Wednesday 3 August 2011

रेलवे स्टेशन का हिन्दुस्तान

रेलवे स्टेशन बड़ी अजीब सी जगह होते हैं ..यहाँ आप को हर तरह के लोग दिखाई देंगे ...ए सी क्लास के एलीट यात्रियों से लेकर जनरल  क्लास की आम जनता जिनके लिए कोई सही title मुझे अभी सूझ नहीं रहा. चाहे प्लेटफ़ॉर्म हो या स्टेशन के बाहर का हिस्सा या ट्रेन.. लगभग हर जगह लोगों की भीड़ होती है ..सबके पास बैग हैं और दूसरा सामान  है...सबको कहीं ना कहीं जाना है, सबको ट्रेन का इंतज़ार है... अकेले  या अपने परिवार या दोस्तों के साथ ...हर किस्म के लोग.... खूबसूरत, सजे धजे, महंगे लगेज लेकर खड़े लोग.... कुछ ऐसे भी लोग जो पहनावे से और चेहरे से मामूली पृष्ठभूमि के नज़र आते हैं  ....


 पर खैर... मुझे स्टेशन पर और भी बहुत कुछ दिखता है...मैं जितनी बार भी रेलवे स्टेशन पर जाती हूँ ...चाहे किसी भी कारण से ( कारण बहुत हैं...खुद कहीं जाना हो या किसी को स्टेशन लेने जाना हो या ..आपका मन हो कि अपना वजन तौल के देखा जाए इसके लिए  doctor के पास क्या जाना...वहीँ स्टेशन पर जो मशीन लगी है उसका एक रुपये में सदुपयोग किया जाए....) यानि कुछ भी कारण हो... तो वहाँ मुझे जो दिखता है  वो ना तो लेटेस्ट dresses , suitcase , bags  या handbag  होते हैं और ना  लोगों के सुन्दर चमकते  चेहरे  ...मुझे वहाँ प्लेटफ़ॉर्म पर या रेलवे स्टेशन पर वहीँ कहीं आस पास या थोड़ी दूर यहाँ वहाँ सोये या बैठे लोग दिखते हैं...बेहद गंदे, मैले कपडे पहने ..जो कुछ भिखारी से लगते हैं..कहीं कहीं  पर कुछ गेरुए कपड़ों में साधू सन्यासी जैसे दिखने वाले लोग, कहीं कुछ ग्रामीण वेशभूषा में भी होते हैं..जिनके पास काफी सामान होता है..पता नहीं उनको कहाँ जाना होता है...देर रात या सुबह जल्दी या दिन के भी वक़्त ऐसे लोगों को प्लेटफ़ॉर्म पर या स्टेशन के अन्दर बाहर देखा जा सकता है..

ट्रेन के अन्दर का नज़ारा भी हर डिब्बे के हिसाब से  अलग होता है..A C  क्लास के बंद दरवाज़े और काले कांच वाली खिड़कियाँ जहां से कुछ अन्दर का नहीं दिखता वहीँ जनरल  क्लास के डिब्बे जिनमे लोगों को खड़े रहने की भी जगह मिल जाए तो बहुत है, लोग कैसे भरे रहते हैं.. शशि थरूर ने सही कहा था "cattle class " उन्होंने जिस भी सन्दर्भ में कहा हो पर ये शब्द इस जनरल क्लास के लिए बिलकुल मुफीद बैठते हैं ..मैं कई बार सोचती हूँ  कि लोग कैसे इन डिब्बों में  लम्बी दूरी का सफ़र करते हैं... खैर ये अलग किस्सा है ....अब ज़रा नज़र डालते हैं उन लोगों पर जो आपको दिन के किसी भी वक़्त और ख़ास तौर पर  रात के समय  आपको स्टेशन के अन्दर बाहर या पुल पर या प्लेटफ़ॉर्म पर दिख जायेंगे...इनके चेहरे देखकर कुछ अजीब सा लगता है  ..क्या इनका कोई ठौर- ठिकाना नहीं है ...

