Friday 30 September 2011

रजनीगंधा --Part 2

"सौम्या" अगले कुछ क्षणों  तक उस लड़के की तरफ देखती रही , जैसे सोच रही थी कि क्या वो पुराना परिचय इतना प्रगाढ़ था कि उसके लिए ये अजनबी (हाँ अजनबी ही कहा जाना चाहिए क्यूंकि सौम्या अभी  तक उसका नाम नहीं जानती थी, कितनी अजीब सी बात थी पर सच थी.. ) इतना खुश हो रहा है . फिर शांत और संयत  आवाज़ में कहा, "मैं आपका नाम भूल गई हूँ"....कहते हुए मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया  और उत्तर की अपेक्षा में उसकी और देखने लगी ..पर शायद वो लड़का कुछ बेहतर प्रतिक्रिया या यूँ कहें कि एक गर्मजोशी और प्रसन्नता से भरी आवाज़ की अपेक्षा कर रहा था. खैर कुछ सेकंड के लिए लगा कि वो थोडा निराश हुआ है, फिर अगले ही पल संभल कर उसने कहा, " आप भूली नहीं है,  हम दोनों का ऐसा कभी कोई औपचारिक परिचय कभी हुआ नहीं कि नाम बताने की नौबत आई हो ...वैसे मेरा नाम "जय"  है और आपका नाम सौम्या है  इतना मैं जानता हूँ." 
मुझे हैरानी हुई, पर क्या कहूँ ये समझ नहीं आया...और मैं वही उलझी हुई निगाहों से उसे  देखने लगी ...क्या कहूँ , कुछ कहना तो चाहिए पर क्या....पहचान का जो सूत्र ये अजनबी उर्फ़ जय ढूंढ लाया है..वो धागा अब भी मेरी स्मृति में दर्ज है...जैसे किसी किताब के पन्नों में हम गुलाब की पत्तियां छुपा के रखते हैं .. ...पर जिस तरह समय के साथ वो पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी खुशबू कम  होने लगती है , कुछ वैसा ही अहसास मुझे भी हो रहा था ....पर मैं ये ज़ाहिर  नहीं करना चाहती थी..लेकिन मेरी ख़ामोशी और चेहरे की सपाट भाव-भंगिमा ने माहौल को और ज्यादा  असुविधाजनक बना दिया ..खैर फिर जाने कहाँ से दिमाग में  कुछ स्पंदन हुआ और मुझे शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार के सारे सबक याद आ गए ..

 मैंने मुस्कुराने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, "this is really surprising to meet you once again, that too here in rishikesh..I never anticipated any such thing ".( ये अंग्रेजी बड़ी सुविधाजनक भाषा है, इसमें बगैर किसी परेशानी के  बड़ी से बड़ी औपचारिक बात को बड़े सहज ढंग से कह दिया जाता है ..और हमारा लहजा भी बेहद  casual हो जाता है .)   खैर, इस एक वाक्य  ने माहौल को काफी हल्का बना दिया और जय को भी लगा कि वो unwanted - entry नहीं है. इतने में निशिता ने उसे  हमारे साथ बैठने का भी निमंत्रण दिया जिसे उसने ये कहते हुए नकार दिया कि " आप को देखकर, मैं  बस यूँही मिलने आ गया ". 

"लेकिन आप यहाँ कैसे और आजकल क्या कर रहे हैं?"    मेरा ये  सवाल जय के लिए काफी उत्साहवर्धक साबित हुआ क्योंकि  उसकी वो पहले वाली मुस्कराहट अब वापिस लौट आई  और कुछ संक्षेप, कुछ विस्तार और कुछ बेहद दिलचस्पी से उसने बताना शुरू किया ,  "मैं यहाँ दोस्तों के साथ हिमालयन mountaneering इंस्टिट्यूट  में ट्रेनिंग के लिए आया था. basic  course ख़त्म करने के बाद यहाँ कुमायूं हिमालय  में trekking की. और इसके बाद उसने कुछ trekk pass और पहाड़ों के स्थानीय नाम बताये जहां वो लोग अब तक जा चुके थे,,  ये सब नाम मेरे लिए अजनबी ही सही पर काफी दिलचस्प थे. देखा जाये तो अब तक मेरे सभी दोस्त जय में काफी रूचि लेने लगे थे..   
जय और आगे कहता गया कि वो आजकल एक फ्रेंच कंपनी का बिज़नस develpoment manager है और   भी पता नहीं क्या- क्या......  

