Sunday, 29 November 2015

ज़िन्दगी का खटराग --- 2

दिन गुज़रते हैं फिर भी वक़्त थमा  हुआ सा है.

ये एक अजीब मौसम है, इसमें दिन और रात का हिसाब आपस में गड्डमड्ड सा हो गया है. यहां उत्तरी ध्रुव की लम्बी रौशनियों वाली रातें भी हैं और  महासागर  के अथाह विस्तार जैसे  अनंत तक पसरे हुए दिन भी. कब और कहाँ से दिन की या रात की सीमा रेखा शुरू होती है, इसकी थाह पाना मुश्किल है.   इस मौसम को यहां किसने बुलाया, किसने रोक के रखा है. यहां  समय रबड़ की तरह फ़ैल भी गया है और रेत  की तरह हथेलियों से फिसल भी रहा है, फिर भी नए पुराने दिनों का फर्क पता नहीं चलता है. यहां रोज़ सुबह  चौराहों से कई रास्ते निकलते हैं जो कहीं नहीं पहुँचते बस  एक गोल घेरे जैसा चक्कर काट कर वापिस वहीँ पहुँच जाते हैं जहां से शुरू हुए थे.  यहां से कहीं नहीं जाया जा सकता और कोई कहीं से आ भी नहीं सकता।

घड़ी  की टिक टिक दिन और रात के प्रहर बीतने  की सूचना देती है लेकिन इस मौसम के बीतने के कोई आसार नहीं दिखते। ये एक लम्बी गर्मियों की तरह है जिसमे दिन कभी नहीं ढलता,  दोपहर सुबह से शुरू होकर अँधेरा घिरने के बाद भी कुछ देर तक बनी रहती है और घड़ी लम्बे  पॉज  लेकर चलती है.  और इस गर्म मौसम के पार कोई और मौसम है भी या नहीं इसकी भी कोई खबर नहीं। अक्सर इस थमे हुए दिनों वाले मौसम के लिए उस शख्स को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिसकी ज़िन्दगी में ये उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के छह छह  महीनो वाला मौसम आकर रुक गया है. पर अक्सर खुद उस शख्स को भी  नहीं होती कि आखिर इतनी तेज़ गति से भागने के बावजूद समय रुका क्यों है ?  अनंत तक फैले हुए ये दिन  किसी झिलमिलाती खुशनुमा साँझ तक  क्यों नहीं पहुँचते ?  यहां  रात को नींद में सपने क्यों नहीं आते ? यहां शाम कब आती है और कितने बजे आती है और कब ख़त्म हो जाती है, इसके बारे में घड़ी देख कर क्यों नहीं पता चलता ?

कलैंडर में तारीखें बदलती हैं लेकिन मौसम नहीं बदलता। दिन बीत जाता है लेकिन वक़्त थमा हुआ ही लगता  है.  उत्तरी रौशनियों के साये और महासागर के गहरे रंग कभी एक नया मौसम बना सकेंगे ? समय का एक नया आयाम ?  दिन और रात का कोई नया हिसाब जो चौबीस घंटो और सात, तीस, बावन, बारह और 365 की गिनती से अलग और घड़ी की पाबंदी से  दूर हो ? 






Sunday, 2 August 2015

भगवान है कहाँ रे तू ....

"बरसात के दिनों में लोगो का ट्रैफिक सेंस और ट्रैफिक मैनर्स सब जाग जाते हैं", 

आगे वाली कार ने इंडिकेटर दिया और धीरे धीरे टर्न हुई, साथ वाला बाइकर भी मुड़ने के लिए हाथ से इशारा कर रहा था और रश्मी की कार का स्टीयरिंग बाईं तरफ मुड़ने लगा. उसने पास वाली सीट पर रखे पूजा के सामान वाली डलिया को देखा। आटे का दीपक, एक छोटी डिब्बी में देसी घी, और एक कागज़ में सिमटे हुए थोड़े से हरे मूंग के दाने और गुड़ की एक डली। गाडी एक मिठाई की दुकान के बाहर रुकी। और अब दस मिनट बाद उस डलिया में मिठाई का छोटा डिब्बा भी जगह बनाये बैठा था. 

"किस मूर्ख ने कहा था कि  बारिश के दिनों में उसके शहर का नज़ारा बिलकुल किसी वाटर कलर पेंटिंग जैसा हो जाता है, ज़रा यहां आकर देखो तो पता चले कि …"  बरसात में भीगी मिट्टी जो अब सडकों पर खड्डों के आस पास फिसलन के रूप में सुशोभित थी, उसको देख कर  रश्मी को अपने नए शलवार सूट  के रंग रूप की फ़िक्र होने लगी. चूड़ी बाजार वाले विनायक मंदिर के बाहर जैसे तैसे पार्किंग की  जगह मिली। रश्मी ने पूजा वाली डलिया संभाली और दुपट्टा सिर पर रखते हुए तेज़ कदमों से मंदिर के भीतर चली गई.

