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Friday, 30 September 2011

रजनीगंधा --Part 2

"सौम्या" अगले कुछ क्षणों  तक उस लड़के की तरफ देखती रही , जैसे सोच रही थी कि क्या वो पुराना परिचय इतना प्रगाढ़ था कि उसके लिए ये अजनबी (हाँ अजनबी ही कहा जाना चाहिए क्यूंकि सौम्या अभी  तक उसका नाम नहीं जानती थी, कितनी अजीब सी बात थी पर सच थी.. ) इतना खुश हो रहा है . फिर शांत और संयत  आवाज़ में कहा, "मैं आपका नाम भूल गई हूँ"....कहते हुए मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया  और उत्तर की अपेक्षा में उसकी और देखने लगी ..पर शायद वो लड़का कुछ बेहतर प्रतिक्रिया या यूँ कहें कि एक गर्मजोशी और प्रसन्नता से भरी आवाज़ की अपेक्षा कर रहा था. खैर कुछ सेकंड के लिए लगा कि वो थोडा निराश हुआ है, फिर अगले ही पल संभल कर उसने कहा, " आप भूली नहीं है,  हम दोनों का ऐसा कभी कोई औपचारिक परिचय कभी हुआ नहीं कि नाम बताने की नौबत आई हो ...वैसे मेरा नाम "जय"  है और आपका नाम सौम्या है  इतना मैं जानता हूँ." 
मुझे हैरानी हुई, पर क्या कहूँ ये समझ नहीं आया...और मैं वही उलझी हुई निगाहों से उसे  देखने लगी ...क्या कहूँ , कुछ कहना तो चाहिए पर क्या....पहचान का जो सूत्र ये अजनबी उर्फ़ जय ढूंढ लाया है..वो धागा अब भी मेरी स्मृति में दर्ज है...जैसे किसी किताब के पन्नों में हम गुलाब की पत्तियां छुपा के रखते हैं .. ...पर जिस तरह समय के साथ वो पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी खुशबू कम  होने लगती है , कुछ वैसा ही अहसास मुझे भी हो रहा था ....पर मैं ये ज़ाहिर  नहीं करना चाहती थी..लेकिन मेरी ख़ामोशी और चेहरे की सपाट भाव-भंगिमा ने माहौल को और ज्यादा  असुविधाजनक बना दिया ..खैर फिर जाने कहाँ से दिमाग में  कुछ स्पंदन हुआ और मुझे शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार के सारे सबक याद आ गए ..

 मैंने मुस्कुराने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, "this is really surprising to meet you once again, that too here in rishikesh..I never anticipated any such thing ".( ये अंग्रेजी बड़ी सुविधाजनक भाषा है, इसमें बगैर किसी परेशानी के  बड़ी से बड़ी औपचारिक बात को बड़े सहज ढंग से कह दिया जाता है ..और हमारा लहजा भी बेहद  casual हो जाता है .)   खैर, इस एक वाक्य  ने माहौल को काफी हल्का बना दिया और जय को भी लगा कि वो unwanted - entry नहीं है. इतने में निशिता ने उसे  हमारे साथ बैठने का भी निमंत्रण दिया जिसे उसने ये कहते हुए नकार दिया कि " आप को देखकर, मैं  बस यूँही मिलने आ गया ". 

"लेकिन आप यहाँ कैसे और आजकल क्या कर रहे हैं?"    मेरा ये  सवाल जय के लिए काफी उत्साहवर्धक साबित हुआ क्योंकि  उसकी वो पहले वाली मुस्कराहट अब वापिस लौट आई  और कुछ संक्षेप, कुछ विस्तार और कुछ बेहद दिलचस्पी से उसने बताना शुरू किया ,  "मैं यहाँ दोस्तों के साथ हिमालयन mountaneering इंस्टिट्यूट  में ट्रेनिंग के लिए आया था. basic  course ख़त्म करने के बाद यहाँ कुमायूं हिमालय  में trekking की. और इसके बाद उसने कुछ trekk pass और पहाड़ों के स्थानीय नाम बताये जहां वो लोग अब तक जा चुके थे,,  ये सब नाम मेरे लिए अजनबी ही सही पर काफी दिलचस्प थे. देखा जाये तो अब तक मेरे सभी दोस्त जय में काफी रूचि लेने लगे थे..   
जय और आगे कहता गया कि वो आजकल एक फ्रेंच कंपनी का बिज़नस develpoment manager है और   भी पता नहीं क्या- क्या......  

जाते-जाते उसने मेरा फोन नंबर माँगा जो कुछ झिझकते हुए मैंने दे भी दिया ..कहने की ज़रुरत नहीं कि शाम तक उसके massage और एकाध कॉल भी आ गए..अगले दिन हमें वापिस जाना था और जय का जब फोन आया तब हम ऋषिकेश से आधा  रास्ता तय कर चुके थे..उसे शायद ये लगा था कि जाने से पहले मैं उस से मिल कर जाउंगी लेकिन अब मैं इतनी अच्छी  कब से हो गई .   

पर जय को उपेक्षित करना आसान नहीं था..जयपुर के उस workshop कि स्मृति अभी इतनी भी धुंधली नहीं हुई थी और ना मैं उस संक्षिप्त सी और कभी कभी ही होने वाली बातचीत को और उस मुस्कुराते चेहरे को भूल सकी थी..इसलिए घर लौट कर भी मेरा जय से फोन, mail  के ज़रिये संपर्क बना रहा... अब ऐसा तो नहीं कह सकती थी कि मुझे जय से प्यार हो गया था या ऐसा कभी कुछ था , पर  मैं आसानी से उसे खुद से परे नहीं हटा पा रही थी... लेकिन इतना ज़रूर था कि  मेरे अन्दर के एक खाली कोने को जय की  उपस्थिति   ने भर दिया था... वक़्त अपने तरीके से गुज़रता रहता है...कहीं एक अजनबी शहर में मिला कोई पुराना परिचित ..कब आपका बड़ा अच्छा दोस्त बन जाता है ..कुछ पता नहीं चलता ...

और कभी कभी तो उस अजनबी की एक आदत सी हो जाती है.. और शायद जय अब "सौम्या" की आदत बनता जा रहा था... वक़्त अपनी गति से चलता जा रहा था..कुछ और महीने बीते ..और समय के साथ अब इसे हम दोस्ती कह लें या और कोई समीकरण बनाएं ..जो भी था..कुछ ऐसा कि जो अच्छा लग रहा था..और जिसकी अब आदत होने लगी थी. लेकिन  फिर भी जय और उसके किस्से, कहकहों, उसके साथ लड़ने-झगड़ने के अलावा और भी दुनिया थी,  है  और हमेशा रहनी ही है.

