Sunday, 30 September 2012

आईनों का जहान

धरती और आसमान में बीच एक जगह थी .. जहाँ बादलों की छत थी और ओस की ज़मीन.. धरती पर  रहने वाले उस जगह को "बादलों का घर" कहते थे.  और आसमान के रहने वाले उसे "धरती का पालना" कह कर पुकारते थे..कुदरत का अजीब ही करिश्मा थी वो जगह.. उसका अपना कोई नाम नहीं था .. और ना वहाँ रहने वालों ने उस जगह को कभी कोई नाम दिया.. हाँ वो एक आबाद जगह थी.. धरती वाले सोचते थे कि वहाँ परियां रहती है.. और आसमान वालों का ख्याल था कि वहाँ यक्ष और गन्धर्वों का घर है. ओस की ज़मीन और बादलों  की छत के नीचे कहीं बीच में आईने लगे थे.. जिनकी सतह समन्दर की लहरों की तरह हिलोरे  लेती  थी.. और वो लहरें ऐसे चमकती थीं जैसे नदियों का बहता पानी.. 

उन आइनों की सिफत ऐसी थी कि उनमे लोगों के ख्याल और कल्पनाएँ आकार लेती नज़र आती थी.. जीते जागते चेहरे, चलती- फिरती तसवीरें, आवाजें.. बिलकुल वैसे जैसे हम फिल्म देखते है .. जब भी धरती या आसमान का कोई रहवासी कोई ख्याल बुनता या कल्पनाएँ करता तो  वो सब  उन आइनों में धीरे- धीरे  आकार लेने लगता.. ऐसा सदियों से चला आ रहा था... धरती वाले और आसमान वाले  किसी को भी इस बात की खबर नहीं थी..  पर उस जगह के रहने वाले इन आइनों और उनमे बोलने वाली तस्वीरों को हमेशा से देखते आ रहे थे.. ख्याल आज के , कल के.. आने वाले दूर के कल और अपने, दूसरों के, बेगाने लोगों के भी.. बस सिर्फ ख्याल और उनकी दुनिया.. भले-बुरे, कभी डरावने,  कभी कोमल, सुख के दुःख के .. ख्याल और उनकी कल्पनाएँ.. जब भी कोई ख्याल या कल्पना सच होने वाली होती तो उस वक़्त ऐसा लगता जैसे आइनों में शांत बहता  समन्दर अचानक जाग गया हो, उसकी लहरों की धडकने तेज़ हो जाती और लगता  मानो पानी आइनों  के दायरे से बाहर आना और सब कुछ भिगो देना चाहता हो..

एक दिन उस जगह पर रहने वाले किसी ने सवाल किया.. कि क्या कभी ये सब ख्याल, ये कल्पनाएँ .. सब सच में बदलते हैं? 

जवाब आय़ा कि हर ख्याल इतना ताकतवर नहीं होता कि उसकी कल्पना हकीकत बन जाए.. कुछ ख्याल मामूली होते हैं, कुछ गैरज़रूरी, कुछ सिर्फ दिल-दिमाग की हलचल और कुछ ख्याल और कल्पनाएँ  ऐसी  होती हैं कि जो सिर्फ कल्पनाओं में ही रहे  तो अच्छी लगती हैं... उनका वास्तविकता से  कोई लेना देना नहीं..

सवाल करने वाले ने  जवाब देने वाले का हाथ पकड़ा और उसे एक आईने की तरफ ले गया.. "इसे देखो कितनी सुन्दर कल्पना है,  कितना बेहतरीन ख्याल .. मैं कई सालों से इसे यहाँ  अलग अलग आइनों में देख रहा हूँ.. ये तो अब तक सच हो ही गया होगा ना.."
जवाब देने वाले ने एक गहरी नज़र से आईने को देखा फिर कहा.. "नहीं इस ख्याल की ताबीर अब तक नहीं हुई है.. कुछ ख्याल उसे बुनने वाले के मन में बने रह जाते हैं, मिटते नहीं.. सच तो नहीं  हो पाते पर उनका असर ख़त्म नहीं होता.. और इसलिए जब तक वो कल्पना उसे देखने वाले के मन में जवान है तब तक वो ख्याल, इन आइनों के पानी में भी जिंदा है.. इनकी तसवीरें सालों तक यूँही लहरों में बहती रहती है तब तक, जब तक कि वक़्त के हाथ उनके रंगों को मिटा नहीं देते.. 
कहने वाला आगे  कहता गया.. "ये ख्याल, ये कल्पनाएँ .. धरती और आसमान के रहने वालों के  दिलों का आइना हैं.. उनके दिमागों की परख.. उनकी जिंदगियों का उतार चढ़ाव" .. तभी सवाल पूछने वाले ने टोका.. "तो क्या इन ख्यालों और कल्पनाओं को देखकर हम धरती और आसमान और वहाँ के लोगों के वर्तमान और  भविष्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं..?"

