Wednesday 3 April 2013

"अफीम सागर " A Review

पिछले महीने एक उपन्यास पढ़ा "अफीम सागर " जिसके लेखक है अमिताव घोष .. अगर आप पहचान नहीं पा रहे तो इस उपन्यास का अंग्रेजी मूल संस्करण है " Sea of Poppies"  जी हाँ बुकर पुरस्कार के लिए 2008 में shortlist हुई  एक भारतीय किताब जो उन दिनों काफी चर्चित भी हुई  थी . किताब को पढने पर आप जान जाते हैं कि  चर्चा बेवजह नहीं थी।  अफीम समुद्र, घोष की आइबिस त्रयी यानी " Ibis Trilogy" की पहली कड़ी है और इस किताब को एक बार पढना शुरू करने पर इसे छोड़ना सच में मुश्किल है .. क्या कहा ? आइबिस क्या है .. आइबिस एक जहाज का नाम है .. कोई ऐसा वैसा जहाज नहीं .. अफीम का व्यापार करने वाला जहाज,  गुलामों को दक्षिण अमेरिका और यूरोप ले जाना वाला, उंनका व्यापार करने वाला जहाज। लेकिन गुलामों के व्यापार और दास प्रथा पर रोक लग जाने के बाद उस व्यापार को एक नया नाम मिला , एक नया जमा पहनाया गया ... गिरमिटिया का .. गिरमिटिया मजदूर जिनको दूर अफ्रीका, मारीशस और Caribbean द्वीपों में ले जाया जाता था .. पेट भर रोटी और वेतन का लालच देकर .. इनका नाम गिरमिटिया इसलिए पड़ा कि  उन मजदूरों के नाम कागज़ के "गिरमिट" ( agreement) पर लिख लिए जाते थे जिनसे आजीवन छुटकारा नहीं होता था.

इस किताब की पृष्ठभूमि है उन्नीसवीं शताब्दी का भारत (पूर्वी भारत), भारत में फैल चुका  ब्रिटिश साम्राज्य, अफीम का व्यापार और जिसे चीन में भी उतनी ही मजबूती से स्थापित करने के लिए  एक के बाद एक अफीम युद्ध लड़े  गए .. ये उपन्यास मुख्यत: प्रथम अफीम युद्ध से ठीक पहले की राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों को बयान करता है। इन युद्धों का उद्देश्य चीनी जनता  को "आज़ादी", "मुक्त व्यापार के लाभ" और एक "उन्नत और सभ्य  जीवन" से परिचित करवाना था जिससे वो अपने मंचू  वंश के तानाशाहों के कारण वंचित थे। और सिर्फ चीन ही नहीं, पूरी दुनिया में फैली ब्रिटिश कॉलोनियों में ब्रिटिश राज का औचित्य और ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा किये जाने वाले इस गिरमिटिया (कुली) व्यापार का मूल आधार था "इंसान की आज़ादी",  खासकर चीन में जहां अभी  यूरोपीय देशों और उनके व्यापारियों पर बहुत सारे प्रतिबन्ध थे, वहाँ इन व्यापारिक मिशनों का एक  काम ये भी था, "असभ्य और बर्बर देशों में सभ्यता का प्रकाश" फैलाना। और इस तरह अफीम महज एक नकदी फसल ही नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के झंडे को एक से दुसरे महाद्वीप तक ले जाने का साधन भी बना।  इस उपन्यास के ज़रिये अमिताव घोष ने अफीम के त्रिकोणीय व्यापार जो भारत से लेकर लन्दन और चीन में कैंटन तक फैला था उसके हर पहलू को हमारे सामने रखा  है। 


अफीम का व्यापार ब्रिटिश राज के लिए कितना महत्वपूर्ण था इसका अंदाज़ा उपन्यास के कुछ अंशों  से लगाया जा सकता है:

"कुछ ही वर्षों में अफीम से  होने वाला मुनाफा अमेरिका की पूरी आमदनी के बराबर हो गया है .. और अगर दौलत का ये स्त्रोत ना होता तो इस गरीब देश में ब्रिटिश शासन संभव होता ?" 


कप्तान चिलिन्गवोर्थ के शब्दों में, " मुझे यकीन है कि  इस युद्ध से हम में से कुछ को बहुत फायदा होगा लेकिन मुझे नहीं लगता कि  मैं या बहुत से चीनी फायदा पाने वालों में से होंगे .... फर्क बस इतना है कि  जब हम लोगों की हत्या करते हैं तो हम खुद को ये नाटक करने के लिए मजबूर कर लेते हैं कि  हमने ये काम किसी महान उद्देश्य से किया है और यकीन कीजिये कि  भलाई के इस नाटक को इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा". 

