आज सुबह जब मैं सो कर उठी तो सर बहुत भारी सा लग रहा था, कल सारी रात नींद जो नहीं आई. नींद आये भी कैसे ..... कल दिन भर जो सोचती रही, वो सब बातें दिमाग में चल रही थी. दरअसल रात भर मैं इन्ही सब चीज़ों के बारे में सोचती रही. जो हुआ वो सिर्फ एक गलतफहमी थी या वो इंसान ही गलत है, पता नहीं..इतना सोचने के बाद भी मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पायी थी.
कह नहीं सकती कि कौन गलत था या शायद कुछ भी गलत नहीं था ....यही सब सोचते हुए, मैं अपने छोटे से रूफ-टॉप गार्डेन की सार-संभाल करने चली आई...देखा कि रजनीगंधा में अभी तक कलियाँ नहीं आई थी...पौधा कुछ सूखा और बेरंग सा दिखा..यूँ तो रजनीगंधा के फूल सफ़ेद ही होते हैं, लेकिन "सौम्या" को उनकी खुशबू बेहद पसंद थी..उसे गुलाब या कोई और फूल इतना पसंद न था जितना कि रजनीगंधा के गुच्छे....
वैभव से मैं अपनी किसी रिश्तेदार के घर मिली थी, वहाँ किसी ने मेरा उससे परिचय करवाया था...उस दिन शायद उनके घर कोई समारोह था या ऐसे ही कोई पार्टी ...मैं अपने cousins के साथ ही थी, और वो भी शायद मेरे किसी cousin -brother का दोस्त था, इसीलिए हमारे ग्रुप में ही शामिल हो गया था...उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि मेरा वैभव से मिलना महज़ संयोग नहीं था ...उसे और मुझे वहाँ सोच-समझ कर बुलाया गया था ...खैर ये सब तो कोई विशेष बात नहीं है क्योंकि माता-पिता-रिश्तेदार अक्सर ऐसी कोशिशें करते ही हैं . उस दिन के बाद मैं और वैभव नेट पर मिले...मिले या उसने मुझे सर्च किया ....कह नहीं सकती...जो भी हो...अब तक ये तो साफ़ दिख ही रहा था कि हम दोनों के परिवारों की भी इसमें सहमति ही थी कि हम बात करें, एक दूसरे को जाने-समझे...और परिणामत: उनकी "चिंता" और "बोझ" का अंत हो.
हम दोनों लगभग रोज़ ही काफी देर तक नेट पर बातें करते थे. वैभव ने अपने बारे में, यानि अपनी पढाई, करियर और future -plans के बारे में विस्तार से बताया...और उसकी दिलचस्पी मेरे बारे में भी उतने ही विस्तार से जानने की थी...कभी-कभी उसकी कुछ बातें मुझे समझ नहीं आती थी, इसके पहले कभी भी मैंने इस तरह किसी से इस तरह बात नहीं की थी...शादी का ये मेरा पहला "interview " था या ऐसे कहूँ कि इसके पहले कभी ऐसा कोई मौका नहीं आय़ा कि मुझे ये दिमाग में रखते हुए किसी से बात करनी पड़े कि मेरी उससे शादी होने जा रही है या होने की संभावनाएं हैं...वैभव से बात करते हुए यही सब confusions और ख़याल मन में चलते रहते थे....लेकिन इसके बावजूद उससे बात करना मुझे अच्छा लगने लगा, उसका बच्चों की तरह हर सवाल को दो बार पूछना या बात करते-करते अचानक बहुत गंभीर हो जाना... ..पर कभी-कभी उसके सवाल मुझे परेशान कर देते थे. कभी-कभी मुझे लगता था कि उसके बारे में कुछ ऐसा है जो मैं नहीं जान पा रही हूँ..या समझ नहीं पा रही हूँ ठीक से..
वैभव अक्सर मुझसे एक सवाल बार-२ करता था और जैसे उस सवाल का जवाब उसे अपने मन मुताबिक ही चाहिए भी था या शायद मुझे ऐसा लगा. मैं खुद को गलत या दोषी नहीं मान पा रही थी लग रहा था कि वैभव ही इस पूरे मामले को गंभीरता से या गहराई से नहीं ले रहा था..इसका कारण मेरे कुछ अनुभव थे जिन्होंने मन के किसी कोने में कुछ कडवाहट सी भर दी थी. पर ऐसा भी नहीं था कि वैभव से बात करते हुए मैं किसी पूर्वाग्रह को अपने मन में रखे हुए थी. जब वैभव ने परिवार, विवाह और करियर के बारे में मेरे दृष्टिकोण, प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं के बारे में जानना चाहा तो मैं कुछ उलझ सी गई. कभी ऐसी प्राथमिकताएं या लक्ष्य मैंने तय नहीं किये थे, जिसमे किसी एक का चुनाव करना पड़े और दूसरे को पूरी तरह छोड़ना या उपेक्षित करना हो. मुझे हमेशा ही यही लगा कि ज़िन्दगी में हर चीज़ सही अनुपात में नहीं मिलती, इस "सही" और "उचित" संतुलन को खुद ही साधना पड़ता है.