जवाब देने वाला जोर से हंसा .. "नहीं मेरे बच्चे.. पूरी तरह से तो नहीं .. तुम इन आइनों से सिर्फ इतना जान सकते हो कि एक ख़ास वक़्त पर एक इंसान या एक आसमानी देव क्या सोच रहा है .. क्या चाहता  है.. क्या नहीं चाहता.. ये ख्याल, ये कल्पनाएँ  हर पल अपना रंग बदलती हैं ..  इन्हें  गौर से देखो .. तो तुम जानोगे कि हर बार ये आईने तुम्हे एक नई कहानी दिखा रहे हैं .. जबकि उस कहानी के पात्र अक्सर पुराने होते हैं .. ये ख्याल एक इशारा हैं भविष्य का, एक झलक है किसी के वर्तमान की.. लेकिन जैसा कि कुदरत ने इंसान को तेज़  बुद्धि और और एक चालाक दिमाग दिया और आसमान के देवों  को एक दार्शनिक का, आराम तलबी का  दृष्टिकोण दिया तो ये दोनों ही अपने अपने नज़रिए से ख्याल बुनते हैं .. और अपने मनचाहे आज और कल की तलाश इन कल्पनाओं में करते हैं.."

सवाल करने वाला एक आईने के पास बैठ गया.. उसकी लहरों  को बहता देखता रहा.. उसके पानी का छलकना और शांत हो जाना और उसकी तस्वीरों का आपस में गडमड्ड होना .. कभी लगता कि एक ही तस्वीर है फिर लगता कि उसके ऊपर , उसमे मिली हुई कोई और तस्वीर और चेहरे हैं.. फिर दिखता कि कोई नया ख्याल पुराने को ढकता जा रहा है.. फिर दिखा कि नहीं पुराना वाला ही नए को अपने में समाये जा रहा है.. कभी दिखता कि धरती और आसमान के रहने वालों के ख्याल और  कल्पनाएँ जुदा जुदा हैं.. तो कभी वे आपस में मिलते और एकाकार होते नज़र आते... 

ख्यालों का सिलसिला यूँही चलता चला आ रहा है..

Sunday, 16 September 2012

मुझे कबूल नहीं

टुकडो में चलती सरकती ज़िन्दगी..

तुम्हारी दी हुई रोटी से  मेरी भूख नहीं मिटती.. तुम्हारे दिए पानी से मेरे गले की प्यास और भी बढ़ जाती है. 

तुम्हारे दिए हुए टुकड़े मेरे पसरे हुए आँचल का मज़ाक बनाते हैं और मैं कुछ नहीं कर पाती..

तुम्हारे चलाये हुए रास्तों पर सिवा काँटों और पत्थरों के और कुछ नहीं मिलता.. इसलिए वहाँ पैर  अब जाना नहीं चाहते..

तुम्हारे हाथ मेरे गले पर कसते जा रहे हैं और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए प्रशंसा के कुछ शब्द कहूँ .. तुम्हारे लिए कोई गीत गाऊं.. नहीं ये नहीं हो सकेगा..

तुम्हारे पैर मेरा चेहरा कुचलते जा रहे हैं और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे आगे सर झुकाए श्रध्दा से खड़ी रहूँ .. नहीं अब ये भी नहीं हो सकेगा..

तुम्हारी बनाई इस  सल्तनत में मेरे रहने के लिए जो बाड़ा तुमने दिया है वहाँ अब मेरा दम घुटता है.. 

मेरे लिए जो टुकड़ा ज़िन्दगी का तुमने भेजा है वो मुझे अब कबूल नहीं है..

मुझे पता है कि तुमको मेरे कहे शब्दों से ऐतराज है पर मुझे भी तुम्हारे बनाये नियम कानूनों  से ऐतराज है..

मुझे रूसो के शब्द याद आते हैं .. "मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है लेकिन हर जगह जंजीरों में जकड़ा है"

तुमने भी मेरी ख्वाहिशों और तमन्नाओं पर अपने हुकुम की जंजीरें, बंदिशें और बंधन सजा रखे हैं...पर मैं  इस पवित्र बोझ को हमेशा के लिए उठा कर नहीं  चलना चाहती...

