाता है की आँखें भारी हैं पर नींद आ नहीं रही. आँखें बंद करने पर भी दिल-दिमाग जागता रहता है और आँखों  को ज्यादा देर तक बंद रहने नहीं देता. और फिर से एक बार खिड़की, दरवाजों पर लगे पर्दों, दीवार पर  लगी घडी और खिड़की से नज़र  आते टुकड़ा भर आसमान पर नज़रें  उलझने  लगती है.
                      पर सभी ख्याल अच्छे हों ऐसा ज़रूरी नहीं,  कुछ ख्याल बुरे भी होते हैं, कुछ डरावने, कुछ तरह-तरह की आशंकाओं , चिंताओं और संदेहों से भरे होते हैं. गुस्सा , निराशा, तनाव, परेशानियां जो हम किसी से कह नहीं पाते, जिनसे हम दूर भागना चाहते  हैं, वो सब रात होने पर हमारे साथ बिस्तर पर सोते हैं. जब तक आँखें खुली हैं, दिमाग जाग रहा है, तब तक वे ख्याल भी जागते हैं. जब आँखें सो जाती हैं तब ज़रूरी नहीं  की दिमाग भी सो ही  जाए, वो सिर्फ एक अवचेतन स्तिथि में चला जाता है और उन्ही ख्यालों से जो सोने से पहले आँखों में थे , उनके सपने बुनता है . और उन्ही सपनो को देखते-देखते रात गुज़रती है,  अगली सुबह जब हम जागते हैं, तो बीती रात के ख्याल और  सपने हमारे साथ जागते हैं. लेकिन दिन भर की भाग दौड़  में  हम उन ख्यालों को भूल जाते हैं. उन्हें अपने से दूर छिटका देने का प्रयास करते हैं. पर फिर रात आती है और एक बार फिर अच्छे -बुरे , सुन्दर-असुंदर,  सुख-दुःख, शांति-बैचेनी और डर-निश्चिन्ताओं के ख्याल अपने साथ लाती है, ताकि पिछली रात के सिलसिले को फिर से दोहराया जा सके, नए शब्दों में , नई कल्पनाओं में, नए दृष्टिकोण से.
                                  अब इस नए का अर्थ सकारात्मक  और नकारात्मक दोनों ही रूपों  में निकलने के लिए आप स्वतंत्र हैं. मुझे इस पर कोई निर्णय देने या निष्कर्ष निकालने के लिए ना कहें.