जय में मेरी बढती दिलचस्पी को सबसे  पहले निशिता ने पकड़ा और तोप के गोले की तरह उसने  एक सवाल मेरी तरफ उछाला .." तुझे जय पसंद है ना ?"

उसके चेहरे पर एक तीखी सी मुस्कराहट  थी , जैसे उसने कोई बहुत बड़ा राज़ जान लिया है और अब अपनी  इस सफलता की पुष्टि मुझसे चाहती हो...

"अच्छा लड़का है, पर ऐसा भी कुछ नहीं सोचा है मैंने..पर हाँ, "we are  good  friends " (बताया था ना  कि  अंग्रेजी बड़ी सरल भाषा है)

"अच्छा, good friends !!!!!!!!!, उसने कभी  कुछ कहा तुझसे???"

"ओफ्फ्हो, निशि, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, ऐसा कोई सीन नहीं है , बेकार ख्याली पुलाव मत बना" .
खैर उस वक़्त बात आई -गई हो गई. पर शायद ऐसा नहीं था.. अब  जैसे जय के बात करने या कुछ कहने या पूछने के तरीके में, मैं कुछ फर्क महसूस कर रही थी..कभी-२ कोई बात कहते -कहते रुक जाना या उसे अधूरा ही छोड़ देना ..समझ नहीं आ पा रहा था.. पर फिर उसने एक दिन सीधे से ही सवाल कर दिया .." तुम शादी कब कर रही हो ..."
सवाल कोई बहुत अप्रत्याशित  तो नहीं था ..अक्सर दोस्त, रिश्तेदार ऐसा सवाल पूछते ही हैं और इसलिए मैंने भी बेफिक्र तरीके से यूँही टालने भर के लिए कह दिया कि "कर लूंगी जब कोई पसंद का लड़का मिल जाएगा"...

"और क्या पसंद है तुम्हारी?" ये अगला सवाल था. मुझे समझ नहीं आय़ा कि वो ऐसे ही पूछ रहा है या सचमुच उसे जानने में दिलचस्पी है या पता नहीं क्या..लेकिन इस मुद्दे मेरी दिलचस्पी ना देखकर उसने आगे कुछ नहीं पूछा.

खैर, उन दिनों ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी की  फिकर मम्मी और निशिता के लिए दुनिया का सबसे अहम् मुद्दा बन गई थी. लगभग हर तीसरे-चौथे दिन मेरे सामने कोई  ना कोई नाम, उससे जुडी जानकारियाँ और संभव हो तो तसवीरें भी रख दी जातीं. जितनी बार मैं मम्मी या पापा को किसी रिश्ते के बारे में या किसी लड़के के बारे में बात करते सुनती , उतनी ही बार मेरा दिल कांपने लगता, बस यही मनाती कि किसी भी बहाने , कारण से ये रिश्ता, ये नाम रिजेक्ट हो जाए. और सचमुच ऐसा हो भी  जाता, कभी हमारी तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से कोई ना कोई ऐसी वजह बन जाती कि शुरू होता सूत्र वहीँ समाप्त हो जाता. और मैं चैन की  सांस ले लेती. (कुछ देर के लिए ही सही). फिर सोचती कि ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई अंत नहीं? ..

निशिता के पास भी जैसे बात करने के लिए यही एक विषय था.." तो कुछ सोचा तुमने, कुछ तय हुआ ..?" मेरा नकारात्मक  जवाब सुनकर मुझ पर नाराज़ होती...अब जब निशिता का ये हाल था तो मम्मी के कहने -सुनाने के बारे में अलग से क्या बताया जाए..

पर इस सारी माथा-पच्ची में,  मैं जैसे इस पूरी प्रक्रिया से दूर भागने लगी थी. मेरा द्वंद, जाने कौनसी   अनजानी चिंताएं और कुछ न तय कर पाने की  उलझन बढती ही जा रही थी. और जब ऐसे ही एक बोझिल दिन पर जब माँ और निशिता फिर से  मेरी शादी और उस से जुडी परेशानियों पर बात कर रही थीं....और माँ ने हमेशा कि तरह कहा...
"पता नहीं कब होगी इसकी शादी, मैं तो अब थक गई हूँ...? कब कोई लड़का मिलेगा.."
उस समय अचानक से यूँ लगा कि इतना बड़ा सिरदर्द और इसकी वजह मैं...निशि कुछ कहने वाली थी पर उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने सपाट आवाज़ में कहा.." मेरी शादी की  अब आप लोग फिकर करना बंद कर दें... मुझे नहीं करनी शादी. मुझे किसी से शादी नहीं करनी."

"क्या बोल रही है.. पागल हो गई है क्या ?" मम्मी गुस्से में कहने लगी...निशि ने मुझे चुप रहने का इशारा किया लेकिन मैं सब कुछ सुनी-अनसुनी करते हुए वहाँ से चली आई.. कुछ और सूझा नहीं तो छत पर चली गई.. निशि मेरे पीछे आई..

"ये क्या नाटक है सौम्या?  क्यों नहीं करनी शादी?  क्या हो गया ?"

"कुछ नहीं..."

"अब ये मत कहना कि तू अब भी वैभव के बारे में सोच रही है?"

" No, he is a closed chapter and whatever happened was good for both of us."

"फिर...क्या बात है?"

"किसी को पसंद करती है तो वो भी बता दे..कोई बात अगर मन में है तो बताती क्यों नहीं? "

ये मम्मी की  आवाज़ थी जो हमारे पीछे आकर  खड़ी हो गई थी.  मैं वैसे ही चुप खड़ी रही.

"आंटी आप जाइये, मैं बात कर रही हूँ ना.." निशिता फिर मेरी तरफ मुड़ी..और मैं सर नीचे लटकाए जाने कौनसे  शून्य में घूर रही थी..

"सौम्या तू क्या सोचती है ...अपनी ख़्वाबों की  दुनिया से बाहर निकल. क्या लगता है तुझे कि,  कोई सपनों का राजकुमार तेरे लिए धरती पर उतर आएगा.?"
उसने धीरे से  मेरा  हाथ पकड़ कर कहा..

"मुझे कोई राजकुमार नहीं चाहिए ..और सपने मैंने कभी देखे नहीं."  मैंने धीमी लेकिन
एक सूखी गंभीर आवाज़ में कहा.

"तो क्या सारी ज़िन्दगी अकेले ही गुजारनी है?"
"क्यों अकेले नहीं रहा जा सकता क्या??  क्या शादी करना ज़रूरी है ..लोग बिना शादी किये ज़िन्दगी नहीं गुजारते ?"