"अब ये तीसरा बुधवार हो गया." उसने खुद से कहा, कार का स्टीयरिंग इस वक़्त सिविल लाइन्स की खुली सडकों पर पंख तौल रहा था.  "अब थोड़ी देर में ऑफिस होगा और मैं और वही सब रोज़ के किस्से" … रश्मी ने स्पीड कम कर दी, उसे कहीं जाने की या पहुँचने की जल्दी नहीं है.  इसके बजाय वो याद करने की कोशिश कर रही है कि अगले बुधवार विघ्नविनाशक को क्या खिलाना है कि  झट से प्रसन्न हो जाए.  जैसा अनीता ने बताया था, पहले हफ्ते मोतीचूर के लड्डू, दुसरे हफ्ते में बूंदी के लड्डू, तीसरे में ये मोदक और अब चौथे हफ्ते में चांदी का वरक लगा पान .... और पांचवे हफ्ते में .... यानि आखिरी हफ्ते में रोली उनकी सूंड में कस  के बाँध आनी है, जिस से कि  उनको याद रहे … 

तीन हफ्ते बाद 

दृश्य एक 
"तो कोई प्रोग्रेस है उस मैटर में ?"  गीता ने कॉफ़ी के साथ चिप्स कुतरते हुए पूछा। 
रश्मी ने ना में सर हिला दिया। ये सवाल अब उसे हद दर्जे तक चिढ़ा देता है लेकिन गीता को वो कुछ नहीं कह सकती।

 दृश्य दो 

"मैंने तुझे कहा था ना कि रिशु को इक्कीस सोमवार शिव पार्वती वाले मंदिर में भेजना और साथ में बताशे का प्रसाद और .... "  कमला बुआ का ख्याल है कि रश्मी इक्कीस में से सिर्फ पांच छह बार ही गई होगी 
"दीदी, रिशु गई थी और उसने सात मंगलवार मंदिर के पीपल पेड़ की परिक्रमा भी की थी और पांच बुधवार गणेश जी को हरी दूब भी और वो .... मम्मी उसकी तरफ से सफाई दे रही है या उसकी मेहनत और लगन  के बारे में बता रही है ये रिशु यानी मिस रश्मी की समझ से बाहर है.

"रिशु, तू लड्डू कौनसी  दुकान से लेती है ?" 
" ये बाहर मैन  रोड पर है ना श्याम स्वीट्स, वहीँ से … क्यों ?" 
"बस यही गड़बड़ हुई है, तभी मैं कहूँ, ऐसा कैसे हो सकता है ? मैंने आज तक जिन लड़कियों को ये उपाय बताया सबका रिश्ता तीसरे या चौथे हफ्ते में तय हो गया, बस तेरा ही नहीं हुआ. अरे ये श्याम स्वीट्स के लड्डू बेकार हैं,  देसी घी कम और डालडा ज्यादा होता है. वो गोपाल मिष्ठान भंडार से लेने चाहिए थे लड्डू,  मोतीचूर के ऐसे लड्डू बनाता है कि  मुंह में रखते ही घुल जाए."  

" ये श्याम स्वीट्स वाला तो लड्डू तौलते टाइम थोड़ा भी एक्स्ट्रा वजन होने पर लड्डू में से टुकड़ा तोड़ लेता है." छोटा गगन भी अब अपना ज्ञान बताने में पीछे क्यों रहे. रश्मी अपने घर के  इस छोटे शैतान को घूर रही है. 

" क्या !!!!!!!! खंडित प्रसाद !!!!!!!! राम राम … तभी मैं कहूँ, शारदा कि  रश्मी का काम अब तक क्यों नहीं हुआ. एक तो डालडा के लड्डू ऊपर से खंडित भी. अब ऐसे तो विनायक जी कैसे प्रसन्न होंगे ????"  कमला बुआ ने पांच परमेश्वर स्टाइल में अपनी अंतिम राय दे डाली। 

शारदा यानी रिशु की मम्मी के माथे पर लकीरें दिख रही हैं,  "इतने हफ़्तों की मेहनत पर पानी फिर गया सिर्फ इस श्याम स्वीट्स वाले के कारण। लेकिन इस लड़की में भी अक्ल नहीं है, कहीं और से लड्डू नहीं ले सकती थी, पूरा शहर घूमती फिरती है अपनी गाडी में. और सब दुकाने क्या बंद पड़ी रहती हैं." 

