
इस कहानी से मुझे भी कुछ याद आ गया, तीन लडकियां, एक बड़ी बाकी दोनों छोटी, जो बड़ी थी उसे कॉमिक्स पढ़ने का बहुत शौक था, इतना कि उसके तकिये के नीचे, चादर की सलवटों में कॉमिक्स, बालहंस, नंदन वगैरह छुपी हुई मिल जाती थी (ख़ास तौर पर जब वो बीमार पड़ती थी तब उसके चाचा और पिता उसके लिए ये कॉमिक्स लाया करते थे और चुपके से तकिये के नीचे रख देते थे कि कहीं माँ को पता ना चल जाए). दोनों छोटी लड़कियों के घर में कॉमिक्स तो दूर किसी किस्म की पत्रिका, पुस्तक का प्रवेश लगभग निषेध ही था. कॉमिक्स पर तो हर बच्चे का हक़ है, बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी और साबू, ताऊ जी और उनका रुमझुम, बालहंस की परी कथाएं और चम्पक वन के जानवर; ये सबके दोस्त है ना, मेरे, तुम्हारे और आपके भी तो .... और इसलिए वो बड़ी लड़की उन दोनों छोटी लड़कियों (जो सिर्फ दो कक्षा छोटी थी) को कॉमिक्स में पढ़ी हुई कहानियाँ सुनाया करती थी, सबसे ज्यादा उनको परियों की कहानिया अच्छी लगती थी, कभी कभी माइथोलॉजी से या राजा रानी और उनके राजकुमार और राजकुमारियों की भी कहानिया उठा ली जाती। कहानियों का सिलसिला चलता ही रहता था.
घर का कोई शांत कोना, जहां बड़े लोगों का आम तौर पर काम नहीं पड़ता और जहां बहुत छोटे बच्चे आकर तंग नहीं करते )अगर करें तो उनको किसी ना किसी बहाने से तुरंत रवाना कर दिया जाता था ) … ऐसी ही किसी कोने में घुस कर वो तीनो बैठती और कहानियों का सिलसिला चल पड़ता, एक एक कहानी कई दिनों तक चलती, सुबह स्कूल जाते समय कहानी सुनाई जा रही है, लौट रहे हैं तब भी बैग और बोतल सम्भालते कहानी का प्रवाह कायम है. ज़रा दोपहर की धूप कम हुई नहीं कि कहने वाली और सुन ने वालियां दोनों तयशुदा जगह पर हाज़िर। जब शाम रात में बदलने वाली होती तब दोनों घरों से आवाज़ आने लगती; और तब इंतज़ार होता कि कब "लाइट जायेगी" जी हाँ, बाकायदा कहीं से एक देवता ढूंढ निकाले गए जिनका काम था रात को लाइट गुल कर देना, उनको प्रार्थनाएं की जाती कि लाइट जाए और ज्यादा देर तक जाए ताकि वे लोग घर के बाहर गेट पर लटकते हुए अपना कहानियों का सिलसिला आगे बढ़ा सकें। अक्सर इन कहानियों का कोई विशेष सर पैर, आदि अंत नहीं होता था, कई बार तीन चार कहानियाँ एक में ही मिक्स कर दी जाती पर फिर भी ना तो कहानी सुनाने वाले को अपनी क्षमता पर कोई वहम हुआ और ना कभी सुनने वालियां बोर हुईं। यहाँ तक कि कभी कहानी के तर्कहीन या बेसिरपैर के गड़बड़ झाले पर भी कोई सवाल नहीं उठता था. श्रोता इतने धीर और एकाग्र होकर कहानी सुनते कि किसी भी बड़े लेखक या किस्सागो को जलन हो सकती थी.
उस बड़ी लड़की के इस कॉमिक्स के शौक को शायद ऊपर वाले का भी मौन समर्थन था क्योंकि बहुत जल्दी ही उसकी जान पहचान गली में कुछ आगे रहने वाली दो बहनों से हुई जो उम्र में तो उस से काफी बड़ी थी पर उनके घर के बेसमेंट में एक खज़ाना था. हाँ, उस बच्ची के लिए वो खज़ाना था; उस बड़े से हॉल में ढेर सारी बच्चों की पत्रिकाएं, कॉमिक्स, किताबे भरी पड़ी थी. वो अंकल भी उसे ढूंढ ढूंढ के रोज़ नई कॉमिक्स और पत्रिका देते। और आखिर एक दिन आया जब उस ख़ज़ाने का हर मोती, सोने चांदी का हर टुकड़ा उसकी आँखों और हाथों की यात्रा कर चुका था. मज़ा तो उस दिन आया जब, किराए का मकान ढूंढते हुए वो लड़की अपनी माँ और चाची के साथ जिस घर में पहुंची, उसे सिर्फ इसलिए पसंद किया गया क्योंकि वहाँ एक बड़ा शेल्फ कॉमिक्स से भरा था और मकान मालिक के बच्चे भी कॉमिक्स का शौक रखते हैं ऐसी खबर मिली।
पढ़ने का चस्का ऐसा था कि माँ कहती थी कि ये लड़की किताबे हाथ में लेकर पैदा हुई है.
निखिल सचान की कहानी के नानू और इस लड़की में अंतर सिर्फ यही है कि नानू को सुपर हीरो और उसकी सुपर पावर्स पर पूरा यकीन था लेकिन हमारी ये गुड़िया सुपर हीरो के बजाय चाचा चौधरी और बिल्लू पिंकी को ज्यादा पसंद करती थी; पर ये कहना मुश्किल है कि (पढ़िए याद करना ) गुड़िया को इनके अस्तित्व का विश्वास था या नहीं।