Wednesday, 25 September 2019

old school charm

मुझे यात्राओं का कोई बहुत ज्यादा मौका नहीं मिला है; पुराने ज़माने के लोगों की तरह मेरी यात्रा भी छुट्टियों में ननिहाल जाने या बहुत हुआ तो किसी और रिश्तेदार के यहां जाने तक का एक सीमित अनुभव है ।  पर इस सीमित यात्रा में भी जो कभी रोडवेज की बस से और कभी भारतीय रेल से की गई; उसमे कुछ जगहें  ऐसी हैं कि उनको देख कर या याद कर के आप किसी और ही  संसार में पहुँच जाते हैं।  यह एक तरह से हमारा देसी नार्निया वाला छोटा मोटा अनुभव है। बस से आते जाते वक़्त कुछ तयशुदा जगहों पर हाल्ट होता था और ट्रेन तो खैर अपने आप में एक हाल्ट स्टेशन है जो निरंतर चलायमान रहता है। अब ये तय जगहें ही आदमी का एक परिचित आकर्षण बन जाती हैं; यहां चाय पिएंगे, यहां कचौड़ी या लस्सी बढ़िया मिलती है, यहां का दहीबड़ा नहीं खाया तो फिर यात्रा का आनंद ही क्या रहा !!! उन्ही तयशुदा  जगहों की यात्रा  में भी हर बार रास्ता कुछ नया ही लगता है; कुछ स्वाद, कुछ पहचान के पत्थर और कुछ स्मृति के चिह्न। 

कोई चीज़ कितनी पुरानी हो सकती है ?  या पुरानी होते हुए भी उसका ओल्ड स्कूल चार्म बना रह सकता है क्या ?  ये ओल्ड स्कूल किसको कहते हैं ? शायद पुराने ज़माने से चिपके रहने की आदत को ?? 

बहरहाल, अभी पिछले कुछ वक़्त से हाईवे के होटल, गेस्ट हाउस, मिडवे रेस्टॉरेंट को देखते देखते यह ओल्ड स्कूल जैसा कुछ जाग गया।  अजमेर जोधपुर हाईवे पर बना "बर" का मिडवे।  जहां का कटलेट और  इडली सांभर, ऑमलेट ब्रेड और चाय  जिसके लिए हम पूरे रास्ते इंतज़ार करते थे बर पहुँचने का ।  कटलेट होता कुछ नहीं है सिर्फ आलू बेसन की एक बड़ी सी टिकिया, पर यही टिकिया उस मिडवे का बड़ा आकर्षण थी।  इडली सांभर और नारियल की चटनी हर वक़्त ताज़ी मिलती थी। खैर, खाना  वहाँ आज भी ताजा ही मिलता है।  यह चमत्कार कभी समझ नहीं आया कि हर चीज़ उस बियाबान में इतनी फ्रेश और स्वादिष्ट कैसे है ?  और वहाँ की वो छोटी सी knick  knacks  बेचने वाली दुकान;  जहां से कई बार काफी कुछ ख़रीदा. अब वो काउंटर नुमा दुकान अपनी पुरानी चमक की परछाई जैसी कुछ बची है.  मिडवे की इमारत  भी जैसे कोई पुराना  सरकारी गेस्ट हाउस; उभरे हुए सफ़ेद भूरे रंग के पत्थरों की बाहरी दीवारें जिन पर वक़्त  और मौसम की मार से अब काई जमने लगी है. सामने गेट से आता हुआ एक खुला लम्बा रास्ता और इतना बड़ा कंपाउंड कि  जहां दो तीन बसें आराम से खड़ी  रह सकती हैं।  यह इमारत भी एक हिस्सा है नास्टैल्जिया का; बीते समय के फ्रेम का।  बारिश के मौसम में यहां अक्सर सब कुछ भीगा हुआ दीखता है.  इमारत की बाहरी दीवारें, कंक्रीट की सड़क वाला रास्ता और सारे पेड़ पौधे ।  ऐसा लगता है कि बरसात बस अभी ही हुई है ।  अक्सर मुझे ऐसा वहम होता है कि बरसात का मौसम इस जगह पर हमेशा के लिए थमा हुआ है । इस जगह को देखकर लगता था  कि जैसे कोई कोलोनियल ज़माने का  गेस्ट हाउस जो किसी दूर दराज  हिल स्टेशन पर बसा है । निर्मल वर्मा के उपन्यासों के हिल स्टेशन और कॉटेज हाउस का नक़्शा शायद ऐसा ही कुछ होता होगा !!! ( रेगिस्तान के पश्चिमी कोने पर बसे  शहर के लिए ये बरसात का मौसम वाला हाईवे का ये अर्ध सरकारी मिड वे  होटल ही हिल स्टेशन जैसा मालूम होता है )

