Saturday, 29 December 2012

वो मर गई

वो मर गई .. पर हम औरतों को  बता गई कि  लड़की होना सचमुच  गुनाह है .

वो मर गई पर हमें सिखा  और समझा गई कि  बेटियाँ क्यों पैदा ना होने पाएं ..

वो मर गई पर हमें आईने में अपनी सूरत दिखा गई कि  हमारी आँखों का पानी मर गया है  .. हमारी आत्माएं मर गई है, सड़  चुकी हैं ..

वो मर गई, उसकी आत्मा को मुक्ति मिल गई .. पर हमसे सवाल करके गई कि  सड़कों पर चीखने और संसद में रोने के अलावा  हमने क्या किया है और क्या कर लेंगे ..?? 

वो मर गई क्योंकि बड़े बड़े दावे करने वाला हमारा मुल्क, अपनी बेटियों  को ओढने के लिए  इज्ज़त का कफ़न और दफ़न होने के लिए ज़मीन का टुकड़ा भी नहीं दे सकता है .. दे सकता है तो सिर्फ टुकडो टुकडो में मौत .. बेपनाह दर्द,  तकलीफ, अपमान और किसी वहशी  इंसान के ज़ुल्मों से तय हुई मौत ..

कोई जवाब दे मुझे कि  क्या यही नसीब लिखा कर लाइ हैं इस देश की बेटियाँ ????

वो मर गई .. क्योंकि इस देश का पौरुष और संवेदना मर गई है .. क्योंकि हम ना इंसान हैं ना जानवर ..हम तो सिर्फ बेजान पुतलों का देश है ..

क्योंकि यहाँ का निजाम बहरा और बेबस है .. क्योंकि हमारी व्यवस्था सड  गई है ..  क्योंकि ये ठन्डे सख्त पत्थरों का मुल्क है ..इसलिए यहाँ बेटियाँ हर दुसरे दिन अखबारों में मरी हुई नज़र आती है .. उन्हें मारा  जाता है या कभी जिंदा रखा जाता है कि  दुनिया देखे और सबक ले कि  लड़की के रूप में पैदा होने पर आपके साथ क्या कुछ हो सकता है .. 

वो मरी नहीं .. उसे मार दिया गया .. उससे जीने का हक़ छीना गया .. और भी ना जाने कितनों से छीना जा रहा है ..

हर रोज़ अखबारों में टीवी पर खबरें आती है और हर बार मेरा दिल दहल जाता है .. मेरी साँसे रुक जाती हैं ये सोच कर कि  मैं भी एक औरत हूँ और क्यों हूँ .. अगर हूँ भी तो इस धरती पर क्यों हूँ ??? कोई जवाब दे मुझे ........................

 हर रोज़ जब मैं घर से बाहर निकलती हूँ  तब हर अजनबी चेहरा मुझे डराता है .. 

मुझे डर  लगता है ये सोच कर कि  मैं एक ऐसे वक़्त और समाज में रहती हूँ  जहां जीती जागती  औरत के  शरीर और एक मुर्दे के शरीर में कोई फर्क नहीं किया जाता .. ज़ुल्म करने वालों की आत्मा नहीं कांपती .. उनको किसी औरत ने जन्म नहीं दिया है ..

क्या हम उस दिन जागेंगे जब बेटियाँ पैदा होना ही बंद हो जायेंगी ..


क़यामत जिस भी दिन होगी .. उस दिन खुदा  हमसे सवाल ज़रूर करेगा ,,पर क्या हम उस दिन जवाब दे पायेंगे ..????

वो मर गई और हर रोज़ एक बच्ची आपके और मेरे पड़ोस में मर रही है .. कोई उसे टुकडो टुकडो में मार रहा है .. पर हम अभी जिंदा है .. पर अभी ये साबित होना बाकी है कि  हम सचमुच जिंदा है ...  और ये कि  अन्दर का इंसान अभी जिंदा है  ... और ये भी कि  अभी भी दूसरों का दर्द देख कर हमारी आँखों से पानी बहता है ... 

कोई मुझे जवाब दे ??????


जो जिंदा हैं तो जिंदा नज़र आना चाहिए ...

