Saturday 3 August 2024

परिचय : अपरिचय

"यहां इतनी दूर तक आना और अब आगे ?" सवाल खुद से हो रहा है तो जवाब देने कोई दूसरा कहां से आएगा !! यह सोच कर ही खीझ होने लगी। यह क्या वाहियात आइडिया है, ऐसा फिल्मों में होता है या वो निठल्ले निहायत ही रोमांटिक किस्म के उपन्यासों में; असल जिंदगी में ऐसा कौन करता है ? 
और हो इंस्पायर इन इंस्टाग्राम और यूट्यूब वाली रीलों से। चले हैं साहब " फिर से शुरुआत करने" वह भी पूरे ड्रामेटिक तरीके से। 
इधर उधर नजर फेरी,  लोग एक दूसरे से बतियाने में मसरूफ़, कहीं कोई पूरा ग्रुप है जिनके शोर से दूसरे लोग बार बार उनकी तरफ तीखी नजरों से देखते हैं पर शोर मचाने वाले बेखबर या बाखबर अपना एक अलग संसारी बुलबुला रचने में मगन हैं; चाहे अस्थाई मगर रंग बिरंगा सा एक खूबसूरत मेमोरी !!! जिसे वे लोग जो आज इस समूह में एक साथ बैठे हैं , इस जगह, इस क्षण में वो सब लोग कल या उसके बाद का कल या उसके भी बाद का कल या और आने वाले बरसों के कल में इस जगह को, इस शोर को, इन ठहाकों और किस्सों को याद करेंगे। 
इतना सब सोचते सोचते फिर से खीजने वाली स्थिति हो गई। यह क्या अजीब ही ख्याल सूझ रहे हैं। फिर नज़र एक तरफ गई, यह लो रिमझिम हो रही है बाहर ;  अब जाते समय भीगने और रास्ते में कहीं ट्रैफिक या टूटे फूटे रास्ते में फंस जाने की फिकर होने लगी। 
" काहे की शुरुआत, यहां तो शुरुआत से पहले वापसी की फिकर है। कोई भरोसा है बरसात का , कब तेज हो जाए ; कब रास्ता ब्लॉक हो जाए बरसाती पानी से !!! "  
शुरुआत, फिर से, नए सिरे से, नई जगह से !!! नए चेहरे ? नया नाम ?? पुराना चेहरा, पुराना नाम, पुराना इंसान !!!! फिर नया क्या है ? नया विचार ? नया सवाल , नया जवाब ??  कितने ही प्रश्न, कितने ही ख्याल एक साथ बोलने लगे, शोर मचाने लगे। 
और फिर से नज़र इधर उधर भटकने लगी, अनजाने चेहरे और लोग; कोई परिचय या परिचित नहीं। क्या हर समय, हर जगह कोई परिचय की रस्सी या लाठी होना जरूरी है ? क्या इसके बिना आगे बढ़ा नहीं जाता ?
" क्या मैं यहां बैठ जाऊं ?"
" अं, इम्म " !!! 
" क्या मैं ? और कहीं जगह खाली नहीं है, इसलिए यहां ,,,," 
सामने एक अपरिचय है पर क्या इस अपरिचय से कोई परिचय निकलेगा ??
" अं, हां हां । बैठ जाइए"।
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" आप को कुछ ऑर्डर करना है ?" 
भीतर के ख्याल चुप हो गए।
" हां चाय और स्नैक प्लैटर"।"
"आपको अगर ये प्लैटर किसी के साथ शेयर करनी हो तो  मैं भी ब्लैक कॉफी के साथ "। 
शेयर ?? क्या ? परिचय ? परिचय की शुरुआत ?? अपरिचित ही रह जाने देने में क्या कोई हर्ज़ है ??  क्या बिना परिचय के कोई क्षण , कोई मेमोरी शेयर की जा सकती है ?? 
इतनी दूर, इस पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ इलाके के इस कोने में , इस रेस्टोरेंट में क्या कोई क्षण ऐसा मिल सकता है जहां से , जहां पर एक नया परिचय शुरुआत कर सकता है !!! क्या यह ठीक वही क्षण है जिसके लिए इतना रास्ता पार करके आना पड़ा ? 
यह तो निर्णय का क्षण है, परिचय या शुरुआत का नहीं। यह तो सोचा ही नहीं था!!! यह निर्णय वाला हिस्सा तो पहले से पता नहीं था !!! अब !!! 
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" लगता है बरसात तेज हो रही है। चलना चाहिए।"
" अभी इतनी भी तेज नहीं है, यहां तो ऐसी बारिश अक्सर ही होती है। थोड़ी देर रुक कर चलते हैं, कम से कम यह प्लैटर तो खत्म कर लें ।"
खाना महत्वपूर्ण है ? या रुकना ? या यह जो क्षण बीतता जाता है उसकी एक याद बुनते जाना महत्वपूर्ण है ?? यह फिर सवाल शोर मचाने लगे।
"क्या हुआ ? यह लो  एक केक स्लाइस, एक स्लाइस इस नई जान पहचान का ।"
"क्या यह जीवन का एक नया स्लाइस है ?"
"क्या, समझ नहीं आया ?" 
"अं अं, कुछ नहीं। यह  केक एकदम ताजा लग रहा है।"
"और लो।"
नए परिचय का स्लाइस !!!! जीवन का एक स्लाइस !!! पुराना कुछ नहीं ??? पुराना कोई नहीं ? सब नया !!! नया स्लाइस !!!!



