एक इंच मुस्कान उपन्यास थोड़ा अनोखा सा है क्योंकि इसे दो लोगों ने मिल कर लिखा है; राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी। दो भिन्न व्यक्तित्व वाले लेखक, अलग अलग लेखन शैली लेकिन कहानी एक. इसमें कुल चौदह चैप्टर हैं, एक चैप्टर राजेंद्र यादव का तो दूसरा मन्नू भंडारी का. ज्ञानोदय मैगज़ीन में धारावाहिक किश्तों के रूप में छपे इस उपन्यास को एक प्रयोग के तौर पर भी देख सकते हैं कि दो लेखक मिल कर एक कहानी पर काम करें और पाठक को कहीं से ऐसा ना लगे कि इसे दो अलग दृष्टिकोणों से लिखा गया है; पढ़ते वक़्त कहानी का सूत्र और संरचना कहीं टूटती बिखरती ना लगे. तो इस पैमाने पर ये उपन्यास बिलकुल खरा है इसमें दो राय नहीं है.
एक इंच मुस्कान कहानी है तीन लोगों की; "अमर" जो एक प्रतिष्ठित लेखक है, जिसकी एक अच्छी खासी फैन फॉलोइंग है और जिसके लिए लिखना ज़िन्दगी जीने का ही दूसरा नाम है, जिसका "धन न बैंकों में न मिलों में, वह मेरे मस्तिष्क में है, मेरी कलम में है."
एक रंजना है, जो अमर से प्यार करती है और अमर को भी उससे प्यार है. अमर के लिए घर, परिवार, शहर सब छोड़ आई, शादी की और सोचती है कि जो किया वो ठीक ही तो किया। पर कहीं उसे थोड़ी फ़िक्र भी है, " इन साहित्यकारों का कोई भरोसा नहीं। इन्हे एक पत्नी, एक प्रेयसी , एक प्रेरणा, न जाने कितनी कितनी लडकियां चाहिए।"
एक है अमला, किसी रईस खानदान की इकलौती बेटी है जिसे पति ने शादी के एक साल बाद घर से निकाल दिया। ज़िन्दगी के इस बड़े झटके के बाद भी उस मानिनी का "व्यक्तित्व ऐसा है कि आदमी एक बार देख ले तो ज़िन्दगी भर भूल नहीं सकता।" जिसकी मुस्कान कुछ ऐसी सम्मोहिनी, मायावी सी है कि जिसके जादू से कोई ज्यादा देर तक बच नहीं सकता। एक बार तो पढ़ते समय, पाठक भी कल्पना करने को मजबूर हो जाता है कि मन्नू भंडारी ने अमला के मुस्कुराने का जो ख़ास तरीका बताया है, वो कैसा लगता होगा।
अमला चाहती है कि अमर लिखे और बहुत लिखे, "तुम्हारा लेखन साहित्य की एक उपलब्धि है". अमला के साथ अमर की "मधुर मैत्री", लेखक और पाठक का रिश्ता रंजना की समझ से बाहर हो जाता है. "ये मित्र क्या होती है? या तो बहन होती है या भाभी।" और लगभग पूरी कहानी अमर, रंजना, अमर के अंदर के लेखक और अमला के बीच की खींचातानी और उतार चढ़ाव को बयान करती चलती है.
अमर का चरित्र एक अजब उधेड़बुन और असमंजस में फंसे रहने वाले व्यक्ति का है, सपनों और फिलॉसफी की दुनिया में रहने वाला इंसान। शायद इसके लिए उसे दोष भी नहीं दे सकते। एक तरफ उसे अपने अंदर के लेखक की चिंता है.… "कलाकार तो धारा है, हर कहीं बहता है, जब तक गति है तब तक कला है, फिर न गति रहेगी न कला, धारा तालाब हो जायेगी। रंजना और अमला ज़िन्दगी में बहुत आएँगी लेकिन न अमर प्रतिभा आएगी ना प्रतिभा के स्फुरण के ये क्षण आएंगे।" वहीँ दूसरी तरफ ऐसा जड़मूर्ख और स्वार्थी भी नहीं कि रंजना की तरफ से पूरी तरह मुंह फेर सके; अमला को लिखे पत्र में कहता है, "अपनी आत्मा और आत्मा के जो अंश है उन्हें धोखा देता रहूँ और दोस्तों से लड़ता रहूँ?"