इनमे हर तरह के  लोग दिखेंगे.. बूढ़े, जवान, औरतें , बच्चे ...अपने कुछ गठरी नुमा सामान का तकिया या बिस्तर सा बना के सोते हुए या यूँ आराम फरमाते हुए कि जैसे प्लेटफ़ॉर्म नहीं उनके घर का कोई आँगन या कमरा है.... बिलकुल बेफिक्र होकर लेटे हुए..जैसे कि आस पास की हलचल से इनको कोई वास्ता ही नहीं,  लोगों का आना जाना, ट्रेन का गुजरना, रेलवे के announcements ...ये सब इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते..यात्री कई बार इनके बहुत पास से ज़रा सा  खुद को बचा कर निकलते हैं तब भी शायद  इनको कोई फर्क नहीं पड़ता या पड़े भी तो बहुत हुआ तो आपको एक नज़र उठा के देखेंगे और आप खुद को बेवजह ही असहज महसूस करने लगेंगे या फिर अपना मुंह फेर लेंगे और हुआ तो दिल में सोचेंगे कि ये सरकारी सिस्टम एकदम नाकारा है ..ना साफ़ सफाई है स्टेशन  पर  ना इन फ़ालतू लोगों को यहाँ से  हटाने  का कोई बंदोबस्त..
  ...कई बार मन में ख्याल आता है कि आखिर इन लोगों को कहाँ जाना है..जाना है भी या नहीं ..ये लोग यहाँ इस तरह क्यों बैठे हैं ...इनका कहीं कोई घर या कोई ठिकाना नहीं है क्या ..शायद नहीं है..वरना यहाँ  इस तरह क्यों बैठे होते.. उनकी  ज़िन्दगी इसी तरह प्लेटफ़ॉर्म पर या स्टेशन के अलग अलग कोनो में यहाँ से वहाँ सरकते ही गुज़र जाती होगी ... पर उनमे से कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको  एक या दो दिन के लिए उस शहर में रुकना  हैं और प्लेटफ़ॉर्म से बेहतर रहने कि सस्ती और आसान  जगह उनके लिए दूसरी नहीं हो सकती.. कुछ ऐसे भी होंगे जिनकी अगली ट्रेन कुछ घंटों बाद आएगी इसलिए  वे लोग इंतज़ार कर रहे हैं ..लेकिन और भी बहुत से लोग हैं जो स्थाई रूप से शायद  स्टेशन पर ही रहते हैं ...

कई बार मैंने देखा है कि इन कोने में बैठे या सोये लोगों के साथ रेलवे कर्मचारी कैसे बेरहमी से पेश आते हैं..चाहे किसी सोते हुए को जोर से लात मार के जगाना या उनको कहीं एक कोने से मारते हुए हटाना.. ..एक घटना याद आ रही है, पता नहीं कौनसे स्टेशन पर देखा था ..कोई भिखारी सो रहा था स्टेशन के अन्दर वाले हॉल में ..तभी किसी रेलवे कर्मचारी की  नज़र पड़ी और उसने बहुत जोर से एक लात मारी उस सोये हुए इंसान की  पीठ पर और चीखते हुए उसे वहाँ  से जाने को कहा...वो ऐसा द्र्श्य था कि जिससे आँख फेर के निकलना मुश्किल लगा...लेकिन उसके बाद मैंने ऐसे कई और नज़ारे देखे हैं ..फिर चाहे वो दिल्ली  मेट्रो  स्टेशन की लिफ्ट में बार बार उतरते चढ़ते भिखारियों या मजदूरों के बच्चे हो ..जिन्हें कहीं जाना  नहीं होता बस लिफ्ट की  "सैर" करनी होती है...पर बहुत से  लोगों को ये पसंद नहीं आता कि ये सडकछाप बच्चे उनके साथ या उनकी तरह इस A C लिफ्ट में आये जाएँ..आखिर मेट्रो के लिए टैक्स हम देते हैं ..टिकेट हम खरीदते हैं..फिर ये लोग कौन हैं मुफ्त में इसका फायदा उठाने वाले..शायद यही वजह रही होगी कि एक दिन मैंने देखा एक अच्छा भला सभ्य सा  दिखने वाला आदमी उन बच्चों को गले से पकड़ कर  बुरी तरह पीट रहा था.. गालियाँ दे रहा था ...जाने क्या क्या कह रहा था ...