Photo Courtesy : Google

Saturday 20 July 2024

कुछ कह लेने दो

तो अब आज क्या किस्सा कहा जाए ??? एक बात जो बार बार देखती हूँ लोगों के व्यवहार में , पता नहीं यह नया ज़माना है, टेक्नोलॉजी है या "new normal " ; यह है कि आदत पड़ गई है  क्षण क्षण में अपनी कही हुई बात बदल देने या सुबह से शाम तक कहे हुए शब्द ही बदल गए।  यह खुद को चतुर सुजान मनवाने और स्थापित करने का अजब ही सर्कस है।  ऐसी बोली भाषा जो तीक्ष्ण है बिना वजह के और जिसका उद्देश्य है "मेरी लकीर तुमसे ज्यादा लम्बी और ऊंचाई पर है "  .  अच्छा , यह कोई नैतिक शास्त्र का उपदेश या सामाजिक व्यवहार का कोई रोना पीटना नहीं है ; यह अनुभव है एक के बाद एक लोगों को वही तौर तरीके दोहराते देखने का जो समझ नहीं आता कि  करने वाले को क्यों अटपटा  नहीं लग रहा !!! यह जो फैशन बन गया है जमाने का चलन कि ऐसे बिना वजह की चतुरता या बुद्धिमानी का परिचय हर समय जब कोई कुछ पूछने कहने को आगे बढे कि तुरंत ही एक चतुराई का एक व्यवहार बरत लो। यह हद दर्जे  का खोखला और छिछला ढोल पीटना हुआ कि देखो मैं ऐसे भी या ऐसे ही व्यक्तित्व का इंसान हूँ , तुमसे जो बन पड़े सो कर लो, किन्तु करना नहीं अन्यथा मैं अपना भीतर का डर  और अनावश्यक संदेह संशय मिटाने खातिर कुछ और भोंडापन कर दिखाऊंगा।  
यह अपने ही भीतर का डर है, सूनापन है जिसके मारे इंसान अपने चारों और सुरक्षा घेरा या लकीर खींचने के फेरे में निरंतर एक या दूसरा जतन करता जाता है पर वह लकीर कभी भी पूरी नहीं होने पाती, सुरक्षा का भाव कभी भी पूरा नहीं आने पाता  क्योंकि जहां  आरम्भ ही उलटी चाल से हुआ तो मध्य और अंत तक बोलावा चलावा  सीधा कैसे होगा ??? यह तो जैसे ऐसा खेल है कि " चूंकि मुझे ऐसा लगता है या मुझे ऐसा विश्वास है कि मुझे सदैव ही चतुराई का प्रदर्शन करते रहना चाहिए  और उसे दुनिया दारी में  मनवाने के लिए एक सख्त सा लबादा ओढ़े रखना चाहिए  और आवश्यक होने पर पत्थर काँटा जैसा व्यवहार करने को तत्पर" .  
पर इतना सब सर्कस के करतब करके हम कहाँ जाकर रुकते हैं ?? वहाँ जहां हमारे आस पास सभी एक दुसरे के चतुर सूजन होने की परीक्षा लेने को हर समय तत्पर हैं या वहाँ जहां हर क्षण आदमी यह सोच सोच कर ही चौकन्ना है कि कहीं कोई गलती ना हो जाए और चतुराई मय भोंडी अकड़ के प्रदर्शित होने से ना रह जाए।  

