Saturday, 3 August 2024

परिचय : अपरिचय

"यहां इतनी दूर तक आना और अब आगे ?" सवाल खुद से हो रहा है तो जवाब देने कोई दूसरा कहां से आएगा !! यह सोच कर ही खीझ होने लगी। यह क्या वाहियात आइडिया है, ऐसा फिल्मों में होता है या वो निठल्ले निहायत ही रोमांटिक किस्म के उपन्यासों में; असल जिंदगी में ऐसा कौन करता है ? 
और हो इंस्पायर इन इंस्टाग्राम और यूट्यूब वाली रीलों से। चले हैं साहब " फिर से शुरुआत करने" वह भी पूरे ड्रामेटिक तरीके से। 
इधर उधर नजर फेरी,  लोग एक दूसरे से बतियाने में मसरूफ़, कहीं कोई पूरा ग्रुप है जिनके शोर से दूसरे लोग बार बार उनकी तरफ तीखी नजरों से देखते हैं पर शोर मचाने वाले बेखबर या बाखबर अपना एक अलग संसारी बुलबुला रचने में मगन हैं; चाहे अस्थाई मगर रंग बिरंगा सा एक खूबसूरत मेमोरी !!! जिसे वे लोग जो आज इस समूह में एक साथ बैठे हैं , इस जगह, इस क्षण में वो सब लोग कल या उसके बाद का कल या उसके भी बाद का कल या और आने वाले बरसों के कल में इस जगह को, इस शोर को, इन ठहाकों और किस्सों को याद करेंगे। 
इतना सब सोचते सोचते फिर से खीजने वाली स्थिति हो गई। यह क्या अजीब ही ख्याल सूझ रहे हैं। फिर नज़र एक तरफ गई, यह लो रिमझिम हो रही है बाहर ;  अब जाते समय भीगने और रास्ते में कहीं ट्रैफिक या टूटे फूटे रास्ते में फंस जाने की फिकर होने लगी। 
" काहे की शुरुआत, यहां तो शुरुआत से पहले वापसी की फिकर है। कोई भरोसा है बरसात का , कब तेज हो जाए ; कब रास्ता ब्लॉक हो जाए बरसाती पानी से !!! "  
शुरुआत, फिर से, नए सिरे से, नई जगह से !!! नए चेहरे ? नया नाम ?? पुराना चेहरा, पुराना नाम, पुराना इंसान !!!! फिर नया क्या है ? नया विचार ? नया सवाल , नया जवाब ??  कितने ही प्रश्न, कितने ही ख्याल एक साथ बोलने लगे, शोर मचाने लगे। 
और फिर से नज़र इधर उधर भटकने लगी, अनजाने चेहरे और लोग; कोई परिचय या परिचित नहीं। क्या हर समय, हर जगह कोई परिचय की रस्सी या लाठी होना जरूरी है ? क्या इसके बिना आगे बढ़ा नहीं जाता ?
" क्या मैं यहां बैठ जाऊं ?"
" अं, इम्म " !!! 
" क्या मैं ? और कहीं जगह खाली नहीं है, इसलिए यहां ,,,," 
सामने एक अपरिचय है पर क्या इस अपरिचय से कोई परिचय निकलेगा ??
" अं, हां हां । बैठ जाइए"।
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" आप को कुछ ऑर्डर करना है ?" 
भीतर के ख्याल चुप हो गए।
" हां चाय और स्नैक प्लैटर"।"
"आपको अगर ये प्लैटर किसी के साथ शेयर करनी हो तो  मैं भी ब्लैक कॉफी के साथ "। 
शेयर ?? क्या ? परिचय ? परिचय की शुरुआत ?? अपरिचित ही रह जाने देने में क्या कोई हर्ज़ है ??  क्या बिना परिचय के कोई क्षण , कोई मेमोरी शेयर की जा सकती है ?? 
इतनी दूर, इस पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ इलाके के इस कोने में , इस रेस्टोरेंट में क्या कोई क्षण ऐसा मिल सकता है जहां से , जहां पर एक नया परिचय शुरुआत कर सकता है !!! क्या यह ठीक वही क्षण है जिसके लिए इतना रास्ता पार करके आना पड़ा ? 
यह तो निर्णय का क्षण है, परिचय या शुरुआत का नहीं। यह तो सोचा ही नहीं था!!! यह निर्णय वाला हिस्सा तो पहले से पता नहीं था !!! अब !!! 
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" लगता है बरसात तेज हो रही है। चलना चाहिए।"
" अभी इतनी भी तेज नहीं है, यहां तो ऐसी बारिश अक्सर ही होती है। थोड़ी देर रुक कर चलते हैं, कम से कम यह प्लैटर तो खत्म कर लें ।"
खाना महत्वपूर्ण है ? या रुकना ? या यह जो क्षण बीतता जाता है उसकी एक याद बुनते जाना महत्वपूर्ण है ?? यह फिर सवाल शोर मचाने लगे।
"क्या हुआ ? यह लो  एक केक स्लाइस, एक स्लाइस इस नई जान पहचान का ।"
"क्या यह जीवन का एक नया स्लाइस है ?"
"क्या, समझ नहीं आया ?" 
"अं अं, कुछ नहीं। यह  केक एकदम ताजा लग रहा है।"
"और लो।"
नए परिचय का स्लाइस !!!! जीवन का एक स्लाइस !!! पुराना कुछ नहीं ??? पुराना कोई नहीं ? सब नया !!! नया स्लाइस !!!!