"बेकार की बातें मत कर ..ये कोई मज़ाक नहीं है. तू सोचती है कि  सारी उम्र यूँही अकेले बिता सकती है  ..बिना किसी साथी के ? तुझे कुछ अंदाज़ा भी है ज़िन्दगी की कडवी  हक़ीक़तों का ??"

मैं अब भी वैसी ही चुप रही पर एक असहमति या विरोध या और कोई भाव कह लें, वो चेहरे पर साफ़ ज़ाहिर था.

निशि और ज्यादा चिढ गई, झल्ला गई, " मेमसाहब अगर आपको लगता है कि,  आप दुनिया से जुदा कोई अनूठा नमूना हैं तो ये ग़लतफ़हमी दूर कर लें." ....फिर जैसे अचानक उसे कुछ सूझा, उसने पूरी गंभीरता से मेरे चेहरे पर अपनी नज़रें ज़मा दी..." Jai..it's Jai..I knew that.."

जय इस सब में  कहां से आ गया..मैं बिफर पड़ी.." he has nothing to do with this..don't drag him into my personal matter."

"alright, then what is the matter?"

"बस अब मैं रोज़- रोज़ की इन बातों से तंग आ चुकी हूँ . एक बेकार की कवायद लग रही है,  मैं रिश्तों  को किसी समझौते या बेस्ट deal की तरह नहीं ले सकती . और  ये सब मुझे किसी बाज़ार के जैसा लग रहा है ....जैसे हम कपडे खरीदने जाते हैं ... दस पीस try  करने के बाद कहीं एक चीज़ पसंद आती है..कुछ वैसा ही लग रहा है.."


कुछ देर के लिए निशिता चुप हो गई, फिर जैसे उसने थकी हुई सी आवाज़ में कहा .. "चल रहने दे इस वक़्त इन सब बातों को. अभी तुझे कुछ समझाने से कोई फायदा नहीं."

इस पूरे चैप्टर के बाद भी कहीं कुछ ना बदला  और ना बदलने की कोई उम्मीद ही थी. वही  सब  अजनबी नाम और उनकी बातें..  इसी बीच एक  बात और हो गई...एक पब्लिक policy  research इंस्टिट्यूट में मेरी PhD application  approve  हो गई.  इंस्टिट्यूट NCR में ही था..हालांकि घर से दूर पर delhi से बहुत ज्यादा दूर  नहीं. तो बस इसे एक नई शुरुआत मान कर, घरवालों को थोड़ा समझा कर और निशि के ढेर सारे instructions साथ लेकर मैं चली आई एक नई जगह,  एक नए landscape के बीच....

शुरू के कुछ दिन तो मुश्किल बीते,  कभी ये  तो कभी वो समस्या ..पर जैसे-तैसे २-३ महीने गुज़रते  ना गुज़रते आदत पड़ने लगी,  अच्छा भी लगने लगा और सबसे बड़ी बात मुझे यूँ लगा कि जैसे मेरा क्षितिज अब बहुत विस्तृत हूँ गया है ..ऊँचा, खुला, आसमान जैसे अनंत की  खोज करने के लिए उकसा रहा हो...कुछ दिन बाद मुझे एक ऑनलाइन magazine के लिए कुछ education एंड policy  based articles लिखने का भी  ऑफर मिला ..काम शुरू में तो मुश्किल लगा..लेकिन धीरे- धीरे हर हफ्ते के एक नए task  की  आदत पड़ने लगी..



मेरे यहाँ आने के बाद से २-३ महीने में निशिता अपनी official  मीटिंग  के बहाने ३-४ चक्कर तो मेरे अपार्टमेन्ट के  लगा ही चुकी थी और अब निश्चिन्त होने लगी थी कि मैं यहाँ ठीक से और आराम से रहूंगी. और जय तो खैर हर weekend या १० दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आ ही जाता था. समय अब भी गुज़र  रहा था पर अब वो पहले वाला बोझ नहीं था. पर उन दिनों जय में आये बदलाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

और आखिर वो दिन, वो लम्हा भी आय़ा जिसका मुझे कुछ - कुछ अंदाज़ा तो होने लगा था पर मैं फिर भी उसे  एक वहम  समझकर दूर हटा रही थी.

...जय ने वही कहा या मुझसे पूछा जिसका अंदाज़ा निशि को  काफी पहले हो गया था. लेकिन उस वक़्त मैं जय को वो जवाब नहीं दे पायी जिसकी उसे  ख्वाहिश  थी  और जो निशि के लिए  " ये तो होना ही था"  वाली बात होती.

कारण, वजह सिर्फ इतनी थी कि ज़िन्दगी में पहली  बार मुझे लग रहा था कि मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी अपनी आँखों से विस्तृत क्षितिज को पार करती जा रही हूँ.  पहली बार लग रहा था कि ज़िन्दगी सिर्फ शादी-ब्याह -घर -परिवार नहीं और भी कुछ है.  मैं सिर्फ एक perfect bride के अलावा भी कोई नाम-पहचान-ख्वाब हूँ  और ये सब समंदर की एक ऐसी लहर की  तरह था जिस पर surfing करते मैं थक नहीं रही थी. ....और जब,  जय ने वो सवाल सामने रखा तो समन्दर  और लहरों के रोमांच के बावजूद  घर, मम्मी और जाने कितने चेहरे आँखों के आगे तैर गए.... "क्या मैं इतना बड़ा फैसला अकेले ले सकती हूँ?" .....लेकिन अगले ही पल मैंने अपना सर झटक कर उस ख्याल को ही दूर हटा दिया ...

 
जय से सिर्फ इतना कहा..." आज नहीं, अभी नहीं ...फिर कभी..फिर कहीं..."

"ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे... कल की कुछ खबर नहीं... कल कौन सी सुबह होगी, कैसा सूरज  होगा ...होगा भी या नहीं ..लेकिन इस लम्हे को अभी यहीं थाम ले..इसे अभी यहीं बाँध ले.... आज इस वक़्त को यहीं थोड़ी देर और ठहर जाने दे .."


