मालंच बंगला भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है "फूलों का बगीचा". इस शब्द से मैं पूरी तरह अपरिचित नहीं हूँ, पहले पहल इसे शिवानी गौरा पन्त की किताब में पढ़ा था, शान्तिनिकेतन के एक प्रोफ़ेसर अनिल चंदा के घर का नाम भी मालंच था...मुझे ये शब्द तब से बहुत आकर्षित करता रहा है ..जब कि इसका अर्थ भी मालूम न था.
मालंच, रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक लघु उपन्यासिका है और मेरे विचार से इसे उपन्यास के बजाय एक लम्बी कहानी जैसी क़ि कुर्रतुल एन हैदर ने लिखीं है, उस श्रेणी में रखा जा सकता है. मालंच कहानी है नीरजा की और उसके बगीचे की, बगीचा कोई आम छोटा मोटा घर का फूल पत्ती या सब्जी उगाने का बगीचा नहीं असल में उसके पति का बेहतरीन और अनेक देशी विदेशी किस्म के फूलों और पौधों का कारोबार है. ये बगीचा उनकी ज़िन्दगी का अटूट हिस्सा है और नीरजा ने भी बगीचे के काम को इस तरह अपने अस्तित्व के साथ मिला लिया कि दोनों में कोई फर्क नहीं रह गया. लेकिन बगीचा तो यहाँ महज एक प्रतीक है, कहानी कहने का माध्यम है ..असल मुद्दा है, स्त्री की मानसिकता, उसकी मनः स्थिति, उसका अधिकार क्षेत्र और अधिकार जताने और उसे बनाये रखने की प्रबल इच्छा जिसको दिखाने में, बयान करने में रवीन्द्रनाथ ने (शिवानी के शब्दों में कहूँ तो..) कलम तोड़ कर रख दी है.
जब स्त्री का ये अधिकार किसी भी कारण या अकारण या लगने भर के लिए ही लगे कि, मेरा ये सारा ऐश्वर्य छिन रहा है, कि एक दूसरी औरत फिर वो जो भी है, उस पर हक जमाने का प्रयास कर रही है तो मन बुद्धि सब बस के बाहर हो जाते हैं तब सही गलत, उचित- अनुचित, भला- बुरा कुछ नहीं सूझता या दिखाई देता है ...दिखता है तो बस छिनता हुआ साम्राज्य.
यहाँ एक स्त्री के मन, उसकी इच्छाओं, उसके सुख-दुःख के अहसासों और इन सबके ऊपर उसकी कमजोरियों का चित्रण करने में रवीन्द्रनाथ को कमाल की सफलता मिली है . यहाँ प्रेमचंद की एक नायिका याद आती है, "बड़े घर की बहू आनंदी" ..मैंने ये उपन्यास तो नहीं पढ़ा पर कहीं उसका एक सन्दर्भ पढ़ा था क़ि आनंदी के पास अभिमान और मान करने योग्य एक ही चीज़ है और वो है उसका पति, घर-गृहस्थी . यही उसका संसार और जैसा किसी मैगजीन की कहानी में पढ़ा था ..."मेरा घर मेरा साम्राज्य".
और यही बात नीरजा पर भी लागू हुई, एक औरत अपने जीते-जी, आँखों के सामने अपना संसार, जिसे उसने अपनी आत्मा से सींचा, किसी और को नहीं दे सकती. भले ही वो खुद अब उसे संभाल ना पा रही हो( अपनी लम्बी बीमारी की वजह से अब नीरजा बगीचा तो दूर घर की देखभाल भी नहीं कर सकती). भले ही उसे पता हो कि किसी के ना संभालने पर घर का ये बगीचा नष्ट हो जाएगा, पर फिर भी अपने अधिकार का मोह छोड़ना बेहद मुश्किल है. उस से भी ज्यादा मुश्किल है ये स्वीकार करना कि मेरे बाद, मेरे पीछे , मेरा नामो-निशान , मेरा कोई चिहन भी शेष ना रहेगा...कल तक जिस महल का वैभव मेरे कारण था , वही कल मुझे भूल कर किसी और के व्यक्तित्व से महकेगा और जब वो गृह स्वामिनी, वो कल की ऐश्वर्य लक्ष्मी बीमार और कमज़ोर हो जाए तब इंसान का मन नकारात्मक रूप से शक्तिशाली हो जाता है. बगीचा, जिसका हर कोना, हर हिस्सा नीरजा और उसके पति के हाथ से बना है, अब नीरजा के आँखों के सामने है पर अपनी बीमारी के चलते अब वो वहाँ चल कर जा भी नहीं सकती, वहाँ काम करना या उसे संभालना तो दूर की बात.