इस मिडवे को देख कर हमेशा हिल स्टेशन  जैसा क्यों  महसूस होता था, इसका  कारण तो नहीं पता पर शायद आस पास मध्य अरावली के पहाड़ है, जिनके कारण यहां काफी हरियाली है और बरसात में इस हाईवे पर और पहाड़ों पर धुंध और बादलों का डेरा रहता ही है ।  सफ़ेद रुई जैसे बादल  पहाड़ो पर ही उतर आते हैं, पहाड़ का ऊपरी हिस्सा इन बादलों से अक्सर ढका हुआ ही दिखता है।  बारिश ऐसी जम कर होती है कि हाईवे पर विजिबिलिटी ही ख़त्म हो जाती है , केवल गाड़ियों की हेड और टेल लाइट्स की रौशनी के धब्बे  पानी के धुंधले बहाव में दिखाई देते हैं। 

RTDC  के राजस्थान भर में फैले हुए होटल्स का भी ऐसा ही किस्सा है।  पुरानी लेकिन मजबूत इमारत । बाहर से और भीतर से ।  बाहर एक बड़ा खुला बगीचा जिसमे एक फाउंटेन लगा होता है,लोहे  की कुर्सियां और टेबल पड़ी रहती हैं जहां बैठ कर ओपन एयर ब्रेकफास्ट या लंच का आनंद लिया जा सकता है।  एक बड़ा सा कंपाउंड  या अहाता जहां गाड़ियों की पार्किंग बेहद आराम से की जा सकती है।  इन होटल्स को देख कर लगता है कि इनको बनाने की प्रेरणा पुराने ज़माने के सरकरी डाक बंगले या रेस्ट हाउस वगैरह से मिली होगी जिनको सरकारी अफसरों के लिए बनाया जाता था।  लकड़ी का भारी फर्नीचर जिस पर सादी लेकिन एलिगेंट नक्काशी या डिज़ाइन होती है।  कमरे और लाउंज का इंटीरियर साधारण ही होता है; राजस्थानी पेंटिंग्स जो दीवारों  के खालीपन को भरने की कोशिश करती हैं ।  जो सबसे  आकर्षित करने वाली चीज़ है, वो  है कमरों का साइज़।  खुले, हवादार कमरे जिसमे  एक डबल बेड  या तीन बेड  और भारी  कुर्सियां, मेज़ और ड्रेसिंग टेबल रखी होने के बावजूद कहीं से भी बंद जैसा नहीं लगता।  बाथरूम्स में सारी आधुनिक सुविधाएं मिलेंगी। चमक दमक तो नहीं है पर आराम और तसल्ली पूरी है।

अब जब हाईवे और होटल का किस्सा निकला ही है तो एक पुराना किस्सा उदयपुर हाईवे का याद आ रहा है जिसे लिखे बिना मन नहीं मान रहा। 

