सीता दरवाजे के पास खड़ी ध्यान से देख रही है.. आशिमा दीदी dressing टेबल के सामने खड़ी makeup कर रही हैं.. टेबल पर और पास की शेल्फ्स में तरह तरह के कॉस्मेटिक्स और पता नहीं कौन कौन सी चीज़ें रखी हैं.. आशिमा की अलमारी आधी खुली है जिसमे टंगे कपडे, नीचे रखे जूते और कुछ बैग्स सब दिख रहे हैं..
"दीदी आपके बाल बहुत सुन्दर है, मुझे भी बताओ ना सुन्दर बालों का तरीका..?"
आशिमा हंसी, "रहने दे तेरे बस का नहीं इतना सब" .
"क्यों, क्यों नहीं .. आप बताओ ना, क्या लगाती हो चेहरे पर और बालों पर??"
"अरे ये सब बहुत महँगी चीज़ें हैं, जो कमाती है, सब इसी में उड़ा देगी क्या?" ये जवाब आशिमा की माँ का था.
"अच्छा सुन ये रख ले.." आशिमा ने सीता को कांच की चूड़ियों का सेट दिया..मैरून रंग की चमकीली बिंदियों वाली चूड़ियाँ. . सीता के चेहरे पर उन बिंदियों जैसी ही चमकीली मुस्कराहट आ गई..
माँ ने आशिमा को देखा, आँखों में ही सवाल किया.. और एक बेफिक्र पर धीमी आवाज़ में जवाब मिला.. "अब ये पुरानी हो गईं हैं और कितने महीनों से इनको पहना भी नहीं..फालतू जगह घेर रही हैं शेल्फ में."
सीता को इस वार्तालाप से लेना देना नहीं.. वो चूड़ियों को पहन कर देख रही है... सामने आज का अखबार रखा है जिसमे जार्ज बर्नार्ड शा का एक कथन छपा है..
"कुछ लोग होते हैं जो चीज़ों को वैसा ही देखते हैं जैसी वे होती हैं.. फिर वे खुद से सवाल करते हैं कि क्यों मैं उन चीज़ों के सपने देखता हूँ जो कभी थी ही नहीं. उनका खुद से दूसरा सवाल ये होता है .. पर क्यों नहीं देखूं मैं ऐसे सपने...."
सीता भी फर्श पर पोंछा लगाते वक़्त सोच रही है कि एक दिन उसके घर में कपड़ों से भरी अलमारी, ड्रेसिंग टेबल, वो नरम फर वाले खिलौने, रसोई में नए चमकते बर्तन, और भी बहुत सारी चीज़ों होंगी..
सुबह ८:१५
संजय ने लगभग भागते हुए लोकल ट्रेन पकड़ी.. "आज तो लेट हो जाता.."
ट्रेन में भीड़ थी हमेशा की तरह, कुछ जाने पहचाने चेहरे थे, हमेशा की तरह और उनसे आँखों ही आँखों में नमस्ते हुई , चेहरे पर सुबह की ताजगी वाली मुस्कराहट आई .. हमेशा की तरह.. हमेशा का मतलब पिछले एक साल से है.. ट्रेन भाग रही है, बीच बीच में स्टेशन आता है तो रूकती है फिर वापिस दौड़ना शुरू कर देती है और उसके साथ दौड़ता है संजय का मन (अब ऐसा नहीं है कि हर रोज़, हर सुबह संजय एक ही विषय पर सोचता रहता है पर आज यूँही मन भटक रहा है) ...याद आता है एक साल पहले का समय....ज़िन्दगी तब भी भागती थी, और उसके भागने की गति दुनिया की किसी भी सुपर फास्ट ट्रेन से ज्यादा हुआ करती थी. .. कोचिंग क्लास, IAS की तैयारी, दोस्तों के साथ घंटों तक चलने वाले ग्रुप discussions , exams , साक्षात्कार और हर बार रिजल्ट का इंतज़ार.. और इन सब के बीच रीमा .. वहीँ सामने वाली बिल्डिंग के पांचवे फ्लोर वाले फ्लैट में...ख्वाहिशें, महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं .. यही तो हैं ज़िन्दगी की ट्रेन की गति का पेट्रोल.. खिड़की के पास एक सीट खाली हुई, संजय जल्दी से बैठ गया.. ताज़ी हवा कि लहर ने उसे बाहर खींच लिया.. ट्रेन फिर से भाग रही है उसका स्टेशन अभी दूर है और रंग बिरंगा landscape पीछे छूट रहा है..