पर फिर भी फैसला लेने और उस पर टिके रहने की क्षमता उसमे ज्यादा नहीं है. अमर की इस मनस्थिति को उसका दोस्त टंडन सही पहचानता है और कहता है " कुछ मिथ्या धारणाएं हमें परम्परा से मिलती हैं और हम उन्हें बिना जाँचे ज़िन्दगी भर पालते जाते हैं. एक मिथ ये है कि कलाकार को घर नहीं बसाना चाहिए, उसे दुखी और निर्धन ही होना चाहिए।" अमर रंजना से विवाह करना चाहता था लेकिन जब अमला ने साहित्य के प्रति फ़र्ज़ याद दिलाया तो फैसला बदल गया; "तुम्हारे जीवन की पूरक तुम्हारी कलाकृतियां ही होंगी, रंजना नहीं।"
फैसला फिर बदला और रंजना से विवाह हुआ. और ये विवाह ही दो ज़िन्दगियों, दो लोगों उनकी अलग ख्वाहिशों और लक्ष्यों और दो अलग अलग विचारों की लड़ाई का मैदान बन गया. अमर भी अपने वर्तमान के बजाय दूर भविष्य की कल्पना कर रहा है, जब लोग सिर्फ उसकी कृतियों को जानेंगे और उसका व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन कैसा था इसकी परवाह किसी को नहीं होगी। टॉलस्टॉय, चेखव, ग़ालिब वगैरह उसे याद आते हैं। टंडन ने उसके लिए बिलकुल सही कहा कि, "तेरे निर्णय तेरे अपने नहीं है, वे निर्णय किसी देशी विदेशी लेखक ने पहले से लेकर रखे हुए हैं और उन्हें अपनी ज़िन्दगी में लागू करके तू उन लोगों की महानता प्राप्त करने का संतोष पाता है. काश तू अपने निर्णय कामू या सार्त्र की किताबों से न लेकर खुद ले सकता होता।"
अब यहां अमर और रंजना के संयुक्त जीवन के बारे में कुछ कहें या उसे समझें इसके पहले अमला को जानना बेहद ज़रूरी है; आखिर उपन्यास का टाइटल उसकी मुस्कुराहट के कारण ही रखा गया है.
अमला अपने समय और परिस्थियों से आगे की औरत है जो खुल कर कहने साहस रखती है कि, " जीवन का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य भी मेरे लिए सौभाग्य बन कर ही आया. इन दस वर्षों में जो कुछ पाया, उसका लेखा जोखा करती हूँ तो लगता है मैंने खोया कम पाया अधिक है." शायद यही साहस उसका गर्व और अभिमान दोनों बन गया है. औरों से अलग, विशिष्ट होने की इच्छा, सारे बंधन तोड़ देने की महत्वाकांक्षा, मर्यादाओं को लांघ जाने का दुस्साहस। "जल की एक उन्मुक्त धारा .... किसी एक की होकर नहीं रहना चाहती, रह भी नहीं सकती … उसके लिए सब समान हैं, वह सबके लिए समान हैं." लेकिन इस महत्वाकांक्षा में बड़ी गहरी अभिलाषा भी छिपी है कि सब उसका कहना मानें, उस पर मोहित हो, उसका जादू सब पर चले; अपनी बात को हर किसी से मनवा सके. पर खुद अमला पर किस का जादू नहीं चल सकेगा, वो किसी की कोई बात नहीं मानेगी, किसी को अपने भीतर झाँकने या कुछ तलाशने की इज़ाज़त नहीं देगी। जिसका ये दृढ विश्वास है कि, " पति के अतिरिक्त भी संसार में बहुत कुछ ऐसा होता है जो नारी जीवन को पूर्ण बना सकता है." पर यही अमला कैलाश के साथ झगड़े, बरसों पुरानी मैत्री के टूटने और उसकी बेरुखी को सहन नहीं कर पाती। अपने ही मन की दबी हुई आवाज़ को अनसुना किये इस बात से मन को तसल्ली देती है कि अमर जैसा एक प्रसिद्ध लेखक उसके बीते जीवन की ट्रैजेडी और वर्तमान के इंद्रधनुषी रंगों पर एक उपन्यास लिखना चाहता है; कि वो एक बड़े लेखक के सृजन की प्रेरणा है और अमर को ये विश्वास है कि अमला के जीवन पर लिखी ये किताब उसका मास्टरपीस होगी और उसे साहित्य के क्षेत्र में "अमर" बना देगी। अमला अपने मान और अहम को इस बात में ढूंढ रही है कि अमर ने अपनी रचना उसके नाम पर समर्पित की है. पर क्या इतना ही पर्याप्त है ?