Thursday, 17 March 2011

रजनीगंधा --भाग :2

"सौम्या" अगले कुछ क्षणों  तक उस लड़के की तरफ देखती रही , जैसे सोच रही थी कि क्या वो पुराना परिचय इतना प्रगाढ़ था कि उसके लिए ये अजनबी (हाँ अजनबी ही कहा जाना चाहिए क्यूंकि सौम्या अभी  तक उसका नाम नहीं जानती थी, कितनी अजीब सी बात थी पर सच थी.. ) इतना खुश हो रहा है . फिर शांत और संयत  आवाज़ में कहा, "मैं आपका नाम भूल गई हूँ"....कहते हुए मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया  और उत्तर की अपेक्षा में उसकी और देखने लगी ..पर शायद वो लड़का कुछ बेहतर प्रतिक्रिया या यूँ कहें कि एक गर्मजोशी और प्रसन्नता से भरी आवाज़ की अपेक्षा कर रहा था. खैर कुछ सेकंड के लिए लगा कि वो थोडा निराश हुआ है, फिर अगले ही पल संभल कर उसने कहा, " आप भूली नहीं है,  हम दोनों का ऐसा कभी कोई औपचारिक परिचय कभी हुआ नहीं कि नाम बताने की नौबत आई हो ...वैसे मेरा नाम "जय"  है और आपका नाम सौम्या है  इतना मैं जानता हूँ." 
मुझे हैरानी हुई, पर क्या कहूँ ये समझ नहीं आया...और मैं वही उलझी हुई निगाहों से उसे  देखने लगी ...क्या कहूँ , कुछ कहना तो चाहिए पर क्या....पहचान का जो सूत्र ये अजनबी उर्फ़ जय ढूंढ लाया है..वो धागा अब भी मेरी स्मृति में दर्ज है...जैसे किसी किताब के पन्नों में हम गुलाब की पत्तियां छुपा के रखते हैं .. ...पर जिस तरह समय के साथ वो पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी खुशबू कम  होने लगती है , कुछ वैसा ही अहसास मुझे भी हो रहा था ....पर मैं ये ज़ाहिर  नहीं करना चाहती थी..लेकिन मेरी ख़ामोशी और चेहरे की सपाट भाव-भंगिमा ने माहौल को और ज्यादा  असुविधाजनक बना दिया ..खैर फिर जाने कहाँ से दिमाग में  कुछ स्पंदन हुआ और मुझे शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार के सारे सबक याद आ गए ..

 मैंने मुस्कुराने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, "this is really surprising to meet you once again, that too here in rishikesh..I never anticipated any such thing ".( ये अंग्रेजी बड़ी सुविधाजनक भाषा है, इसमें बगैर किसी परेशानी के  बड़ी से बड़ी औपचारिक बात को बड़े सहज ढंग से कह दिया जाता है ..और हमारा लहजा भी बेहद  casual हो जाता है .)   खैर, इस एक वाक्य  ने माहौल को काफी हल्का बना दिया और जय को भी लगा कि वो unwanted - entry नहीं है. इतने में निशिता ने उसे  हमारे साथ बैठने का भी निमंत्रण दिया जिसे उसने ये कहते हुए नकार दिया कि " आप को देखकर, मैं  बस यूँही मिलने आ गया ". 

"लेकिन आप यहाँ कैसे और आजकल क्या कर रहे हैं?"    मेरा ये  सवाल जय के लिए काफी उत्साहवर्धक साबित हुआ क्योंकि  उसकी वो पहले वाली मुस्कराहट अब वापिस लौट आई  और कुछ संक्षेप, कुछ विस्तार और कुछ बेहद दिलचस्पी से उसने बताना शुरू किया ,  "मैं यहाँ दोस्तों के साथ हिमालयन mountaneering इंस्टिट्यूट  में ट्रेनिंग के लिए आया था. basic  course ख़त्म करने के बाद यहाँ कुमायूं हिमालय  में trekking की. और इसके बाद उसने कुछ trekk pass और पहाड़ों के स्थानीय नाम बताये जहां वो लोग अब तक जा चुके थे,,  ये सब नाम मेरे लिए अजनबी ही सही पर काफी दिलचस्प थे. देखा जाये तो अब तक मेरे सभी दोस्त जय में काफी रूचि लेने लगे थे..   
जय और आगे कहता गया कि वो आजकल एक फ्रेंच कंपनी का बिज़नस develpoment manager है और   भी पता नहीं क्या- क्या......  

जाते-जाते उसने मेरा फोन नंबर माँगा जो कुछ झिझकते हुए मैंने दे भी दिया ..कहने की ज़रुरत नहीं कि शाम तक उसके massage और एकाध कॉल भी आ गए..अगले दिन हमें वापिस जाना था और जय का जब फोन आया तब हम ऋषिकेश से आधा  रास्ता तय कर चुके थे..उसे शायद ये लगा था कि जाने से पहले मैं उस से मिल कर जाउंगी लेकिन अब मैं इतनी अच्छी  कब से हो गई .   

पर जय को उपेक्षित करना आसान नहीं था..जयपुर के उस workshop कि स्मृति अभी इतनी भी धुंधली नहीं हुई थी और ना मैं उस संक्षिप्त सी और कभी कभी ही होने वाली बातचीत को और उस मुस्कुराते चेहरे को भूल सकी थी..इसलिए घर लौट कर भी मेरा जय से फोन, mail  के ज़रिये संपर्क बना रहा... अब ऐसा तो नहीं कह सकती थी कि मुझे जय से प्यार हो गया था या ऐसा कभी कुछ था , पर  मैं आसानी से उसे खुद से परे नहीं हटा पा रही थी... लेकिन इतना ज़रूर था कि  मेरे अन्दर के एक खाली कोने को जय की  उपस्थिति   ने भर दिया था... वक़्त अपने तरीके से गुज़रता रहता है...कहीं एक अजनबी शहर में मिला कोई पुराना परिचित ..कब आपका बड़ा अच्छा दोस्त बन जाता है ..कुछ पता नहीं चलता ...

और कभी कभी तो उस अजनबी की एक आदत सी हो जाती है.. और शायद जय अब "सौम्या" की आदत बनता जा रहा था... वक़्त अपनी गति से चलता जा रहा था..कुछ और महीने बीते ..और समय के साथ अब इसे हम दोस्ती कह लें या और कोई समीकरण बनाएं ..जो भी था..कुछ ऐसा कि जो अच्छा लग रहा था..और जिसकी अब आदत होने लगी थी. लेकिन  फिर भी जय और उसके किस्से, कहकहों, उसके साथ लड़ने-झगड़ने के अलावा और भी दुनिया थी,  है  और हमेशा रहनी ही है.

जय में मेरी बढती दिलचस्पी को सबसे  पहले निशिता ने पकड़ा और तोप के गोले की तरह उसने  एक सवाल मेरी तरफ उछाला .." तुझे जय पसंद है ना ?"

उसके चेहरे पर एक तीखी सी मुस्कराहट  थी , जैसे उसने कोई बहुत बड़ा राज़ जान लिया है और अब अपनी  इस सफलता की पुष्टि मुझसे चाहती हो...

"अच्छा लड़का है, पर ऐसा भी कुछ नहीं सोचा है मैंने..पर हाँ, "we are  good  friends " (बताया था ना  कि  अंग्रेजी बड़ी सरल भाषा है)

"अच्छा, good friends !!!!!!!!!, उसने कभी  कुछ कहा तुझसे???"

