खामोशियों के बंद दरवाजे जिस आँगन में खुलते हैं वहाँ समय और गति के सारे समीकरण अपना अर्थ खो बैठे हैं ..यहाँ एक ऐसा ब्लैक होल है जहां आकाश और धरती के बीच का अंतर, दूरी सब मिट गए हैं..यहाँ क्षितिज की रेखाएं दिखाई नहीं देती, उनके होने का कोई भ्रम भी नहीं होता ..यहाँ कोई आकार, कोई साइज़ या रंग-रूप भी नहीं दिखता, यहाँ ना कोई काला रंग है और ना कोई gray shade ...
खामोशी का भी अपना एक संसार होता है..एक समंदर की तरह है खामोशी ..आवाजों का, प्रतिक्रियाओं का, ख्यालों का, नींदों का, खुली आँखों का भी ... एक गहरा समंदर, जिसकी पहरेदारी करते हैं ये दरवाजे जो दिखते भी नहीं पर फिर भी जैसे किसी सख्त चट्टान की तरह खड़े हैं ..रास्ता रोके हर बाहरी चीज़ का ..खामोशी के ये दरवाजे दिखते भले ही ना हो पर उनकी मौजूदगी बड़ी तीखी -चुभती हुई सी होती है ..जैसे किसी कैक्टस के कांटे या टूटे कांच की किरचें तकलीफ देती हैं कुछ वैसे ही..
लोगों को ख़ामोशी में भी संगीत सुनाई देता है, लय ताल और शब्द का नाद ..और ऐसा होता भी है. खामोशी की अपनी भाषा, अपने संकेत और उनको प्रेषित करने के अपने माध्यम भी होते हैं. उसकी बेआवाज़ लय ताल में ज़िन्दगी के सुर मिलते हुए और उस चुप्पी को तोड़ते हुए से लगते हैं...कह लो कि इस चुप को ज़िन्दगी के शोर में खो जाने दो, इस तरह कि उसके होने का पता भी ना पड़े...पर क्या सचमुच ऐसा हो पाता है , होता है या होने का अहसास भी होता है. ???
कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है ..लेकिन छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..." फिल्म का गाना है पर इस situation के लिए एकदम मौजूं है. दुनिया के रंग में खुद को रंगते, उसके साथ गाते-गुनगुनाते, हँसते रोते, कहते -सुनते , उसके साथ कदम-ताल करते हुए भी ऐसा लगता है कि जैसे दोनों हाथ और दिल-दिमाग के कुछ कोने खाली हैं.
इन दरवाजों के पीछे किसी के सांस लेने की आवाज़ सुनाई देती है...किसी के चलने की, कुछ स्पंदन ..जिनसे पता चलता है कि खामोशी के इस दरवाज़े के पार अभी भी कुछ जीवन शेष है ...लेकिन ये आवाज़ बहुत धीमी है ..इसके होने का अहसास भी मुश्किल से ही होता है ...ज्यादातर तो होता ही नहीं...ऐसे में किसी को इन दरवाजों के होने या ना होने के बारे में पता भी नहीं.. और कब उसके दरवाजे, बाहर की आवाजों के लिए बंद हो जाते हैं, पता भी नहीं चलता. तब ना दिखने वाला एक लौह-आवरण बन जाता है, जो दरवाजों के चारों ओर की परिधि बन जाता है. तब परिधि के बाहर का शोर, उसकी सुर ताल, संगीत कुछ भी अन्दर नहीं पहुंचता. पहुँच भी जाए तो जैसे ठहरे पानी में किसी ने एक मामूली कंकड़ उठा के फेंक दिया और कुछ देर के लिए उस पानी में लहरें बन जाएँ...बस कुछ कुछ वैसा ही और उतना ही असर बना पाता है.