सरला को नीरजा के बीमार होने के कारण बगीचे की सार-संभाल के लिए बुलाया गया. उसे फूल पौधों और बगीचे के हर काम की जानकारी
विरासत में अपने ताऊ जी से विरासत में मिली, जिन्होंने आदित्य को भी यही
काम सिखाया और रोज़गार शुरू करने में सहायता भी दी. आदित्य का कहना कि, "सरला को मैंने आश्रय दिया है या उसके आसरे में रहकर मैं यहाँ तक पहुंचा हूँ?" और सरला का ये उलाहना कि, "....नाप तौल में मेरी तरफ से कुछ कम नहीं हुआ..फिर अचानक मुझे धक्का क्यों दे दिया गया...?" ये दो सन्दर्भ ही उन दोनों के प्रगाढ़ लेकिन सहज सम्बन्ध को ज़ाहिर कर देते हैं. पर नीरजा का दुःख कुछ और है. उसे ये सहन नहीं कि कोई दूसरी औरत उसके बगीचे में आये, वहाँ वैसे ही काम करे जैसे वो अपने अच्छे दिनों में किया करती थी, अपने पति के साथ. कोई तीसरा, जिसे बगीचे के बारे में उस से ज्यादा ज्ञान है..जो उसके और आदित्य के बनाए आर्किड घर तक में प्रवेश पा गया है..ये उसके अस्तित्व को, उसके अधिकार को सीधी चुनौती है. ये संकेत है कि अब जाने का, इस घर-गृहस्थी को पीछे छोड़ जाने का समय आ गया है..
और इसलिए कभी नीरजा, सरला को कहीं दूर भेजने की बात कहती है, कभी अपने
देवर से उसके विवाह का प्रस्ताव तो कभी आदित्य के जीवन में उसके महत्त्व और
उसके स्थान को स्वीकार कर लेने का प्रयास करती ही रहती है पर पूरी तरह
नहीं मान सकती..और इस अंतर्द्वंद के चलते एक ओर उसका स्वास्थ्य और अधिक
बिगड़ता जाता है वहीँ उसका मन अपने ही घर में उपेक्षित हो जाने के भय से,
अपना अधिकार और अपना पृथक अस्तित्व बचाए-बनाए रखने के लिए नकारात्मक रूप
से और अधिक शक्तिशाली होता जाता है.
नीरजा ये भी समझती है कि ये बंधन ..ये मोह उसे अपने ही संसार से दूर कर
रहा है ..उसे अपनी कमजोरी, अपनी विवशता और इन सबके ऊपर अपने मन की
दुष्टता का भी पूरा अहसास हो गया है ...लेकिन ये समझते हुए भी कि सब
कुछ, सारे अधिकार दे डालने में ही मुक्ति है और उसके मन की शान्ति
भी. ..लेकिन बार बार कोशिश कर के भी, अंत में सब दे डालने की ख्वाहिश
..सब कुछ को समेट लेने और उसे कस कर मुट्ठी में जकड लेने में बदल जाती है .