मैं तुमसे  रास्ता बचा कर चलती हूँ.. दूर, ज़रा हट कर ही निकलती हूँ.. पर तुम हर बार मेरे रास्ते के बीच में आकर खड़े हो जाते हो.. ये बहुत बुरी आदत है तुम्हारी .. रास्ता काटने की .. अपना  रौब और अपनी मर्ज़ी ज़ाहिर करने की आदत है तुम्हारी..

पर तुम आजकल  भूलने लगे हो कि  अब तुम्हारी ये आदतें, ये तरीके... मुझे विद्रोही बनाने लगे हैं.. बना चुके हैं.. पर तुम देखते नहीं क्योंकि देखने और सुनने को तुम्हारे पास समय और क्षमता नहीं ...

Thursday, 16 August 2012

सपनों के पंख

 सीता दरवाजे के पास खड़ी ध्यान से देख रही है.. आशिमा दीदी dressing टेबल के सामने खड़ी makeup  कर रही हैं..  टेबल पर और पास की शेल्फ्स में तरह तरह के कॉस्मेटिक्स और पता नहीं कौन कौन सी चीज़ें रखी हैं.. आशिमा की अलमारी आधी खुली है जिसमे टंगे कपडे, नीचे रखे जूते और कुछ बैग्स सब दिख रहे हैं.. 

"दीदी आपके बाल बहुत सुन्दर है, मुझे भी बताओ ना सुन्दर बालों का तरीका..?"
आशिमा हंसी, "रहने दे तेरे बस का नहीं इतना सब" .
"क्यों, क्यों नहीं .. आप बताओ ना, क्या लगाती हो चेहरे पर और बालों पर??"

"अरे ये सब बहुत महँगी चीज़ें हैं, जो कमाती है, सब इसी में उड़ा देगी क्या?"  ये जवाब आशिमा की माँ का था. 

"अच्छा सुन ये रख ले.." आशिमा ने सीता को कांच की चूड़ियों का सेट दिया..मैरून रंग की चमकीली बिंदियों वाली चूड़ियाँ. . सीता के चेहरे पर उन बिंदियों जैसी ही चमकीली मुस्कराहट आ गई..
माँ  ने आशिमा को देखा, आँखों में ही सवाल किया.. और एक बेफिक्र पर धीमी आवाज़ में  जवाब मिला.. "अब ये पुरानी हो गईं हैं और कितने महीनों से इनको पहना भी नहीं..फालतू जगह घेर रही हैं शेल्फ में."

सीता को इस वार्तालाप से  लेना देना नहीं.. वो चूड़ियों को पहन कर देख रही है... सामने आज का अखबार रखा है जिसमे जार्ज बर्नार्ड शा का एक कथन छपा है.. 
"कुछ लोग होते हैं जो चीज़ों को वैसा ही देखते हैं जैसी वे होती हैं.. फिर वे खुद से सवाल करते हैं कि क्यों मैं उन चीज़ों के सपने देखता हूँ जो कभी थी ही नहीं. उनका खुद से दूसरा सवाल ये होता है .. पर क्यों नहीं देखूं मैं ऐसे सपने...."

सीता भी फर्श पर पोंछा लगाते वक़्त  सोच रही है कि एक दिन उसके घर में कपड़ों से भरी अलमारी, ड्रेसिंग टेबल,  वो नरम फर वाले खिलौने,  रसोई में नए चमकते  बर्तन, और भी बहुत सारी चीज़ों होंगी..
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सुबह ८:१५ 
संजय  ने लगभग भागते हुए लोकल ट्रेन पकड़ी.. "आज तो  लेट हो जाता.."
ट्रेन में भीड़ थी हमेशा की तरह, कुछ जाने पहचाने चेहरे थे, हमेशा की तरह और उनसे आँखों ही आँखों में नमस्ते हुई , चेहरे पर सुबह की ताजगी वाली  मुस्कराहट आई .. हमेशा की तरह.. हमेशा का मतलब पिछले एक साल  से है..  ट्रेन भाग रही है, बीच बीच  में स्टेशन आता है तो रूकती  है फिर वापिस दौड़ना शुरू कर देती है और उसके साथ दौड़ता है संजय  का मन (अब ऐसा नहीं है कि हर रोज़, हर सुबह संजय  एक ही विषय पर सोचता रहता है पर आज यूँही मन भटक रहा है) ...याद आता है एक साल पहले का समय....ज़िन्दगी तब भी भागती थी, और उसके भागने की गति दुनिया की किसी भी सुपर फास्ट ट्रेन से ज्यादा हुआ करती थी. .. कोचिंग क्लास, IAS की तैयारी,  दोस्तों के साथ घंटों तक चलने वाले ग्रुप discussions ,  exams , साक्षात्कार और हर बार रिजल्ट का इंतज़ार.. और इन सब के बीच रीमा .. वहीँ सामने वाली बिल्डिंग के पांचवे फ्लोर वाले फ्लैट में...ख्वाहिशें, महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं .. यही तो हैं ज़िन्दगी की ट्रेन की गति का पेट्रोल.. खिड़की  के पास एक सीट खाली हुई, संजय जल्दी से बैठ गया.. ताज़ी हवा कि लहर ने उसे बाहर खींच लिया.. ट्रेन फिर से  भाग रही है उसका स्टेशन अभी दूर है और रंग बिरंगा landscape  पीछे छूट रहा है..    

