लड़की एक बार फिर से उसी झील के किनारे बैठी है। पानी में पैर डुबोने और छप छप करें , का ख्याल आया लेकिन गंदले और काई जमे किनारे ने उसे दूर से ही छिटका दिया। पानी अब बहुत दूर तक खिसक गया था , झील के किनारे वाला हिस्सा सूख गया लगता है। अब इसे झील तो नहीं तालाब जैसा कुछ मान लें ऐसा ख्याल आया उसके मन में। उसका मन जो अब समय की धुरी पर चारों दिशाओं और चौदह भुवन को देख आया है ; उस मन में अब कोई कविता या संगीत नहीं उपज रहा। बस केवल कुछ परिचित कुछ जाना पहचाना चिन्ह दिख जाए तो यहां आने का सुकून पूरा हो जाए।
'खरगोश अभी तक नहीं दिखा' , एक सवाल आकर टंग गया हवा में।
"ऐसे उजाड़, सूखे में कौनसा खरगोश रह सकता है ?" चौदह भुवन में से किसी एक भुवन ने उत्तर दिया।
उसने खुद को देखा या हाथ लगा कर खुद को महसूस किया। रूखे टूटे बाल जो कंधे से नीचे तिनकों की तरह झूल रहे थे। चेहरे पर जगह जगह सूखा खुरदुरापन महसूस हुआ। फिर हाथ भींच कर उसने आस पास नज़र घुमाई। वो जादू, वो रहस्य से भरे नज़ारे जो उसने देखे थे इस जगह पर; कुछ नहीं था। सूखी कांटे वाली झाड़ियाँ थीं, पेड़ कहीं इधर उधर अकेले खड़े जैसे सोचते हों कि आखिर कौन उन्हें यहां छोड़ गया और लेने कब आएगा ? कोई फूल पत्ता , हरी टहनियां और झुकी हुई डालियाँ ..... यह सब कविता अब यहां क्यों नहीं दिखती ?
"खरगोश नहीं हैं क्या ?"
"नहीं हैं। " फिर से किसी भुवन या दिशा ने जवाब दिया स्पष्ट ही सुनाई दिया उसे. उसे जिसका नाम शायद ,,,,,
किसी के चलने और धीरे धीरे पैर रखने की आहट है , शायद खरगोश !!! उसने पीछे मुड़ कर देखा, वही लड़का वहाँ खड़ा है, जहां तब पहली बार उसे आता देखा था। एक पहचानी हुई सूरत देख कर इंसान खुश हो जाता है या दुखी होता है या अपने में ही सिमटने की कोशिश करने लगता है ?? यह प्रश्न जगा।
"तुम, जून ; तुम यहां वापिस कब आईं ?"
"क्यों नहीं आ सकती क्या ?"
"ऐसा कब कहा ?"
"पर इतने दिन तुम कहाँ थीं ?"
"मैं, मैं ... वहाँ उस पार से आगे , वहाँ ,,,,,"
जवाब अधूरा ही रहा। वो तीर तीक्ष्ण दृष्टि जिसने कभी आगे बढ़ते पैरों के आवेग को रोक दिया था , वो दृष्टि अब झुकी हुई थी।
"तुम कहाँ थीं ?"
"तुम, तुम इतने दिन क्या करते रहे ?" पलट कर सवाल आया। तीक्षणता आसानी से जाती नहीं; यही तो धागा है जोड़े रखने का। इस प्रतिप्रश्न ने पुराने उल्लास को जगा दिया।
"मैं बहुत बहुत से कामों में उलझा था। मुझे बहुत कुछ करना था। जाना था और पहाड़ पार करने थे।" लड़के का मन जाग उठा , हर वो बात बताने को जिसका कोई श्रोता अभी तक नहीं मिला है।
"अच्छा, मुझे भी बहुत कुछ करना था। मैंने नदियां और समंदर पार किये। ये पेड़ कहाँ गए और वो खरगोश और वो फूल, वो झील का पानी ??? वो डालियाँ जिन पर मैंने झूला लगाया था। " लड़की ने कहीं दूर पहाड़ पर नज़र टिकाते कहा।
"बहुत दिन हुए बरसात नहीं हुई। और पेड़ हमने काट दिए। " क्या बस इतना ही कहना है इसे , क्या यह मुझसे नहीं पूछेगी कि मैं कहाँ गया था और मैंने क्या देखा ? क्या वो अभी भी उस फूल को जो झील में से निकाला था उसे याद कर रही है; यह सब ख्याल लड़के के मन में तैरने लगे.