फाउंडेशन कोर्स की ट्रेनिंग के दिनों में एक बार अपने कुछ batchmates के साथ उदयपुर से घर जाने के लिए बस में रवाना हुए।  दोपहर को १२:३० बजे रवानगी का समय था लेकिन कुछ हमारा आलस और कुछ बस चलाने वाले की दरियादिली कि बस आखिर कर १:३० पर  रवाना हुई।  हमने जल्दबाजी के चलते हॉस्टल से टिफ़िन भी नहीं लिया और अब खाने का वक़्त था।  बस वाले ने अपना शुरूआती हाल्ट शहर के बाहर हाईवे पर कतार में बने ढाबों और दुकानों के सामने  किया, इस  उद्घोषणा के साथ कि पंद्रह मिनट यहां रुकेंगे।  मैं और मेरी सहेली बस से उतरे ये सोच कर कि रास्ते के लिए चिप्स नमकीन खरीद लिए जाएँ।  लेकिन सामने एक ढाबा देख कर विचार बदल गया।  अपने एक साथी को चिप्स बिस्कुट और माज़ा की बोतल लाने का आदेश देकर हम दोनों ढाबे में घुसे।  दुकान बिलकुल खाली थी, एक भी ग्राहक उस वक़्त तक नहीं था । जाते  ही सवाल दागा, थाली का क्या रेट है और उसमे क्या क्या मिलेगा ? जवाब भी तुरंत था, चार रोटी, चावल, दाल, सब्ज़ी, दही ; दुबारा कुछ नहीं मिलेगा उसके एक्स्ट्रा पैसे लगेंगे वैसे थाली का रेट साठ  रुपया बताया।  सुनते ही तुरंत गुप्त  मंत्रणा हुई।  आदेश हुआ, फटाफट एक थाली लगा दो जिसमे चावल के बजाय एक कटोरी दही एक्स्ट्रा कर दो और सब्ज़ी भी नहीं चाहिए उसके बजाय दाल एक्स्ट्रा दे दो।  और खाना कितनी देर में लगा दोगे  या पैक कर दो ? कितना टाइम लगेगा ? पांच सात  मिनट में कर दोगे ? ढाबे वाले ने अजीब ढंग से हम जीन्स कुरता स्पोर्ट्स शू धारित प्राणियों को घूरा और कहा, बैठो तो अभी लगा देंगे थाली।  हम दोनों एक कुर्सी टेबल घेर के बैठ गए।

सचमुच तुरंत बैठते ही थाली आ गई और हम लोग हड़बड़ हड़बड़ करते खाना शुरू हुए।  उसी लम्हे हम दोनों लापता को ढूंढ़ते  वही batchmate  आया जिसको चिप्स बिस्कुट लाने भेजा था।  उसका रिएक्शन ऐसा था कि ये कौन भुक्खड़ है जिनकी सूरत तो ...… ख़ैर, सवाल  जवाब हुए ; तय हुआ कि भूख तो सबको लगी है, थाली का दाम वाजिब है, हम  भी यहीं खाएंगे और बस वाले को रुकने का कह देते हैं वैसे भी बस में हमारी २० लोगो की बारात के अलावा और कोई था नहीं। और देखते ही देखते उस खाली ढाबे में एक कुर्सी भी खाली नहीं बची।  सभी ने अपने लिए एक एक थाली मंगवाई। यानि हमारी कंजूसी या किफायतशारी की भरपाई बाकी लोगों से हो गई।  या अपने मुंह मियाँ मिठ्ठू बनने के लिए कह सकते हैं कि हमारे आते ही उसकी ग्राहकी बढ़ गई। साठ रूपए की उस थाली में उस दिन दो प्राणियों का भरपेट भोजन हुआ; ऐसा सस्ता सुन्दर दाम और  इतने मितभोजी ग्राहक,  कहीं  मिलेगा भला ??