..  अब ना वो समय लौटेगा, ना उसमे देखे  हुए सपने कभी पूरे हो सकते हैं.. रीमा भी अब ज़िन्दगी के अल्बम की एक पुरानी फोटो हो गई है.. गुज़रे वक़्त के एक टुकड़े का चेहरा.. कभी वक़्त साथ नहीं देता .. कभी ज़िन्दगी साथ नहीं देती  और कभी हम खुद भी अपना  साथ नहीं देते 

ट्रेन रुक गई है, स्टेशन आ गया है.. और संजय  का मन भी रुक गया है ..अब एक नया landscape सामने है, एक साल पुराना पर हर रोज़ रंग बदलता रास्ता..  दफ्तर पहुँचते ही किसी ने उसके सामने आज का अखबार रख दिया... अखबार के  किसी पन्ने पर वही शब्द हैं.. पर क्यों नहीं देखूं मैं ऐसे सपने...."

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I am not here to measure ages nor I want so.
and it is not my fault that I found a girls who is elder than me
who told you to come on earth five years before or who told me to come five years late." 

"one day down the lines u will laugh on your this childish act
  • this liking somebody on internet
  • developing some kind of  love for somebody whom u never met nor even heard her voice" 

    "what!!!! SOME KIND OF LOVE!!!!!! excuse me, what the hell do you think about me and my feelings?????

    • there is no as such feeling for u from my side
    • u could be a good frnd
    • but thats it.. nothing more..


    Ok..u go with your life,
    • U go damn lady
    • Who cares...
      Once u will see in life, that there is some life  even in this virtual world which is real.. not fake.. then you will realize.. till then leave..

सिद्धार्थ अपने  लैपटॉप स्क्रीन को देख रहा है.. एक विंडो में जीमेल है  और दूसरे में facebook   खुला हुआ है.. जीमेल पर जिस नाम की चैट बॉक्स खुली हुई है उसी नाम की प्रोफाइल facebook  पर ओपन है. सिद्धार्थ  को गुस्सा आ रहा है, खुद पर, उस नाम पर और  इस सब से ज्यादा इस पूरे किस्से पर.. क्या करे .. कैसे समझा सकता है, या समझ सकता है.. 
ज़िन्दगी बिलकुल नॉर्मल ट्रैक पर चल रही थी, सिद्धार्थ केरल के  एक छोटे  तटीय शहर में रहता है... कॉलेज तो घर से दूर है पर अक्सर वीकेंड पर घर लौट आता है.. और सब कुछ जैसा कि एक इंजीनियरिंग कॉलेज के एक नॉर्मल स्टुडेंट के साथ होना चाहिए वैसा चल रहा था.. पर पिछले कुछ महीनों से एक अब्नोर्मल चीज़  हो रही है.. सिद्धार्थ को प्यार हो गया है और वो लड़की दूर हिमाचल प्रदेश के किसी शहर में रहती है.  अब इसमें असाधारण ये है कि सिद्धार्थ कभी उस लड़की से आमने सामने नहीं मिला.. सिर्फ उसकी तसवीरें  देखीं हैं, उस से बातें की हैं, उसका लिखा हुआ पढ़ा है( उसके ब्लॉग पर)!!!!... इन्टरनेट पर!!!! ... सिद्धार्थ नहीं समझा सकता उस लड़की को  वो उसे  किसी चुम्बक की तरह अपनी तरफ आकर्षित करती है .. पर लड़की के अपने तर्क हैं, समझ है और सवाल है.. 
आभासी संसार की दूरी, वास्तविक जीवन की दूरी, उम्र की दूरी, अलग अलग संस्कृतियों की दूरी, भाषा की दूरी और इन सबसे बड़ी विचारों की दूरी.. पर फिर भी सिद्धार्थ का मन कहता है कि क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने..
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" कहा ना ये नहीं हो सकता, दिमाग से निकाल दे ये सब".
"पर क्यों??? क्यों नहीं.. आखिर कौनसा पहाड़ टूट जाएगा अगर मैं पढने के लिए  कहीं दूर जाती हूँ तो.??"
मीता की सहनशक्ति जवाब दे रही है..
"देख बेटा, समझने की कोशिश कर... अपने इतने बड़े परिवार में कभी किसी के बेटों ने भी इतनी पढ़ाई लिखाई नहीं की, ना कोई डिग्रियां ली.. घर से दूर जाकर कहीं पढने, रहने  की तो बात ही दूर है.. तुझे कैसे भेज दूँ.. लोगों को क्या जवाब देंगे?.. देख अब इस बात पर बहस मत कर, ये नहीं हो सकेगा.. बेटा अब तेरी शादी भी तो करनी है ना.. क्यों इतनी जिद कर रही है..बिटिया मान जा." माँ की आवाज़ में ना गुस्सा था, ना नाराज़गी बस एक कोशिश है मनाने की, समझाने की, अपनी मजबूरी और बंधनों को ज़ाहिर करने की.
"पर ये तो कोई कारण नहीं हुआ ना.. अगर उन्होंने कभी आगे पढने के बारे में नहीं सोचा तो इसमें मेरी क्या गलती?" 
"गलती तो किसी की भी नहीं....."
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  विचारों का कोई अंत नहीं दिख रहा.. कुछ  सवाल  मीता के  मन में उभरे  ..
"..क्या वो सपने देखना मना है, जिन्हें पहले किसी ने नहीं देखा.. क्या अपने लिए नए सपने देखना और उनके पीछे भागना गलत है ..??" 