"गणेश जी को बताना चाहिए था ना कि  उनको कौनसी दुकान के लड्डू पसंद है, अब मुझे कोई सपना आएगा क्या … " रिशु झुंझला रही है. ये क्या मुसीबत है, आस्था से ज्यादा प्रसाद और उसकी क्वालिटी इम्पोर्टेन्ट हो गई है आजकल, ये देवी देवता भी काफी choosy हो गए हैं.

दृश्य तीन 
"और सुनाओ, कोई नई खबर."  व्हाट्सप्प पर एक मैसेज फ़्लैश हुआ.

"वही सब रूटीन लाइफ है यार, नया क्या होगा। तुम बताओ, तुमको तो अच्छी जगह पोस्टिंग मिल गई है. कोई एप्रोच या यूँही … " ? 

"अरे बहुत पापड बेले हैं इसके लिए, दो साल से तो घर से दूर इस जंगल में पड़ा था. भगवान से लेकर इंसान तक सबकी मन्नतें मांगी, तब जाकर काम हुआ." 

"अच्छा, और प्रसाद  में क्या चढ़ाया ?" रश्मी को श्याम स्वीट्स के डालडा वाले लड्डू याद आ रहे हैं  जिनके कारण उसकी सारी मेहनत बेकार गई. 

"प्रसाद तो यार कई तरह का चढ़ाना पड़ता है. गए वो ज़माने जब वो बूंदी के लड्डू से काम चल जाता था. अब तो भगवन भी रोज़ यही एक जैसा खा खा के बोर हो गए हैं."
  
"हाँ, पर गणेश जी को तो आज भी वही लड्डू ही चाहिए।" 

"किसने कहा ?? तुम ना रश्मी  इस मामले में एकदम इडियट हो. अरे भगवान को भी वैरायटी पसंद होती है. उनको रोज़ कुछ नया खिलाओ,अलग अलग मिठाई से लेकर पिज़्ज़ा और ब्राऊनी …सब चीज़ टेस्ट करवाओ भगवान को, तभी प्रसन्न होंगे और वरदान देंगे। अब ऐसे सूखे लड्डू खिलाने और  काम करवाने के दिन तो चले गए." 

व्हाट्सप्प वाले ने रश्मी के ज्ञान चक्षु खोल दिए. इतना डिटेल में तो कभी सोचा ही नहीं था. प्रसाद तो यही लड्डू, मावे की मिठाई वगेरह ही सुना था लेकिन  अब भगवान भी मॉडर्न हो गए हैं तो उनकी पसंद भी बदल गई होगी। 

दृश्य चार 

" सुन रिशु, तेरे ऑफिस जाने के रास्ते में ये लिंक रोड वाला कबाड़ी मार्किट आता है ना."?
" हाँ क्यों, कुछ काम है ? क्या देना है कबाड़ी वाले को ?"
" अरे देना कुछ नहीं है, सुन कमला का फोन आया था, उसने  बताया कि  वहाँ कबाड़ियों की दूकान  के बीच में एक छोटा मंदिर बना हुआ है जिसकी बड़ी मान्यता है और .... "

"मैंने तो आज दिन तक उस रास्ते में कोई मंदिर नहीं देखा ?"  रिशु खीज रही है कमला बुआ की इस भारत एक खोज पर और अब उसे पता है कि  आगे क्या आदेश मिलेगा।

"अरे छोटा सा कोई मंदिर बताया है दुकानो के बीच में. तू एक बार जाके देख तो सही …  क्या पता …"

" जिस से शादी करने के लिए मैं इतने सब जतन  कर रही हूँ, कुछ उसको भी फ़िक्र है या नहीं। उसको  शादी करनी है मुझसे इसी  जन्म में  या नहीं ?? ऐसा कहाँ का  राजकुमार है ?? ये सब क्या मेरे अकेले की ही सिरदर्दी है ?? अब यही काम रह गए हैं,  कबाड़ियों की दुकानो के बीच मंदिर ढूँढती फिरुँ मैं।"  रश्मी के गुस्से के आगे कबाड़ी बाजार वाला मंदिर और उसके देवता फ़िलहाल बिहाइंड दी कर्टेन हो गए हैं. 

दृश्य पांच 

" सुन रिशु, तू एक बार मेरी बात मान के देख, आखिर इसमें हर्ज़ क्या है, जहां इतनी जगहों पर तू मन से या बेमन से गई है वहाँ एक और सही. समस्या का समाधान होने से मतलब है।" गीता समझाना चाहती है और  मनवाना भी चाहती है. 

"मैं इन सब rituals से और इन बेसिर पैर की बातों से तंग आ गई हूँ. यहां हर कोई सलाह देने बैठा है, हर कोई अपने आज़माये या बिना आज़माये तरीके मुझे बताता फिरता है. और अब तो मुझे इस आडम्बर से नफरत हो गई है."