"ओफ्फ्हो, निशि, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, ऐसा कोई सीन नहीं है , बेकार ख्याली पुलाव मत बना" .
खैर उस वक़्त बात आई -गई हो गई. पर शायद ऐसा नहीं था.. अब  जैसे जय के बात करने या कुछ कहने या पूछने के तरीके में, मैं कुछ फर्क महसूस कर रही थी..कभी-२ कोई बात कहते -कहते रुक जाना या उसे अधूरा ही छोड़ देना ..समझ नहीं आ पा रहा था.. पर फिर उसने एक दिन सीधे से ही सवाल कर दिया .." तुम शादी कब कर रही हो ..."
सवाल कोई बहुत अप्रत्याशित  तो नहीं था ..अक्सर दोस्त, रिश्तेदार ऐसा सवाल पूछते ही हैं और इसलिए मैंने भी बेफिक्र तरीके से यूँही टालने भर के लिए कह दिया कि "कर लूंगी जब कोई पसंद का लड़का मिल जाएगा"...

"और क्या पसंद है तुम्हारी?" ये अगला सवाल था. मुझे समझ नहीं आय़ा कि वो ऐसे ही पूछ रहा है या सचमुच उसे जानने में दिलचस्पी है या पता नहीं क्या..लेकिन इस मुद्दे मेरी दिलचस्पी ना देखकर उसने आगे कुछ नहीं पूछा.

खैर, उन दिनों ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी की  फिकर मम्मी और निशिता के लिए दुनिया का सबसे अहम् मुद्दा बन गई थी. लगभग हर तीसरे-चौथे दिन मेरे सामने कोई  ना कोई नाम, उससे जुडी जानकारियाँ और संभव हो तो तसवीरें भी रख दी जातीं. जितनी बार मैं मम्मी या पापा को किसी रिश्ते के बारे में या किसी लड़के के बारे में बात करते सुनती , उतनी ही बार मेरा दिल कांपने लगता, बस यही मनाती कि किसी भी बहाने , कारण से ये रिश्ता, ये नाम रिजेक्ट हो जाए. और सचमुच ऐसा हो भी  जाता, कभी हमारी तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से कोई ना कोई ऐसी वजह बन जाती कि शुरू होता सूत्र वहीँ समाप्त हो जाता. और मैं चैन की  सांस ले लेती. (कुछ देर के लिए ही सही). फिर सोचती कि ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई अंत नहीं? ..

निशिता के पास भी जैसे बात करने के लिए यही एक विषय था.." तो कुछ सोचा तुमने, कुछ तय हुआ ..?" मेरा नकारात्मक  जवाब सुनकर मुझ पर नाराज़ होती...अब जब निशिता का ये हाल था तो मम्मी के कहने -सुनाने के बारे में अलग से क्या बताया जाए..

पर इस सारी माथा-पच्ची में,  मैं जैसे इस पूरी प्रक्रिया से दूर भागने लगी थी. मेरा द्वंद, जाने कौनसी   अनजानी चिंताएं और कुछ न तय कर पाने की  उलझन बढती ही जा रही थी. और जब ऐसे ही एक बोझिल दिन पर जब माँ और निशिता फिर से  मेरी शादी और उस से जुडी परेशानियों पर बात कर रही थीं....और माँ ने हमेशा कि तरह कहा...
"पता नहीं कब होगी इसकी शादी, मैं तो अब थक गई हूँ...? कब कोई लड़का मिलेगा.."
उस समय अचानक से यूँ लगा कि इतना बड़ा सिरदर्द और इसकी वजह मैं...निशि कुछ कहने वाली थी पर उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने सपाट आवाज़ में कहा.." मेरी शादी की  अब आप लोग फिकर करना बंद कर दें... मुझे नहीं करनी शादी. मुझे किसी से शादी नहीं करनी."

"क्या बोल रही है.. पागल हो गई है क्या ?" मम्मी गुस्से में कहने लगी...निशि ने मुझे चुप रहने का इशारा किया लेकिन मैं सब कुछ सुनी-अनसुनी करते हुए वहाँ से चली आई.. कुछ और सूझा नहीं तो छत पर चली गई.. निशि मेरे पीछे आई..

"ये क्या नाटक है सौम्या?  क्यों नहीं करनी शादी?  क्या हो गया ?"

"कुछ नहीं..."

"अब ये मत कहना कि तू अब भी वैभव के बारे में सोच रही है?"

" No, he is a closed chapter and whatever happened was good for both of us."

"फिर...क्या बात है?"

"किसी को पसंद करती है तो वो भी बता दे..कोई बात अगर मन में है तो बताती क्यों नहीं? "

ये मम्मी की  आवाज़ थी जो हमारे पीछे आकर  खड़ी हो गई थी.  मैं वैसे ही चुप खड़ी रही.

"आंटी आप जाइये, मैं बात कर रही हूँ ना.." निशिता फिर मेरी तरफ मुड़ी..और मैं सर नीचे लटकाए जाने कौनसे  शून्य में घूर रही थी..

"सौम्या तू क्या सोचती है ...अपनी ख़्वाबों की  दुनिया से बाहर निकल. क्या लगता है तुझे कि,  कोई सपनों का राजकुमार तेरे लिए धरती पर उतर आएगा.?"
उसने धीरे से  मेरा  हाथ पकड़ कर कहा..

"मुझे कोई राजकुमार नहीं चाहिए ..और सपने मैंने कभी देखे नहीं."  मैंने धीमी लेकिन
एक सूखी गंभीर आवाज़ में कहा.

"तो क्या सारी ज़िन्दगी अकेले ही गुजारनी है?"
"क्यों अकेले नहीं रहा जा सकता क्या??  क्या शादी करना ज़रूरी है ..लोग बिना शादी किये ज़िन्दगी नहीं गुजारते ?"

"बेकार की बातें मत कर ..ये कोई मज़ाक नहीं है. तू सोचती है कि  सारी उम्र यूँही अकेले बिता सकती है  ..बिना किसी साथी के ? तुझे कुछ अंदाज़ा भी है ज़िन्दगी की कडवी  हक़ीक़तों का ??"

मैं अब भी वैसी ही चुप रही पर एक असहमति या विरोध या और कोई भाव कह लें, वो चेहरे पर साफ़ ज़ाहिर था.

निशि और ज्यादा चिढ गई, झल्ला गई, " मेमसाहब अगर आपको लगता है कि,  आप दुनिया से जुदा कोई अनूठा नमूना हैं तो ये ग़लतफ़हमी दूर कर लें." ....फिर जैसे अचानक उसे कुछ सूझा, उसने पूरी गंभीरता से मेरे चेहरे पर अपनी नज़रें ज़मा दी..." Jai..it's Jai..I knew that.."

