Wednesday 26 July 2017

अथ प्रतीक कथा ---- दूसरा वर्शन


अपने दोनों हथेलियों  पर अपना सर टिकाये, कोहनियां मेज़ पर  चिपकी हुई ,  प्रतीक  शायद आराम कर रहा है।  पास में परदे के पीछे से एक रसोइया कभी कभी इधर दुकान में झाँक लेता है , दोपहर होने आई है  लेकिन यूँही खाली बैठे हैं।  वैसे ये बीच का वक़्त यूँ  ठाले बैठे ही गुज़रता है , सुबह लोग आते हैं।  वो जो सामने दरवाजा है कांच का बड़ा सा , वहीँ से एक एक कर  लोग अंदर आते हैं  और प्रतीक उनको देखने पढ़ने की कोशिश करता रहता है।   

अमूल बटर की खुशबू  दुकान में  हर समय मौजूद रहती है।  इस खुशबु में प्रतीक को कुछ याद नहीं रहता।   भूलने के लिए भी कोई शगल चाहिए और प्रतीक का शगल है  आलू परांठा  पर अमूल बटर की एक्स्ट्रा परत ।  
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कितनी देर से सोया  हुआ है प्रतीक।  इस कमरे के शोर गुल  की गूंजती हुई  चुप के बीच प्रतीक  सोया है। जब जागेगा तब दुनिया कैसी दिखेगी ?  दुनिया प्रतीक को  कैसे देखेगी ? प्रतीक कब तक सोयेगा ? जगाते हैं तो भी नहीं जागता, लगता है कि  बहुत थक कर सोया है।  

बिस्तर के दोनों तरफ एक जंगल है मशीनों का, टिम टिम करती छोटी छोटी बिंदी जैसी लाइटें  और तारें और ट्यूब  और उन ट्यूब से बहता पानी जैसा कुछ तरल और खून जैसा लाल कोई द्रव धीमे धीमे प्रतीक के शरीर में बूँद बूँद टपकता रहता है।  और  इस सबके   बीच प्रतीक शांत , तसल्लीबख्श  अंदाज़ में सोया रहता है।  लोग आते हैं जाते हैं , बैठे भी रहते हैं लेकिन प्रतीक को कोई नहीं जगाता।  उसे अभी और सोना है ऐसा डॉक्टर  ने बताया है।   कौन जाने कौनसा सूरज उसे जगायेगा ?

नींद के लिए क्या कुछ नहीं करते लोग ... एक गहरी खामोश और सपनों से  भरी नींद के लिए।  और प्रतीक को वही गहरी खामोश नींद  मिली है , बिना मांगे , बिना चाहे , बिना कहे।  कब उठेगा प्रतीक इस नींद से ? 

नींद की गोलियों के पत्ते को हाथ में दबाये , कभी अपने माथे को छूना और कभी प्रतीक के माथे को , दादा जी कितना  कुछ सोचते हैं !!!!  अब बस उनकी ड्यूटी ख़त्म होने वाली है रात को यहां सोने के लिए छोटा अभी आता होगा।  दोपहर बाद से ही वो यहां आकर बैठ जाते हैं , अपने  बड़े बेटे के इस इकलौते बेटे की देखरेख के लिए  और ज्यादातर वक़्त केवल उसे देखने के लिए।  कौन जाने प्रतीक कब जाग जाए !!! 

छोटे काका ड्यूटी पर टाइम से पहुँच गए।  आज ये उनकी तीसरी रात है इस   आई सी यू के बाहर।  लेकिन प्रतीक पिछली सात रातों से जागा  नहीं है।  रात भी  अपनी पारी  की ड्यूटी पूरी करके सुबह वापिस घर लौट जाती है , छोटे काका भी सुबह चले जाते हैं फिर प्रतीक के पापा आ जाते हैं।    

आठवें  दिन की सुबह प्रतीक जाग गया। शरीर हरकत करता है , आँखें इधर उधर देखती हैं,  कान सुनते हैं। 

धीरे धीरे  मशीनें कम हुईं।  फिर  कमरा बदल गया।  एक महीना गुज़र गया।

 और  जीवन की कहानी का एक अध्याय समाप्त होकर दूसरा शुरू हुआ ।  प्रतीक ने कितनी ही बार उस कहानी को मन में दोहराया , जब लद्दाख गया था, जहां ट्रैकिंग और क्लाइम्बिंग करते दोस्तों के संग  खूब सारी  तसवीरें और वीडियो और फिर कहीं एक जगह पैर फिसला था और उसके बाद कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद नींद आ गई थी।  और जब जागेगा  तो  सिर्फ ये हॉस्पिटल और पास बैठे परिवार वाले बस इतनी ही दुनिया है।  हेड इंजरी कहा था ना  डॉक्टर ने।  वक़्त लगता है रिकवरी में, प्रतीक को भी वक़्त की ही ज़रूरत है।

वक़्त रेत की तरह हाथ से फिसलता है।  

और इसी वक़्त की ऊँगली थामे प्रतीक और उसके मम्मी पापा दिल्ली , अहमदाबाद और मुंबई के हॉस्पिटल्स के चक्कर अगले कुछ महीनों तक काटते रहे।  और आखिर साल भर बाद जब अस्पतालों में जाने,  वहाँ रहने इलाज  करवाने का दौर ख़त्म  हुआ तब तक धरती  अपनी धुरी  पर  एक पूरा चक्कर  काट चुकी थी। प्रतीक की बैंगलोर सिलिकॉन वैली वाली  नौकरी जो उसका स्टेटस सिंबल और परिवार का गर्व थी,  जा चुकी थी। प्रतीक घर पर आराम करता है।  