"मैं सब समझती हूँ रिशु पर दुनिया हमारे हिसाब से तो नहीं चलती ना, अब आडम्बर है या और कुछ, एक बार फिर से विश्वास करके देख. कौन जाने इस बार …"

(इच्छा नहीं है एक बार फिर इस रास्ते जाने की  लेकिन बहस करने की भी इच्छा नहीं है और दूसरा  रास्ता भी क्या है. ये भी कर के देख ही लो. )   

तो अब रश्मी और गीता बैठे हैं पुराने शहर की गलियों के अंदर एक पुराने से मंदिर में जो पुजारी का घर भी है. सुना है कि यहां  सिर्फ शादी की तारीख ही बताई जाती है अगर और कोई सवाल या ख्वाहिश हो तो किसी और मंदिर में जाइए। इस जगह तो केवल इसी एक समस्या का समाधान मिलेगा। आपसे बस इतनी ही अपेक्षा है कि अपनी श्रद्धा मुताबिक एक लिफाफा रख जाइए  माँ पार्वती के चरणों में और फिर बस इंतज़ार करिये कि  कब माँ आप पर कृपा फरमाती हैं. वैसे पुजारी का दावा है कि  आज दिन तक उसने जाने कितने ही लोगो के ब्याह की तारीख बताई और उस तारीख तक या उसके कुछ आगे पीछे उनका विवाह हुआ भी है.  उसकी शर्त भी यही है कि  अगर आपका "काम" ना हो तो बेझिझक अपना लिफाफा वापिस ले जाइए। 

तो अब यहां आस्था की एक और परीक्षा है.

छह महीने  बाद 

"बेटा रश्मी, 23 सितम्बर तो कल बीत गई, आप अपना लिफाफा वापिस ले जा सकती हैं." 

"रहने दीजिये ना अंकल, लिफ़ाफ़े का ऐसा क्या है, मुझे वापिस नहीं ले जाना। आप मंदिर के किसी काम में लगा देना।" 

"नहीं बेटा, आप इसे वापिस ले जाएँ।" 


दृश्य छह 

"तो अब, ये उपाय भी नाकाम ही रहा." मम्मी उदास सी बैठी हैं और कमला बुआ फोन पर किसी से बात कर रही हैं.

"सुन रिशु, तेरे बाँए अंगूठे की छाप  चाहिए एक सफ़ेद कागज़ पर." कमला बुआ थोड़ी जल्दी में लग रही हैं. और उसी जल्दी में रिशु के ऑफिस बैग से इंक पैड निकाला गया और उसके अंगूठे की छाप ली गई.


कुछ घंटे बाद 

"हाँ, तो बैठ अब यहां मेरे पास, देख ये जो लाल किताब वाले  पंडित हैं ना ये अंगूठे की छाप देख कर समस्या का हल बताते हैं और समस्या क्या आदमी का भूत भविष्य वर्तमान सब बता देते हैं. पूरे दो हज़ार दिए हैं, अब तेरा घर बस जाए गुड़िया। 
सुन,  इन्होने कुछ बहुत सटीक उपाय बताये हैं और ये CD भी दी है इसमें सब रिकॉर्ड है जो उन्होंने तेरे बारे में बताया। उन्होंने कहा है कि तुझ पर पिछले जन्म का एक बड़ा भारी दोष है जिसके निवारण के लिए पुष्कर जाकर पूजा करवानी होगी और उसके अलावा भी कुछ उपाय करने होंगे। क्या करना है कैसे  CD में रिकॉर्ड है." 
कमला बुआ की डीवीडी फुल स्विंग पर चालू थी.

"एक तो हर शुक्रवार को देवी के मंदिर में पीले नींबू पर कुंकुम लगा कर ऐसे नौ  नींबू ले जाने हैं , नींबू आधे कटे होने चाहिए और … "

"हर बुधवार गणेश जी को …"

"हर पूर्णिमा को भगवान शिव का दूध से अभिषेक और …"  

छन्नन की आवाज़ हुई, रश्मी के हाथ से चाय का कप गिर गया है.

"हाय, इतनी ज़रूरी बात के बीच ये क्या अपशगुन …"  

Image Courtesy : Jai Google Baba 

 P.S.  : सात आसमान से आगे बैठे परम पिता अब मेहरबानी करके मुझ पर गुस्सा ना होना, मैं तो पहले से ही तुम्हारे बनाये नियम कायदों से परेशान हूँ. :) :) :) 




Friday, 12 June 2015

ज़िन्दगी का खटराग

काश कि  एक बोहेमियन जैसी ज़िन्दगी होती। 


ये ख्याल अचानक आया कि  काश ऐसा बंजारों जैसा जीवन होता, एक अनवरत यात्रा, जिसका कोई ठौर ठिकाना, ठहराव, कोई मकान या निशान नहीं होता। सिर्फ ज़रूरत भर का सामान और साथ चल सके जितने ही रिश्ते … जब तक चलते रहे तब तक ज़िन्दगी और जब थम जाए तब  … 