और एक अजब खेल देखती आई हूं और अब तो जैसे देखते ही मुंह फेर कर दूर कहीं छिप जाने का मेरा मन होता है । क्योंकि यह खेल है लोगों का और मेरे लिए यह एक फांस को तरह है। लोग बड़ी ही सादगी और सहजता से सत्य के तालाब में झूठ का नाला मिलाते हैं और कभी झूठ के सागर में सत्य का जाल बिछाए रखते हैं।  यह एक स्थापित सामाजिक व्यवहार बन गया है। इसे हमने खुद स्वीकृति दी है, मान लिया कि अब यह सब चलता है।  यह झूठ का साथ हमारे रोजमर्रा के जीवन में इस तरह बन गया है कि अब हम मानसिक रूप से पहली अपेक्षा झूठ की रखते हैं और अंतिम अपेक्षा सत्य की।  और यह सच झूठ का खेला हम सबके जीवन के  हर सड़क, मोड़,  चौराहा, गली जेड पगडंडी में इतना seamless और smooth होता है जितना कि फिल्म के एक्टर्स की कॉस्मेक्टिक सर्जरी । उकता नहीं जाते लोग इस सब प्रपंच से;  पहले एक बात कहना फिर उसके विपरितार्थक दूसरी बात फिर दोनो ही बातों को अपनी अपनी जगह पर सही ठहराने, मनवाने और तर्कसंगत घोषित करने की एक पूरी कवायद। थकते नहीं लोग !!! 
मैं बरसों से यह सर्कस देख देख कर उकता गई हूं । दुनिया समाज के नजरिए की खातिर जान समझ कर भी आंख झुका लेती हूं कि कौन प्रश्न प्रतिप्रश्न करे। पर जब अपने निजी जीवन में भी मेरा वास्ता ऐसे झूठ के जाल से जब भी पड़ा, वह दुखदायक ही रहा । हर बार प्रण किया कि अब कभी किसी का झूठा थाल हमारे पाचन हेतु नहीं परोसने देंगे; पर फिर मंदबुद्धि और निरे मूर्ख भी ऐसे ही थोड़े ना कहलाए हैं !!! 

झूठ बोलना,, धड़ल्ले से बोलना, डंके की चोट पर झूठ बोलना और फिर उतना ही ऊंची आवाज और सीना तान कर कहना कि " हां तो, क्या हुआ !!! अब क्या कर लेंगे साहब आप हमारा !!! क्या कर लीजिएगा !!"  यह एक ऐसी बेहयाई और मानव को दी गई वाणी का अपमान है कि सोचती हूं यह जो ऐसे आज अभी इस क्षण में यह शब्द तुम्हारे मुंह से निकले और कुछ घड़ी बीतने बाद वह शब्द बदल गए या उन शब्दों का प्रयोग अन्य स्थान पर अन्य व्यक्ति के साथ भी ; क्या तुमको कभी अपना कहा हुआ कुछ याद नहीं आता या इस सारी उचित अनुचित की परिभाषा से परे जाकर मानव के बजाय कोई और प्रजाति बन गए हो ???  
यह सारे झूठ और चतुराई के लबादे आदमी ने अपनी अस्थाई और तुरंत के सुख खातिर ओढ़ रखे हैं। यह अपने ही भीतर की कमियों को स्वीकार ना कर पाने या अपने कामना की पूर्ति येनकेन कर लेने की स्थिति है, यह कभी ना पूरी होने वाली कथा है।  और जब एक का सुख दूसरे के सुख और आराम की सीमा रेखा को लांघ कर अपना सुख का दायरा दूसरे के आराम वाले स्थान में स्थापित करता है तब ???? 
सुख की नींद में मीत हमारे  देस पराए सोए हैं, सुख की नींद में" 
(  पंक्तियां एक मशहूर हिंदी गैर फिल्मी गीत से हैं)

Friday 19 July 2024

कुछ कहा क्या ??

लम्बा अरसा बीता जब मैं अपने ब्लॉग पर लिखा करती थी।  फिर अब अचानक से किसी ने याद दिलाया कि  " आपने अब अपना ब्लॉग डिस्कन्टिन्यूए कर दिया है। " और मैं जैसे नींद से जागी ; मुझे याद आया किस तरह लोग मेरे ब्लॉग पर लिखी हुई चीज़ों से मुझे आंक रहे थे , मुझे तौल रहे थे , मेरे बारे में अपने मुताबिक अनुमान /कयास / कल्पना बना रहे थे।  मेरे फेसबुक वाले ब्लॉग पेज पर लिखी हर बात को तौला और "समझा" जा रहा था। आखिर तब मैंने लिखना ही बंद कर दिया ; ना रहेगा बांस ना बजेगी  बांसुरी। और तब मैंने जाना कि "ना लिखना यानी ना कह पाने के बराबर है " . वह जो रुक गया था वह कीबोर्ड नहीं था , मन का प्रवाह था जिसे दुनियादारी के पैमाने पर बार बार एडजस्ट करने की कसरत चलती रही।  और यह कसरत कभी पूरी ना हुई।  कोई फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सप्प यूट्यूब उस लिखे की जगह ना ले सका। 
और अब याद आता है कि एक ज़माने में एक मित्र था जिसे मेरे ना लिखने की ही परवाह थी जो हर बार एक ही बात चिल्लाता था ; चाहे दो शब्द ही लिखो, चाहे किसी को अपशब्द ही कहो , चाहे कुछ बकवास ही लिखो पर लिखो. क्योंकि यही तुम्हारी आवाज़ है , तुम्हारा आनंद और मन का संगीत है।  
लेकिन तब वह मित्र मुझे "समझ" ना आये और आखिर "अमित्र" हो गए।  यह इस फेसबुक के ज़माने की भाषा है, "unfriend " . 