"क्यों !!!!" एक संवेग जगा लड़की के अंदर।
"पहाड़ पर लकड़ी चाहिए आग जलाने के लिए। " बेहद सपाट जवाब दिया उस लड़के ने।
"आग तो हर जगह जल रही है।"
"तुमने फिर से उलझी हुई बातें करनी शुरू कर दी। "
" तुम यहां दुबारा कभी नहीं आये थे ?"
"आता था, कभी कभी लकड़ियां काटने।
लड़की ने उसकी तरफ अजब निगाह से देखा ; और आज पहली बार लड़के ने उसकी आँखों में देखने की कोशिश की. वहाँ अनसुने सवाल थे , आँखों के परदे के पीछे छिपे जवाब थे ; ना सुनी गई ख्वाहिशे और इच्छाएं थीं ; कामनाएं और लालसाएं जहां सो रही थीं गहरी नींद में। इतना कुछ था वहाँ पर पहले कभी देखा नहीं। अचानक लड़के को कुछ महसूस हुआ, उसे समझ आया कि अब कोई उलझन या दुविधा नहीं है ; यह उलझनें जिस अलबेले समय की थीं वो समय कब का बीत गया। उसने ये भी जाना कि अब वो लड़की महज वो अल्हड फूलों की बेल नहीं है जिसने उसने उस दिन देखा था , जिसके साथ झील के किनारे बैठ कर फूलों का संसार देखा था। अब वो एक अलग दुनिया लेकर आई है जिसमे उस लड़की के चेहरे के पीछे से एक औरत झाँक रही है। लेकिन फिर ये और जाना कि अब वो खुद भी बदल गया है,; आश्चर्य और आवेगों का उसका वक़्त भी गुजर गया है , अब उसमे बर्दाश्त और समझ आ गई है। अचानक उसने खुद से कहा ; 'अब तुम मुझे बहला नहीं सकोगी , अब मैं नाम चेहरे और रूप की दुनिया देख चुका। '
जो पता नहीं कहाँ से और कहाँ आगे जायेंगे
एक सम्पूर्ण संसार बस गया उस एक निमिष में उन दोनों के बीच। समय का पहिया एक क्षणांश के लिए शायद थमा , कुछ देखा और फिर चल पड़ा , अनवरत अनंत की तरफ। उस चलने को लड़की ने जान लिया।
"अब मैं जाऊं ?"
"नहीं रुको,. " यह आदेश का स्वर था जो पहली बार इस कायनात ने सुना था। एक मजबूत हड्डियों वाला हाथ आगे बढ़ा और उसने उस दुसरे उतने ही मजबूत लेकिन कोमल नसों वाले हाथ को थामा।
लेकिन वो रुकी नहीं, रोक सकने जितनी ताकत अभी उस हाथ में नहीं आई थी। लड़की को पता था कि इस मजबूत हाथ की ताकत कितनी दूर कितने पास तक जा सकती है, इसलिए निश्चिन्त होकर चलती गई एक नामालूम दिशा में। एक पेड़ था उस चलने की दिशा में; कुछ पत्ते, टहनियों और सूखी डालियों को समेटे हुए। वो बैठ गई वहाँ एक पत्थर पर; उस पेड़ के आस पास अब सिर्फ पत्थर थे जिनको शायद बैठने की गरज से ही वहाँ होना था। एक फ्रेम था , जिसमे पत्थर हैं, पेड़ की सूखी झुर्रियों वाली डालियाँ हैं और पेड़ के नीचे बैठे ये मुसाफिर ; जो कहीं दूर रास्ते से आये हैं और अब किसी दूर देस को जायेंगे। यह सब समय का एक फ्रेम था, जिसमे ये सारे तय किरदार थे अपनी अपनी लाइन्स भूले हुए।
लड़की अभी भी सोच रही है कि यहां क्यों आ बैठी हूँ ? चली ही जाऊं ! और ये लड़का अब इतना अजनबी क्यों लग रहा है, इसे अब चले ही जाना चाहिए ; शायद इसके जाने के बाद मैं फिर से वो ढूंढ सकूँ जिसके लिए यहां आई हूँ ? पर क्या ढूंढने आई हूँ ?
'वो हंसी , वो फूलों की महक और सिंगार ; झील के पानी का जादू और उस पानी का ठंडा नशा जो चमड़ी को भेदता अंदर हड्डियों तक को भिगो देता है। ' फिर से कोई दिशा उसके पास आकर बुदबुदाई।
"यहां, वो झुरमुट होते थे न, जिनमे खरगोश रहते थे।"
" पता नहीं, मैंने तो पहले भी कभी देखे नहीं थे। " लड़का अब थकने और ऊबने लगा था. क्यों बैठा है यहां ? ये कौन है जिसके लिए एक बार फिर छलावे के फर्श पर चल रहा हूँ मैं ?