.. अब ना वो समय लौटेगा, ना उसमे देखे हुए सपने कभी पूरे हो सकते हैं.. रीमा भी अब ज़िन्दगी के अल्बम की एक पुरानी फोटो हो गई है.. गुज़रे वक़्त के एक टुकड़े का चेहरा.. कभी वक़्त साथ नहीं देता .. कभी ज़िन्दगी साथ नहीं देती और कभी हम खुद भी अपना साथ नहीं देते
ट्रेन रुक गई है, स्टेशन आ गया है.. और संजय का मन भी रुक गया है ..अब एक नया landscape सामने है, एक साल पुराना पर हर रोज़ रंग बदलता रास्ता.. दफ्तर पहुँचते ही किसी ने उसके सामने आज का अखबार रख दिया... अखबार के किसी पन्ने पर वही शब्द हैं.. पर क्यों नहीं देखूं मैं ऐसे सपने...."
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" I am not here to measure ages nor I want so.
and it is not my fault that I found a girls who is elder than me
who told you to come on earth five years before or who told me to come five years late."
"one day down the lines u will laugh on your this childish act
सिद्धार्थ अपने लैपटॉप स्क्रीन को देख रहा है.. एक विंडो में जीमेल है और दूसरे में facebook खुला हुआ है.. जीमेल पर जिस नाम की चैट बॉक्स खुली हुई है उसी नाम की प्रोफाइल facebook पर ओपन है. सिद्धार्थ को गुस्सा आ रहा है, खुद पर, उस नाम पर और इस सब से ज्यादा इस पूरे किस्से पर.. क्या करे .. कैसे समझा सकता है, या समझ सकता है..
ज़िन्दगी बिलकुल नॉर्मल ट्रैक पर चल रही थी, सिद्धार्थ केरल के एक छोटे तटीय शहर में रहता है... कॉलेज तो घर से दूर है पर अक्सर वीकेंड पर घर लौट आता है.. और सब कुछ जैसा कि एक इंजीनियरिंग कॉलेज के एक नॉर्मल स्टुडेंट के साथ होना चाहिए वैसा चल रहा था.. पर पिछले कुछ महीनों से एक अब्नोर्मल चीज़ हो रही है.. सिद्धार्थ को प्यार हो गया है और वो लड़की दूर हिमाचल प्रदेश के किसी शहर में रहती है. अब इसमें असाधारण ये है कि सिद्धार्थ कभी उस लड़की से आमने सामने नहीं मिला.. सिर्फ उसकी तसवीरें देखीं हैं, उस से बातें की हैं, उसका लिखा हुआ पढ़ा है( उसके ब्लॉग पर)!!!!... इन्टरनेट पर!!!! ... सिद्धार्थ नहीं समझा सकता उस लड़की को वो उसे किसी चुम्बक की तरह अपनी तरफ आकर्षित करती है .. पर लड़की के अपने तर्क हैं, समझ है और सवाल है..
आभासी संसार की दूरी, वास्तविक जीवन की दूरी, उम्र की दूरी, अलग अलग संस्कृतियों की दूरी, भाषा की दूरी और इन सबसे बड़ी विचारों की दूरी.. पर फिर भी सिद्धार्थ का मन कहता है कि क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने..
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" कहा ना ये नहीं हो सकता, दिमाग से निकाल दे ये सब".
"पर क्यों??? क्यों नहीं.. आखिर कौनसा पहाड़ टूट जाएगा अगर मैं पढने के लिए कहीं दूर जाती हूँ तो.??"
मीता की सहनशक्ति जवाब दे रही है..