जय इस सब में  कहां से आ गया..मैं बिफर पड़ी.." he has nothing to do with this..don't drag him into my personal matter."

"alright, then what is the matter?"

"बस अब मैं रोज़- रोज़ की इन बातों से तंग आ चुकी हूँ . एक बेकार की कवायद लग रही है,  मैं रिश्तों  को किसी समझौते या बेस्ट deal की तरह नहीं ले सकती . और  ये सब मुझे किसी बाज़ार के जैसा लग रहा है ....जैसे हम कपडे खरीदने जाते हैं ... दस पीस try  करने के बाद कहीं एक चीज़ पसंद आती है..कुछ वैसा ही लग रहा है.."


कुछ देर के लिए निशिता चुप हो गई, फिर जैसे उसने थकी हुई सी आवाज़ में कहा .. "चल रहने दे इस वक़्त इन सब बातों को. अभी तुझे कुछ समझाने से कोई फायदा नहीं."

इस पूरे चैप्टर के बाद भी कहीं कुछ ना बदला  और ना बदलने की कोई उम्मीद ही थी. वही  सब  अजनबी नाम और उनकी बातें..  इसी बीच एक  बात और हो गई...एक पब्लिक policy  research इंस्टिट्यूट में मेरी PhD application  approve  हो गई.  इंस्टिट्यूट NCR में ही था..हालांकि घर से दूर पर delhi से बहुत ज्यादा दूर  नहीं. तो बस इसे एक नई शुरुआत मान कर, घरवालों को थोड़ा समझा कर और निशि के ढेर सारे instructions साथ लेकर मैं चली आई एक नई जगह,  एक नए landscape के बीच....

शुरू के कुछ दिन तो मुश्किल बीते,  कभी ये  तो कभी वो समस्या ..पर जैसे-तैसे २-३ महीने गुज़रते  ना गुज़रते आदत पड़ने लगी,  अच्छा भी लगने लगा और सबसे बड़ी बात मुझे यूँ लगा कि जैसे मेरा क्षितिज अब बहुत विस्तृत हूँ गया है ..ऊँचा, खुला, आसमान जैसे अनंत की  खोज करने के लिए उकसा रहा हो...कुछ दिन बाद मुझे एक ऑनलाइन magazine के लिए कुछ education एंड policy  based articles लिखने का भी  ऑफर मिला ..काम शुरू में तो मुश्किल लगा..लेकिन धीरे- धीरे हर हफ्ते के एक नए task  की  आदत पड़ने लगी..



मेरे यहाँ आने के बाद से २-३ महीने में निशिता अपनी official  मीटिंग  के बहाने ३-४ चक्कर तो मेरे अपार्टमेन्ट के  लगा ही चुकी थी और अब निश्चिन्त होने लगी थी कि मैं यहाँ ठीक से और आराम से रहूंगी. और जय तो खैर हर weekend या १० दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आ ही जाता था. समय अब भी गुज़र  रहा था पर अब वो पहले वाला बोझ नहीं था. पर उन दिनों जय में आये बदलाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

और आखिर वो दिन, वो लम्हा भी आय़ा जिसका मुझे कुछ - कुछ अंदाज़ा तो होने लगा था पर मैं फिर भी उसे  एक वहम  समझकर दूर हटा रही थी.

...जय ने वही कहा या मुझसे पूछा जिसका अंदाज़ा निशि को  काफी पहले हो गया था. लेकिन उस वक़्त मैं जय को वो जवाब नहीं दे पायी जिसकी उसे  ख्वाहिश  थी  और जो निशि के लिए  " ये तो होना ही था"  वाली बात होती.

कारण, वजह सिर्फ इतनी थी कि ज़िन्दगी में पहली बार बार मुझे लग रहा था कि मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी अपनी आँखों से विस्तृत क्षितिज को पार करती जा रही हूँ.  पहली बार लग रहा था कि ज़िन्दगी सिर्फ शादी-ब्याह -घर -परिवार नहीं और भी कुछ है.  मैं सिर्फ एक perfect bride के अलावा भी कोई नाम-पहचान-ख्वाब हूँ  और ये सब समंदर की एक ऐसी लहर की  तरह था जिस पर surfing करते मैं थक नहीं रही थी. ....और जब,  जय ने वो सवाल सामने रखा तो समन्दर  और लहरों के रोमांच के बावजूद  घर, मम्मी और जाने कितने चेहरे आँखों के आगे तैर गए.... "क्या मैं इतना बड़ा फैसला अकेले ले सकती हूँ?" .....लेकिन अगले ही पल मैंने अपना सर झटक कर उस ख्याल को ही दूर हटा दिया ...

 
जय से सिर्फ इतना कहा..." आज नहीं, अभी नहीं ...फिर कभी..फिर कहीं..."

"ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे... कल की कुछ खबर नहीं..लेकिन आज इस वक़्त को यहीं थोड़ी देर और ठहर जाने दे .."

Saturday, 12 February 2011

रजनीगंधा -- भाग 1

आज सुबह जब मैं सो कर उठी तो सर बहुत भारी सा लग रहा था, कल सारी रात नींद जो नहीं आई. नींद आये भी कैसे ..... कल दिन भर जो सोचती रही,  वो सब बातें दिमाग में चल रही थी. दरअसल रात भर मैं इन्ही सब चीज़ों के बारे में सोचती रही. जो हुआ वो सिर्फ  एक गलतफहमी थी  या वो इंसान ही गलत है,  पता नहीं..इतना सोचने के बाद भी मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच  पायी थी.
सब कुछ तो ठीक चल रहा था , फिर अचानक क्या गलत हो गया, क्या मैंने कुछ ऐसा कहा जो मुझे नहीं कहना चाहिए था या उसने जो किया वो गलत था.... नहीं जानती...नहीं जानती कि इस तरह अचानक सब कुछ खत्म क्यों हो गया ....हम दोनों के बीच एक अबोला सा क्यों आकर पसर गया...या शायद मैं ही इस पूरे मामले को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले गई.
कह नहीं सकती कि कौन गलत था या शायद कुछ भी गलत नहीं था  ....यही सब सोचते हुए, मैं अपने छोटे से रूफ-टॉप गार्डेन की सार-संभाल करने चली आई...देखा कि रजनीगंधा में अभी तक कलियाँ नहीं आई थी...पौधा कुछ सूखा और बेरंग सा दिखा..यूँ तो रजनीगंधा  के फूल सफ़ेद ही होते हैं, लेकिन "सौम्या" को उनकी खुशबू  बेहद पसंद थी..उसे गुलाब या कोई और फूल इतना पसंद न था जितना कि  रजनीगंधा के गुच्छे....