ये जो ज़माने भर का खटराग हमने अपने आस पास फैला रखा है ... सजे संवरे  घर, करीने से संजोये गए रिश्ते, दफ्तर और दोस्तों की बतकहियाँ, महफिलें और कहकहे …यह सब हम अपने कन्धों पे उठाये फिर रहे हैं, कितना बोझ …दुनियावी तौर तरीकों और कायदों का बोझ,  कि  जिस समाज में रहते हो वहाँ के सलीके को सीखो। 

और अक्सर इस बोझ से थककर  कभी हम पहाड़, नदी, समंदर का किनारा तलाशते हैं तो कभी  अगला जन्म सुधारने की कसरत में लग जाते हैं. यानी एक नया खटराग पालने लगते हैं.      

अगर मुझसे पूछिए तो मेरी ज़िन्दगी में बोहेमियन हो सकने जैसा कोई मौका मौजूद नहीं है. यहां व्यस्तताए हैं, ज़िम्मेदारियाँ और कमिटमेंट्स हैं, हर ख्वाहिश के पूरे हो सकने का सामान मौजूद है लेकिन बस यही एक इच्छा कि  एक लम्बी ना ख़त्म होने वाली सड़क हो और उस पर हम चुपचाप चलते जाए. 

कहने को ये भी कहा जा सकता है कि  ये बोहेमियन होना कौन बड़ी बात है,  अकेले दुनिया से भागकर अपने में जीना तो कोई भी कर ले; दुनिया में रहकर यहां की ज़िम्मेदारियाँ निभाओ, जो लिया है उसे वापिस सूद समेत लौटाओ। और ये क्या अजब सा शौक पाला  है, बोहेमियन या बंजारा होने का ?? समझदार, दुनियादार लोग ऐसे खटराग नहीं पालते।

इस बंजारे वाले खटराग को मैं अपने जीवन के बीत रहे वक़्त में देखती हूँ, रोज़; क्षण प्रतिक्षण। ये कुछ इस तरह बीत रहा है कि  मुझे इसके चलने-रुकने का अहसास लगातार होता रहता है लेकिन मैं लगातार इस से ग़ाफ़िल होने का नाटक करती रहती हूँ. ये ऐसी दोहरी ज़िन्दगी है जो एक ही साथ दो अलग दिशाओं में चल रही है, एक तरफ अपने बोहेमियन होने के अहसास के साथ और दुसरे अपने सभ्य सामाजिक पैमानों पर संभल कर कदम ताल करती हुई.  मेरे ख्याल से हम सब दोहरी ज़िंदगियाँ जीते हैं, या नहीं ??? कौन जाने। 
मैं तो जी ही रही हूँ. अंदर से मुझमे कुछ दबा छिपा है जो ज़ोरों से चीख रहा है, बाहर निकलने को छटपटा रहा है और बाहर से मैं हंसती, खिलखिलाती, मुस्कुराहटें बिखेरती  और मासूमियत और नफासत छलकाती, लहकती फिरती हूँ. हर रोज़ कितने झूठ बोलती हूँ मैं खुद से और कितने सच छिपाती हूँ मैं दूसरों से.       

Sunday, 15 March 2015

चिट्ठियों के पुल Part 2

तीसरी चिट्ठी 

तुमको मेरी हर बात किसी फंतासी वर्ल्ड का किस्सा ही क्यों लगती है ?  मैं क्या यहां परियो की कहानी सुनाने बैठी हूँ, मैं हमारी यानी  तुम्हारी और मेरी बात कर रही हूँ  और तुम इसे मेरी डे ड्रीमिंग और ज़रूरत से ज्यादा सेंसिटिव होने  की आदत कहते हो.  ये सब सुन कर लगता है कि मैं और तुम धरती के दो अलग किनारो पर खड़े हैं,  ठीक ही तो है … ज़सूम और बरसूम। 

खैर तुम्हारी बात को ज़रा और साबित करने के लिए तुम्हे कुछ और बताऊँ , हर  रोज़ जब मैं ड्राइव कर रही होती हूँ तब मुझे ऐसा लगता है कि  तुम पास बैठे हो और मैं तुमसे बातें किये जा रही हूँ, है ना दिलचस्प बात.  पता है मुझे,  तुम फिर कहोगे कि  मेरा crack up  हो रहा है. पर क्या करू, तू  ना सही तेरी बातें ही सही … इसलिए खुद को ये अहसास दिलाये रखती हूँ कि  तुम दूर नहीं यही आस पास हो. क्या तुमने भी कभी ऐसा किया है ? जानती हूँ कभी नहीं किया होगा, कर ही नहीं सकते, ऐसी बेसिर पैर की हरकत के लिए तुम्हारे पास वक़्त भी कहाँ है, जब यहां आने के लिए वक़्त नहीं तो assumptions और presumption  के लिए कहाँ से वक़्त मिले … 