अफीम का महत्त्व उसके औषधीय गुणों के कारण भी था खासकर जब अफीम बच्चों के ग्राइप वाटर से लेकर narcotic , मोर्फीन और औरतों के इस्तेमाल तक अपने पैर पसार चुकी थी। इसलिए ऐसी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी जैसी चीज़ के  व्यापार के मार्ग में  बाधाएं कम से कम  आयें ये सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी था। इसी के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल जैसी उपजाऊ मैदानी इलाकों में सिर्फ अफीम की खेती पर जोर दिया गया, किसानो  को एडवांस देकर अनुबंध से बाँध दिया जाता कि  वे बगैर ज्यादा मुनाफे वाली लेकिन बहुत मेहनत  कराने वाली फसल यानी पोस्त  बोयें। उपन्यास हमें बताता है कि  समूचे पूर्वी भारत में अफीम का व्यापार पूरी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में था और ज़ाहिर है कि  ये उस वक़्त का सबसे  ज्यादा मुनाफा देने वाला व्यापार था जिसमे समाज का हर वो तबका जिसके पास निवेश करने के लिए थोडा भी पैसा था वो इसमें शामिल होना चाहता था। 
 उपन्यास के मुख्य किरदार हैं दीती, जैकरी रीड, बेंजामिन बर्नहैम, राजा नील रतन हालदार और एक फ्रेंच लड़की पौलेट। दीती  बिहार  के किसी दूर दराज के गाँव की निवासी है  जिसका पति गाजीपुर की सदर अफीम फैक्ट्री में नौकरी करता है और एक दिन अफीम का नशा ही उसका मृत्यु का कारण बना और उसके मरने के बाद की "बुरी परिस्थितियों" से बचने के लिए अपनी बेटी को अपने भाइयों के पास भेजकर दीती  खुद सती  होना चाहती है। लेकिन दीती  को बचा लेता है कलुआ, एक अछूत चमार जिसकी कभी दीती  ने मदद की थी और अब अपनी जाति  से बहिष्कृत  और अपने गाँव घर से भागे इन मुसाफिरों को किस्मत आइबिस पर ले आई है। और उनके अलावा भी कई लोग जिनकी गरीबी, भूख, बदकिस्मती या  थोड़े में कहें तो ग्रामीण भारत की नष्ट और बदहाल हो चुकी अर्थव्यवस्था की मजबूरी उनको काले पानी के पार मारीशस ले जानी वाली आइबिस पर ले आई है। 

दीती के शब्दों में "यही वो सितारा है जिसने हमें अपने घरों से उठाया और इस कश्ती पर  बिठाया। यही वो ग्रह  है जो हमारी  नियति पर राज करता है।" उपन्यास की भाषा में .. "ये वो नन्हा सा गोला  है जो प्रचुर भी है, सर्वभक्षक भी, दयावान भी और विनाशक भी, टिकाऊ भी और बदला लेने वाला भी। ये उसका शनि था।" 

एक किरदार है नील रतन हालदार, बंगाल की एक समृद्ध रियासत का राजा, तत्कालीन भारतीय समाज के  सबसे ऊपरी  और  सम्मानीय वर्ग का एक कुलीन सदस्य ...ऐसा व्यक्ति जो ह्न्दुस्तानी अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और भोजपुरी जैसी भाषाएँ आसानी से बोल सकता है और जिसकी अपनी रुचियाँ काफी परिष्कृत हैं ... एक उच्च वर्गीय ब्राह्मण जिसके परिवार ने पीढ़ियों से रसखाली  रियासत पर राज किया है। नील तत्कालीन भारत के शासक वर्ग के चरित्र को बहुत अच्छी  तरह पेश करता है .. ये वो वर्ग था जिसकी विलासिता, ऐशो आराम और शांत जीवन में अंग्रेज़ों  के आने और यहाँ का शासक बन जाने के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा सिवाय इसके कि  कल तक भारतीय व्यापारी इन हिन्दुस्तानी नवाबों के लगाए पैसों से व्यापार करते थे और अब अँगरेज़ ऐसा कर रहे थे. और निश्चित रूप से ये बड़े ज़मींदार अब अपनी विलासिता भरी जीवन शैली का खर्च उठा सकने और उसे बनाये रखने में भी  सक्षम नहीं रह गए थे लेकिन फिर भी उन्होंने इस से  कोई सबक नहीं सीखा ..नील के पिता के समय से समृद्ध हालदार परिवार ने बेंजामिन बर्नहैम के उभरते अफीम व्यापार (चीन के साथ ) में निवेश करना शुरू किया और बड़े पैमाने पर मुनाफे में हिस्सेदारी भी की लेकिन उनके खर्च उस आय से कहीं  ज्यादा थे जो अफीम से होती थी नतीजतन, रियासत को आर्थिक दिवालियेपन से बचाने के लिए नील ने बाज़ार से उधार लिया (निवेश के लिए)  और इसी  के सिलसिले में राजा नील रतन हालदार को जालसाजी के एक झूठे  मुकदमे में काले पानी की सज़ा दी गई (लेकिन जैसे कि  कहानी आगे बढती है और हमें पता चलता है कि  इस मुकदमे के पीछे  बर्नहैम ब्रदर्स एंड कंपनी  का उद्देश्य हाल्दारों की लम्बी चौड़ी ज़मीनें और समूची रियासत को अपने कब्ज़े में करना था)।  ...