जाते-जाते उसने मेरा फोन नंबर माँगा जो कुछ झिझकते हुए मैंने दे भी दिया ..कहने की ज़रुरत नहीं कि शाम तक उसके massage और एकाध कॉल भी आ गए..अगले दिन हमें वापिस जाना था और जय का जब फोन आया तब हम ऋषिकेश से आधा  रास्ता तय कर चुके थे..उसे शायद ये लगा था कि जाने से पहले मैं उस से मिल कर जाउंगी लेकिन अब मैं इतनी अच्छी  कब से हो गई .   

पर जय को उपेक्षित करना आसान नहीं था..जयपुर के उस workshop कि स्मृति अभी इतनी भी धुंधली नहीं हुई थी और ना मैं उस संक्षिप्त सी और कभी कभी ही होने वाली बातचीत को और उस मुस्कुराते चेहरे को भूल सकी थी..इसलिए घर लौट कर भी मेरा जय से फोन, mail  के ज़रिये संपर्क बना रहा... अब ऐसा तो नहीं कह सकती थी कि मुझे जय से प्यार हो गया था या ऐसा कभी कुछ था , पर  मैं आसानी से उसे खुद से परे नहीं हटा पा रही थी... लेकिन इतना ज़रूर था कि  मेरे अन्दर के एक खाली कोने को जय की  उपस्थिति   ने भर दिया था... वक़्त अपने तरीके से गुज़रता रहता है...कहीं एक अजनबी शहर में मिला कोई पुराना परिचित ..कब आपका बड़ा अच्छा दोस्त बन जाता है ..कुछ पता नहीं चलता ...

और कभी कभी तो उस अजनबी की एक आदत सी हो जाती है.. और शायद जय अब "सौम्या" की आदत बनता जा रहा था... वक़्त अपनी गति से चलता जा रहा था..कुछ और महीने बीते ..और समय के साथ अब इसे हम दोस्ती कह लें या और कोई समीकरण बनाएं ..जो भी था..कुछ ऐसा कि जो अच्छा लग रहा था..और जिसकी अब आदत होने लगी थी. लेकिन  फिर भी जय और उसके किस्से, कहकहों, उसके साथ लड़ने-झगड़ने के अलावा और भी दुनिया थी,  है  और हमेशा रहनी ही है.

जय में मेरी बढती दिलचस्पी को सबसे  पहले निशिता ने पकड़ा और तोप के गोले की तरह उसने  एक सवाल मेरी तरफ उछाला .." तुझे जय पसंद है ना ?"

उसके चेहरे पर एक तीखी सी मुस्कराहट  थी , जैसे उसने कोई बहुत बड़ा राज़ जान लिया है और अब अपनी  इस सफलता की पुष्टि मुझसे चाहती हो...

"अच्छा लड़का है, पर ऐसा भी कुछ नहीं सोचा है मैंने..पर हाँ, "we are  good  friends " (बताया था ना  कि  अंग्रेजी बड़ी सरल भाषा है)

"अच्छा, good friends !!!!!!!!!, उसने कभी  कुछ कहा तुझसे???"

"ओफ्फ्हो, निशि, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, ऐसा कोई सीन नहीं है , बेकार ख्याली पुलाव मत बना" .
खैर उस वक़्त बात आई -गई हो गई. पर शायद ऐसा नहीं था.. अब  जैसे जय के बात करने या कुछ कहने या पूछने के तरीके में, मैं कुछ फर्क महसूस कर रही थी..कभी-२ कोई बात कहते -कहते रुक जाना या उसे अधूरा ही छोड़ देना ..समझ नहीं आ पा रहा था.. पर फिर उसने एक दिन सीधे से ही सवाल कर दिया .." तुम शादी कब कर रही हो ..."
सवाल कोई बहुत अप्रत्याशित  तो नहीं था ..अक्सर दोस्त, रिश्तेदार ऐसा सवाल पूछते ही हैं और इसलिए मैंने भी बेफिक्र तरीके से यूँही टालने भर के लिए कह दिया कि "कर लूंगी जब कोई पसंद का लड़का मिल जाएगा"...

