और अब याद आता है कि एक ज़माने में एक मित्र था जिसे मेरे ना लिखने की ही परवाह थी जो हर बार एक ही बात चिल्लाता था ; चाहे दो शब्द ही लिखो, चाहे किसी को अपशब्द ही कहो , चाहे कुछ बकवास ही लिखो पर लिखो. क्योंकि यही तुम्हारी आवाज़ है , तुम्हारा आनंद और मन का संगीत है।
लेकिन तब वह मित्र मुझे "समझ" ना आये और आखिर "अमित्र" हो गए। यह इस फेसबुक के ज़माने की भाषा है, "unfriend " .
इन बीते बरसों में कितना कुछ था जो मैं कहीं नहीं कह सकी, किसी को ना कह सकी. अब भी नहीं कह सकती। तो अब मन के संगीत का प्रवाह और कीबोर्ड की खटर पटर का सामंजस्य बिठा लेने दो। मैं अपने आस पास हर जगह देखती हूँ , लोग अपने मन की कह ही नहीं पाते ; क्योंकि हर क्षण कोई आपको सुन रहा है पूरी तन्मयता से ताकि आपको judge किया जा सके !!! जाना जा सके आपके बारे और सारे परदे , तहें और आवरण हटा कर देखा जा सके !!!
यहां मित्र कौन है ? मित्र , हितैषी या जिसको आप मान सकें मित्र ??? कोई एक इंसान जिसको आप कह सकें, सुना सकें , जिसके सामने बेपर्दा होने का डर या झिझक ना हो. जो आप पर कोई ठप्पा ना लगाए। क्योंकि होता यही आया है कि जहां आप "नासमझ" हुए और बोलने कहने को दौड़े आये वहीँ आपको इमोशनली कमज़ोर मान लिए जाने में कोई कमी शेष नहीं रहती। होने को यह भी हो सकता है कि यह बोल सकने की ख्वाहिश, कह सुन लेने की इच्छा आपको "निरा मूर्ख , दिन भर फुरसतिया और कूढ़ मगज़ " की उपाधि दिलवा दे !!! होने को क्या नहीं हो सकता ???
आप चले थे "दिल का हाल कहे दिल वाला " और लोग कहें कि "अरे अरे यह कौन परेशानी का टोकरा आ गया ? अरे दूर हटाओ , इसकी छाया हमारे नाज़ुक सुख संसार पर ना आये।
या इतना एक्सट्रीम ना भी जाएँ तो अगर आप उस व्हाट्सप्प वाले सन्देश प्रेरित हो गए कि " गर दिल खोल लिया होता दोस्तों के सामने तो आज,,,,," तब !! अच्छा बताइये , क्या सचमुच आपके मित्र हैं ? आपको लगता है कि आपके पास मित्र हैं, साथी हैं , संग बोलने बतियाने को एक ऐसा साथी जिसके दरवाजे पर बापर्दा या बेपर्दा के सवाल नहीं है ???
नहीं हैं ना।
क्योंकि हम एक आदत में ढल गए हैं जहां विश्वास कर पाना और सरलता से मान लेना बेवकूफ होने का प्रमाण है। हर समय अपने कवच को चाक चौबंद रखना और तीखी नज़र और प्रश्न करता दिमाग , संदेह से देखता दृष्टिकोण ; यह हम हैं। यहां वही भला है जो या तो पर्दा बनाये रखे या जो परदे के पार की खबर रखे। "खबर" रखना ही हमारी बैठक है, संगत है , हमारा तरीका है ; शेष सब व्यर्थ बचकाना और बालकों के खेल हैं। यह बालक आप ही हँसते और आप ही रोते हैं , आप ही रूठते और मान भी जाते हैं। इनका यह "रोज का है " . ना जाने कब आखिरी बार था जब हम सरल मन और सहज बुद्धि थे? जब हर समय पक्ष विपक्ष का नहीं सोचा जाता था ? जब कोई छिपा हुआ विचार या राय नहीं बनाई जाती थी ?
और इसीलिए , मेरा भी एक दुनियादारी वाला तजर्बा है कि अपने मन की तहें छिपा के रखिये कि हर इंसान आखिर एक साधारण औसत इंसान ही है। औसत बुद्धि , औसत विचार श्रृंखला , औसत व्यव्हार और औसत प्रतिक्रिया। इन औसत वाले इंसानों को दिल के सोने में खोट ढूंढने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती। गर एक बार यह इज़ाज़त भूलवश दे ही दी तो तुरंत से एक्सेस डिनाइड कीजिये। मैं भी अपने मन के हाल अहवाल, हीरे और जवाहरात को औसत दिमाग वालों की महफ़िल का किस्सा नहीं बनने दे पाती। इसलिए यह ब्लॉग ही साथी है।
अब शुरुआत के लिए इतनी शिकायतें बहुत हैं।
2 comments:
इत्तेफाकन मैं भी इन्हीं सब परिस्थतियों के बीच था इसलिए ऐसे में आपकी ये पोस्ट पढ़ना बहुत कारगर रहा। ब्लॉग लेखन सच में ही एक बिछड़ा हुआ दोस्त लगता है हालांकि मैंने भी इसे कभी बहुत दूर होने नहीं दिया। लिखिए जरूर लिखिए , कोई है जो पढ़ना चाहता है। शुक्रिया
तो फिर मैं इस दुनिया में ऐसी अकेली जीव नहीं हूं , मेरे जैसे और भी हैं जिनके लिए लिखना अपने साथी से बतियाने जैसा है। आप पढ़ेंगे तो मैं जरूर लिखूंगी क्योंकि अब मुझे पता है कि कोई पढ़ेगा ।
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