एक और बात बताऊ, अब तुम कहोगे कि  मेरी बातों का अंत नहीं पर  और किसको मैं ये सब बता सकती हूँ.  मुझे कह लेने दो, कभी कभी मुझे डर लगता है …  बहुत सारा … और  तब मैं किसी को ये बता नहीं सकती कि मैं  अंदर से कितनी डरी  हुई  हूँ,  तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है और मैं खुद से ही बातें करने लगती हूँ.  इसलिए तो हर बार तुमसे पूछती हूँ कि  कब आओगे ? 

कल सेंट्रल पार्क गई थी, यूँही अकेले, बस मन हो गया हरी हरी घास  पर नंगे पैर चलने का और एक कप कॉफ़ी पीने का. उस वक़्त वहाँ कैफ़े में बैठे कॉफ़ी पीते हुए तुम  बहुत याद आये.  वहाँ बैठे खिलखिलाते लड़के लड़कियों के ग्रुप कितने बेफिक्र, ज़िन्दगी की आने वाली ज़िम्मेदारियों और दुश्वारियों से अनजान अपने अपने साथियों के साथ कितने खुश खुश कहकहे लगा रहे थे. तब लगा कि  कॉफ़ी का कप,  टेबल पर बैठा  कितना अकेला और बेचारा सा लग रहा है जबकि कॉफ़ी  पर चोको पाउडर छिड़का गया है और ऊपर की क्रीम वाली परत पर एक नफीस  डिज़ाइन बनी  हुई है.  

 अच्छा एक दिलचस्प बात बताऊँ तुम्हे, अभी पिछले हफ्ते एक वेडिंग रिसेप्शन  में सज धज के जाना हुआ, कार मैं ही चला रही थी और अचानक से मैंने कुछ सुना, गियर बदलते वक़्त कलाई को जो झटका लगता है उसके कारण हाथ में पहनी चूड़ियाँ खनकने लगते थे. ये किसी धुन का एक टुकड़ा कहीं गिर गया  हो, पियानो पर बजता संगीत का एक अधूरा नोट या बरसात की रिमझिम के बीच बैकग्राउंड में बजता संगीत,  ऐसा कुछ  लग रहा था. तुमने कभी ध्यान दिया है ऐसी आवाज़ों पर ?? अब तुम कहो  कि मैं फिर से तुमको भावुकता में घसीट रही हूँ पर असल में, मैं कुछ और बात कहने के लिए भूमिका बाँध रही थी. कल फेसबुक पर किसी की वाल पर पढ़ा कि  प्यार एक जादुई अहसास है लेकिन मुझे लगता है कि ये एक illusion है जो दिखाई तो  नहीं देता पर इसके होने का अहसास हम खुद को दिलाये रखते हैं या कभी कभी ज़िन्दगी कुछ सिंबॉलिक तरीकों से इसकी मौजूदगी का अहसास हमें करवाती है. चूड़ियों की खनक का संगीत मुझे तीसरे चौथे गियर की स्पीड और ब्रेक के झटकों के बीच सुनाई दिया, क्या ये भी एक Illusion नहीं है ??  

शायद तुम ठीक ही कहते हो कि मैं फिलॉसॉफी और व्यवहारिकता का और बचपने और मैच्योरिटी का एक अजीब कार्टून या मॉकटेल सा बन गई हूँ. सच कहूँ तो मुझे भी यही लगता  है. खैर, ये किस्सा छोडो, अब चिट्ठी काफी लम्बी हो गई है. फिर बात करेंगे।   




…………………………………………। 

अमृता ने अपनी डायरी बंद की और उसे टेबल के ऊपर वाले शेल्फ में सलीके से रखा. खिड़कियों और दरवाजों के बाहर चाँद और तारों वाली रात अब पूरी तरह रौशन थी.

…………………………………………। 

" यार, ये तो बहुत बोरिंग सी कहानी है,  मुझे इसकी थीम ही नहीं जमी. काफी confusing  और  अजीब किस्म की है, मुझे नहीं लगता कि  ज्यादातर पाठक इसे समझ पाएंगे।" 

"इसे कहानी तो कह ही नहीं सकते, ये तो एक  मेमॉयर किस्म की चीज़ या कुछ निबंध जैसा है." 

"लेकिन इस पर एक प्ले बना सकते हैं, मेरा मतलब सिंगल करैक्टर वाला प्ले। क्या ख्याल है ?" 