वैभव से मैं अपनी किसी रिश्तेदार के घर मिली थी,  वहाँ किसी ने मेरा उससे परिचय करवाया था...उस दिन शायद उनके घर कोई समारोह था या ऐसे ही कोई पार्टी ...मैं अपने cousins के साथ ही थी, और वो भी शायद मेरे किसी cousin -brother का दोस्त था, इसीलिए हमारे ग्रुप में ही शामिल हो गया था...उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि मेरा वैभव से मिलना महज़ संयोग नहीं था ...उसे और मुझे वहाँ सोच-समझ कर बुलाया गया था ...खैर ये सब तो कोई विशेष बात नहीं है क्योंकि माता-पिता-रिश्तेदार अक्सर ऐसी कोशिशें करते ही हैं . उस दिन के बाद मैं और वैभव नेट पर मिले...मिले या उसने मुझे सर्च किया ....कह नहीं सकती...जो भी हो...अब तक ये तो साफ़ दिख ही रहा था कि हम  दोनों के  परिवारों की  भी इसमें सहमति ही थी कि हम बात करें, एक दूसरे को जाने-समझे...और परिणामत: उनकी "चिंता" और "बोझ" का अंत हो.

हम दोनों लगभग रोज़ ही काफी देर तक नेट पर बातें करते थे.  वैभव ने अपने  बारे में, यानि अपनी पढाई, करियर और future -plans के बारे में विस्तार से बताया...और उसकी दिलचस्पी मेरे बारे में भी उतने ही विस्तार से जानने की थी...कभी-कभी उसकी कुछ बातें मुझे समझ नहीं आती थी, इसके पहले कभी भी  मैंने इस तरह किसी से इस तरह बात नहीं की थी...शादी का ये मेरा पहला "interview " था या ऐसे कहूँ कि इसके पहले कभी ऐसा कोई मौका नहीं आय़ा कि मुझे ये दिमाग में रखते हुए किसी से बात करनी पड़े  कि मेरी उससे शादी होने जा रही है या होने की संभावनाएं हैं...वैभव से बात करते हुए यही सब confusions और  ख़याल मन में चलते रहते थे....लेकिन इसके बावजूद उससे बात करना मुझे अच्छा लगने लगा, उसका बच्चों की  तरह हर सवाल को दो बार पूछना या बात करते-करते अचानक बहुत गंभीर हो जाना... ..पर कभी-कभी उसके सवाल मुझे परेशान कर देते थे.  कभी-कभी मुझे लगता था कि उसके बारे में कुछ ऐसा है जो मैं नहीं जान पा रही हूँ..या समझ नहीं पा रही हूँ ठीक से..

वैभव अक्सर मुझसे  एक सवाल बार-२ करता था और  जैसे उस सवाल का जवाब उसे अपने मन मुताबिक ही चाहिए भी था या शायद मुझे  ऐसा लगा. मैं खुद को गलत या दोषी नहीं मान पा रही थी लग रहा था कि वैभव ही इस पूरे मामले को गंभीरता से या गहराई से नहीं ले रहा था..इसका कारण  मेरे कुछ  अनुभव थे  जिन्होंने  मन के किसी कोने में कुछ कडवाहट सी भर दी थी. पर ऐसा भी नहीं था कि वैभव से बात करते हुए मैं किसी पूर्वाग्रह को अपने मन में रखे हुए  थी. जब वैभव ने परिवार, विवाह और करियर के बारे में मेरे  दृष्टिकोण, प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं के बारे में जानना चाहा तो मैं कुछ उलझ सी गई. कभी ऐसी प्राथमिकताएं या लक्ष्य मैंने तय नहीं किये थे, जिसमे किसी एक का चुनाव करना पड़े और दूसरे को पूरी तरह छोड़ना या उपेक्षित करना हो. मुझे हमेशा ही यही लगा कि ज़िन्दगी में हर चीज़ सही अनुपात में नहीं मिलती, इस "सही" और "उचित" संतुलन को खुद ही साधना पड़ता है.


लेकिन शायद वैभव के ख्याल अलग थे. उसे तो एक निश्चित जवाब चहिये था, या तो  ऐसा या वैसा, बीच का कोई रास्ता नहीं.. वैभव चाहता था कि उसकी पत्नी अपने पति को  और अपने परिवार को अपनी प्राथमिकता माने ...और इसमें कुछ गलत भी तो  नहीं था. बहस और उलझन तब खड़ी हुई जब सवाल माता-पिता, पति और करियर जैसे मुद्दों पर आ गया. अपने माता-पिता की इकलौती बेटी सौम्या ने इतनी गहराई से इन मुद्दों पर ना कभी सोचा था और ना ही वो ऐसे सवालों के लिए तैयार थी. देखा जाए तो कभी ऐसे सवालों से उसका वास्ता भी नहीं पड़ा था कि उसे उनका जवाब देने के बारे में सोचना पड़ता. लेकिन ये सारी चीज़ें वैभव को तो मालूम नहीं थीं.

अपनी जगह वैभव भी ठीक था. पढाई और करियर के लिए बरसों तक घर-परिवार से दूर इन metro -cities में  रहने के बाद हरेक  इंसान की यही ख्वाहिश रहती है कि और कोई ना सही, पति-पत्नी तो एक-दूसरे के साथ हों, एक-दूसरे को समझें. ज़िन्दगी की इस आप-धापी में जहाँ हर इंसान कुछ ऊँचे और महत्वपूर्ण लक्ष्यों के पीछे दौड़ रहा है, वहाँ परिवार और जीवनसाथी के प्रति ज़िम्मेदारी कहीं ना कहीं पीछे छूट ही जाती हैं. तब ऐसे में निश्चित रूप से प्राथमिकताएं तय करना ज़रूरी हो  जाता है. "लाइफ-पार्टनर और लाइफ टाइम companion होना दोनों अलग-२ बातें हैं."

पर ये सब बातें इन्टरनेट की chat  window  में आसानी से नहीं कही जा सकती या समझाई जा सकतीं. वहाँ ना तो कहने वाले का चेहरा सामने होता है और ना ही उस चेहरे पर आने वाले  मनोभावों को देखा या समझा जा सकता है. ऐसे में सिर्फ शब्द ही माध्यम होते हैं सामने वाले तक अपनी बात पहुँचाने के लिए. शब्दों के चुनाव में गलती या उन शब्दों का सामने वाले पर प्रभाव और उनका मतलब  कैसा और किस तरह निकाला गया, ये बातें ऐसी स्थिति में बेहद महत्वपूर्ण बन जाती हैं.