रंजना एक साधारण सरल लड़की है जिसके वही सीधे सादे सपने हैं कि पति हो, एक सुन्दर सजा संवरा घर हो, शाम को पति पत्नी साथ घूमने जाएँ, ज्यादा से ज्यादा वक़्त साथ बिताएं, सिनेमा देखने जाएँ; अमला के शब्दों में "सुख की कितनी सरल परिभाषा है"। लेकिन फिर भी कुछ असाधारण है रंजना में; उसके पास एक अच्छी नौकरी है, उसने घरवालों की मर्जी को दरकिनार कर अपनी पसंद से शादी की, वो भी ऐसे आदमी से जो फुल टाइम लेखक है, जिसके ना नौकरी का ठिकाना, ना रहने खाने का कोई ढंग. घर का बजट, सारे खर्चे रंजना की ज़िम्मेदारी हैं; पर फिर भी उसे शिकायत नहीं क्योंकि उसे अमर से प्यार है. (सुनने में अजीब है कि आजकल के ज़माने में ये क्या आदर्शवादी किस्सा है पर इस कहानी का यही मुख्य बिंदु है) अमर अपनी इन कमज़ोरियों को अच्छे से जानता है और इसलिए रंजना का ये बिना टर्म्स एंड कंडीशंस वाला प्यार जिसमे वो खुद रंजना को कुछ दे नहीं सकता, ना घर, न पैसा और ना वैसा समर्पित प्यार उसे परेशानी में ज्यादा डालता है और सुख की अनुभूति कम करवाता है । अमर की सुख की परिभाषा भी रंजना से अलग है, उसे एक बंधे बंधाये व्यवस्थित जीवन की आदत नहीं है, " सारे दिन को घडी के हिसाब से नहीं , भोजन नाश्ते के हिसाब से बाँट दिया गया है." उसके लिए किसी पुराने मित्र ( या मित्री) से मिलना, पाठकों (जिसमे महिलाएं भी शामिल हैं) के प्रशंसा भरे पत्र, शाम होते ना होते दोस्तों के साथ निकल जाना; सुख के पैमाने हैं.
और इसलिए अमला या शकुन या लेखन नहीं, सुख की यही अलग अलग परिभाषा; अमर और रंजना के बीच दीवार की तरह खड़ी है और दोनों को दो अलग समान्तर रास्तों पर ले जाती है. इस बात को अमला का चरित्र बड़े सुन्दर ढंग से परिभाषित करता है, "जो किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन का चरम सुख हो सकता है वही तुम्हे कष्ट दे रहा है… शायद अपने अपने व्यक्तित्व के एक सिरे पर बहुत ही साधारण हैं, वही हवसें, वही इच्छाएं, वही कमज़ोरियाँ …"
तो ये कहानी आखिर किस अंत पर पहुँचती है, शायद कहीं नहीं … अमर के अपने शब्दों में इस कथा का सार यही है कि " यह उसके जीवन की विवशता है, ट्रेजेडी है कि जो कुछ उसे प्राप्त है नहीं पाती, अस्वीकार कर देती है और एक ऐसे अदेखे अनजाने सुख पीछे भागती है जो शायद उसे कभी प्राप्त नहीं होगा।" ये कथन अमर और अमला दोनों की जीवन यात्रा पर सही बैठता है और शायद यही वो सन्देश या जीवन सत्य है जो उपन्यास लिखने वालों ने इस सीधी सरल कहानी के ज़रिये बताने की कोशिश की है.
P.S. जिन लोगों ने मन्नू भंडारी की आत्मकथा पढ़ी है या जिनको मन्नू और राजेंद्र यादव के वैवाहिक जीवन की जानकरी रही है वे लोग इस उपन्यास को उन दोनों की अपनी निजी ज़िन्दगी का लेख जोखा ही मानेंगे; खुद मुझे भी यही लगा था लेकिन हमारे इस भ्रम को मन्नू भंडारी ने दूर कर दिया है. उपन्यास के अंत में दोनों लेखकों ने इस डेढ़ साल तक चले "प्रयोग" पर अपने विचार दो चैप्टर्स में लिखे हैं जो इस किताब की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं और इसी में मन्नू भंडारी ने स्पष्ट कहा है कि इस कहानी का उनके निजी जीवन से कोई लेना देना नहीं। पर फिर भी मन मानता तो नहीं।
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5 comments:
अच्छी समीक्षा।
सादर
Thank u Yashwant ji.. itne samay aab aapko blog par dekh ke achha laga.
यह उपन्यास मैंने कई बार पढ़ा है, फिर भी जब अकेला होता हूं तो फिर पढ़ने लग जाता हूँ।मैंने अपने कई नजदीकी लोगों को तो स्वयं खरीद कर पढ़ने को दिया है, वास्तव में एक अद्भुत रचना है।जहाँ राजेंद्र यादव जी अमर को लाकर छोड़ते हैं वहां से अमला औऱ रंजना को वापस सँवारना वाक़ई एक परस्पर चेलेन्ज अति अद्भुत।
क्या लिखूँगा । जब पहली बार पढ़ा था तो जासूसी उपन्यास पढ़ते वक्त जैसे सब कुछ छूट जाता है वैसा ही कुछ था पढ़ता रहा । पढ़ता रहा । फिर एक ठंडी सांस के साथ मुंह से निकला मन्नू जी और राजेंद्र जी ने शायद ही पहले कभी ऐसा सुन्दर कुछ लिखा हो । अब तो मुगले आज़म गाईड फिल्मों की तरह ये भी याद नहीं इसे कितनी बार पढ़ा ।
अच्छी समीक्षा
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