Photo Courtesy : Google

Saturday, 20 July 2024

कुछ कह लेने दो

तो अब आज क्या किस्सा कहा जाए ??? एक बात जो बार बार देखती हूँ लोगों के व्यवहार में , पता नहीं यह नया ज़माना है, टेक्नोलॉजी है या "new normal " ; यह है कि आदत पड़ गई है  क्षण क्षण में अपनी कही हुई बात बदल देने या सुबह से शाम तक कहे हुए शब्द ही बदल गए।  यह खुद को चतुर सुजान मनवाने और स्थापित करने का अजब ही सर्कस है।  ऐसी बोली भाषा जो तीक्ष्ण है बिना वजह के और जिसका उद्देश्य है "मेरी लकीर तुमसे ज्यादा लम्बी और ऊंचाई पर है "  .  अच्छा , यह कोई नैतिक शास्त्र का उपदेश या सामाजिक व्यवहार का कोई रोना पीटना नहीं है ; यह अनुभव है एक के बाद एक लोगों को वही तौर तरीके दोहराते देखने का जो समझ नहीं आता कि  करने वाले को क्यों अटपटा  नहीं लग रहा !!! यह जो फैशन बन गया है जमाने का चलन कि ऐसे बिना वजह की चतुरता या बुद्धिमानी का परिचय हर समय जब कोई कुछ पूछने कहने को आगे बढे कि तुरंत ही एक चतुराई का एक व्यवहार बरत लो। यह हद दर्जे  का खोखला और छिछला ढोल पीटना हुआ कि देखो मैं ऐसे भी या ऐसे ही व्यक्तित्व का इंसान हूँ , तुमसे जो बन पड़े सो कर लो, किन्तु करना नहीं अन्यथा मैं अपना भीतर का डर  और अनावश्यक संदेह संशय मिटाने खातिर कुछ और भोंडापन कर दिखाऊंगा।  
यह अपने ही भीतर का डर है, सूनापन है जिसके मारे इंसान अपने चारों और सुरक्षा घेरा या लकीर खींचने के फेरे में निरंतर एक या दूसरा जतन करता जाता है पर वह लकीर कभी भी पूरी नहीं होने पाती, सुरक्षा का भाव कभी भी पूरा नहीं आने पाता  क्योंकि जहां  आरम्भ ही उलटी चाल से हुआ तो मध्य और अंत तक बोलावा चलावा  सीधा कैसे होगा ??? यह तो जैसे ऐसा खेल है कि " चूंकि मुझे ऐसा लगता है या मुझे ऐसा विश्वास है कि मुझे सदैव ही चतुराई का प्रदर्शन करते रहना चाहिए  और उसे दुनिया दारी में  मनवाने के लिए एक सख्त सा लबादा ओढ़े रखना चाहिए  और आवश्यक होने पर पत्थर काँटा जैसा व्यवहार करने को तत्पर" .  
पर इतना सब सर्कस के करतब करके हम कहाँ जाकर रुकते हैं ?? वहाँ जहां हमारे आस पास सभी एक दुसरे के चतुर सूजन होने की परीक्षा लेने को हर समय तत्पर हैं या वहाँ जहां हर क्षण आदमी यह सोच सोच कर ही चौकन्ना है कि कहीं कोई गलती ना हो जाए और चतुराई मय भोंडी अकड़ के प्रदर्शित होने से ना रह जाए।  