 और कहीं ना कहीं यही वजह रही कि वैभव और मेरे बीच संवाद-सेतु धीरे-धीरे कमज़ोर होते हुए आखिर एक दिन पूरी तरह टूट ही गया. पर मैं  उस अनुभव को पूरी तरह नहीं भूल पायी, और ना ही दुबारा ऐसे किसी अनुभव से गुजरने के लिए खुद को तैयार कर पाई.
मुझे लगा जैसे वैभव के लिए ये सब बहुत casual  सा कुछ चल रहा था..बहुत बुरा महसूस हुआ था.. पता नहीं कैसे -कैसे ख्याल मन में आये वैभव के बारे में..लगा जैसे किसी ने मेरा मज़ाक बना के रख दिया था...२-३ हफ्ते इसी हाल में गुज़रे..फिर धीरे-धेरे मैं इसे एक बुरे सपने की तरह भूल गई....

इन्टरनेट पर किसी को समझना या खुद को समझा पाना बेहद मुश्किल काम है, और ये काम "सौम्या" से नहीं सध पाया. लेकिन ये इन्टरनेट दुनिया को बहुत छोटा बना  देता है. अपने घर में बैठे हम लोग सारी दुनिया के हाल जान जाते हैं. ऑरकुट, facebook , twitter हमें हर उस शख्स की उपस्थिति का, उसके दूर होते हुए भी आस-पास ही होने का अहसास करवाती हैं, जिनसे हम दूर जाना चाहते हैं.  अभी जब कुछ दिन पहले ही वैभव से दुबारा  एक social -gathering में  मिलना हुआ . वैसे इसे  मिलना तो नहीं कहा जा सकता,  दूर से ही एक-दूसरे को देखना या अपनी  नज़रों को उसी एक दिशा में भटकने से रोकना और किसी की नज़रों को अपनी पीठ पर, चेहरे पर महसूस करते हुए भी सहज और सामान्य बने रहना.. ये मिलना नहीं बस यूँ ही रास्ता टकरा जाना कहा जाना चाहिए.

 घर वापिस लौटकर सौम्या के मन में फिर से हलचल सी उठी और एक बार फिर से उसने अपने  ईमेल अकाउंट में वैभव के साथ हुई बातों की chat history ढूंढना और पढना शुरू किया. जब से वैभव के साथ उसकी बातचीत बंद हुई थी, उसने कभी उन पुराने chat records को पढने या देखने की ज़हमत नहीं उठाई थी. पर अब वो खुद को रोक नहीं सकी, उन chat  records को दोबारा पढने और उन पर काफी सोचने के बाद बस इसी नतीजे पर पहुँच पाई कि कहीं कुछ समझ की कमी रह गई.  और दो रातों से इसके बारे में सोचते रहने और बहुत से अनबूझे सवालों के जवाब ढूँढने की कोशिश में नींदें ही कहीं गुम हो गई...या शायद उन्हें आँखों में समाने और पलकों पर छाने की इज़ाज़त ही  नहीं मिली.  

लेकिन मैं ये भी  जानती थी क़ि अब ये chapter पूरी तरह से बंद हो चुका  है और इसे दोबारा खोलने से कोई अर्थ नहीं निकलना.   जब ये सब चीज़ें मेरे दिमाग में बहुत भारी हो गई तो मैं कुछ दिन के लिए निशिता के घर चली गई. उससे बात करके मुझे यही लगा कि जो हो गया सो हो गया, अब उसे भूल जाना ही ठीक है .... साथ ही ये भी लगा कि मैं  कुछ over -react सा कर रही हूँ. ठीक है ...होता रहता है....ज़िन्दगी में कुछ खट्टा कुछ मीठा ...कुछ कड़वा और कुछ फीका..

 घर लौट कर रजनीगंधा के पौधे को संभाला, देखा कि उसमे एक कलियों का गुच्छा निकल तो रहा है. गमले की खरपतवार साफ़ की, मिटटी की निराई की और उसमें खाद डाली. रजनीगंधा अब कुछ खिला हुआ और अच्छा  दिखने लगा
था.

 कुछ दिन बीते, मेरे दोस्तों ने एक holiday ट्रिप प्लान की..और बस आनन् -फानन सबने एक-एक बैग पैक किया और हम निकल पड़े ....शिमला, मनाली, डलहौज़ी, ऋषिकेश ..१० दिन कैसे गुज़रे पता ही नहीं चला... सफ़र का आखिरी पड़ाव  फिर से ऋषिकेश था..वहाँ एक बार फिर से रिवर -राफ्टिंग को जम के एन्जॉय करने के बाद हम सब एक restourent में coffee पीने बैठे थे.. जब निशिता ने धीरे से मुझे कहा, "देख सोमा, वो लड़का बहुत देर से तुझे ही देख रहा है." मैंने तुरंत कोई प्रतिक्रिया  नहीं दी, सिर्फ अपने कंधे उचका दिए . लेकिन फिर निशि ने कहा, "अरे देख, हमारी तरफ ही आ रहा है." अब मैंने भी उसी दिशा  में देखा...सचमुच कोई हमारी ही टेबल की तरफ आ रहा था और आ क्या रहा था, आ ही गया था.. एक पल को वो चुप खडा रहा..फिर जैसे एक शिष्ट मुस्कराहट के साथ उसने मुझे संबोधित किया, "  आप जयपुर में एक workshop में आई थीं  ना..." मैं बिना कुछ कहे उसे पहचानने की कोशिश करते हुए उलझन भारी नज़रों से उसे देखने लगी... फिर उसने कहा, "good governance and developing society "  पर एक workshop और सेमिनार था."

 ओह, हाँ अब कुछ  याद आय़ा ..लगभग साल भर हुआ इस बात को तो, लेकिन मैं अब भी इस सामने खड़े शख्स को नहीं पहचान पा रही थी. उसने भी शायद ये समझ लिया और कुछ झेंपते हुए  जाने के लिए मुड़ा..पर फिर आखिरी कोशिश के तौर पर उसने कहा, "कोई बात नहीं रहने दीजिये..आप भूल गई हैं ....पर मैं अब अच्छी हिंदी बोल लेता हूँ और समझ भी लेता हूँ. " इतना कहकर वो वापिस जाने लगा...
पर इस आखिरी वाक्य ने मेरे  दिमाग के तार झनझना दिए और जैसे एक फिल्म सी आँखों के सामने  घूम गई ....और मैंने  हँसते हुए पीछे से जवाब दिया.." लेकिन मेरी अंग्रेजी आज भी उतनी ही खराब है.."  सुनकर वो लड़का रुका ..उसकी आँखों में चमक थी और चेहरे क मुस्कराहट बढ़कर ख़ुशी में बदल चुकी थी..उसने कहा, "कोई बात नहीं, अब हम manage कर लेंगे.."