काश कि एक बोहेमियन जैसी ज़िन्दगी होती।
ये ख्याल अचानक आया कि काश ऐसा बंजारों जैसा जीवन होता, एक अनवरत यात्रा, जिसका कोई ठौर ठिकाना, ठहराव, कोई मकान या निशान नहीं होता। सिर्फ ज़रूरत भर का सामान और साथ चल सके जितने ही रिश्ते … जब तक चलते रहे तब तक ज़िन्दगी और जब थम जाए तब …
ये जो ज़माने भर का खटराग हमने अपने आस पास फैला रखा है ... सजे संवरे घर, करीने से संजोये गए रिश्ते, दफ्तर और दोस्तों की बतकहियाँ, महफिलें और कहकहे …यह सब हम अपने कन्धों पे उठाये फिर रहे हैं, कितना बोझ …दुनियावी तौर तरीकों और कायदों का बोझ, कि जिस समाज में रहते हो वहाँ के सलीके को सीखो।
और अक्सर इस बोझ से थककर कभी हम पहाड़, नदी, समंदर का किनारा तलाशते हैं तो कभी अगला जन्म सुधारने की कसरत में लग जाते हैं. यानी एक नया खटराग पालने लगते हैं.
अगर मुझसे पूछिए तो मेरी ज़िन्दगी में बोहेमियन हो सकने जैसा कोई मौका मौजूद नहीं है. यहां व्यस्तताए हैं, ज़िम्मेदारियाँ और कमिटमेंट्स हैं, हर ख्वाहिश के पूरे हो सकने का सामान मौजूद है लेकिन बस यही एक इच्छा कि एक लम्बी ना ख़त्म होने वाली सड़क हो और उस पर हम चुपचाप चलते जाए.
कहने को ये भी कहा जा सकता है कि ये बोहेमियन होना कौन बड़ी बात है, अकेले दुनिया से भागकर अपने में जीना तो कोई भी कर ले; दुनिया में रहकर यहां की ज़िम्मेदारियाँ निभाओ, जो लिया है उसे वापिस सूद समेत लौटाओ। और ये क्या अजब सा शौक पाला है, बोहेमियन या बंजारा होने का ?? समझदार, दुनियादार लोग ऐसे खटराग नहीं पालते।
इस बंजारे वाले खटराग को मैं अपने जीवन के बीत रहे वक़्त में देखती हूँ, रोज़; क्षण प्रतिक्षण। ये कुछ इस तरह बीत रहा है कि मुझे इसके चलने-रुकने का अहसास लगातार होता रहता है लेकिन मैं लगातार इस से ग़ाफ़िल होने का नाटक करती रहती हूँ. ये ऐसी दोहरी ज़िन्दगी है जो एक ही साथ दो अलग दिशाओं में चल रही है, एक तरफ अपने बोहेमियन होने के अहसास के साथ और दुसरे अपने सभ्य सामाजिक पैमानों पर संभल कर कदम ताल करती हुई. मेरे ख्याल से हम सब दोहरी ज़िंदगियाँ जीते हैं, या नहीं ??? कौन जाने।
मैं तो जी ही रही हूँ. अंदर से मुझमे कुछ दबा छिपा है जो ज़ोरों से चीख रहा है, बाहर निकलने को छटपटा रहा है और बाहर से मैं हंसती, खिलखिलाती, मुस्कुराहटें बिखेरती और मासूमियत और नफासत छलकाती, लहकती फिरती हूँ. हर रोज़ कितने झूठ बोलती हूँ मैं खुद से और कितने सच छिपाती हूँ मैं दूसरों से.
5 comments:
आपकी इस पोस्ट को शनिवार, १३ जून, २०१५ की बुलेटिन - "अपना कहते मुझे हजारों में " में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-06-2015) को "बेवकूफ खुद ही बैल हो जाते हैं" {चर्चा अंक-2006} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
bohemiyan... man se ?
Mishra ji ... haan kuchh aisa hi samjhiye ...
सच तो यही है कि जीवन का 'सर्व-सुख' बंजारेपन से ही प्राप्त किया जा सकता है. लेकिन यह सब नहीं कर पाते हैं. क्योंकि समाज ने यह तय कर दिया है कि जीवन की सफलता किसी मंहगे कॉलोनी में बड़ा सा घर, बड़ी सी गाड़ी और निहायत 'एकांत जीवन' से प्राप्त की जा सकती है. क्योंकि समाज ने यह तय कर दिया है कि जीवन का सूत्र है-बड़ा होना, शादी, बच्चे और उन्हें बड़ा कर मृत्यु को स्वीकार कर लेना. क्या सही है और क्या गलत....इसके बारे में हर किसी का मत बस उसका मत भर होता है. हर जीवन की अलग चुनौतियाँ होती हैं और लक्ष्य होते हैं. किन्तु मेरा मत है इसमें सबसे सहायक होता है स्वयं से एक गहन और दीर्घ (कुछ वर्षों का) आत्मालाप. उसके बाद एक राह चुनना आसन होता है.
Post a Comment