इन लोगों को देख कर लगता है कि भगवान् ने ज़िन्दगी तो  दी, इंसान भी बनाया, पर ये कैसी ज़िन्दगी . ,..कि जहां सारी दुनिया इन लोगों को नफरत से , वितृष्णा से या हिकारत से देखती है और ये लोग खुद अपने लिए क्या सोचते होंगे ....इस सवाल का जवाब मुश्किल  है..कभी ढूँढने की कोशिश नहीं की है .

ऐसा और भी काफी कुछ इन  रेलवे stations पर देखने को मिल जाएगा ...मसलन taxi ड्राईवर ..जो स्टेशन से बाहर आते ही आपको घेर लेते हैं ...अगर आप उस जगह पर नए हैं तो फिर इन taxi ड्राईवर कम guide से आपको कोई नहीं बचा सकता ...ऐसे में जब देर रात आप स्टेशन पर पहुंचे और taxi ढूंढ रहे हों तब आप आमतौर पर कोई बहुत भले या शरीफ दिखने वाले taxi ड्राईवर की उम्मीद नहीं करते ..ऐसा कहने के पीछे मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है उन drivers  के लिए..पर शायद उनका काम ही ऐसा है कि उनका चेहरा और भाषा सब उसी के अनुरूप हो जाती है ..

पर इस बार मैंने एक कुछ अलग सा देखा ...रात को ११:३०  बजे जब हम लोग ऑटो के लिए खड़े थे..उस वक़्त ..इतने टैक्सी वालों के बीच से  एक छोटा लड़का भी मुझे दिखाई दिया..उसकी उम्र रही होगी कुछ १५-१६ या १७ साल इस से ज्यादा तो नहीं होगी ..बेहद दुबला पतला ..कमज़ोर सा दिखता हुआ...रंग गोरा...चेहरे से बिलकुल साधारण या मासूम सा दिखता.. शायद एक झिझक सी या थकान  या ऐसा ही कुछ भाव  उसके चेहरे पर झलकता हुआ ...यकीन से नहीं कह सकती, पर आम तौर पर ऑटो वालों के चेहरे ऐसे नहीं होते  ...  एक नज़र देख कर यूँ लगेगा कि  हमारे आस-पड़ोस का ही कोई लड़का है ... काले रंग की या ऐसी  ही किसी और गहरे रंग की  पूरी बाहों की शर्ट और पैंट पहने हुए  .. ..गर्दन में मफलर लपेटा हुआ ..यानि पैर से लेकर गर्दन तक बिलकुल covered ...उसने आकर मुझसे  पूछा कि "ऑटो चाहिए" ...तब समझ आया कि वो ना तो यहाँ  किसी को लेने या छोड़ने आया है ना खुद उसको कहीं जाना है..वो यहाँ ऑटो  चलाता है ...


एक क्षण को  मैं हैरान रह गई  थी..इतना छोटा बच्चा..हाँ मैं तो उसे बच्चा ही कहूँगी ..ये क्या उसकी उम्र है इस तरह आधी रात को टैक्सी चलाने की .. अगर वो चुपचाप  यूँही एक कोने में खड़ा रहता तो कोई कह नहीं सकता था ये बच्चा ऑटो चलाता है ..पर निश्चित रूप से  उसकी कोई ज़रुरत है, कोई वजह है,  जो उसे  आम बच्चों से हट कर ये अलग ही काम करना पड़ रहा है..अब ये उसने अपनी पसंद से चुना है या जो रास्ता सामने आ गया वो ही ठीक है ..वाली बात हो गई..ये सब तो मैं नहीं जानती न पूछ  सकी कि भाई,  तुम ऑटो क्यों चलाते हो या और कोई काम क्यों नहीं करते या क्या तुम पढ़ते भी हो या तुम्हारा परिवार तुमसे कुछ नहीं कहता ..और भी ऐसे बहुत से  सवाल जो मन में  रह गए   ..ना मैंने उससे ये सब पूछा...पूछने की हिम्मत नहीं हुई या ज़रुरत महसूस नहीं हुई , ये कहना मुश्किल है ..पर मैं जितनी देर वहाँ खड़ी रही बस उस लड़के को देखती रही ..मेरी नज़रें उस पर से नहीं हट पा रही थीं...