Wednesday, 19 December 2012

मुझे डर लग रहा है


वो ICU  से बाहर निकल आई .. वहाँ का माहौल अच्छा नहीं लग रहा था .. मद्धिम रौशनी में सब कुछ धुंधला सा दिख रहा था। उसने देखा डॉक्टर्स और नर्स बिस्तर पर लेटे हुए  मरीज को पता नहीं क्या क्या ट्रीटमेंट  दे रहे थे। पर उस शरीर में कोई हरकत नहीं हो रही थी .. लेकिन डॉक्टर्स पूरी मेहनत  कर रहे थे .. उसमे जान डालने की, उसे जिलाए रखने की और शायद उसे बोलने के काबिल बनाने की भी। पर उस से ये सब देखा नहीं गया .. एक  ज़ख़्मी और बीमार शरीर पर दवाइयां और जीवन रक्षक उपकरण अपना काम कर रहे थे।

वो बाहर आ गई .. ताज़ी हवा में सांस ली .. उसे महसूस हुआ कि  अब वो थकी हुई नहीं है और कल रात वाला दर्द और गले से लेकर सारे शरीर में फैलती कैक्टस जैसी तीखी बैचेनी और तकलीफ  भी नहीं है .. शायद ये अच्छी  नींद का असर है  .. उसने  सोचा .. फिर बरामदे में चली आई .. 

"माँ और पापा कहाँ है?"  

फिर नज़र पड़ी .. पापा एक बेंच पर बैठे थे .. एक सपाट भावशून्य चेहरा, जाने कहाँ देखती आँखें और उनसे रुक रुक कर बहते आंसू .. वो डर  गई .. 

"पापा .. पापा ... " उसने आवाज़ दी "माँ कहाँ है, दिख नहीं रही?"  कोई जवाब नहीं मिला .. उसे और डर  लगा,  उसने पापा का कन्धा हिलाया धीरे से पर कोई हरकत नहीं कोई जवाब नहीं .. अब उस से बर्दाश्त नहीं हो रहा .. इधर उधर देखने लगी, ढूँढने लगी .. माँ  कहाँ है .. पर किसी ने कुछ नहीं बताया जैसे किसी ने सुना ही नहीं .. बरामदे में अजीब पीली रौशनी है, सब कुछ धुंधला और उदासी में डूबा लग रहा है ... अब उस से खडा नहीं रहा गया .. बैठ गई पापा के पास उनका हाथ धीरे से पकड़ लिया .. 

फिर एक बार कहा " मुझे डर  लग रहा है .. मम्मी को बुला दो, कहीं नहीं दिख रही।"   

तभी भाई को आता देखा, वो सीधा ICU चला गया . उसे कुछ हिम्मत बंधी वो भी पीछे पीछे गई .. भाई डॉक्टर से बात कर रहा है .. रो रहा था ..

"क्या हुआ .. माँ कहाँ है , कुछ बोलता क्यों नहीं ...?" वो भाई  के सामने खड़ी  थी पर वो डॉक्टर्स की बात सुन रहा था।  

 उसने  देखा कि डॉक्टर अब सारे जीवन रक्षक उपकरण हटा रहे हैं ..नर्स सफ़ेद चादर से मरीज़ को  ठीक से ढक  रही है .. उसने पास जाकर देखने की सोची .. नर्स अब बस चेहरा भी ढकने वाली थी जब उसने देखा .. आँखें बंद जैसे कोई चैन से  सोया हो ..एक थका हुआ .. पीला कमज़ोर चेहरा। वो हट गई ..वापिस बाहर आ गई .. फिर से पापा के पास बैठने ही वाली थी कि  किसी ने उसका हाथ पकड़ा और ले जाने लगा .. कौन है, कहाँ ले जा रहा है .. उसने पूछना चाहा पर किसी ने जवाब नहीं दिया बस उसका हाथ पकडे ले जाता गया .. 


और उस पर फिर से गहरी  नींद और बेहोशी तारी होने लगी। कुछ याद नहीं रहा उसके बाद।     

आँख खुली ..चारों तरफ रौशनी है, सफ़ेद और पारदर्शी ...  बहुत सारे लोग हैं .. औरत, मर्द, बच्चे .. अलग अलग  उम्र और रंग रूप के ..सब खड़े हैं .. उसे साथ लाने वाला  अब पता नहीं कहाँ है।  पता नहीं क्या हो रहा है .. तभी उसने महसूस किया कि आस पास खड़े लोग उसे घूर रहे हैं ऐसे देख रहे हैं जैसे कुछ बहुत अजीब हो .. उसकी कुछ समझ में नहीं आया .. तभी नज़र पड़ी सामने लगे किसी आईने पर .. उसने देखा खुद को उस आईने में ...