"वहाँ पहाड़ के पार एक झील है, वहाँ सुना है खरगोश भी हैं और वो सब फूल वगैरह भी. तुम वहाँ चली जाओ।"
पर लड़की ने शायद सुना नहीं, वो कुछ बोल रही थी, " वो जादू, वो रंगीन नज़ारा ; वही सब देखने तो आई थी। नदी के इस पार ये था और उस पार मैं थी। तुमने पहाड़ के पार क्या देखा ? बताओ ?"
और एक थकी निराश जिज्ञासा ने सिलसिला जगा दिया किस्से और कहानी का। वक़्त का पैमाना रेत गिराता रहा, कब फिर से हाथ की अंगुलियां कंकड़ों से उलझती खुद में उलझीं ये सिर्फ वक़्त के कतरे ने देखा। और शायद झील के किनारों ने भी देखा। उन पथरीले किनारों ने फिर से पानी को आवाज़ दी। और देखते देखते एक रहस्य उस झील के भीतर से निकल किनारों तक पहुँचने लगा। लड़की के नज़र बेसाख्ता ही उस तरफ उठी और उसने पुकारा,
"अरे ये क्या है !!! देखो, क्या पानी बरसा है ? झील तो पानी से भरी दिख रही है !!!" लड़की के शरीर में जितना उत्साह और उल्लास का खून था वो सब इस वक़्त उसकी साँसों में भरा भाग रहा था।
"कहाँ से आया पानी ?? तुम फिर से .." लड़का अब की बार झुंझला गया। मगर लड़की तो बगैर उसके जवाब सुने दौड़ रही थी झील की तरफ, उसके ठन्डे पानी की छुअन की तरफ।
"ये इतना पानी कहाँ से आया। ये तो कब से सूखा ही पड़ा था ?" संशय था, संदेह था और हैरानी की हद से भी ऊपर जाते सवाल थे लड़के के मन में। उसके समझ में नहीं आता था कि आखिर ये क्या गोरख धंधा है।
"तुम कोई जादू मंत्र जानती हो क्या ? पिछली बार खरगोश थे , इस बार झील का पानी। कौन हो, कहाँ से आई हो ?"
"मैं, मैं तो उस पार ,,,,,,,,,,,,,," छप छप करते पैर थम गए। खिलखिलाहट लौट आई। उपेक्षा लौट आई, बेपरवाही ने अपना चोला ओढ़ लिया। झील में खूबसूरत फूल खिल रहे थे।
"तुम, तुम जवाब दो ?" लड़के ने इस बार उस का हाथ ज़ोर से खींचा। और उस सूखे उजाड़ बियाबान में पेड़ों पर डालियाँ फल रही थीं , लड़के के पैरों के नीचे नरम घास थी। फूलों की बेलें महक रही थीं।
लड़की ने मुस्कुरा कर ये सब देखा फिर मुड़ कर लड़के की तरफ देखा। जैसे पूछती हो, तुम्हें रहस्य और जादू के संसार से इतनी हैरत क्यों है ?? इतने सवाल ही क्यों हैं, बस मान क्यों नहीं लेते कि बस, ये है और यहां है।
"मैं तुम्हारे लिए , उस दूर पहाड़ से बहती नदी के साथ आई हूँ। चलो तुम्हें अब खरगोश दिखाऊं। "
लड़के के माथे पर पानी की बूँदें थीं, उसकी सांस में तेजी और दिल में हज़ार बातें थी। मगर वहाँ किसे परवाह थी; उसका हाथ एक नर्म हथेली ने थाम रखा था जिसमे गर्माहट थी एक पुराने परिचय की। और वो दोनों चल रहे थे, उस अनजानी दिशा और उस अनदेखे भुवन की तरफ।
किसी ने पुकारा, आवाज़ दी। लड़के के पैर थमे , यह एक पहचानी आवाज़ का संकेत था। कोई बुला रहा है उसे। उसने लड़की की तरफ देखा और उसकी हथेली को कस के थामा पर इतने में फूलों की वो बेल उसके ठन्डे हाथों से फिसलने लगी।
"कहाँ जा रही हो ? रुको !!! "
"कहाँ जा रही हो ? रुको !!! "
"वीरेन , क्या आज भी हम घूमने नहीं जाएंगे ? चलो ना, देखो हलकी हलकी बारिश हो रही है। " और वीरेन को किसी ने जगाया है।
"तुम कब सोये ? उठो "
5 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-02-2020) को "डर लगता है" (चर्चा अंक-3623) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
निशब्द करती कथा मन बस इसी में उलझ कर रह गया ।
अनुपम सृजन ।
धन्यवाद... शास्त्री जी और यशोदा जी , मेरी रचना को जगह देने के लिए।
बढ़िया है
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