इन बीते बरसों में कितना कुछ था जो मैं कहीं नहीं कह सकी, किसी को ना कह सकी. अब भी नहीं कह सकती।  तो अब मन के संगीत का प्रवाह और  कीबोर्ड की खटर  पटर  का सामंजस्य बिठा लेने दो।  मैं अपने आस पास हर जगह देखती हूँ , लोग अपने मन की कह ही नहीं पाते ; क्योंकि हर क्षण कोई आपको सुन रहा है पूरी तन्मयता से ताकि आपको judge किया जा सके !!! जाना जा सके आपके बारे और सारे परदे , तहें और आवरण हटा कर देखा जा सके !!!
यहां मित्र कौन है ? मित्र , हितैषी या जिसको आप मान सकें मित्र ??? कोई एक इंसान जिसको आप कह सकें, सुना सकें , जिसके सामने बेपर्दा होने का डर या झिझक ना हो. जो आप पर कोई ठप्पा ना लगाए।  क्योंकि होता यही आया है कि जहां आप "नासमझ" हुए और बोलने कहने को दौड़े आये वहीँ आपको इमोशनली कमज़ोर मान लिए जाने में कोई कमी शेष नहीं रहती।  होने को यह भी हो सकता है कि यह बोल सकने की ख्वाहिश, कह सुन लेने की इच्छा आपको "निरा मूर्ख , दिन भर फुरसतिया और कूढ़ मगज़ " की उपाधि दिलवा दे !!!  होने को क्या नहीं हो सकता ??? 
आप चले थे "दिल का हाल कहे दिल वाला " और लोग कहें कि "अरे अरे यह कौन परेशानी का टोकरा आ गया ? अरे दूर हटाओ , इसकी छाया हमारे नाज़ुक सुख संसार पर ना आये।  
या इतना एक्सट्रीम ना भी जाएँ तो अगर आप उस व्हाट्सप्प वाले सन्देश प्रेरित हो गए कि " गर दिल खोल लिया होता दोस्तों के सामने तो आज,,,,,"   तब !! अच्छा बताइये , क्या सचमुच आपके मित्र हैं ? आपको लगता है कि आपके पास मित्र हैं, साथी हैं , संग बोलने बतियाने को एक ऐसा साथी जिसके दरवाजे पर बापर्दा या बेपर्दा के सवाल नहीं है ??? 
नहीं हैं ना।  
क्योंकि हम एक आदत में ढल गए हैं जहां विश्वास कर पाना और सरलता से मान लेना बेवकूफ होने का प्रमाण है।  हर समय अपने कवच को चाक चौबंद रखना और तीखी नज़र और प्रश्न करता दिमाग , संदेह से देखता दृष्टिकोण ; यह हम हैं।  यहां वही भला है जो या तो पर्दा बनाये रखे या जो परदे के पार की खबर रखे।  "खबर" रखना ही हमारी बैठक है, संगत है , हमारा तरीका है ; शेष सब व्यर्थ बचकाना और बालकों के खेल हैं।  यह बालक आप ही हँसते और आप ही रोते हैं , आप ही रूठते और मान भी जाते  हैं।  इनका यह "रोज का है " .  ना जाने कब आखिरी बार था जब हम सरल मन और सहज बुद्धि थे?  जब हर समय पक्ष विपक्ष का नहीं सोचा जाता था ? जब कोई छिपा हुआ विचार या राय नहीं बनाई जाती थी ? 

और इसीलिए , मेरा भी एक दुनियादारी वाला तजर्बा है कि अपने मन की तहें छिपा के रखिये कि हर इंसान आखिर एक साधारण औसत इंसान ही है।  औसत बुद्धि , औसत विचार श्रृंखला , औसत व्यव्हार और औसत प्रतिक्रिया।  इन औसत वाले इंसानों को दिल के सोने में खोट ढूंढने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती।  गर एक बार यह इज़ाज़त भूलवश दे ही दी तो तुरंत से एक्सेस  डिनाइड कीजिये।  मैं भी अपने मन के हाल अहवाल, हीरे और जवाहरात को औसत दिमाग वालों की महफ़िल का किस्सा नहीं बनने दे पाती।  इसलिए यह ब्लॉग ही साथी है।  
अब शुरुआत के लिए इतनी शिकायतें बहुत हैं।

Monday 21 February 2022

Goodbye My Dear Dream.