और एक अजब खेल देखती आई हूं और अब तो जैसे देखते ही मुंह फेर कर दूर कहीं छिप जाने का मेरा मन होता है । क्योंकि यह खेल है लोगों का और मेरे लिए यह एक फांस को तरह है। लोग बड़ी ही सादगी और सहजता से सत्य के तालाब में झूठ का नाला मिलाते हैं और कभी झूठ के सागर में सत्य का जाल बिछाए रखते हैं।  यह एक स्थापित सामाजिक व्यवहार बन गया है। इसे हमने खुद स्वीकृति दी है, मान लिया कि अब यह सब चलता है।  यह झूठ का साथ हमारे रोजमर्रा के जीवन में इस तरह बन गया है कि अब हम मानसिक रूप से पहली अपेक्षा झूठ की रखते हैं और अंतिम अपेक्षा सत्य की।  और यह सच झूठ का खेला हम सबके जीवन के  हर सड़क, मोड़,  चौराहा, गली जेड पगडंडी में इतना seamless और smooth होता है जितना कि फिल्म के एक्टर्स की कॉस्मेक्टिक सर्जरी । उकता नहीं जाते लोग इस सब प्रपंच से;  पहले एक बात कहना फिर उसके विपरितार्थक दूसरी बात फिर दोनो ही बातों को अपनी अपनी जगह पर सही ठहराने, मनवाने और तर्कसंगत घोषित करने की एक पूरी कवायद। थकते नहीं लोग !!! 
मैं बरसों से यह सर्कस देख देख कर उकता गई हूं । दुनिया समाज के नजरिए की खातिर जान समझ कर भी आंख झुका लेती हूं कि कौन प्रश्न प्रतिप्रश्न करे। पर जब अपने निजी जीवन में भी मेरा वास्ता ऐसे झूठ के जाल से जब भी पड़ा, वह दुखदायक ही रहा । हर बार प्रण किया कि अब कभी किसी का झूठा थाल हमारे पाचन हेतु नहीं परोसने देंगे; पर फिर मंदबुद्धि और निरे मूर्ख भी ऐसे ही थोड़े ना कहलाए हैं !!! 

झूठ बोलना,, धड़ल्ले से बोलना, डंके की चोट पर झूठ बोलना और फिर उतना ही ऊंची आवाज और सीना तान कर कहना कि " हां तो, क्या हुआ !!! अब क्या कर लेंगे साहब आप हमारा !!! क्या कर लीजिएगा !!"  यह एक ऐसी बेहयाई और मानव को दी गई वाणी का अपमान है कि सोचती हूं यह जो ऐसे आज अभी इस क्षण में यह शब्द तुम्हारे मुंह से निकले और कुछ घड़ी बीतने बाद वह शब्द बदल गए या उन शब्दों का प्रयोग अन्य स्थान पर अन्य व्यक्ति के साथ भी ; क्या तुमको कभी अपना कहा हुआ कुछ याद नहीं आता या इस सारी उचित अनुचित की परिभाषा से परे जाकर मानव के बजाय कोई और प्रजाति बन गए हो ???  
यह सारे झूठ और चतुराई के लबादे आदमी ने अपनी अस्थाई और तुरंत के सुख खातिर ओढ़ रखे हैं। यह अपने ही भीतर की कमियों को स्वीकार ना कर पाने या अपने कामना की पूर्ति येनकेन कर लेने की स्थिति है, यह कभी ना पूरी होने वाली कथा है।  और जब एक का सुख दूसरे के सुख और आराम की सीमा रेखा को लांघ कर अपना सुख का दायरा दूसरे के आराम वाले स्थान में स्थापित करता है तब ???? 
सुख की नींद में मीत हमारे  देस पराए सोए हैं, सुख की नींद में" 
(  पंक्तियां एक मशहूर हिंदी गैर फिल्मी गीत से हैं)

Friday, 19 July 2024

कुछ कहा क्या ??

लम्बा अरसा बीता जब मैं अपने ब्लॉग पर लिखा करती थी।  फिर अब अचानक से किसी ने याद दिलाया कि  " आपने अब अपना ब्लॉग डिस्कन्टिन्यूए कर दिया है। " और मैं जैसे नींद से जागी ; मुझे याद आया किस तरह लोग मेरे ब्लॉग पर लिखी हुई चीज़ों से मुझे आंक रहे थे , मुझे तौल रहे थे , मेरे बारे में अपने मुताबिक अनुमान /कयास / कल्पना बना रहे थे।  मेरे फेसबुक वाले ब्लॉग पेज पर लिखी हर बात को तौला और "समझा" जा रहा था। आखिर तब मैंने लिखना ही बंद कर दिया ; ना रहेगा बांस ना बजेगी  बांसुरी। और तब मैंने जाना कि "ना लिखना यानी ना कह पाने के बराबर है " . वह जो रुक गया था वह कीबोर्ड नहीं था , मन का प्रवाह था जिसे दुनियादारी के पैमाने पर बार बार एडजस्ट करने की कसरत चलती रही।  और यह कसरत कभी पूरी ना हुई।  कोई फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सप्प यूट्यूब उस लिखे की जगह ना ले सका। 
और अब याद आता है कि एक ज़माने में एक मित्र था जिसे मेरे ना लिखने की ही परवाह थी जो हर बार एक ही बात चिल्लाता था ; चाहे दो शब्द ही लिखो, चाहे किसी को अपशब्द ही कहो , चाहे कुछ बकवास ही लिखो पर लिखो. क्योंकि यही तुम्हारी आवाज़ है , तुम्हारा आनंद और मन का संगीत है।  
लेकिन तब वह मित्र मुझे "समझ" ना आये और आखिर "अमित्र" हो गए।  यह इस फेसबुक के ज़माने की भाषा है, "unfriend " . 