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मैं एक दिन वर्ल्ड टूर पर जाना चाहता हूँ.. हवाई आइलैंड, अमेज़न के वर्षा वन, मध्य यूरोप, प्रशांत महासागर और अटलांटिक के खूबसूरत द्वीप... मैं एक दिन इन सब जगहों पर जाना चाहता हूँ.. और जाऊँगा भी." 

"लेकिन इस सब के लिए तो बहुत पैसा और दूसरे साधन चाहिए होंगे.."

"हाँ.." मनोज ने कहीं दूर देखते हुए कहा.. उसके चेहरे पर उम्मीदों की चमक थी, आँखों में चलते जाने की हिम्मत, लालसा और उन अनदेखी जगहों को देखने की उत्कंठा..

"तुम कहां जाना चाहती हो? " फिर बिना जवाब का इंतज़ार किये उसने आगे कहा.." मैं अपना देश भी घूमना चाहता हूँ.. एक रोड ट्रिप बिलकुल वैसी जैसी  फिल्मों में देखते हैं ना .. मैं भी ऐसे ही एक ऐडवेंचर  ट्रिप पर जाऊँगा.. लद्दाख से लेकर थार के रेगिस्तान तक.." फिर जैसे कुछ याद आय़ा और उसने किट्टू की तरफ देखा, किसी उत्तर या प्रतिक्रिया  की प्रतीक्षा में ..
"तुम साथ चलना चाहोगी..?" 
"हाँ क्यों नहीं, पर क्या ऐसा कभी हो पायेगा??" 
"हाँ.. ज़रूर.."
किट्टू भी अब किसी दूर क्षितिज की तरफ देख रही है.. सोच रही है.. कि क्या सचमुच कभी ऐसा होगा, अगर हाँ तो कैसा होगा वो सफ़र.. वो रास्ते और उस सफ़र के सहयात्री.. 
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दुनियादारी की सीख, सबक, परखा हुआ अनुभव और सलाह  ये है कि सपने देखना गलत नहीं और  सपने देखने भी चाहिए लेकिन सपने हमेशा सही चीज़ों के देखने चाहिए. नज़रों के भ्रम, आकाश-कुसुम या अपनी काबिलियत से बाहर की चीज़ के सपने देखना सिर्फ मन को बहलाना है..

पर फिर दिल सवाल करता है कि, क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने, आखिर चाँद मेरे धरती पर उतर कर क्यों नहीं आ सकता. कुछ देर के लिए ही सही, पर मैं आकाश-कुसुम को अपनी मुट्ठी  में थाम लूं, उसकी खुशबु और खूबसूरती को महसूस कर के देखूं... कौनसी बाधा है संसार की जिसे दूर नहीं  किया जा सकता, जिसे जीता नहीं जा सकता.. क्या इस संसार में चमत्कार नहीं होते..

