अब याद कुछ नहीं आता। याद करते , याद रखते, मैं भी थक गई। याद का ठेका अकेले मेरा तो है नहीं।
मुझे अब कोई याद नहीं करता। मेरे बारे में वे every small little things भी अब कोई नहीं बताता, जानता। और मुझे इसमें कुछ भी नया, अनोखा, अजब नहीं लगता।
यह बरसों की याद, शताब्दियों का संसार और रिवाज हैं। यह इक्कीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशक हैं। ये प्रयोग और अनुभव के दिन हैं, लकीरों को लांघने के दुस्साहस के सफर हैं।
और मैं याद रखने और याद आने के कारोबार पर मिट्टी बिछाती जा रही हूं। क्या कोई देख रहा है ? कोई जान रहा है कि मिट्टी की परत हर रोज एक अंगुल ऊपर उठ रही है?
मैं लकीरों और उनकी बनाई ज्योमेट्री को मिटोरती जा रही हूं। यह उत्तर होगा उस औपचारिक याद को जो यदा कदा शिष्टाचार वश या दिखावे वश जागती है। जिसकी उपेक्षा करने के लिए सहस्त्राब्दी का इंतज़ार करना होता है।
और फिर मेरी आँखों में नींद भर आती है। यह आभासी सत्य पर विश्वास करने के दिन हैं।
मेरी नींद इस सतरंगी आभास में फिर से खुलती है। यहां हर निषेध एक निमंत्रण है, मुझे याद दिलाने के लिए कि मेरा स्वागत है, नए सफर पर नई शताब्दी में नए परिचय के साथ।
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