एक कटा फटा शरीर .. क्षत विक्षत अंग .. जगह जगह लगी चोटें और घाव जिनसे बहता खून .. चेहरा बिगड़ गया था क्योंकि उस पर कई ज़ख्म थे। टांगों पर ऊपर से नीचे तक  जगह जगह कटने के निशान  थे कहीं कहीं तो मांस बाहर निकल आया था। बाकी शरीर की हालत भी कमोबेश ऐसी ही थी।  सर से पैर तक काली  स्याह रंगत थी उसके शरीर की .. और वो खून जो लगातार  ज़ख्मों से बह रहा था उसका कुछ गन्दा सा लाल और काला  रंग उसे और भी ज्यादा भयानक और बदसूरत बना रहा था।   

वो आगे कुछ देख ना सकी .. बीती रात याद आ गई और वो चीख कर धम्म से  नीचे बैठ गई ..बदहवास, बेबस और बेजान .. 

उसकी चीख सुन कर उस शांत माहौल में भी हलचल हुई  और फिर किसी ने ऊँची लेकिन बेहद सर्द और संजीदा  आवाज़ में कहा ..
"इसे ले जाओ और वहाँ बाकी सबके साथ रखो .. इसकी आत्मा पर लगे दागों और ज़ख्मों को मिटाने में बहुत वक़्त लगेगा .. इसके लिए एक नया साफ़ सुथरा और स्वच्छ शरीर मिलने में अभी वक़्त लगेगा।  .. अभी बहुत वक़्त लगेगा तब तक इसे यहीं रखो फिलहाल इस आत्मा के लिए कोई शरीर, कोई ठिकाना  मेरी बनाई धरती पर मयस्सर ना होगा। " 

उसने सुना, सर झुकाए वहीँ बैठी रही .. कोई आया और फिर से उसे कहीं  ले जाने लगा .. और वो चलती गई ..


Sunday, 2 December 2012

ज़िन्दगी आधी हकीकत आधा फ़साना : अंतिम भाग



घर, मम्मी पापा,  ऋचा,  दोस्त ....और फिर .. 

और फिर .. वही चौराहा ..वे भिखारी .. और फिर यहाँ  ये आश्रम की दुनिया .. 

अपना मन पढने की कोशिश कर रहा है वीरेन, क्यों आया था यहाँ .. क्या हासिल करने .. क्या साबित करने ? किसको दिखाने बताने या साबित करने के लिए ?  क्या सच में सिर्फ सत्य की तलाश या संसार से वैराग्य या फिर  उस के बहाने अपनी ही  कोई  कमी या दुःख जिसे ढकने या छिपाने के लिए वो यहाँ चला आया ..याद आया वीरेन को, किस तरह अपने मन की कुंठा, हताशा, डर और उलझनों को दूर हटाने के लिए, उनसे जीतने के लिए वो आश्रम जाकर धर्म और भगवान् के साए में छिपने की कोशिश करता था।  

सबसे दूर जाने की कोशिश में "सब कुछ" के कितना पास आ गया। 


 उसे महसूस हुआ कि  दुनिया को मोक्ष या  अध्यात्म का रास्ता दिखाना उसकी ख्वाहिश नहीं थी .. लोगों को ज्ञान देना भी उसका शौक नहीं था .. ना उसे कोई साधु  या महात्मा या संत जैसा कुछ बनना था, जिसने अपने लिए वैराग्य और ईश्वर  की आराधना, पंथ का प्रचार .. इस सब को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य मान लिया है।  लोगों के आंसू पोंछने या उनके दुखों को दूर कर सके ऐसी उसके पास कोई जादू की छड़ी भी नहीं है और ना वो खुद को उसके काबिल समझता है।  तो फिर क्या करने आया था यहाँ .. "दुनिया से भागने .. अपना मुंह छुपाने" .. स्वामी अमृतानंद के शब्द कानों में गूंजने लगे .. "हमारा आश्रम दुनिया से भागने वालों के लिए सर छुपाने की जगह नहीं है".  त्याग-तपस्या-संयम-परमार्थ .. सब अचानक कोरे शब्द बन गए।     एक बार फिर वीरेन आईने  में खुद को तलाश कर रहा है।  