" मेरे ख्याल से तो इसे दुबारा लिखो और अबकी बार इसमें कुछ दोतरफा  कन्वर्सेशन भी डालो, शायद तब ये बेहतर लगने लगे." 

"देखते हैं, अभी कुछ सोचा नहीं है."  


The First part of The Story is Here


Sunday, 8 March 2015

चिट्ठियों के पुल part 1

पहली चिट्ठी 

तुम मुझे अपने साथ क्यों नहीं ले जाते या तुम खुद ही यहां क्यों नहीं आ जाते ??? मेरा ज़रा भी मन नहीं लगता है.  बताओ… तुम … मुझे पता है कि  तुम क्या कहोगे … यही कि मैं खुद ही चलकर क्यों नहीं आ जाती ....   हर बार तुम्हारा या किसी और का सहारा क्यों ढूंढती हूँ. पर फिर भी मैं ऐसे नहीं आउंगी, यही मेरी ज़िद है सुन लो तुम. क्या तुम मेरे लिए कुछ कदम चल कर नहीं आ सकते ?? कहो, बताओ ज़रा ?? मेरा उन पहाड़ों को देखने का और बर्फ को छूने का और वो जगह है ना वैली ऑफ़ फ्लॉवर्स, वहाँ जाने की बहुत इच्छा है …

तुम खुद तो बड़े मजे से बैठे हो वहाँ और मैं यहां अकेले बोर होती हूँ. तुमको मेरी ज़रा भी फ़िक्र है या नहीं,  यहां आये दिन कोई ना कोई आफत सर पे आ खड़ी होती है, मैं थक गई हूँ हर रोज़ नई  मुसीबत से उलझते जूझते, भाग जाना चाहती हूँ कहीं दूर  जहां खामोश रास्ते दूर तक फैले हो और जहां कोई ना बोले  पर फिर भी मैं सुनती रहूँ।  और अगर भाग सकना सम्भव ना हो तो कम से कम  तुम्हारे साथ के सहारे उन आफतों का बोझ कुछ हल्का लगेगा।  पर लगता नहीं कि  तुमको मेरी इन सब बातों  से कोई फर्क पड़ता है, तुमको ये सब ओवर रोमांटिक किस्म की गॉसिप लगती है.  

हाँ भूल गई, ये मोबाइल और ईमेल के ज़माने में मेरा ये फूलों की प्रिंट वाले  कागज़ पर नीले पेन से तुमको चिट्ठी लिखना भी तो एक ओवर रोमांटिस्म ही है. पता नहीं, तुम लिफ़ाफ़े को खोल के पढोगे भी या नहीं  और पढोगे तो संभाल के रखोगे या यूँही कहीं मेज की दराज में या इधर उधर कहीं कागज़ों के ढेर में रख दोगे  इस ओवर रोमांटिक गॉसिप के टुकड़े को ? अच्छा, चलो रहने दो ये सब फलसफा।  ये बताओ कि तुम कब आ रहे हो ? बड़ा लम्बा इंतज़ार है ये, मीलों तक फैला हुआ इंतज़ार का रेगिस्तान और उसमे एक गुम  हो गई भेड़ की तरह भटकती मैं. बताना, कब आ रहे हो.… ??  

अब तुम कहोगे कि  ये क्या रट लगा रखी है, एक ही सवाल दोहराये जा रही हूँ.  जब आना होगा तब आ ही जाओगे,  यूँ बार बार क्या एक ही बात पूछ कर irritate करना। लेकिन अभी और कुछ तो कहने को सूझ भी नहीं रहा बस तुम्हारी याद आ रही है और उसी से मजबूर होकर ये कागज़ भरे जा रही हूँ. पर फिर वही ओवर रोमांटिस्म … अच्छा ज़रा बताओ कि  कैंडल लाइट डिनर, ग्रीटिंग कार्ड्स में लिखी लाइनें और चॉकलेट बॉक्स का तोहफा  और वैलेंटाइन डे भी तो ओवर रोमांटिस्म ही हैं ना, घिसे पिटे ज़माने के पुराने चोंचले फिर भी उनका खुमार और शौक बना रहता है लोगों में. फिर मेरा ये चिट्ठियां लिखना, पोस्ट बॉक्स तक जाना और चिट्ठी  पोस्ट करना और फिर इंतज़ार करना कि  कब चिठ्ठी अपनी  मंज़िल पर पहुंचेगी कब वो अपने सही मालिक के हाथों में पहुंचेगी और कब उसे पढ़ा जाएगा और फिर कब उसका जवाब आएगा और जवाब किस तरह का होगा ?? फोन के ज़रिये, ईमेल के ज़रिये या व्हाट्सएप्प  में ??  ये सब इतना भी "ओवर" तो नहीं  ??? तुम्हारा क्या ख्याल है ??