"और क्या पसंद है तुम्हारी?" ये अगला सवाल था. मुझे समझ नहीं आय़ा कि वो ऐसे ही पूछ रहा है या सचमुच उसे जानने में दिलचस्पी है या पता नहीं क्या..लेकिन इस मुद्दे मेरी दिलचस्पी ना देखकर उसने आगे कुछ नहीं पूछा.

खैर, उन दिनों ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी की  फिकर मम्मी और निशिता के लिए दुनिया का सबसे अहम् मुद्दा बन गई थी. लगभग हर तीसरे-चौथे दिन मेरे सामने कोई  ना कोई नाम, उससे जुडी जानकारियाँ और संभव हो तो तसवीरें भी रख दी जातीं. जितनी बार मैं मम्मी या पापा को किसी रिश्ते के बारे में या किसी लड़के के बारे में बात करते सुनती , उतनी ही बार मेरा दिल कांपने लगता, बस यही मनाती कि किसी भी बहाने , कारण से ये रिश्ता, ये नाम रिजेक्ट हो जाए. और सचमुच ऐसा हो भी  जाता, कभी हमारी तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से कोई ना कोई ऐसी वजह बन जाती कि शुरू होता सूत्र वहीँ समाप्त हो जाता. और मैं चैन की  सांस ले लेती. (कुछ देर के लिए ही सही). फिर सोचती कि ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई अंत नहीं? ..

निशिता के पास भी जैसे बात करने के लिए यही एक विषय था.." तो कुछ सोचा तुमने, कुछ तय हुआ ..?" मेरा नकारात्मक  जवाब सुनकर मुझ पर नाराज़ होती...अब जब निशिता का ये हाल था तो मम्मी के कहने -सुनाने के बारे में अलग से क्या बताया जाए..

पर इस सारी माथा-पच्ची में,  मैं जैसे इस पूरी प्रक्रिया से दूर भागने लगी थी. मेरा द्वंद, जाने कौनसी   अनजानी चिंताएं और कुछ न तय कर पाने की  उलझन बढती ही जा रही थी. और जब ऐसे ही एक बोझिल दिन पर जब माँ और निशिता फिर से  मेरी शादी और उस से जुडी परेशानियों पर बात कर रही थीं....और माँ ने हमेशा कि तरह कहा...
"पता नहीं कब होगी इसकी शादी, मैं तो अब थक गई हूँ...? कब कोई लड़का मिलेगा.."
उस समय अचानक से यूँ लगा कि इतना बड़ा सिरदर्द और इसकी वजह मैं...निशि कुछ कहने वाली थी पर उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने सपाट आवाज़ में कहा.." मेरी शादी की  अब आप लोग फिकर करना बंद कर दें... मुझे नहीं करनी शादी. मुझे किसी से शादी नहीं करनी."

"क्या बोल रही है.. पागल हो गई है क्या ?" मम्मी गुस्से में कहने लगी...निशि ने मुझे चुप रहने का इशारा किया लेकिन मैं सब कुछ सुनी-अनसुनी करते हुए वहाँ से चली आई.. कुछ और सूझा नहीं तो छत पर चली गई.. निशि मेरे पीछे आई..

"ये क्या नाटक है सौम्या?  क्यों नहीं करनी शादी?  क्या हो गया ?"

"कुछ नहीं..."

"अब ये मत कहना कि तू अब भी वैभव के बारे में सोच रही है?"

" No, he is a closed chapter and whatever happened was good for both of us."

"फिर...क्या बात है?"

"किसी को पसंद करती है तो वो भी बता दे..कोई बात अगर मन में है तो बताती क्यों नहीं? "

ये मम्मी की  आवाज़ थी जो हमारे पीछे आकर  खड़ी हो गई थी.  मैं वैसे ही चुप खड़ी रही.

"आंटी आप जाइये, मैं बात कर रही हूँ ना.." निशिता फिर मेरी तरफ मुड़ी..और मैं सर नीचे लटकाए जाने कौनसे  शून्य में घूर रही थी..