"देख बेटा, समझने की कोशिश कर... अपने इतने बड़े परिवार में कभी किसी के बेटों ने भी इतनी पढ़ाई लिखाई नहीं की, ना कोई डिग्रियां ली.. घर से दूर जाकर कहीं पढने, रहने की तो बात ही दूर है.. तुझे कैसे भेज दूँ.. लोगों को क्या जवाब देंगे?.. देख अब इस बात पर बहस मत कर, ये नहीं हो सकेगा.. बेटा अब तेरी शादी भी तो करनी है ना.. क्यों इतनी जिद कर रही है..बिटिया मान जा." माँ की आवाज़ में ना गुस्सा था, ना नाराज़गी बस एक कोशिश है मनाने की, समझाने की, अपनी मजबूरी और बंधनों को ज़ाहिर करने की.
"पर ये तो कोई कारण नहीं हुआ ना.. अगर उन्होंने कभी आगे पढने के बारे में नहीं सोचा तो इसमें मेरी क्या गलती?"
"गलती तो किसी की भी नहीं....."
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विचारों का कोई अंत नहीं दिख रहा.. कुछ सवाल मीता के मन में उभरे ..
"..क्या वो सपने देखना मना है, जिन्हें पहले किसी ने नहीं देखा.. क्या अपने लिए नए सपने देखना और उनके पीछे भागना गलत है ..??"
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" मैं एक दिन वर्ल्ड टूर पर जाना चाहता हूँ.. हवाई आइलैंड, अमेज़न के वर्षा वन, मध्य यूरोप, प्रशांत महासागर और अटलांटिक के खूबसूरत द्वीप... मैं एक दिन इन सब जगहों पर जाना चाहता हूँ.. और जाऊँगा भी."
"लेकिन इस सब के लिए तो बहुत पैसा और दूसरे साधन चाहिए होंगे.."
"हाँ.." मनोज ने कहीं दूर देखते हुए कहा.. उसके चेहरे पर उम्मीदों की चमक थी, आँखों में चलते जाने की हिम्मत, लालसा और उन अनदेखी जगहों को देखने की उत्कंठा..
"तुम कहां जाना चाहती हो? " फिर बिना जवाब का इंतज़ार किये उसने आगे कहा.." मैं अपना देश भी घूमना चाहता हूँ.. एक रोड ट्रिप बिलकुल वैसी जैसी फिल्मों में देखते हैं ना .. मैं भी ऐसे ही एक ऐडवेंचर ट्रिप पर जाऊँगा.. लद्दाख से लेकर थार के रेगिस्तान तक.." फिर जैसे कुछ याद आय़ा और उसने किट्टू की तरफ देखा, किसी उत्तर या प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में ..
"तुम साथ चलना चाहोगी..?"
"हाँ क्यों नहीं, पर क्या ऐसा कभी हो पायेगा??"
"हाँ.. ज़रूर.."
किट्टू भी अब किसी दूर क्षितिज की तरफ देख रही है.. सोच रही है.. कि क्या सचमुच कभी ऐसा होगा, अगर हाँ तो कैसा होगा वो सफ़र.. वो रास्ते और उस सफ़र के सहयात्री..
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दुनियादारी की सीख, सबक, परखा हुआ अनुभव और सलाह ये है कि सपने देखना गलत नहीं और सपने देखने भी चाहिए लेकिन सपने हमेशा सही चीज़ों के देखने चाहिए. नज़रों के भ्रम, आकाश-कुसुम या अपनी काबिलियत से बाहर की चीज़ के सपने देखना सिर्फ मन को बहलाना है..
पर फिर दिल सवाल करता है कि, क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने, आखिर चाँद मेरे धरती पर उतर कर क्यों नहीं आ सकता. कुछ देर के लिए ही सही, पर मैं आकाश-कुसुम को अपनी मुट्ठी में थाम लूं, उसकी खुशबु और खूबसूरती को महसूस कर के देखूं... कौनसी बाधा है संसार की जिसे दूर नहीं किया जा सकता, जिसे जीता नहीं जा सकता.. क्या इस संसार में चमत्कार नहीं होते..
तो फिर क्यों ना देखूं मैं ऐसे सपने जो मुझे अच्छे लगते हैं...