It has been a long time since I have preserved you in a corner of my heart. Today, I am bidding you a Goodbye. Goodbye my dear ... what shall I call you ??? I don't have any name for you; any title, not even a nickname . I have nothing to address you. If it had been in the old days, I might have called you with whatever name I wanted to; but now in this present moment, I am unable to find an identity for you. even a name... I can't give you because I am not supposed to do that. I am not eligible to do that. Are you laughing at my stupidity ? Are you mocking me ?? Are you having a mixed feeling of hatred and disgust ?? Or are you out of any feeling or emotion ?? I suppose, you have no time to think about it. You will let all this stuff go like you have never ever noticed it. Something that never happened nor it ever existed.  


You are a beautiful memory from my past that I liked a lot. but now the time has come for this memory to leave this corner of my heart, to withdraw  from the layers of my imaginations; imaginations that ran wild in my dreams. 

This memory of yours, from my past can not go any further; it can not stay in my present nor does it have any place in my future. I always knew that it is me who is holding on to this memory, this dream; nurturing it like someday it is going to be true. Wasn't I wrong ?? wasn't am I a fool in your eyes ?? 
Yes, the answer is in affirmation. Dear Preppy, I am letting you go; already knowing that you left a long long time ago ; still I kept the flames of hope alive.  I myself do not know why I did that ?? what was forcing me to hold on to that memory ... for a little while, for a little more. I questioned myself many times but couldn't find any answers. Maybe, there was never an answer to that question. 

However, I finally know, there is no Jennifer and no Preppy. They were a creation of my own imagination and now that imagination has lost its relevance completely. It took a lot of time to accept this fact but now it is accepted. Ah !! Do I sound like a sad old clingy woman ??? An old fading beauty fell for sweet words and flirty gestures. Am I such a  Down market low priced Item ??? 


 Naaah !!!!! 

You know, before Jenifer and Preppy there was Elizabeth; One day she declared " I am Nobody's Elizabeth. That Elizabeth is still here with all her glory and grandeur. Elizabeth can not and will not sell her dignity, her self-esteem for a mere preppy. A prep school boy who can't even tie his shoelace properly. Elizabeth was worth a Johnathan; just like Sumire Chan needed Momo more than anyone else and deserved nothing less than Hasumi san. 

I am also an Elizabeth, A Sumire Chan ... and I know there is no shop in this whole world, where a Preppy can find a Sumire let apart Elizabeth !!! but I still hope that if there is a preppy then he might have been able to find his jenifer. 

So, let me say this... You were a beautiful imagination for my stories and many of my writings; I always felt content after writing that stuff. In that way, thank you for being a part of my writing journey. And on he other hand, Thank you for teaching me this precious lesson of Life; it will always be there to never allow any Preppy to play & destroy the meaning of affection and warmness.

One last note: There is never an End... There is always a new beginning. Every End Brings A New Start.


Image Courtesy : Google 

Saturday 19 February 2022

अमेज़न के जंगल और शहर की सड़क

 भारतीय सड़कें कितना बड़ा दिल रखती हैं।  कभी लगता है कि सड़कें हैं या कोई इमामबाड़ा .... फल सब्ज़ी के ठेले, चाट वाले, घास बेचने वाले, फ़ास्ट फ़ूड वाले और भी पता नहीं, क्या क्या बेचने वाले के ठेले या स्ट्रीट काउंटर सड़क किनारे जगह बनाये एक परफेक्ट फ्रेम की तरह सुशोभित होते हैं।  अभी तो हमने सड़क किनारे या फुटपाथ पर या चौड़े डिवाइडर पर रहने, बसने या  सोने वाले भिखारियों का तो अभी तक  कुछ नक्शा ही नहीं निकाला !!! और इस सबके साथ, भारतीय सड़कों की स्थाई विशेषता जो अब कह लीजिये कि इन सड़कों की शोभा को बढ़ाते हैं या बिगाड़ते हैं, वो हैं खड्डे, टूटी फूटी सड़क के पत्त्थर, मिटटी और कीचड के टापू।  सडकों पर जो स्थाई रूप से गाय, कुत्ते समेत कई तरह के पशु प्राणी निवास करते हैं, उनकी संख्या का तो कोई हिसाब ही नहीं।    कितना संसार बसा हुआ है इन सड़कों पर।  इतने पर भी अपनी  शाही सड़कों पर हिंदुस्तान मजे से, पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा है।  बिना रुके, बिना ट्रैफिक सिग्नल की परवाह किये , बगैर ब्रेक लगाए; बस दौड़ रहा है।  "हर लिमिट की हाइट पर चढ़ के डांस बसंती " ( एक फिल्म का लिरिक्स)