इन बीते बरसों में कितना कुछ था जो मैं कहीं नहीं कह सकी, किसी को ना कह सकी. अब भी नहीं कह सकती।  तो अब मन के संगीत का प्रवाह और  कीबोर्ड की खटर  पटर  का सामंजस्य बिठा लेने दो।  मैं अपने आस पास हर जगह देखती हूँ , लोग अपने मन की कह ही नहीं पाते ; क्योंकि हर क्षण कोई आपको सुन रहा है पूरी तन्मयता से ताकि आपको judge किया जा सके !!! जाना जा सके आपके बारे और सारे परदे , तहें और आवरण हटा कर देखा जा सके !!!
यहां मित्र कौन है ? मित्र , हितैषी या जिसको आप मान सकें मित्र ??? कोई एक इंसान जिसको आप कह सकें, सुना सकें , जिसके सामने बेपर्दा होने का डर या झिझक ना हो. जो आप पर कोई ठप्पा ना लगाए।  क्योंकि होता यही आया है कि जहां आप "नासमझ" हुए और बोलने कहने को दौड़े आये वहीँ आपको इमोशनली कमज़ोर मान लिए जाने में कोई कमी शेष नहीं रहती।  होने को यह भी हो सकता है कि यह बोल सकने की ख्वाहिश, कह सुन लेने की इच्छा आपको "निरा मूर्ख , दिन भर फुरसतिया और कूढ़ मगज़ " की उपाधि दिलवा दे !!!  होने को क्या नहीं हो सकता ??? 
आप चले थे "दिल का हाल कहे दिल वाला " और लोग कहें कि "अरे अरे यह कौन परेशानी का टोकरा आ गया ? अरे दूर हटाओ , इसकी छाया हमारे नाज़ुक सुख संसार पर ना आये।  
या इतना एक्सट्रीम ना भी जाएँ तो अगर आप उस व्हाट्सप्प वाले सन्देश प्रेरित हो गए कि " गर दिल खोल लिया होता दोस्तों के सामने तो आज,,,,,"   तब !! अच्छा बताइये , क्या सचमुच आपके मित्र हैं ? आपको लगता है कि आपके पास मित्र हैं, साथी हैं , संग बोलने बतियाने को एक ऐसा साथी जिसके दरवाजे पर बापर्दा या बेपर्दा के सवाल नहीं है ??? 
नहीं हैं ना।  
क्योंकि हम एक आदत में ढल गए हैं जहां विश्वास कर पाना और सरलता से मान लेना बेवकूफ होने का प्रमाण है।  हर समय अपने कवच को चाक चौबंद रखना और तीखी नज़र और प्रश्न करता दिमाग , संदेह से देखता दृष्टिकोण ; यह हम हैं।  यहां वही भला है जो या तो पर्दा बनाये रखे या जो परदे के पार की खबर रखे।  "खबर" रखना ही हमारी बैठक है, संगत है , हमारा तरीका है ; शेष सब व्यर्थ बचकाना और बालकों के खेल हैं।  यह बालक आप ही हँसते और आप ही रोते हैं , आप ही रूठते और मान भी जाते  हैं।  इनका यह "रोज का है " .  ना जाने कब आखिरी बार था जब हम सरल मन और सहज बुद्धि थे?  जब हर समय पक्ष विपक्ष का नहीं सोचा जाता था ? जब कोई छिपा हुआ विचार या राय नहीं बनाई जाती थी ? 

और इसीलिए , मेरा भी एक दुनियादारी वाला तजर्बा है कि अपने मन की तहें छिपा के रखिये कि हर इंसान आखिर एक साधारण औसत इंसान ही है।  औसत बुद्धि , औसत विचार श्रृंखला , औसत व्यव्हार और औसत प्रतिक्रिया।  इन औसत वाले इंसानों को दिल के सोने में खोट ढूंढने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती।  गर एक बार यह इज़ाज़त भूलवश दे ही दी तो तुरंत से एक्सेस  डिनाइड कीजिये।  मैं भी अपने मन के हाल अहवाल, हीरे और जवाहरात को औसत दिमाग वालों की महफ़िल का किस्सा नहीं बनने दे पाती।  इसलिए यह ब्लॉग ही साथी है।  
अब शुरुआत के लिए इतनी शिकायतें बहुत हैं।