 नील उस वर्ग में था जो मानता था कि  अंग्रेजी शिक्षा, दर्शन, ब्रिटिश तौर तरीके ( कांटे छुरी का इस्तेमाल) का ज्ञान और ऐसी ही दूसरी चीज़ें उन्हें इस देश के नए मालिकों के समान  बना देती हैं (अब ये और बात है कि  खान पान और रहन सहन में हालदार राजा पूरी सावधानी से प्रचलित छुआछूत के सभी मानदंड कठोरता से  मानते आये थे)   लेकिन जब उसके मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई तब उसकी ये मान्यताएं परिवर्तित होनी शुरू हुई ..ब्रिटिश न्याय प्रणाली जो बाहरी तौर पर समानता  और विधि के शासन के सिद्धांत पर आधारित थी उसमे भी कुछ वर्गभेद बन गए थे जिसके अनुसार खुद "अँगरेज़ और बर्नहैम जैसे लोग इस देश के नए ब्राहमण बन गए थे और जो बिना सजा के अपराध करने के लिए आज़ाद थे". 

नील का चरित्र मुझे पूरे उपन्यास में सबसे ज्यादा प्रभावी लगता है क्योंकि सबसे ज्यादा उतार चढ़ाव उसी के जीवन में आते दिखाए गए हैं ... एक कुलीन ब्राहमण राजा की  विलासी और आराम तलब ज़िन्दगी से उलट जेल के एक कैदी की ज़िन्दगी जहां उसे हर वो काम करना था जो शायद वो अपने बुरे से बरे सपने में या किसी बड़े से बड़े गुनाह की सजा के तौर पर भी नहीं सोच सकता था। जिसे जाति बहिष्कृत कर दिया गया और जेल में उसने खुद को शरीर और आत्मा दोनों से एक नए आदमी के रूप में ढलते देखा ..एक कैदी जिसकी नियति मार और गालियाँ सहना है. वो एक ऐसे इंसान के तौर पर सामने आता है जिसने मखमल की सेज जैसा जीवन भी जिया और बाद में नर्क की यात्रा भी की, लेकिन  इन सब के बावजूद उसके व्यक्तित्व में कहीं छोटापन नहीं आता। वो पहले से ज्यादा सशक्त और साहसी बन कर उभरता है. 

जैकरी रीड एक नीग्रो गुलाम  माँ और गोरे  अमेरिकन बागान  मालिक का बेटा  है, जो आइबिस पर एक  लकड़ी का काम करने वाले मिस्त्री के रूप  आया लेकिन  बहुत जल्दी ही हालात ऐसे बदले कि  वो जहाज का सेकंड मेट बन गया।  जैकरी "पक्का गोरा साहिब" नहीं है। उसकी खासियत ये है कि गोरे  लोगों के समाज का हिस्सा होने के बावजूद वो अपनी नीग्रो जड़ों से जुड़ा है और इसलिए उसे अपने अधीनस्थ लोगों से घुलने मिलने और उनका सुख दुःख बांटने में मुश्किल नहीं होती. लेकिन उसका परिचय सिर्फ इतना नहीं है .. उपन्यास के कुछ  और किरदारों की कहानी भी जैकरी से जुडी है और आइबिस तो खैर उसके जीवन में परिवर्तन लाने वाली सबसे बड़ी ताकत है ही।  