तो फिर क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने जो मुझे अच्छे  लगते हैं...


Tuesday, 31 July 2012

Some Facts...कुछ अनदेखे, अनजाने सच

 सुबह आप नींद से उठते हैं और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या या तकलीफ अपने शरीर में नहीं पाते तो आप उन करोडो से ज्यादा भाग्यशाली हैं, जिनकी हफ्ते भर में मृत्यु होनी निश्चित है.

आपका कभी किसी  युद्ध से पाला नहीं  पड़ा, किसी कैदखाने की काली कोठरी में एकांतवास का नारकीय जीवन नहीं देखना पड़ा, किसी बात के लिए आपको उत्पीडन का कष्ट न सहना पड़ा हो या कभी भूख-प्यास से आपकी अंतड़ियों को दर्द और चुभन ना महसूस हुई हो तो आप उन पचास करोड़ लोगों से ज्यादा भाग्यशाली हैं जिन्हें  यह सब कहीं ना कहीं, किसी न किसी वक़्त रोजाना भुगतना पड़ता है..

अगर आप किसी धार्मिक  सम्मलेन या पूजा पाठ सम्बन्धी  किसी भी बड़े अनुष्ठान में बिना किसी बाधा के सम्मिलित होकर सुरक्षित निकल आते हैं तो आप दुनिया के लगभग तीन अरब लोगों से ज्यादा भाग्यवान हैं. 

अगर आपके फ्रिज में खाना भरा हो, आलमारी में कपडे सजे हों और आपके सर के ऊपर छत हो तो  आप विश्व के उन पचहतर प्रतिशत  लोगों से ज्यादा  सुखी हैं जिन्हें ये सब मयस्सर नहीं.

यदि आपके बटुए में कुछ रूपए हो, बैंक अकाउंट में पैसे हों और आपके घर में खुदरा पैसा रखने वाली तश्तरी भारी हुई हो तो आप विश्व के उन मात्र आठ प्रतिशत भाग्यशाली लोगों में से एक हैं जिन्हें यह सुख प्राप्त है. 

यदि आप उपरोक्त बातों को पढ़ कर समझ रहे हैं तो यकीन मानिए कि आप विश्व के उन करोड़ों ऐसे लोगों से भाग्यशाली हैं जिन्हें पढना नहीं आता .

अब आप खुद अपने भाग्य का मूल्यांकन करें कि आप खुशकिस्मत हैं या नहीं..

(read it in the July edition of "Aha Zindagi")






Monday, 30 July 2012

Preppy and I




Whenever I Read.. Watch... Listen... About the Hatred and the Cruelest Forms of Violence Against Humanity, Against Innocent People...the Unbearable Sufferings, The Torture, The Anguish and The Torment .. They Had Gone Through or Still Going Through....

That time thousands of questions storm my mind... a chill used to ran into my spine and at the same time I feel a restlessness in my blood, in my heart... 

Why The Earth, which was  meant to be a heaven for mankind is getting transformed into a place of insecurity and distress...a Hell of its own kind.. 

That time I used to talk with Preppy, about the Storms and the Chill..

प्रैप्पी  और मैं दिनभर, सुबह शाम .. बहुत सी बातें कहते और सुनते रहते हैं.  सूरज के जागने से लेकर, चाँद के सो जाने तक.. सुनते हैं .. सुनाते हैं .. अपनी खैर-खबर, दुनिया के हाल और चाल और वो सब भी जो कहीं नहीं कहा जा सकता, किसी को नहीं कहा जा सकता.. जो कह दें तो अपना अर्थ ही खो दे..  

प्रैप्पी और मैं दिनभर सुनते हैं सुनाते हैं, पूछते हैं, जवाब भी देते हैं.. पर कहने को तो एक शब्द भी नहीं कहा जाता.. जुबां कुछ नहीं  बोलती, खामोशी की  एक नदी अपने धीर गंभीर ऐश्वर्य के साथ, अपनी आवाज़ को अपने पसरे हुए आँचल में संभाले बहती जाती है..पर फिर भी कान सुनते हैं, दिमाग समझ लेता है, दिल जान जाता है..

मैं सवाल करती हूँ कि कहां खो गई  है..हमारे दिल से इंसानियत, मासूमियत, प्यार..