और शायद यही वजह है क़ि लोग अपने और अपने प्रियजनों के नाम से स्कूल, अस्पताल और इमारतें बनवाते हैं, कहीं पूरी कायनात तो कहीं पत्थर की एक पट्टी ही सही पर कहीं न कहीं नाम तो हो कि जाने के बाद याद रखा जाए. नीरजा भी यही चाहती है कि जैसे कैसे भी उसकी उपस्थिति को, उसकी इच्छाओं को, आदेशों को महत्व मिले, बगीचे को लेकर उसकी समझ और ज्ञान को सब लोग आज भी वैसे ही सराहें जैसे कि हमेशा वो सुनती आई है. पर अब ऐसा हो नहीं पा रहा है...
कैसी अजीब है ये ख्वाहिश, कितना तकलीफदेह है, किसी से कहना कि " मुझे, मेरे बाद भी उसी तरह याद रखना, मेरे अस्तित्व को वैसे ही महसूस करना जैसे कि आज या कल तक करते थे...मुझे आज भी वैसे ही प्यार करो जैसे पहले करते थे..और बाद में करते रहना..तुम्हारे दिल में मेरी वही जगह रहे जो अब तक रही है..." जैसे कि कहीं ये सुनिश्चित कर लेना चाहता है मन, कि मेरे बाद भी "मैं" यहीं रहूँगा/रहूंगी.
नीरजा नहीं दे सकती , क्योंकि उसके अपने जीवन का आधार, उसकी सार्थकता और उसके अभिमान का आधार ये बगीचा ही है और बगीचा किसके लिए , उसके पति आदित्य के लिए. यानि बगीचा नहीं उसे आदित्य को ही दे देना होगा , जो असम्भव तो नहीं है पर निश्चित रूप से आसान भी नहीं. अब यहाँ मुझे याद आई मैथिलीशरण गुप्त की "यशोधरा" और विद्ध्यानिवास मिश्र की "यशोधरा" ..जो सब कुछ, अपना सारा खज़ाना, ऐश्वर्य यहाँ तक कि अपना बेटा राहुल भी भिक्षु संघ के लिए दे देती है और फिर भी बुद्ध से पूछती है क़ि "और कुछ...कोई और अभिलाषा शेष है तपस्वी..?"
पर वहाँ लेने वाला सिद्धार्थ यानि संसार के तथागत और बुद्ध है..पर यहाँ लेने वाला एक बाहरी व्यक्ति है ....नीरजा के लिए तीसरा इंसान पर आदित्य के लिए उसके बचपन की और बगीचे की साथी "सरला" जो खुद भी किसी तरह नीरजा की जगह लेना नहीं चाहती...लेकिन नीरजा उसके हस्तक्षेप को बगीचे में यानि अपने संसार में सहन कर रही है वही बहुत माना जाना चाहिए. पर सब दे डालने से भी बड़ी समस्या है ये बर्दाश्त करना क़ि जिसके लिए ये सारा प्रपंच, सारा अधिकार और उसकी लड़ाई है, वही अब किसी कारण से छिटक कर दूर होने लगा है या साथ नहीं दे रहा तो प्रयास ये हो जाता है क़ि उस तीसरे के माध्यम से इस आधार को थाम के रखा जाये पर इसके लिए भी त्याग करना होगा और नीरजा इस त्याग को अपने जेवर और दूसरे प्रतीकों के माध्यम से जताए रखना चाहती है ..."हाँ मैं बेड़ियाँ डालना चाहती हूँ. ताकि जन्म- मरण में तुम्हारे पाँव निस्संदेह रूप से मेरे पास बंधे रहे."
नीरजा की तकलीफ और उसका द्वंद सरला भी समझ रही है इसलिए खुद ही पूरे परिदृश्य से हट जाना चाहती है ..पर नीरजा ऐसा भी होने नहीं देगी क्योंकि वो सारे सूत्र अपने हाथों में रखना चाह रही है.
कहने का अंत दुखांत है ..नीरजा मर गई..पर दे नहीं सकी और सरला कुछ ले भी नहीं सकी...
अंततः रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक बेहतरीन रचना, जिसका सार है क़ि, प्रेम और स्नेह जब बंधन हो जाता है तब इन्सान की आत्मा का ही सर्वनाश कर देता है ..और पता तक नहीं चलता...