पौलेट लैम्बर्ट, एक फ्रेंच अनाथ लड़की जिसके पिता एक प्रसिद्द वनस्पति शास्त्री थे और जिनके गुज़र जाने के बाद अब वो  बर्नहैम परिवार के संरक्षण में रह रही है (जहां उसे उसकी नादानियों के कारण "पगली " नाम दिया गया).. पौलेट का चरित्र एक ऐसी गोरी मेमसाहब का है जो अपने आचार विचार, तौर तरीकों और परवरिश किसी भी दृष्टि से फिरंगी या यूरोपीयन नहीं है. वनस्पतियों, पौधों का ज्ञान और उनके प्रति लगाव उसे अपने  पिता से विरासत में मिला और किसी दिन एक बड़े से जहाज में नाविक की तरह दुनिया का  सफ़र करने की महत्वाकांक्षा उसे अपनी ग्रैंड aunt मैडम कोमरसन  से मिली। पौलेट एक स्वछन्द और  आज़ाद ख्याल लड़की है जिसे लगता है कि  उसका लड़की होना उसके किसी भी शौक या   बाधा नहीं होना चाहिए ( उसके शौक है,  गंगा किनारे के जंगलों में नई  नई  वनस्पति की खोज करना, नदी में तैरना या किसी जहाज के सबसे ऊँचे स्थान पर चढ़ना  और  वहाँ जोडू के साथ बैठकर सागर का नज़ारा देखना) जोडू उसकी भारतीय आया का बेटा  है, (इस आया ने उसके फ्रेंच नाम का भारतीयकरण कर के उसे "पुतली" नाम दिया),  जो पौलेट के लिए भाई जैसा है और इस अलग किस्म की परवरिश ने ही पौलेट का एक अलग व्यक्तित्व गढ़ दिया है. पौलेट के लिए बंगला बोलना और साड़ी  पहनना, मेमसाहिब की यूरोपियन फैशन वाली पोशाक पहनने से कहीं ज्यादा आसान है. 

जैकरी और पौलेट के बीच पनपने वाला प्यार दोनों की इस असाधारण पृष्ठभूमि का नतीजा था। 

जैकरी से जुड़ा  लेकिन अपनी अलग पहचान रखने वाला एक किरदार है बाबू नोब किसिन पांडर  का .. ये श्रीमान बर्नहैम कंपनी के गुमाश्ता है और मैकाले की थ्योरी ( भारतीय बाबू) से मेल खाते हैं। पर इनके जीवन का एक छिपा हुआ है पहलू हैं जो उनकी आध्यात्मिक गुरु माँ तारामोणी से और उनकी भविष्यवानियों से  जुड़ा है  और जिसकी वजह से बाबू नोब किसिन  ने जैकरी को भगवान् कृष्ण का अवतार मान लिया है और इसलिए उसके पीछे वे काले पानी के पार जाने के लिए वे भी आइबिस पर मौजूद हैं। 

अब अगर आप इस सारे विवरण को पढ़कर बोर हो गए हो और सोच रहे हो कि  ये उपन्यास तो आर्थिक  इतिहास की पाठ्य पुस्तक  को महज़ एक कहानी के तौर पर पेश कर रहा है तो रुकिए अभी  आप सेरंग अली और उसके लस्कर नाविकों से नहीं मिले हैं। अब पूछिए कि  ये कौन सी बला हैं .. लस्कर उन  नाविकों को कहा जाता था जो हिन्द महासागर के अलग अलग स्थानों ( चीनी, अफ्रीकी, मलय, तमिल, गोअन, अराकानी) से आते थे और समूहों में बंधे होते थे जिसका नेतृत्व कोई सेरंग करता था। इन की अपनी अलग खिचड़ी भाषा होती थी और इस खिचड़ी के कुछ उदाहरन ही काफी है ..  मेट को मालूम, डेक को तुतुक, स्टारबोर्ड को जमना और लार बोर्ड  को दावा कहा जाता था। सेरंग अली की भी  अपनी अलग खिचड़ी अंग्रेजी है जिसका अपना व्याकरण और वर्तनी है। ये भाषाएँ नीले समुद्रों पर ही बोली और समझी जाती थी और इसमें लगभग हर भाषा के शब्द शामिल रहते थे जो हिन्द महासागर के किसी भी तटवर्ती या पृष्ठ प्रदेश में बोली जाती हो. 