रिश्तेदारों में किसी के बेटे  या बेटी का सिलेक्शन जब कभी  आई आई टी ,  इंजीनियरिंग  के कोर्स में या किसी ऐसी ही प्रतिष्ठित नौकरी में होता और बधाइयां दी जाती,  तब प्रतीक की मम्मी को अपने बेटे का डिस्टिंक्शन से पास होना, सेमेस्टर में टॉप करना और फिर कैंपस सिलेक्शन  में सबसे आगे रहना सब याद आता। प्रतीक  इतना सब याद नहीं करता , उसकी मेमोरी ज़रा कमज़ोर हो चली है , कभी कुछ याद करता है तो कभी कुछ भूल जाता है।  डॉक्टर ने  कह रखा है ज्यादा दिमाग खपाने की ज़रूरत नहीं।  जो भूल गए सो बढ़िया और जो याद है उतने से ही काम  चलाओ।

काम चलाने को, अस्पताल के रिहैबिलिटेशन सेशंस के बिल चुकाने को  और सबसे बड़ी बात ज़िन्दगी को वापिस पटरी पर लाने के लिए  कोई काम चाहिए।  और इस काम चलाने की कश्मकश के बीच प्रतीक कई बार सोचने की कोशिश करता है कि इस तरह यूँ अचानक ज़िदगी कैसे पलटा खा गई ?? वो बंगलौर का वेल फर्निश्ड फ्लैट, दोस्तों के संग धमाचौकड़ी और  वो सुनहरे दिन ....   सब कुछ कहाँ गया ? और अब उस फील्ड में वापसी भी संभव नहीं।  अब तो यहीं कुछ रास्ता निकालना होगा।  और इस  चिंता करने योग्य मुद्दे को लेकर भी प्रतीक कभी चिंता  नहीं कर पाता , क्योंकि अब इतना सब सोचने के लिए  प्रतीक के पास कल्पनाएं और ख्याल नहीं है।  मम्मी पापा को ज़रूर  प्रतीक के भविष्य की चिंता है ,  उसके आर्थिक और वैवाहिक भविष्य की भी चिंता है।  


"पिक एन पैक"   ये नाम कैसा रहेगा ,  शार्ट एंड स्वीट !!!!" प्रतीक का आईडिया। 

"कुछ और भी सोच , ये तो बहुत अँगरेज़ टाइप लग रहा है ", पापा को नहीं जमा। 

" अच्छा फिर,  "देसी ढाबा " कैसा रहेगा ?" 

" हाँ ये फिर भी थोड़ा सा ठीक है , पर कुछ और बढ़िया नाम सोच। "

" पिक एन  पैक ही ठीक है पापा , अब इतना तो कोई बड़ा रेस्टॉरेंट  हैं नहीं अपना। टेक अवे ही तो कर रहे हैं। " प्रतीक ने मुरझाई सी आवाज़ में कहा।  

"बेटा , शुरुआत तो छोटी ही होती है. खैर  आजकल के हिसाब से ये नाम भी सही है। " 

 "पिक एन  पैक"    फ़ास्ट फ़ूड , कुल्छे, परांठे , छोले भटूरे और आइस क्रीम वगैरह  पैक करवाइये,  टेक अवे पार्सल के लिए फोन पर आर्डर करिये  और यहीं बैठना चाहें तो जगह ज़रा छोटी है।  दुकान में घुसते ही सामने एक काउंटर है जहां प्रतीक बैठेगा उसके पीछे बाईं तरफ किचन का दरवाजा दीखता है  और दुकान के दोनों तरफ की दीवारों पर एक से दुसरे कोने तक  स्टील की लम्बी मेज़ लगवाई गई है और  प्लास्टिक के कुछ स्टूल रखे हैं।  परांठों और कुल्छों की कुछ  वैराइटियां हैं , भटूरे और पूरियां भी तीन चार तरह के मिलेंगे।  और  गेंहूं की चपाती  तो हर समय आर्डर पर  उपलब्ध है।  

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कांच के दरवाजे से अब धूप आ रही है,  दरवाजा खुलता है,  कोई स्टूडेंट्स आये हैं , स्टूल पर बैठे हैं और आलू परांठा दही राजमा  दाल और सादा परांठा  के आर्डर हवा में तिरने लगे हैं।  रसोइये  के लिए साँस लेने का भी वक़्त नहीं,  प्रतीक की नज़रें उस धूप के टुकड़े पर हैं जो खुले दरवाजे के ज़रिये दुकान के अंदर  तक पसर गया है।  अचानक उस रौशनी में  हवा की  परछाइयाँ  तैरने लगीं।  स्टील की लम्बी मेज़ पर थालियां सजने लगी हैं और परांठे की ऊपरी परत पर मक्खन का सुनहरा इंद्रधनुष दमक रहा है।  खाने वाले ने खुद से कहा , " इतना  ऑयली  है।"  ये ऑइल उसके चेहरे पर चमकने लगा है।  

प्रतीक ने देखा - पढ़ा।  

"अरे सुन  मास्टर , परांठों पर मक्खन ज़रा कम लगाया कर , आजकल के बच्चों से इतना ऑइल खाया नहीं जाता। " 


*Image Courtesy : Google 

2 comments:

pushpendra dwivedi said...

waah bahut khoob badhiya post

Yashwant R. B. Mathur said...

मर्मस्पर्शी!