दृश्य 1
सड़क पर गाड़ियां भाग रही हैं, रुकने का थमने का वक़्त नहीं है अभी; ये सुबह के 9 - 10 के बीच का वक़्त है, सबको जल्दी है; कहीं ना कहीं पहुंचना है. मुझे भी तो पहुंचना है, सड़क के उस पार; कब से कोशिश कर रहा हूँ, बार बार दो कदम आगे बढ़ाता हूँ फिर जल्दी से पीछे हटता हूँ …
कैसे जाऊं सड़क के उस तरफ …??
दृश्य 2
"क्या बढ़िया मौसम है आज, इतनी अच्छी हवा चल रही है कि AC चलाने की ज़रूरत ही नहीं कार में. " खुद से ही बातें कर रही हूँ मैं, गाडी आराम से 40 - 45 की स्पीड पर भाग रही है और एफ एम पर मेलोडियस गाने चल रहे हैं. रियर मिरर में देखती हूँ, सिर्फ एक या दो bikers हैं और आगे सड़क लगभग खाली है. अचानक ब्रेक लगाना पड़ता है, एक कुत्ता एकदम से गाडी के सामने आ गया था. पीछे आ रहे बाइकर ने भी उतनी ही फुर्ती से ब्रेक लगाया और फिर मुझे घूरता हुआ पास से निकल गया. मैं अभी भी उस अचानक वाले क्षण से बाहर नहीं आ पाई हूँ और गाडी रोक कर खड़ी रही.
दृश्य 3
" शाम हो चुकी है और अब थोड़ी देर में अँधेरा भी हो जाएगा, पर गर्मी कम नहीं हो रही. बहुत प्यास लग रही है पर कहाँ पियूं पानी। " तभी देखता हूँ एक घर का गेट खुल रहा है, एक मोटी औरत अंदर जा रही है, एक कोई बुजुर्ग भी साथ है. मैं उनके पीछे जाता हूँ, मेरी बेचारी सी शक्ल और हड्डियों के ढाँचे जैसे शरीर पर उसे तरस आएगा ही, ऐसी उम्मीद है.
"हट हट, जा, शूुुु"
मैं कहीं नहीं जाता बस उसके पीछे पीछे घर के गेट पर जाकर खड़ा हो जाता हूँ.
"अरे पिंकू, एक रोटी देना, ये तो जा ही नहीं रहा."
रोटी ??? अरे मुझे रोटी नहीं चाहिए, मुझे प्यास लगी है., पर कोई सुनता ही नहीं
बुजुर्ग रोटी के साथ ब्रेड का भी एक टुकड़ा ले आते हैं, मैं फर्श पर रखे ब्रेड और रोटी को सूंघता हूँ फिर छोड़ देता हूँ . मैं अब भी उन्हें अपनी काली आँखों से देख रहा हूँ, गले की प्यास जैसे आँखों में समा गई है, मैं गर्दन हिलाता हूँ. याचना, उम्मीद, अपनी बात ना समझा सकने की मजबूरी और प्यास सब कुछ एक साथ अपनी आँखों से ही कह देना चाहता हूँ. पर वे नहीं समझे। कुछ देर खड़े रह कर बुजुर्ग भीतर लौट गए और दरवाजा भी बंद कर दिया। मैं अब गेट बैठ गया हूँ, कहीं जाने या पानी तलाशने की अभी मुझमे शक्ति नहीं है. गेट बंद है. बाहर सड़क पर कहीं बहते पानी या ठहरे पानी का कोई आसरा भी नहीं।
दृश्य 4
आज दो दिन से आसमान से लगातार पानी गिर रहा है, सड़कें, गलियाँ, कोने, किनारे सब जगह पानी भरा है. कहीं भी सूखी ज़मीन नहीं है,
दृश्य 5
आज उन लोगों ने मुझ पर पत्थर फेंके क्योंकि मैं चिल्ला रहा था; मैंने छोटा चूहा पकड़ा था, वो सांड मुझे सींग मारने की कोशिश कर रहा था ना इसलिए। बहुत ज़ोर से लग गई है, बहुत दर्द हो रहा है.
मैंने तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया है, पर बहुत नींद आ रही है, कहीं जाने की ताकत भी नहीं है.
अगले दिन सुबह
ये मेरे चारों तरफ क्या बिखरा पड़ा है ? ये तो मेरा ही कोई साथी है शायद .... खैर ऐसा तो अक्सर होता है सड़कों पर, कौन देखता है. अभी कोई बड़ी गाडी गाडी आएगी और इसे ले जायेगी ; पता नहीं कहाँ ले जाते हैं .... …
मुझे अब भूख नहीं लग रही, दर्द भी नहीं हो रहा, ठण्ड भी नहीं लग रही, बहुत गहरी नींद सोया मैं, अब चलूँ। अरे मैं खड़ा क्यों नहीं हो पा रहा … ये सब लोग मुझे बेलचे से कहाँ धकेल रहे हैं … ओह, हाँ कल रात ....
क्या पूछा आपने, मैं कौन हूँ ?? मैं कुतु हूँ, यहीं रहता हूँ.
8 comments:
bahut khub..
अपना अपना रोना तो हर किसी का है इस दौर में ... अच्छा लिखा ..
Bahut khoob lekh.....
बहुत सुंदर !
This is heart touching !
Awesome way to express what you think.
I liked it.
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I liked it.
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बहुत प्रभावशाली परिचय............समावेशी दृश्य!!
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