सड़क के किनारे या सड़क पर ही दुकानें हैं, ढाबे हैं ; जिनका फैलारा सड़क तक खिंचा हुआ है।  कभी कभी मुझे लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था और राजनितिक व्यवस्था सब कुछ सडकों पर ही रहती - चलती है।  सड़क किनारे भिखारी अपने  परिवार सहित टपरों में या अकेले एक कम्बल लपेटे पड़े रहते हैं।  रैली, जुलूस, झांकी, प्रदर्शन, धरना यह सब भी सड़क पर चलता है. यहां तक कि जगह हो या ना हो लेकिन देवी देवताओं के थान, देवरे भी किसी चौराहे, नुक्कड़ पर जगह निकाल कर स्थापित कर दिए जाते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता। कहने का लब्बोलुआब यह रहा, कि एक भारत  ऐसा भी है कि जिसकी समस्त संरचनाएं, रचनाएं, ताने - बाने और जीवन व्यव्हार सब कुछ सड़क से जुड़ा है, सड़क पर  हो रहा है, सड़क पर चल रहा है।  हिंदुस्तान सड़क पर जी रहा है।  

सड़कें भी इस धीर गंभीर गुरुत्तर दायित्व को खूब समझती हैं।  इसलिए जैसे कैसे करके भी हर व्यवहार के लिए, हर रचना के लिए ( ईश्वरीय, मानवीय ) जगह बना ही देती हैं। कभी किसी को निराश नहीं करती।  यहां जगह ही जगह है ; इतनी  जगह कि राजा का महल भी एडजस्ट हो जाए ; बस अगर कुछ एडजस्ट नहीं होता तो वह है दिन ब  दिन बढ़ता ट्रैफिक !!!


अब यह सड़क की महिमा गाते गाते मेरी खोज पूर्ण दृष्टि जा पड़ी ऑफिस के परिसर में सब तरफ लगे पेड़ों पर, घर से ऑफिस आते जाते रास्ते में लगे पेड़ों पर।  यह पेड़ हैं या कोई दो मंजिला तिमंजिला बिल्डिंग।  इनकी ऊंचाई इमारत के बराबर ही है ; बस एक समस्या है, यह बेचारे ज़रा छितरे, पीले, सूखे, थके या एकदम उदासीन से मालूम होते हैं। इन्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे ये पेड़ जाने कब से यहां इस जगह पर ऐसे ही खड़े हैं, पड़े हैं, विराजमान हैं।  इनको इस आती जाती फानी दुनिया से कोई लेना देना नहीं।  गाहे बगाहे यह अपने आस पास नज़र डाल  लेते होंगे फिर वापिस अपनी ध्यानावस्था में तल्लीन हो जाते होंगे या सोचते होंगे कि आखिर यह क्या तमाशा दिन रात मचा रहता है; एक मिनट को भी शान्ति क्यों नहीं है ???  तो रोज सर्दियों के दिनों में  धूप  सेंकते वक़्त इन ऊँचे पेड़ों को देख कर अचानक से मुझे अमेज़न के वर्षा वन याद आने लगे।  अब पूछिए  कि अमेज़न के वर्षा वन और सड़क और पेड़ और घने जंगल ; इन सब में भला क्या कनेक्शन है ? या क्या हो सकता है ? खैर, सवाल है तो जवाब भी है; कनेक्शन तो खैर है।  

कनेक्शन इस तरह से है कि जहां आज सड़क है, शहर है, बस्ती है, वहाँ कभी जंगल था।  जहां आज जंगल है वहाँ आने वाले वक़्त में सड़कें होंगी, बस्ती होगी और ट्रैफिक होगा।  दूसरा कनेक्शन ये है कि सडकों पर धूप , धूल , धुंआ, मिटटी, कचरे के ढेर सब कुछ एक साथ फैला रहता है।  लेकिन ये जंगल और इनके पेड़ और इनकी हरी छतरियां धूप  को भी ज़मीन तक पहुंचने से रोक देती हैं. याद है, वर्षा वनों का एरियल व्यू !!! हरे पेड़ों के शामियाने  से ढंकी छुपी ज़मीन !!!  लेकिन फिर भी इन्हीं वर्षा वनों के कारण हमारी ये धरती सांस लेती है, इन्हीं जंगलों से पृथ्वी हरियाली कहलाती है।  