हाँ थोड़ा लम्बा और धीमा प्रोसेस है यही ना … अच्छा खैर छोडो, मुझे उन छुट्टियों का इंतज़ार है जो हमने हिमाचल की किसी खूबसूरत घाटी में ट्रैकिंग करते हुए बिताने का प्लान किया था. योज़नायें धरी ही रही, तुम्हे समय ही नहीं मिलता।  ये समय बड़ी अजीब चीज़ है कभी किसी को नहीं मिलता  लेकिन इसके पास सबका हिसाब मौजूद है. समय बेहद रहस्यमय  सा लगता है मुझे, समय के साथ बदलते लोग, उनके विचार और उनके जीवन। ये बदलाव, ये नयापन सब एक अजब रोमांटिक रहस्य लगता है मुझे। एक धुंध में सिमटा समय जो अभी एकदम से धुंध को चीरकर  बाहर आ जाएगा अपने नये चेहरे के साथ.  तुम क्या सोचते हो इस सब के बारे में .... 

ये मैं ना जाने कहाँ की बकवास ले बैठी, चिट्ठी काफी लम्बी हो गई, अच्छा बताना कब आओगे तुम .... तुम्हारा इंतज़ार करते तो अब घडी और कलैंडर भी बोर हो गए हैं.  


दूसरी चिट्ठी 

तुम्हारा जवाब मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगा, अब इस शिकायत  का क्या  तुक है कि चिठ्ठी सीधे ही शुरू हो गई,  ना कोई सम्बोधन ना और कोई फॉर्मेलिटी। तो क्या अब तुमको भी  औपचारिक शब्द लिखने होंगे मुझे ?? खैर, मुझे इसकी आदत नहीं और आदत डालने की इच्छा भी नहीं। और तुमने ये भी कहा कि  अब मुझे स्ट्रांग और समझदार हो जाना चाहिए, बचपने को  छोड़ कर अब बड़ा हो जाना चाहिए। ये तुमने सही पहचाना, मुझसे बड़ा ही तो नहीं हुआ जाता। मेरी किसी भी कल्पना में मैं कभी बड़ी हुई ही नहीं, मैंने पढ़ने, नौकरी करने, दुनिया घूमने, लोगों से मिलने और बहुत सारी  चीज़ों की कल्पना की लेकिन कभी भी बड़े हो जाने और ज़िम्मेदारियों का बोझ उठा लेने की कल्पना नहीं की. और अब तुम कहते हो कि  एकदम से बड़ी हो जाऊं, मैंने सोचा था कि  घर बाहर  की ज़िम्मेदारियाँ हम मिल कर संभालेंगे लेकिन देखती हूँ कि ये ज़िम्मेदारियाँ मेरे अकेले के ही हिस्से आई, तुम तो दूर बैठे मजे ले रहे हो. तुमने वो फिल्म देखी  है "जॉन कार्टर",  तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी मुझे "जसूम और बरसूम" के बीच की दूरी जैसी ही लगती है, तुम्हे नहीं लगता ऐसा ??  

वैसे सच बताओ क्या तुमने कभी मेरी जगह पर खुद को रखकर देखा है ? अकेले हर जगह भागते पहुँचते … कभी ये नहीं हुआ तो कभी वो, ये भी ज़रूरी है और वो भी … बस एक मैं हूँ जो ज़रूरी नहीं है. 

अच्छा, छोडो इसे. आजकल बरसात का मौसम है ना तो सफ़ेद लिली में फूल खिलने लगे हैं.  हर रोज़ गमला सफ़ेद पीले  फूलों से खिला रहता है, पर लिली में खुशबू नहीं होती, अजीब बात है ना इतना कोमल और सुन्दर फूल लेकिन खुशबू नाम की भी नहीं। मैंने सुना है कि  उत्तर पूर्वी भारत में ऐसे बहुत से  सुन्दर फूल होते हैं जिनमे खुशबू बिलकुल नहीं होती और हाँ वहाँ कुछ खास किस्म आर्किड और लिली होते हैं. क्यों ना वहीँ कभी घूमने चलें ? बताओ क्या ख्याल है तुम्हारा .... अबकी तुम आओ तो बनाते हैं कोई प्लान, पर पहले तुम आओ तो सही, तुमने अपने आने के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं है, ऐसी भी क्या  आफत है. अब तो मुझे झुंझलाहट होने लगी है, लगता है कि  केवल मैं ही तुमसे मिलने के लिए मरी जा रही हूँ और तुमको कोई परवाह ही नहीं। नहीं, इस बात का जवाब देने की ज़रूरत नहीं और ना कोई सफाई मांग रही हूँ मैं. पर फिर भी .... 

अच्छा, अब इस बार मैं लम्बी चिट्ठी नहीं लिख रही.

To Be Continued....

The Second Part of the story is Here