"सौम्या तू क्या सोचती है ...अपनी ख़्वाबों की  दुनिया से बाहर निकल. क्या लगता है तुझे कि,  कोई सपनों का राजकुमार तेरे लिए धरती पर उतर आएगा.?"
उसने धीरे से  मेरा  हाथ पकड़ कर कहा..

"मुझे कोई राजकुमार नहीं चाहिए ..और सपने मैंने कभी देखे नहीं."  मैंने धीमी लेकिन
एक सूखी गंभीर आवाज़ में कहा.

"तो क्या सारी ज़िन्दगी अकेले ही गुजारनी है?"
"क्यों अकेले नहीं रहा जा सकता क्या??  क्या शादी करना ज़रूरी है ..लोग बिना शादी किये ज़िन्दगी नहीं गुजारते ?"

"बेकार की बातें मत कर ..ये कोई मज़ाक नहीं है. तू सोचती है कि  सारी उम्र यूँही अकेले बिता सकती है  ..बिना किसी साथी के ? तुझे कुछ अंदाज़ा भी है ज़िन्दगी की कडवी  हक़ीक़तों का ??"

मैं अब भी वैसी ही चुप रही पर एक असहमति या विरोध या और कोई भाव कह लें, वो चेहरे पर साफ़ ज़ाहिर था.

निशि और ज्यादा चिढ गई, झल्ला गई, " मेमसाहब अगर आपको लगता है कि,  आप दुनिया से जुदा कोई अनूठा नमूना हैं तो ये ग़लतफ़हमी दूर कर लें." ....फिर जैसे अचानक उसे कुछ सूझा, उसने पूरी गंभीरता से मेरे चेहरे पर अपनी नज़रें ज़मा दी..." Jai..it's Jai..I knew that.."

जय इस सब में  कहां से आ गया..मैं बिफर पड़ी.." he has nothing to do with this..don't drag him into my personal matter."

"alright, then what is the matter?"

"बस अब मैं रोज़- रोज़ की इन बातों से तंग आ चुकी हूँ . एक बेकार की कवायद लग रही है,  मैं रिश्तों  को किसी समझौते या बेस्ट deal की तरह नहीं ले सकती . और  ये सब मुझे किसी बाज़ार के जैसा लग रहा है ....जैसे हम कपडे खरीदने जाते हैं ... दस पीस try  करने के बाद कहीं एक चीज़ पसंद आती है..कुछ वैसा ही लग रहा है.."


कुछ देर के लिए निशिता चुप हो गई, फिर जैसे उसने थकी हुई सी आवाज़ में कहा .. "चल रहने दे इस वक़्त इन सब बातों को. अभी तुझे कुछ समझाने से कोई फायदा नहीं."

इस पूरे चैप्टर के बाद भी कहीं कुछ ना बदला  और ना बदलने की कोई उम्मीद ही थी. वही  सब  अजनबी नाम और उनकी बातें..  इसी बीच एक  बात और हो गई...एक पब्लिक policy  research इंस्टिट्यूट में मेरी PhD application  approve  हो गई.  इंस्टिट्यूट NCR में ही था..हालांकि घर से दूर पर delhi से बहुत ज्यादा दूर  नहीं. तो बस इसे एक नई शुरुआत मान कर, घरवालों को थोड़ा समझा कर और निशि के ढेर सारे instructions साथ लेकर मैं चली आई एक नई जगह,  एक नए landscape के बीच....

शुरू के कुछ दिन तो मुश्किल बीते,  कभी ये  तो कभी वो समस्या ..पर जैसे-तैसे २-३ महीने गुज़रते  ना गुज़रते आदत पड़ने लगी,  अच्छा भी लगने लगा और सबसे बड़ी बात मुझे यूँ लगा कि जैसे मेरा क्षितिज अब बहुत विस्तृत हूँ गया है ..ऊँचा, खुला, आसमान जैसे अनंत की  खोज करने के लिए उकसा रहा हो...कुछ दिन बाद मुझे एक ऑनलाइन magazine के लिए कुछ education एंड policy  based articles लिखने का भी  ऑफर मिला ..काम शुरू में तो मुश्किल लगा..लेकिन धीरे- धीरे हर हफ्ते के एक नए task  की  आदत पड़ने लगी..