और अभी भी जैसे वो चेहरा मेरी आँखों के सामने है..इतने दिन बाद भी अगर वो सामने आये  तो मैं उसे पहचान सकती हूँ. ...हम उसके ऑटो में  तो नहीं बैठे क्योंकि तब तक पापा ने कोई दूसरे ऑटो वाले से बात कर ली थी..पर रास्ते  भर  और घर पहुँच कर भी मैं उस छोटे से ड्राईवर के बारे में ही सोचती रही ..

कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है दुनिया जो हम देखते हैं  या देखना चाहते है ..वो उससे बेहद  अलग और बहुत सी विद्रूपताओं से भरी हुई है..जितना हम सोचते हैं या जहां तक हमारी  आँखें देख पाती है ...संसार का रंग और रूप उस सब से कहीं ज्यादा  बड़ा और भद्दा है ....पर इन सब काली भूरी मटमैली लकीरों के होते हुए भी हम दुनिया के इस कैनवास में अपने लिए कहीं से भी कैसे भी एक साफ़ सुरक्षित कोना बना ही लेते हैं..फिर इस बात से  कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि किस के हिस्से में कितना आया या आया भी कि नहीं ....

12 comments:

मनीष said...

अजीब होती है चालको की ज़िन्दगी ;
सफ़र भी रोज का है और जाना भी कही नहीं...

Bhavana Lalwani said...

thnks for such a quick response ..I am surprised and happy both.

mayank ubhan said...

Dont have much words to say...though ive seen this face of our society many times...bas ek line yaad aa rahi hai..."KOI KISI SE POOCHTA HAI KI AAP HITLER BANNA CHAHTE HAIN YA BUTLER" ..jawaab yeh tha.."SEEDHI SI BAAT HAI..PET BHARAA HO TO HITLER..AUR KHAALI HO TOH BUTLER"..gud work..Bhavana...

Bhavana Lalwani said...

@Mayank..tumne padha aur comment kiya thts enough for me..and the lines you have mentioned above are very true and suitable for everyone and in all conditions.

mayank ubhan said...

hey its my pleasure to read such good articles...especially wen they are frm SOMEONES DESK...keep the good work going...:)

RAJANIKANT MISHRA said...

हिंदी साहित्य में ललित निबंधों कि एक समृद्ध परंपरा है. उसी परंपरा से जुडती है ये रचना. अगर भाव का अनुपात, विश्लेषण या चिंता कि तुलना में बढ़ा दिया जाये तो और ही बात बने.

Bhavana Lalwani said...

Mishra ji..ab aapki taareef ke jawaab mein kya kahun....mujhe toh nahi lagta ki maine kuchh bahut aisa umda ya aisi unchi shreni ke kaabil likha hai..bas jo man mein aaya so likh dala..fir bhi dhanywaad

मनीष said...

Rajanikant bhaiya aise hi Prashashan me nahi aa gaye hai, bahut parishram kiya hai...
Shabdo ko tarashana koi inse sikhe.

Bhavana Lalwani said...

@manish...main aapse sahmat hun :)

Namisha Sharma said...

good work Bhavana.

मनीष said...

Achha nishkarsh hai par kuchh had tak nakaraatmak...
Ya shayad mujhe nakaratmak laga hai...

Bhavana Lalwani said...

Manish..thnks for reading again..