लेकिन शायद वैभव के ख्याल अलग थे. उसे तो एक निश्चित जवाब चहिये था, या तो ऐसा या वैसा, बीच का कोई रास्ता नहीं.. वैभव चाहता था कि उसकी पत्नी अपने पति को और अपने परिवार को अपनी प्राथमिकता माने ...और इसमें कुछ गलत भी तो नहीं था. बहस और उलझन तब खड़ी हुई जब सवाल माता-पिता, पति और करियर जैसे मुद्दों पर आ गया. अपने माता-पिता की इकलौती बेटी सौम्या ने इतनी गहराई से इन मुद्दों पर ना कभी सोचा था और ना ही वो ऐसे सवालों के लिए तैयार थी. देखा जाए तो कभी ऐसे सवालों से उसका वास्ता भी नहीं पड़ा था कि उसे उनका जवाब देने के बारे में सोचना पड़ता. लेकिन ये सारी चीज़ें वैभव को तो मालूम नहीं थीं.
अपनी जगह वैभव भी ठीक था. पढाई और करियर के लिए बरसों तक घर-परिवार से दूर इन metro -cities में रहने के बाद हरेक इंसान की यही ख्वाहिश रहती है कि और कोई ना सही, पति-पत्नी तो एक-दूसरे के साथ हों, एक-दूसरे को समझें. ज़िन्दगी की इस आप-धापी में जहाँ हर इंसान कुछ ऊँचे और महत्वपूर्ण लक्ष्यों के पीछे दौड़ रहा है, वहाँ परिवार और जीवनसाथी के प्रति ज़िम्मेदारी कहीं ना कहीं पीछे छूट ही जाती हैं. तब ऐसे में निश्चित रूप से प्राथमिकताएं तय करना ज़रूरी हो जाता है. "लाइफ-पार्टनर और लाइफ टाइम companion होना दोनों अलग-२ बातें हैं."
पर ये सब बातें इन्टरनेट की chat window में आसानी से नहीं कही जा सकती या समझाई जा सकतीं. वहाँ ना तो कहने वाले का चेहरा सामने होता है और ना ही उस चेहरे पर आने वाले मनोभावों को देखा या समझा जा सकता है. ऐसे में सिर्फ शब्द ही माध्यम होते हैं सामने वाले तक अपनी बात पहुँचाने के लिए. शब्दों के चुनाव में गलती या उन शब्दों का सामने वाले पर प्रभाव और उनका मतलब कैसा और किस तरह निकाला गया, ये बातें ऐसी स्थिति में बेहद महत्वपूर्ण बन जाती हैं.
और कहीं ना कहीं यही वजह रही कि वैभव और मेरे बीच संवाद-सेतु धीरे-धीरे कमज़ोर होते हुए आखिर एक दिन पूरी तरह टूट ही गया. पर मैं उस अनुभव को पूरी तरह नहीं भूल पायी, और ना ही दुबारा ऐसे किसी अनुभव से गुजरने के लिए खुद को तैयार कर पाई.
मुझे लगा जैसे वैभव के लिए ये सब बहुत casual सा कुछ चल रहा था..बहुत बुरा महसूस हुआ था.. पता नहीं कैसे -कैसे ख्याल मन में आये वैभव के बारे में..लगा जैसे किसी ने मेरा मज़ाक बना के रख दिया था...२-३ हफ्ते इसी हाल में गुज़रे..फिर धीरे-धेरे मैं इसे एक बुरे सपने की तरह भूल गई....
इन्टरनेट पर किसी को समझना या खुद को समझा पाना बेहद मुश्किल काम है, और ये काम "सौम्या" से नहीं सध पाया. लेकिन ये इन्टरनेट दुनिया को बहुत छोटा बना देता है. अपने घर में बैठे हम लोग सारी दुनिया के हाल जान जाते हैं. ऑरकुट, facebook , twitter हमें हर उस शख्स की उपस्थिति का, उसके दूर होते हुए भी आस-पास ही होने का अहसास करवाती हैं, जिनसे हम दूर जाना चाहते हैं. अभी जब कुछ दिन पहले ही वैभव से दुबारा एक social -gathering में मिलना हुआ . वैसे इसे मिलना तो नहीं कहा जा सकता, दूर से ही एक-दूसरे को देखना या अपनी नज़रों को उसी एक दिशा में भटकने से रोकना और किसी की नज़रों को अपनी पीठ पर, चेहरे पर महसूस करते हुए भी सहज और सामान्य बने रहना.. ये मिलना नहीं बस यूँ ही रास्ता टकरा जाना कहा जाना चाहिए.