इन दरवाजों की चाबी कहीं खो गई है या ये इनके ताले बिना चाबियों के ही बनाए गए, ये कह पाना अब मुश्किल है ...बहुत से लोग आये अपनी - अपनी चाबियाँ लेकर..अलग अलग किस्म की रंग-बिरंगी और सुन्दर चाबिया लेकर..लेकिन दरवाजों ने खुलने से मना कर दिया ..तालों ने उन चाबियों को स्वीकार नहीं किया..शायद उन्हें किसी ख़ास customized, tailor-made, specific चाबी का इंतज़ार है ..खामोशी के ये बंद दरवाज़े खुलने में अभी और वक़्त लगेगा क्योंकि शायद इसकी चाबियाँ अभी बनी ही नहीं है..या शायद ये कभी भी ना खुलें ..क्योंकि ऐसा कोई खजाना इनके पीछे नहीं छिपा कि जिसके लिए कोई कोलंबस दुनिया छानने के लिए निकल पड़े (या शायद ये एक गलत तुलना है..मेरे ख्याल से मैं यहाँ confuse हूँ ...)
फिर एक और ख्याल भी आता है कि जब ये दरवाजे खुलेंगे तो जो हरहराता समंदर अभी तक दरवाजे के पीछे रुका हुआ है वो पूरी ताकत के साथ बह निकलेगा और उसके साथ कौन और क्या बह जाएगा ये तो अभी सिर्फ सोचने और कल्पना करने की ही बात है..दरवाजे खुलते नहीं इसलिए कि कोई इनको खोलना नहीं चाहता. दरवाजे खुलते नहीं क्योंकि कोई बहुत कोशिश कर रहा है...दरवाजे के key combination को सुलझाने की मगर वो के, वो जवाब कहीं मिल नहीं रहा. दरवाजे बंद हैं ..क्योंकि उसके पीछे जो धीमा सा स्पन्दन है , वो खुद ही उस खामोशी से डरा हुआ है ..उसकी नज़र का क्षितिज किसी अनजाने कोने-किनारों से शुरू होकर कहीं बीच में ही खो जाता है जैसे धुंए की लकीर खो जाती है हवा में....
इन दरवाजों को खुलना चाहिए, इन्हें बंद क्यों छोड़ दिया गया ..इस बात पर किसी ने गौर क्यों नहीं किया ? क्या अब ये बंद ही रहेंगे ? सुनते हैं कि दुनिया में हर ताले की एक चाबी ज़रूर होती है, हर दरवाजे पर बाहर से एक बार ही सही किस्मत भी खुद आकार दस्तक ज़रूर देती है तो ये दरवाजे भी तो इन नियमों के अपवाद नहीं होंगे???
इतना रहस्य क्यों है इन दरवाजों के चारों ओर..जैसे किसी कोहरे में लिपटे...सफ़ेद रुई के फाहे जैसी धुंध..लगता है कि इस धुंध के पार, इन दरवाजों के पार, एक इन्द्रधनुष सी रंगीन, बादलों से भी हलकी, रजनीगन्धा की खुशबू से भी ज्यादा मदहोश कर दे जैसी एक दुनिया है...क्या सचमुच है..????
खामोशी के इन दरवाजों को खोलने के लिए किसी जादू या चमत्कार की ज़रुरत तो नहीं है. पर जो एक सीधी-सरल चाबी चाहिए, वो चाबी वक़्त ने बड़ी सावधानी से और समझदार से कहीं ऐसी जगह रख दी है, कि वहाँ पहुंचना एवरेस्ट फतह करने के बराबर लग रहा है. जाने क्यों ये लगता है कि चाबी तो खुद ही सात तालों में बंद है फिर कैसे खुले ये दरवाजे..
सात तालों और सात दरवाजों ..सात घूँघट में छिपी हुई चाबी...
पर जो चाबी अगर मिल भी गई तो कौन जाने कि वही असली चाबी है या असल की एक खूबसूरत, चालाक नक़ल भर नहीं है..इस मिलावट की दुनिया में असल-नक़ल की परख कर सकें जैसी निगाहें अब रही नहीं..और दस्तक देने वाला कौन है , कौन नहीं, ये जान पाने की बुद्धि भी नहीं.