मेरे यहाँ आने के बाद से २-३ महीने में निशिता अपनी official  मीटिंग  के बहाने ३-४ चक्कर तो मेरे अपार्टमेन्ट के  लगा ही चुकी थी और अब निश्चिन्त होने लगी थी कि मैं यहाँ ठीक से और आराम से रहूंगी. और जय तो खैर हर weekend या १० दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आ ही जाता था. समय अब भी गुज़र  रहा था पर अब वो पहले वाला बोझ नहीं था. पर उन दिनों जय में आये बदलाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

और आखिर वो दिन, वो लम्हा भी आय़ा जिसका मुझे कुछ - कुछ अंदाज़ा तो होने लगा था पर मैं फिर भी उसे  एक वहम  समझकर दूर हटा रही थी.

...जय ने वही कहा या मुझसे पूछा जिसका अंदाज़ा निशि को  काफी पहले हो गया था. लेकिन उस वक़्त मैं जय को वो जवाब नहीं दे पायी जिसकी उसे  ख्वाहिश  थी  और जो निशि के लिए  " ये तो होना ही था"  वाली बात होती.

कारण, वजह सिर्फ इतनी थी कि ज़िन्दगी में पहली  बार मुझे लग रहा था कि मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी अपनी आँखों से विस्तृत क्षितिज को पार करती जा रही हूँ.  पहली बार लग रहा था कि ज़िन्दगी सिर्फ शादी-ब्याह -घर -परिवार नहीं और भी कुछ है.  मैं सिर्फ एक perfect bride के अलावा भी कोई नाम-पहचान-ख्वाब हूँ  और ये सब समंदर की एक ऐसी लहर की  तरह था जिस पर surfing करते मैं थक नहीं रही थी. ....और जब,  जय ने वो सवाल सामने रखा तो समन्दर  और लहरों के रोमांच के बावजूद  घर, मम्मी और जाने कितने चेहरे आँखों के आगे तैर गए.... "क्या मैं इतना बड़ा फैसला अकेले ले सकती हूँ?" .....लेकिन अगले ही पल मैंने अपना सर झटक कर उस ख्याल को ही दूर हटा दिया ...

 
जय से सिर्फ इतना कहा..." आज नहीं, अभी नहीं ...फिर कभी..फिर कहीं..."

"ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे... कल की कुछ खबर नहीं... कल कौन सी सुबह होगी, कैसा सूरज  होगा ...होगा भी या नहीं ..लेकिन इस लम्हे को अभी यहीं थाम ले..इसे अभी यहीं बाँध ले.... आज इस वक़्त को यहीं थोड़ी देर और ठहर जाने दे .."


5 comments:

Namisha Sharma said...

m speechless........BEAUTIFULLY written !

Bhavana Lalwani said...

@Namisha....thank you very much..maine bas koshish ki ..kuchh aisa likhkne ki jo fairytale naa lage..I hope tum samjh gai hongi ki wat m saying..

mayank ubhan said...

तनहा अकेले
पलकों के सहारे
जी रही
वो लड़की

पलकों पे चुभन
सपनों की
चौंक उठती है
वो लड़की

धड़कनों की दहलींज
यादों का मकान
दिल को समझाती
वो लड़की

खुला आसमान
झुकीं पलकें
अशकों को छुपाती
वो लड़की

सूनी डगर
तनहा मंजिल
ददॆ से बातें करती
वो लड़की

अपनों की जुबानीं
सपनों की कहानी
जिंदगी से नज़रें चुराती
वो लड़की

सासों का सफ़र
खुद से बे-खबर
हाथ की लकीरों से लड़ती
वो लड़की
thank you for sharing this one....t.c.

Bhavana Lalwani said...

@Mayank...ab iske aage main kya kahun..sab kuchh tumne iss kavita mein kah diya..

THANK YOU for such a beautiful poem.

जिंदगी से नज़रें चुराती
वो लड़की...

mayank ubhan said...

u r welcome Bhavana....wish to read more of such beautiful compositions of urs...tc...