मैं फिर सवाल करती हूँ कि .. क्यों सब तरफ लोग इतने बेरहम और  बेदिल हो गए हैं.. 
क्यों लोगों की आँख का पानी सूख गया है?  क्यों इंसान के खून का रंग ही बदल गया है ? क्यों दिल की जगह एक ठन्डे बेजान काले से  पत्थर ने ले  ली है...  
What crime has been done and by Whom, for What the Punishment has been Served, Why the Right to Live, the Right to Live with Dignity has been snatched and that CRIME, that PUNISHMENT... वो अपराध और उसकी कभी ना ख़त्म होने वाली सजायें हर रोज़ तड़पती, बिलखती,  तार तार होती  सूखे ठूंठ जैसी आत्माएं पैदा कर रही है.. उन आत्माओं और उनके शरीरों पर लगे लाल, काले धब्बे गवाह हैं कि  शायद अगले कई जन्मों तक उन्हें इस सज़ा और  इसकी यातना से मुक्ति नहीं  मिलेगी.. कुछ जिंदा आत्माएं जो मुर्दा शरीरों में रहती हैं और कुछ मुर्दा आत्माएं जो जिंदा शरीरों में रहती हैं.....

  Why there is so much Anger and Cruelty..

Why there is so much Fear in people's hearts, Why there is so much Insecurity, Dubiety and Distrust..

Why some people on this earth (which was meant to be our beautiful home) .. are being deprived of their right to live.. to live a peaceful, safe and joyful life..

Why the Endless Greed, Avarice and Selfishness is Ruling the Brains and Hearts.. 

Why we are becoming so much harsh and self-interested that we don't want to share a small morsel of our bread with others.. a small part of our comfort and pleasure.. just a small chunk..

Why this beautiful earth, which was created as a cozy shelter of human race, which was once their sweet home... 

...is now turning into a island of hollow ground surrounded by fire flames, ashes and a sea of lava .. Lava that does not comes from a rocky volcano, but from the souls of people who are some how trying to breath in this world, trying to crawl to reach somewhere, a place where they can stand with a head high on shoulders and where the air would be full of hopes and happiness...

Why the time wheel of civilization has started moving into backward direction... 

Why the man who is the most brilliant creation of almighty is proving itself nothing but a barbarian, an animal whose hunger and thirst knows no satisfaction and fulfillment..    

Another big question that arises in my mind, is there anything called Almighty or God or a Supreme Power does exist in this entire universe? Or it is all some sort of beautiful Imaginations of our mind. I am calling it imagination because if someone with such powers and kindness in his/her heart(yes god can be either male or female.. we don't know anything exactly about it) then how he/she is  tolerating such a highest level of  injustice and cruelty. Why don't he/she tries to stop it, why don't he/she sends some sort of saviour or angel to help the humanity (our myths speak a lot about those angels). why don't he/she himself/herself takes an AVTAR (according to our Hindu mythology).. if all that said in our myths and in our religious books is correct then isn't this a right time  for him/her to step down on earth and to interrupt ... to Serve Justice, to Give Peace to the suffering souls.


But nothing as such happens.. people pray for relief, for help, for justice, for RESCUE... But Nobody listens.. nobody responds.. No hands come forward to take the responsibility...Why the great Almighty whose heart is full of  mercy and affection don't forward his/her hand to wipe out the tears of  their own children....???

But then, at very next moment, another thought strikes my mind.. why we should blame the GOD.. he/she has not created all this mess, he/she is not responsible for this, he/she did not tell us to kill each other or to snatch other's food. The Creator sent us on earth to make it a paradise of human being.. But what we have done.. Why One Need to Ask THESE QUESTIONS..


क्यों कुछ आँखें नम हैं, क्यों कुछ आँखों से बहता  पानी का  एक नमकीन दरिया उनकी जिंदगियों की  मिठास और जीवन्तता ही छीने जा रहा है... क्यों कुछ आँखों से  अब लाल रंग का पानी बहता है... क्यों ऐसा है कि कुछ आँखों का पानी सूख चुका है ... क्यों ऐसा है कि   कुछ  आँखें अब  रोना ही भूल गई है, पत्थर हो गई है.. क्यों??


Sunday, 1 July 2012

आदत पड़ जाती है, हम कभी भी आदत डालते नहीं पर फिर भी हमको बिना बताये, बिना इसका अहसास दिलाये ही अक्सर अलग अलग तरह की आदत पड़ जाती हैं, जिनको बाद में सुधारने, बदलने और छोड़ देने के लिए हम तरह तरह की कसरतें करते हैं. आदत कुछ भी, कैसी भी, कभी भीं.... हो सकती है. इस पर हमारा बस नहीं है. आदत चीज़ों की, आदत कुछ लोगों की, आदत कुछ रिश्तों की, आदत एक ख़ास तरह के व्यवहार की..अपने साथ, दूसरों के साथ, आदत अपेक्षाओं की और उनके हमेशा पूरे होते रहने की, आदत एक comfort zone की...