अपने लिए शांति तलाश कर रहा था, मन का सुकून जो खो गया गया था .. उसे फिर से पाने के लिए .. अन्दर एक प्यास थी जो रेगिस्तान की तरह फ़ैल रही थी उसे बुझाने, शांत करने के लिए आश्रम जाता था वीरेन .. दिन  वहाँ बैठा रहता था कि जो शांति बाहर कहीं  नहीं  है वो शायद आश्रम की चार दीवारों के भीतर  और इन  तस्वीरों से छनकर आती रौशनी के ज़रिये उस तक पहुँच जाए ..

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वीरेन एक बार फिर स्वामी प्रकाशानंद के सामने खड़ा है .. वातावरण काफी शांत और थोडा बोझिल है। 

" ..तो अब क्या चाहिए ?" स्वामी प्रकाशानंद कुर्सी पर बैठे, कोहनी टिकाये, कहीं खाली दीवार को देख रहे थे या सोच रहे थे .. वीरेन को पता नहीं ..  

"इजाजत". 

"तुम हमारी मर्ज़ी से आये नहीं थे ...अपने मन से आये थे और अपने मन से जा भी रहे हो .. तुम इस जगह के लिए नहीं बने वीरेन ..यही नाम है ना तुम्हारा।"  (आज पहली बार पंथ में दीक्षित होने के बाद स्वामी जी ने उसे  "वीरेन" कह कर बुलाया था वर्ना हमेशा राम ही कहते रहे ) 

"मैं मानता हूँ कि  मैं आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और मेरे कारण आश्रम को काफी शर्मिंदगी भी झेलनी होगी" ..वाक्य अधूरा रह गया .. स्वामी प्रकाशंद ने एक हाथ उठा कर उसे रोका ...      

"नहीं वीरेन, कैसी शर्मिंदगी, हमारा पंथ और इसके आदर्श  दुनियादारी की इस निंदा स्तुति से बहुत ऊँचे हैं ..हमने यहाँ लोगों को खुश रखने के लिए दूकान नहीं सजा रखी  है कि  उनके कहे सुने की परवाह करें .. तुम्हारे जाने से हमें फर्क नहीं पड़ेगा .. तुमसे बेहतर और तुम जैसे हमारे पास और बहुत साधू साध्वियां हैं जो पूरे समर्पण और श्रद्धा से पंथ को आगे बढ़ा रहे हैं ...लेकिन तुम्हारा भटकाव तुम्हे अभी और कहाँ कहाँ ले जाएगा ये मैं नहीं जानता .. हाँ तुम्हे और तुम्हारे उद्देश्य को परखने में हमने भूल की .. स्वामी अमृतानंद ने भूल की .. पर यही विधि का लेखा था ..पर अब तुम जाओ .. अपना रास्ता तलाश करो .. " 

उन्होंने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया .. वीरेन उनके पैरों पर झुका .."भगवान् तुम्हें शांति और सदबुद्धि  दें" .

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मनाली ... 2 साल बाद 

"ये हमारा ब्लूप्रिंट है इस पूरे प्रोजेक्ट का ... एक  IT सेण्टर,  एक Geo -Thermal  एनर्जी प्लांट, एक कम्युनिटी सेंटर  और हाँ एक स्कूल।"

"सर, मिस्टर बैनर्जी आज आ नहीं पाए हैं इसलिए उनकी जगह उनके असिस्टें

ट वीरेन सिंह  आपको आईटी सेण्टर के प्लान की प्रेजेंटेशन देंगे।" 

वीरेन अब घर लौट आया है ...ज़िन्दगी अब एक नए रास्ते पर चल रही है, एक नई  पहचान, एक नए उद्देश्य और एक नए सपने के साथ ...  मंजिल अभी भी अनजानी है, दूर है पर अब मन आज़ाद पंछी है .. जिसके मज़बूत  पंखों  की उड़ान अभी बस शुरू ही हुई है। 


   Image Courtesy : Google

 3rd Part of the Story is Here