घर वापिस लौटकर सौम्या के मन में फिर से हलचल सी उठी और एक बार फिर से उसने अपने ईमेल अकाउंट में वैभव के साथ हुई बातों की chat history ढूंढना और पढना शुरू किया. जब से वैभव के साथ उसकी बातचीत बंद हुई थी, उसने कभी उन पुराने chat records को पढने या देखने की ज़हमत नहीं उठाई थी. पर अब वो खुद को रोक नहीं सकी, उन chat records को दोबारा पढने और उन पर काफी सोचने के बाद बस इसी नतीजे पर पहुँच पाई कि कहीं कुछ समझ की कमी रह गई. और दो रातों से इसके बारे में सोचते रहने और बहुत से अनबूझे सवालों के जवाब ढूँढने की कोशिश में नींदें ही कहीं गुम हो गई...या शायद उन्हें आँखों में समाने और पलकों पर छाने की इज़ाज़त ही नहीं मिली.
लेकिन मैं ये भी जानती थी क़ि अब ये chapter पूरी तरह से बंद हो चुका है और इसे दोबारा खोलने से कोई अर्थ नहीं निकलना. जब ये सब चीज़ें मेरे दिमाग में बहुत भारी हो गई तो मैं कुछ दिन के लिए निशिता के घर चली गई. उससे बात करके मुझे यही लगा कि जो हो गया सो हो गया, अब उसे भूल जाना ही ठीक है .... साथ ही ये भी लगा कि मैं कुछ over -react सा कर रही हूँ. ठीक है ...होता रहता है....ज़िन्दगी में कुछ खट्टा कुछ मीठा ...कुछ कड़वा और कुछ फीका..
घर लौट कर रजनीगंधा के पौधे को संभाला, देखा कि उसमे एक कलियों का गुच्छा निकल तो रहा है. गमले की खरपतवार साफ़ की, मिटटी की निराई की और उसमें खाद डाली. रजनीगंधा अब कुछ खिला हुआ और अच्छा दिखने लगा
था.
कुछ दिन बीते, मेरे दोस्तों ने एक holiday ट्रिप प्लान की..और बस आनन् -फानन सबने एक-एक बैग पैक किया और हम निकल पड़े ....शिमला, मनाली, डलहौज़ी, ऋषिकेश ..१० दिन कैसे गुज़रे पता ही नहीं चला... सफ़र का आखिरी पड़ाव फिर से ऋषिकेश था..वहाँ एक बार फिर से रिवर -राफ्टिंग को जम के एन्जॉय करने के बाद हम सब एक restourent में coffee पीने बैठे थे.. जब निशिता ने धीरे से मुझे कहा, "देख सोमा, वो लड़का बहुत देर से तुझे ही देख रहा है." मैंने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, सिर्फ अपने कंधे उचका दिए . लेकिन फिर निशि ने कहा, "अरे देख, हमारी तरफ ही आ रहा है." अब मैंने भी उसी दिशा में देखा...सचमुच कोई हमारी ही टेबल की तरफ आ रहा था और आ क्या रहा था, आ ही गया था.. एक पल को वो चुप खडा रहा..फिर जैसे एक शिष्ट मुस्कराहट के साथ उसने मुझे संबोधित किया, " आप जयपुर में एक workshop में आई थीं ना..." मैं बिना कुछ कहे उसे पहचानने की कोशिश करते हुए उलझन भारी नज़रों से उसे देखने लगी... फिर उसने कहा, "good governance and developing society " पर एक workshop और सेमिनार था."
ओह, हाँ अब कुछ याद आय़ा ..लगभग साल भर हुआ इस बात को तो, लेकिन मैं अब भी इस सामने खड़े शख्स को नहीं पहचान पा रही थी. उसने भी शायद ये समझ लिया और कुछ झेंपते हुए जाने के लिए मुड़ा..पर फिर आखिरी कोशिश के तौर पर उसने कहा, "कोई बात नहीं रहने दीजिये..आप भूल गई हैं ....पर मैं अब अच्छी हिंदी बोल लेता हूँ और समझ भी लेता हूँ. " इतना कहकर वो वापिस जाने लगा...
पर इस आखिरी वाक्य ने मेरे दिमाग के तार झनझना दिए और जैसे एक फिल्म सी आँखों के सामने घूम गई ....और मैंने हँसते हुए पीछे से जवाब दिया.." लेकिन मेरी अंग्रेजी आज भी उतनी ही खराब है.." सुनकर वो लड़का रुका ..उसकी आँखों में चमक थी और चेहरे क मुस्कराहट बढ़कर ख़ुशी में बदल चुकी थी..उसने कहा, "कोई बात नहीं, अब हम manage कर लेंगे.."
7 comments:
कभी-कभी उसकी कुछ बातें मुझे समझ नहीं आती थी, इसके पहले कभी भी .........
u hav so beautifully xpressed feelings of a young gal [specially at such "interview" tym :)]
too good....
Thank you Namisha..
If I have to express my feelings about this story, I would say,
"Simply Amazing"
I believe this is your best work till now.
So many emotions, knitted in net of words.
You're a true magician of words...
keep writing...
nice...
Thank u Mukesh
" Not you neither any one can,
Only my pen understands my "Pain"... "
May be my poem is suitable for your feelings.
Thank you Manish...yes you are right..your poem describe it in the right way.
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