Sunday 1 July 2012

आदत पड़ जाती है, हम कभी भी आदत डालते नहीं पर फिर भी हमको बिना बताये, बिना इसका अहसास दिलाये ही अक्सर अलग अलग तरह की आदत पड़ जाती हैं, जिनको बाद में सुधारने, बदलने और छोड़ देने के लिए हम तरह तरह की कसरतें करते हैं. आदत कुछ भी, कैसी भी, कभी भीं.... हो सकती है. इस पर हमारा बस नहीं है. आदत चीज़ों की, आदत कुछ लोगों की, आदत कुछ रिश्तों की, आदत एक ख़ास तरह के व्यवहार की..अपने साथ, दूसरों के साथ, आदत अपेक्षाओं की और उनके हमेशा पूरे होते रहने की, आदत एक comfort zone की...

 आदत हो जाती है उपेक्षा और कठोरता की, आदत बाहरी दिखावे  और अंदरूनी छलावे  की..आदत पड़ जाती है  एक ढर्रे की.. 

एक आदत की आदत, आदतों की आदत...और भी राम जाने कौन कौन सी आदतें.. इन आदतों की गिनती करना बहुत मुश्किल है.. इनका कोई अंत नहीं.. इनके बिना हमारा काम नहीं चलता, हम चलाना भी नहीं चाहते.. हम चाहे जब तक इनको ऐसे ही चलाये रख सकते हैं..ना हम बदलेंगे ना हमारी आदतें ....फिर अक्सर ऐसा होता है कि आस पास के लोग हमसे किसी एक या बहुत सी आदतों को बदलने, सुधारने या छोड़ने के लिए कहते हैं..पर कोशिश करके भी आदत छूटती नहीं..

पर जब कभी कोई आदत छूट जाए, उसका नशा टूट जाए, उसकी लय ताल बिगड़ जाए,  उसके बिना काम चल जाए...एक दिन , कई दिन, काम चलने लगे लगातार... दिल उस से भर जाए, मन उस से उचाट हो जाए..  तो फिर उस आदत का कोई पता ठिकाना हमारी ज़िन्दगी में या  उसके आस पास बाकी नहीं रहता..उसका कोई नाम, निशान, पहचान,  कुछ नहीं बचता.. और फिर याद भी नहीं आता कि ऐसी भी कभी कोई आदत थी कि जिसके बिना काम नहीं चलता था... ऐसा भी कभी कुछ था कि जिसके बिना दिन नहीं गुज़रता था और शाम नहीं होती थी और चैन नहीं पड़ता था... कभी कभी आदत हमसे बेज़ार और हम आदत से परेशान हो जाते हैं ... 

पर कभी कभी कुछ आदतें वापिस लौट  कर आ जाती है जैसे कोई बेरंग लिफाफा या चिट्ठी जिस पर कोई पता नहीं लिखा या टिकट नहीं लगा हुआ इसलिए जहाँ से भेजी गई वहीँ वापिस आ गई यानि एक तरह का खोटा सिक्का जो अपने घर, अपने मालिक के पास  वापिस आ जाता है... ये सोच कर कि शायद फिर से रहने को जगह और चलते जाने के लिए कोई बहाना, कोई वजह फिर से मिल जाए.. और फिर से एक बार उन आदतों की, उन "दिनों" की फिर से शुरुआत हो जाए ..

"कुछ गुज़रा वक़्त, कुछ उसकी याद, कुछ उसके फीके पड़ते निशान, कुछ उसकी खींची हुई लकीरें जो अभी फीकी नहीं पड़ी हैं, कुछ उनसे जुड़ा, कुछ अलग होता हुआ सा,  कुछ पीछे छूटता हुआ सा,  उसे  फिर से पा लेने की ख्वाहिश, कुछ उसे रोक लेने की कोशिश, कुछ उसे फिर से महसूस करने की ख्वाहिश...कुछ है, कहीं है, जाने कहाँ खोया, कब खोया, कैसे खोया ..पर फिर से उसे ढूंढ लाने और बाँध कर रख लेने की ख्वाहिशें...  "

        

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