 वह यात्रा मेरी सबसे यादगार यात्रा है क्योंकि उस दिन मेरा जन्मदिन भी था और उस दिन चलती बस में जो केक काटा और सबने खाया वह भूल सकने जैसी स्मृति नहीं। उस दिन दो केक काटे गए थे, एक जो मैं हॉस्टल के किचन में रखवा के आई थी बाकी  सब batchmates के लिए और एक यहां रास्ते में सेलिब्रेशन के लिए लाया गया था। 

यह ओल्ड स्कूल का चार्म अजीब है जो स्मृतियों के कबाड़ से पुराने रिकॉर्ड खंगालता रहता है। 


Image Courtesy : my mobile camera photography.

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Tuesday, 23 July 2019

Time and Space

Me : It is very boring today.

Time :  .....

Me : How to pass the time ?

Time : You can't pass me. you are going through me.  Every second,  every nano second.

Me :  I have not asked for a philosophical response.

Time :  I am everywhere,  you can't escape.

Me :  I have not asked for an escape. I am asking how to kill this boredom.

Time : You can't kill,  you can only go through it.

Me :  will you please ...

Time : Go out, roam around the city and create a day.

Me : With whom should I go ?

Time : With me !!! I am always with you.  I am around you.  I am everywhere.  

Me :  Oh please, not again . So boring it is. 

Time :  .........................................................



Part 2 : वनीला कॉफ़ी




 "क्योंकि, मैं तुम्हारा  लौह आवरण उतरते देख रहा हूँ। "

'और तुम खुश हो रहे हो ?"

" नहीं, लेकिन इतना अंदाज़ा नहीं लगाया था मैंने।"

"किस बात  का अंदाज़ा ?"

"तो क्या अंदाज़ा था तुम्हारा ?"

"जो भी था, जाने दो। "

"मेरे ख्याल से एक एक कंकर  फेंकने के बजाय तुम पूरा पत्थर एक बार में ही पटक दो."

"तुम फिर फालतू सोचने लगीं, ऐसा कुछ नहीं कहा मैंने।'

"तुम बात को बदल सकते हो लेकिन उसका अर्थ नहीं बदल सकते।  शब्दों के अर्थ  उनके कहे जाने से ज्यादा गहरे होते हैं। "

"हो गई तुम्हारी फिलॉसोफी शुरू। "

"खैर."

"ये बारिश के छींटे खिड़की के कांच पर  ऐसे लगते हैं जैसे कांच में  जगह जगह छोटे महीन से  डिज़ाइन  आ गए  हो। "

"ये तुम्हारी नज़र है, मुझे तो सीधी सादी  बरसात की बूँदें ही दिख रही हैं। "

"हाँ, ये अब गोल बूँद ही दिख रही है। "

"तुम sci  fi  फिल्में बहुत देखती हो ना , उसी का असर है।  आजकल में कोई नई  फिल्म देखी ?"

"अरसा बीत गया फिल्म देखे तो। "

"क्यों , अब ये एक शौक भी बरसात में बह गया क्या तुम्हारा ? और तो कुछ तुम करती नहीं। "

"ऐसे ही, अब इच्छा  नहीं होती। "

"मतलब अब फिल्म देखने की भी कोई बाकायदा सिचुएशन होनी चाहिए। "

"अब तुम जो भी कहो। "

"मैंने बहुत से कहानी के थीम और बेस लाइन सोचे पर किसी को भी आगे नहीं बढ़ा पा रही हूँ। "

'क्योंकि तुम खुद आगे नहीं बढ़ रही हो।  सुनयना,  कहानी लिखने से ज्यादा कहानी जीना भी ज़रूरी है। "

"पर मैं कुछ लिखना चाहती हूँ , मुझे लगता है कि कहीं कोई सूत्र है जो मुझे मिल नहीं रहा या मैं देख नहीं पा रही।"

"वहम  है तुम्हारा। "

"चलो अब बारिश रुक ही गई। बाहर कितना पानी जमा हो गया है। "

"मौसम खुल गया है, चलो ड्राइव पर चलते हैं."

"तुम चलती हो या मैं अकेला ही निकल  जाऊं ?"