शहर के पेड़ों को जब देखती हूँ तो लगता है कि इनमें हरियाली की वैसी चमक नहीं है, यह प्रदूषण  या खर दूषण किसी ना किसी चीज़ के मारे हैं।  इनकी बिखरी डालियाँ, भूरी सूखी टहनियां, छितराई हुई पत्तियां और ज़मीन की तरफ झुकती सूखी मुरझाई हुई बेलें। हर पेड़ अपने आप में एक पोज़ है, एक एक्सप्रेशन है किसी इमोशन या इम्पल्स का। ऐसा लगता है कि हर एक पेड़ एक अलग अस्तित्व है, एक नाम है, पहचान है जैसे इंसान की नाम पहचान होती है वैसी ही। नाक नक़्श, डालियों का झुकाव या फैलाव, तने की छाल की रंगत और बनावट। क्या पेड़ों की भी कोई चॉइस होती होगी कि ऐसे नहीं वैसे दिखने चाहिए हमको या ऐसा क्यों दिखें, वैसे ही क्यों ना लगें हम !!! कुछ रंग ढंग का शौक !!! ऐसा कुछ होने की संभावना होती होगी क्या ??   Trees


 किस दिशा की तरफ देख रहा है ये पेड़ ? किस कोण त्रिकोण या चतुर्भुज या समकोण को नाप रहीं हैं इसकी टहनियां और इस पेड़ पर पलती  हुई बेलें ? हर पेड़ का अपना एक ढंग है, एक ढब है, एक कोई अंदाज़ है जिसमें एक कथा निरंतर कही जा रही हो।  आते जाते, गुज़रते सभ्यता के परिवर्तनों और विकास के प्रमाण हो सकने की कथा।  शहरों के पेड़, सड़क किनारे लगे पेड़, सिटी प्लानिंग के अंतर्गत बनाई गई ग्रीन बेल्ट ; यह सब हरियाली में गिने जाते हैं ; शहर की हरियाली  !!! पर फिर इस हरियाली में हरापन क्यों नहीं है ? यह सब्ज़ हरा रंग होने के बजाय पीला भूरा, चित्तीदार कत्थई रंग कहाँ से आ गया ? 

Image Courtesy : Google 

Blog Link : My Old Post on Trees 


Tuesday 15 February 2022

भद्र लोक वाली महिला

"An Exotic Woman, A Delusional Woman, asking for Attention."  This is how I would like to start  my Blabber.


कुछ दो या तीन बरस हुए मुझे मेरे जन्मदिन पर एक नोटबुक तोहफे में मिली, जिसका कवर देखते ही मेरा मन उस पर अटक गया।  और साहब यह लीजिये उस कवर पर जो तमाम तस्वीरों के ठीक बीच में एक ब्लैक एंड वाइट ज़माने की जो दो भद्र लोक वाली महिलाओं की एक क्लिप थी, उसका मैंने आदि से लेकर अंत तक का विश्लेषण कर डाला।  अगर आप कोशिश करें तो उस तस्वीर को गूगल पर भी तलाश कर सकते हैं ; दरअसल उस ज़माने में यानि अँगरेज़ साहबों वाले दिनों में इन्हें "नाच गर्ल्स" कहा जाता था।  आम जनता, रईस, ज़मींदार,  साहब बाबू लोग तवायफ और कंजरी वगैरह कहा करते थे।  तो पूछिए या सोचिये कि आखिर आज मुझको यह क्या फफूंद आन  पड़ी, जो मैं इस अजीब से मुद्दे को यहां घसीटे जा रही हूँ।  दरअसल इस नोटबुक के शुरुआत के पन्नों में पाकीज़ा फिल्म का एक क्लासिक रंगीन पोस्टर है और उस में फिल्म के बारे में तवायफों के बारे में कुछ अंग्रेजी में विवरण वर्णन है. बस वही वर्णनं मुझे क्लिक कर गया।  


यह कहता है, "An Elegant Companion and A Potential Lover, A Glamorous Woman; well versed in poetry, music and dance. And my fellow citizens, this is what a woman would become when she doesn't get married till a certain age. Everybody around her acquaintance, looks at her or treats her as an opportunity to grab for . But Nobody bothers to see her as An Ultimate Choice or An Only Option. What an Irony !!!!!!


लेकिन अब इस एलिगेंट कम्पैनियन की भी एक उम्र है, एक वक़्त है, उस वक़्त की दहलीज के पार ना कोई कम्पैनियन है ना कोई लवर है ना कोई पहचान।  केवल एक कांटेक्ट लिस्ट है मोबाइल में, मुंह चिढ़ाती हुई सी।  ये बताती हुई कि किस कदर फ़िज़ूल लोगों की भीड़ है दुनिया में ; और मोहतरमा आप भी इस फ़िज़ूल भीड़ का ही एक बेहद नामालूम सा हिस्सा हैं। 
अब फैसला करिये कि आपको क्या बनना है ? किसी पैसे वाले का एलिगेंट कम्पैनियन,  या एक delusional ग्लैमरस भद्र लोक की attention  seeker , attention giver !!!! क्या सोच रखा है ?? कहाँ से यह अल्टीमेट चॉइस वाला ख्याली पुलाव दिमाग में घुस गया ? ऐसी भी क्या एलिगेंट या पोटेंशियल हैं ? यहां देखो, गली गली, सड़क चौराहे पर पोटेंशियल वालों की भीड़ लगी है।  