 आदत हो जाती है उपेक्षा और कठोरता की, आदत बाहरी दिखावे  और अंदरूनी छलावे  की..आदत पड़ जाती है  एक ढर्रे की.. 

एक आदत की आदत, आदतों की आदत...और भी राम जाने कौन कौन सी आदतें.. इन आदतों की गिनती करना बहुत मुश्किल है.. इनका कोई अंत नहीं.. इनके बिना हमारा काम नहीं चलता, हम चलाना भी नहीं चाहते.. हम चाहे जब तक इनको ऐसे ही चलाये रख सकते हैं..ना हम बदलेंगे ना हमारी आदतें ....फिर अक्सर ऐसा होता है कि आस पास के लोग हमसे किसी एक या बहुत सी आदतों को बदलने, सुधारने या छोड़ने के लिए कहते हैं..पर कोशिश करके भी आदत छूटती नहीं..

पर जब कभी कोई आदत छूट जाए, उसका नशा टूट जाए, उसकी लय ताल बिगड़ जाए,  उसके बिना काम चल जाए...एक दिन , कई दिन, काम चलने लगे लगातार... दिल उस से भर जाए, मन उस से उचाट हो जाए..  तो फिर उस आदत का कोई पता ठिकाना हमारी ज़िन्दगी में या  उसके आस पास बाकी नहीं रहता..उसका कोई नाम, निशान, पहचान,  कुछ नहीं बचता.. और फिर याद भी नहीं आता कि ऐसी भी कभी कोई आदत थी कि जिसके बिना काम नहीं चलता था... ऐसा भी कभी कुछ था कि जिसके बिना दिन नहीं गुज़रता था और शाम नहीं होती थी और चैन नहीं पड़ता था... कभी कभी आदत हमसे बेज़ार और हम आदत से परेशान हो जाते हैं ... 

पर कभी कभी कुछ आदतें वापिस लौट  कर आ जाती है जैसे कोई बेरंग लिफाफा या चिट्ठी जिस पर कोई पता नहीं लिखा या टिकट नहीं लगा हुआ इसलिए जहाँ से भेजी गई वहीँ वापिस आ गई यानि एक तरह का खोटा सिक्का जो अपने घर, अपने मालिक के पास  वापिस आ जाता है... ये सोच कर कि शायद फिर से रहने को जगह और चलते जाने के लिए कोई बहाना, कोई वजह फिर से मिल जाए.. और फिर से एक बार उन आदतों की, उन "दिनों" की फिर से शुरुआत हो जाए ..

"कुछ गुज़रा वक़्त, कुछ उसकी याद, कुछ उसके फीके पड़ते निशान, कुछ उसकी खींची हुई लकीरें जो अभी फीकी नहीं पड़ी हैं, कुछ उनसे जुड़ा, कुछ अलग होता हुआ सा,  कुछ पीछे छूटता हुआ सा,  उसे  फिर से पा लेने की ख्वाहिश, कुछ उसे रोक लेने की कोशिश, कुछ उसे फिर से महसूस करने की ख्वाहिश...कुछ है, कहीं है, जाने कहाँ खोया, कब खोया, कैसे खोया ..पर फिर से उसे ढूंढ लाने और बाँध कर रख लेने की ख्वाहिशें...  "

        

This Journey.. That Destination..


Be Vasco Be Columbus..

Solo goes the Marco Polo..

From Arctic to Antarctic…

Colorado to Volga..

Nile to Ganges..

Among Millions…Since the Ages… Alone Shines the “North Star”..

Discover The Destiny…. That Lies Beyond the Lofty Mountains and Sleeping Upon the Bed of Dark Woods…

Destiny… Playing with Roaring Stormy Waves, Calling Our Name to Touch the Untouchable, to Explore the Unknown, to See the Unseen…  

Discover The Path..  that will  lead us Towards the Bright Mornings and to those Calm Nights for which we are dreaming so far..


This Day.. That Morning, when the Sun will Shine on Our Sky and That Dusk when the Moon will Sprinkle Bright Rays on Our Earth..


This day.. This Time… The Momentum , The  Direction that will take us to Our Destination.. that is waiting to be Unveiled ..Since Ages..