"रुको, मैं  आती हूँ। "

"आसमां ने खुश होकर रंग सा बिखेरा है। "

  "और कुछ नहीं तो अलग अलग गानों के टुकड़े जोड़ कर ही एक कहानी नुमा कुछ लिख मारो. तुम्हारा शौक पूरा हो जाएगा। "

"तुम फिर मजाक उड़ा रहे हो। मेरी समझ नहीं आ रहा कि आखिर अब इतने वक़्त बाद  तुम ठहरे पानी में कंकर फेंकने क्यों आये हो ? "

"मैं सिर्फ तुमको आज में खींचने की कोशिश कर रहा हूँ। और तुम इतनी चिढ क्यों रही हो. ? "

" तुम पहले ऐसे नहीं थे या  अब कोई नया बदलाव है ?  मुझे महसूस होता है कि तुम पहले ऐसे नहीं थे।  तुम्हारी भाषा ही बदल गई है।"

"कुछ नहीं बदला है सुनयना।  वक़्त के साथ हम सब ज्यादा परिपक़्व  और व्यावहारिक हो जाते हैं लेकिन तुम ओवर pampered रही हो इसलिए कोई भी नई  चीज़ तुम्हे आसानी से पसंद नहीं आती। come  out  of   your  shell . "

"तुम उन दिनों ज्यादा अच्छे इंसान थे। तब तुम्हारे पास वक़्त हुआ करता था।  अब तो तुम्हारा  वक़्त छतीस हज़ार कामों में फंसा है।"

'क्योंकि तब  मैंने कभी भी तुमको आइना दिखाने की कोशिश नहीं की। और सिर्फ यूँही इधर उधर की बातों के लिए वक़्त आजकल किसी के पास नहीं है।  और  तुम बार बार पलट कर उन पुराने दिनों में क्यों पहुँच जाती हो ?"


" ऐसा नहीं है। तुम्हारे हिसाब से तो परिपक्व होना मतलब सब तरह से इमोशंस को उठा कर ताक  पर रख देना।"

"अब तुम फिर वहीँ  पहुँच गईं। "

"रहने दो फालतू बहस है।  लम्हे फिल्म देखी  है तुमने ?"

"वो श्रीदेवी वाली ? इतनी पुरानी  फिल्म का अभी  यहां क्या काम है ?'

"एक  scene  है उसमे , जब वहीदा रहमान कहती है अनिल कपूर से  कि " हुकुम अब बड़े हो गए हैं और मेरा हाथ छोटा हो गया है."

"इसका क्या मतलब ?  तुम एक पूरी तरह से गैर ज़रूरी बात  को यहां quote  कर रही हो।  तुम वो डेन्यूब वाली बात ही करो।  तुम्हारा आवरण तुम्हारे इस बेसिर पैर की फ़िल्मी कल्पना से ज्यादा ठीक है। हाँ, कहानी वाली बात।  देखो इस बढ़िया मौसम और इन नज़ारों पर ही कुछ लिखो। "

"वो कोई आवरण नहीं है।  मैं सचमुच विएना देखना चाहती हूँ।  यूरोप का आर्किटेक्चर , वहाँ  का लोकल कल्चर  .... "

"अभी तुम ठहरे पानी की बात कर रही थीं और अभी दो घंटे पहले तुमको डेन्यूब सूझ रही थी।  क्या तुम सोचती हो कि डेन्यूब का पानी हज़ार साल से एक जैसा ही है ?  तुम जिस डेन्यूब को ढूंढ रही हो वो तुम्हारी एक पसंदीदा इमेजिनेशन है जिसे तुमने किताब में पढ़ा है और बस एक रोमांटिक सा ऑरा  बन गया। "

"ऐसा तुमको लगता है मुझे नहीं।  और कल्पना क्या कभी सच नहीं होती ? कोई ज़रूरी है कि जो आज दूर का ख्वाब है हमेशा  ऐसा ही रहेगा ? हो सकता है कि तुम को हंसी आ रही है पर ...

