जब मशीन में कपड़े ज्यादा डाले जाते हैं कि कम समय और कम पानी के राउंड में ज्यादा कपड़े धुल जाएं ; पर मधीन भी चालाक है। यह पहले कपड़ों को तोलती है, उनका वजन लेती है फिर उस अनुपात में धुलने का समय तय करके टाइमर दिखाती है। माने अगर आप हमारी तरह ऐसे किसी क्षेत्र में रहते हैं जहां पानी की समस्या बनी रहती है तो निश्चित रूप से आप तीन राउंड वाले पानी की सेटिंग का प्रयोग नहीं करना चाहेंगे । बजाय इसके आप कपड़े ही कम कर देंगे।
अब वाशिंग मशीन की अगली कलाकारी देखिए, अगर पानी का लेवल तय सीमा से ज्यादा हो गया तो नहीं चलेगी, अगर कम हो गया तो भी नहीं चलेगी। आप करते रहिए बटन की टिक टिक, यह नहीं चलेगी मतलब नहीं ही चलेगी। आप एक दो कपड़े बाहर निकलेंगे, यह सोचकर कि क्या मालूम अब चल जाए, अब मशीन में वजन कम हो गया। पर यह फिर भी अटकी ही रहती है। तब तक जब तक कि सभी सेटिंग इसके खुद के मॉड्यूल के हिसाब से सही ना हो।
थोड़ा सोचिए कि वाशिंग मशीन और हमारा जीवन भी कुछ मिलता जुलता है। कितनी अपेक्षाओं, आकांक्षाओं और उपेक्षाओं का ढेर हमने भर रखा है मन की टंकी में। प्रतिक्षण किनारे तक भरी हुई और क्षण क्षण रीतती हुई मन की टंकी । इसका पानी का लेवल सही बना रहे इसके लिए अथक प्रयासों का बिलोना करता हमारा शरीर, मन और प्राण। पता ही नहीं चलता , कब पानी ज्यादा भर गया तो मशीन अटक गई, पानी कम पड़ गया है तो भी अटक गए।
और मजेदार किस्सा ये कि दूसरे के जीवन की टंकी बिलकुल बराबर भरी और सही काम करती दिखती है। बस हमारी ही बार बार अटक रही।
मशीन की सेटिंग में क्या गड़बड़ है ??? कौन बताए ?
यह पानी क्या है ? यह वो अपेक्षाएं हैं , आशाओं के झूलते सिरे हैं जो किसी दूसरे तीसरे से जुड़े हैं। और इसलिए अक्सर कम ज्यादा या आधे अधूरे पड़े हैं। इस पानी के लेवल को बराबर कर सकना अपने मन का होता तो मशीन अटकती ही क्यों ? और अटक ही गई है तो वापिस कैसे चले !!!
मशीन लोहे स्टील की है, बिजली से चलती है, उसमे कोई एक सॉफ्टवेयर प्रोग्राम सेट है, इसलिए वह चलेगी अपने हिसाब से। हमारा इंसान का हार्डवेयर सॉफ्टवेयर सारा कुछ ही इधर उधर के रस्सियों तारों से अटका है। यह सॉफ्टवेयर अपने मन का होते हुए भी दूसरे के मन और दूसरे के करने धरने से ज्यादा चलना पसंद करता है। और इसलिए पानी से बनी अपेक्षाएं बनती हैं, बहती हैं और बिगड़ती हैं। फिर अपेक्षा से आगे उपेक्षा वाले स्टेज पर पहुंचते हैं। उपेक्षा भी इसलिए कि सेल्फ रिस्पेक्ट और मान अभिमान का बिलोना करके अब कुछ शेष बचा नहीं। इसलिए कुछ समय उपेक्षा के खारे पानी से काम चला लेते हैं। लेकिन फिर खारा पानी हमारे मन को भाता कहां है। फिर अपेक्षा का मीठा पानी तलाश करने निकल पड़ता है।
और यह अपेक्षा, आकांक्षा और उपेक्षा की मशीन ऐसे ही चली चलती है। जब तक अपेक्षा का पानी पूरा भरा रहता है तब तक सारे सॉफ्टवेयर सही हैं जब उपेक्षा का पानी आने लगे तो ,,,,,
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