उपन्यास की एक बड़ी खासियत है कि  लेखक ने जहाज के अलग अलग हिस्सों का, उसके बनावट और उसके सञ्चालन और खुले समुद्र में जहाजी ज़िन्दगी का ऐसा सजीव विवरण दिया है कि  भले ही किसी ने अपनी ज़िन्दगी में कभी पानी के जहाज, नाव, कश्तियाँ वगेरह ना देखी  हो लेकिन इस उपन्यास को पढने के बाद उसका ज्ञान इन विषयों पर निश्चित रूप से बढ़ जाएगा। जैसे आपको पता चलेगा कि  पुलवार, पटेली, लॉन्ग बोट,  ब्रिगैनतीन, बजरा, डोंगी, समेत कई किस्म की नावें होती हैं। इसके अलावा अफीम की खेती, फैक्ट्री में उसकी छंटाई, खरीद से लेकर उसके प्रसंस्करण और अंतिम  उत्पाद तक की उसकी यात्रा का ऐसा दिलचस्प शब्द चित्र शायद ही कहीं और मिले ख़ास तौर पर जो कहानी के रूप में ढाला गया हो। 

दीती  का पूजाघर जो उसकी झोपडी से उठकर जहाज के एक कोने तक चला आया है .. जहां हर उस जीवित या मृत शख्स की तस्वीर बनाई जाती है जो उसकी ज़िन्दगी में बेहद महत्त्व रखते हैं और जिन्हें निरंतर याद किया जाना एक रिवाज है .. उसकी बेटी कबूतरी के अलावा उसके जहाज के साथियों जैसे पौलेट जैकरी, नील, बाबू नोब किसिन  इन सभी को  उसके पूजाघर में समयानुसार जगह मिलती गई (ऐसा फ्यूचर टेन्स में उपन्यास में बताया गया है .. ज़ाहिर है पूजाघर के बारे में ज्यादा डिटेल्स आप उपन्यास के दुसरे भाग में ही पढ़ पायेंगे). अब इसमें दिलचस्प ये है कि  इन सबका चित्र उनकी शारीरिक आकृति और विशेषताओं  के अनुरूप ही बनाया गया। जहाज पर सवार गिरमिटियों के सुख दुःख और उनका ये महसूस करना कि  जैसे जैसे वो समुद्र में आगे बढ़ते जा रहे हैं उतना ही वो अपनी जड़ों, अपने लोगों और अपनी धरती से कटते जा रहे हैं और अब "आइबिस" ही उनका पूर्वज है, जिसने उन्हें एक नया जन्म दिया है एक नई  दुनिया में लाकर, एक नई  ज़िन्दगी में प्रवेश दिलाकर। 

इस उपन्यास का कैनवास अफीम व्यापार और आइबिस के बहाने हमारे सामने  औपनिवेशिक शासकों की मानसिकता, ख़ास कर  "सफ़ेद जाति  का बोझ" के सिद्धांत, तत्कालीन समाज, अर्थव्यवस्था और इन सबके बीच आम भारतीय जनता की स्थिति जैसे मुद्दों पर फैला है। इसका उद्देश्य किसी की आलोचना करना नहीं बल्कि स्थितियां जैसी थीं उन्हें वैसा का वैसा  एक दिलचस्प कहानी के ज़रिये पाठकों तक पहुंचाना है।  


11 comments:

RAJANIKANT MISHRA said...

Its really a good read... Novel as well this review... Review is simpler than the novel... Next in triology are also good to read... Ghosh is the master craftman who gells the well researched hard facts with fiction.. I am a fan of him

Bhavana Lalwani said...

Thank u MIshra ji .. chalo kisi ne toh padhaa .. varna mujhe toh lagaa ki itni mehnat aur matha fodi sab bekar gai

मनीष said...

अच्छा प्रयास है भावना जी, पढ़ कर अच्छा लगा...
उम्मीद है निकट भविष्य में उपन्यास भी पढूंगा

विभा रानी श्रीवास्तव said...

main bhi aa gai (*_*)
aur Aapki Samikshaa padh kar Novel padhane ki utsuktaa badh gai ....
aap bahut achchhaa likhati hain .....
shubhkamnayen !!

Bhavana Lalwani said...

dhanywaad vibha ji .. aap ko apne blog par dekha kar bahut achha lagaa. thank u again :)

Bhavana Lalwani said...

finally aapka FRIDAY aa gaya .. thank u :)

Tamasha-E-Zindagi said...

लाजवाब ! सुन्दर पोस्ट लिखी आपने | पढ़ने पर आनंद की अनुभूति हुई | आभार |

कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

animesh joshi said...

achcha lekhte hai aap-
mai jodhpur mai ek kala ki masik patrika shuru karne wala hu,agar aap aapni koi lekh ya aur koi trah se judna jahe toh contact me-animeshjo@gmail.com

Bhavana Lalwani said...

dhanywaad tushar ji ..

Bhavana Lalwani said...

Thank u will sure talk to u

ashokkhachar56@gmail.com said...

bhot acha likha hai aapne..aabhinadn