कहीं कोई आपके exotic होने को आपका ध्यान खींचने का तरीका समझ  लेगा तो क्या करियेगा ? क्या जवाब  दीजियेगा ? क्यों अपना ही मजाक बनाने पर तुली हैं !!! कुछ अपने ओहदे का, समाज में जो नाम है उसका ज़रा लिहाज़ करिये।  ज़माने की शराफत से चलिए, किसी दूर पास के  रिश्तेदार के किसी बच्चे पर अपनी करियर की मेहनत वाली कमाई खर्च करिये, उसे अपना वारिस या उत्तराधिकारी मान ही लीजिये।  वह जेवर जो कभी आपके लिए गढवाये थे वह अब किसी रिश्ते की भांजी भतीजी के ब्याह में उसे पहना कर दुनियादारी की तारीफ बटोरिये। क्योंकि अब यही तो तकाजा है दुनिया का।  

Who Am I ; Who Are You ? 
One Whom I like, treats me as a scapegoat. The Another One I like Thinks I am A Delusional Woman asking for Attention; an impossible thing.

P.S. --- This is a Blabber and not a Serious Work. Smile. 




Friday 11 February 2022

हवा खाओ

 संसार  कथा -- भाग एक 


"आपको हवा खाने के लिए किसने कहा था ? दुनिया में खाने के लिए एक से एक बढ़िया पकवान हैं, व्यंजन हैं,  तरह तरह के फल और सलाद हैं।  शाकाहार से लेकर मांसाहार तक, फलाहार से लेकर पयाहार तक।  कोई कमी है भला !!! "
"बताओ !!! यह हवा खाने की क्या सूझी ?? " 

"और अब देखो गले में हवा भर गई ना।  और ये कि अगर साधारण तापमान वाली हवा खाई  होती तो फिर भी कुछ ठीक था।  लेकिन यह ठंडी सूखी शीत लहर वाली हवा खाने को किसने   कहा ?"
"और फिर उसका संतुलन या एडजस्टमेंट बिठाने को यह हीटर की हवा खाने की सलाह किस समझदार  नासपीटे ने दी ?"

"वो मिंटू ने कहा कि थोड़ी देर हीटर चला के बैठ जाओ तो ठण्ड का असर कम हो जाएगा और शरीर नार्मल फील करेगा। "
"नास जाए इस मिंटे का।  निकम्मा दिन भर मोबाइल पर जाने क्या आँखे फोड़ता है।  और अब तुम्हें वही उलटे सीधे नुस्खे बता रहा।  अरे तुम तो इतनी उम्र हुए, अब क्या इस घास के टोकरे से मौसम की संभाल करना सीखोगे ?"  

"और कहे देती हूँ, आजकल अगर हवा खाने की इच्छा इतनी ही ज्यादा हो रही है तो साफ़ सुथरी sanitized मास्क वाली हवा ही खाओ।  अगर कहीं तुम कोरोना और उसके रिश्तेदार ओमीक्रॉन को घर ले आये तो याद रखना तुम्हें ही टप्पर समेत घर से बाहर क्वारंटाइन कर दूंगी. समझ रखना।"



संसार कथा -- भाग दो 

"तुम्हें पूछना तो चाहिए था, कि आखिर पत्थर खाने की क्या सूझी ?" 
"यह कोई भले आदमियों का काम है कि कंकड़ पत्थर खाते रहे ?? फिर अब क्या रहा ?"

"ऑपरेशन आज हो गया और कह रहे कि अब चिंता  फ़िक्र की कोई बात नहीं है।  तीन दिन बाद छुट्टी दे देंगे।  बाकी खाने में परहेज कही है।  ख़ास तौर से सब्ज़ियां बार बार धोकर ही रांधनी  हैं ;  चावल, दलिया,  चिवड़ा भी अच्छे से साफ़ करके ही पकाने होंगे और कच्ची सब्ज़ी या पत्ते वाली सलाद नहीं खानी। " 

"लो यह नया नखरा सम्भालो।  मैं कहती हूँ कि आखिर इतने पत्थर खाता  ही क्यों था ?" 
"यह सब बचपन की आदतें हैं, मिट्टी, स्कूल की चॉक और बाटा  पेन्सिल,  दीवार का चूना और प्लास्टर खाने की आदत पहले से ही रही होगी। " 

"हाँ, ब्याह के वकत बताये नहीं होंगे और अब पेट से पत्थर पहाड़ निकल रहे। "