'तो चलो, कब फुर्सत है तुम्हें ? टिकट बुक करवानी होगी,  रहने का arrangement , सब देखना पड़ेगा  ना।  तुम को सुविधा से रहने की आदत है।"

"ऐसे अचानक  अभी ?"

"तो और कब ? वहीँ लिखना डेन्यूब पर कहानी।  यहां तो सूखी नदी पर कुछ लिखने का हाल बन नहीं रहा तुम्हारा। "

"बोलो ?"

"अच्छा, कॉफ़ी का कौनसा फ्लेवर पसंद है तुम्हे ? चॉकलेट, हेज़लनट, आयरिश या वनीला ?"


"वक़्त की क़ैद में है ज़िन्दगी , चंद  घड़ियाँ हैं जो आज़ाद हैं "

"कॉफ़ी का फ्लेवर साहब !!!"

"नहीं चाहिए। "

"वनीला से शुरू करो. बेसिक और मीठा  और खुशबू वाला। "






Image Courtesy : google









Wednesday, 17 July 2019

वनीला कॉफ़ी

"धड़कते हैं दिल कितनी  आज़ादियों से, बहुत मिलते जुलते हैं इन वादियों से" .....  

"क्या खूबसूरत गाना  है, लिरिक्स  क्या कमाल का है.;  कहानी की शुरुआत के लिए इससे बेहतर पंच  लाइन और क्या होगी ?"

"तुम एक घनघोर  decadent    रोमांटिक किस्म की प्राणी हो. इससे ज्यादा बेहतर लाइन तुमको सूझ भी नहीं सकती "..

"क्या मतलब घनघोर डीकैडेंट ?? हम क्या कोई जीवन का फलसफा झाड़ने बैठे हैं या फिर तुम्हारी तरह यथार्थवाद की गठरी लादे फिरें ?"

"अच्छा सुनो, वहाँ नीली डेन्यूब के किनारे कैसा महसूस होता होगा ? मैं वहाँ जाना चाहती हूँ ; देखना  छूना चाहती हूँ  वहाँ की आबो हवा, वहाँ का संगीत, डेन्यूब का पानी और ..."


" अच्छा, आज दिन तक तुमने ये सूखी नदी जो इधर झालामण्ड के  पास बरसात में बहती है, वो तो कभी  देखी  नहीं। वहाँ तक कभी गई भी नहीं और डेन्यूब देखने का इरादा है। "

, "ये  भी तो हो सकता है कि  जो इंसान कभी अपने आस पास के लैंडस्केप से भी परिचित ना  रहा हो, वो एक दिन.... "

"हाँ, वो  एक दिन अंतरिक्ष की सैर पर जायगा, सारी  पृथ्वी का भ्रमण करेगा और बेहद रंग बिरंगे travelogue लिखेगा. ज़रूर लिखेगा और उसके पहले अपने डिकइडेंट होने को  सार्थक करेगा। "

"तुम हद दर्जे के निराशावादी हो।  "

"और तुम हद दर्जे की कल्पनावादी ।  "

"मैं कुछ बेहद दिलचस्प किस्म की किस्सा बयानी करना चाहती हूँ ; जैसे वो पुराने ज़माने की बेहद खालिस किस्म की हिंदी के मुहावरे और लहजा।   या फिर पूर्वी भारत के लैंडस्केप, जहां पहाड़, नदियाँ, मैदान, हरे भरे जंगल और  ...... "


"तुम फिर नोस्टालजिक हुईं।  तुम कभी अतीत से बाहर निकलोगी या नहीं ?'

"अतीत एक सुरक्षित जगह है, वहाँ सब कुछ  एक निरंतरता में है. वहाँ कुछ बदलेगा नहीं और ...  वहाँ एक स्वर्णयुग जैसा अहसास होता है। "

"ये तुम्हारी ओरिजिनल लाइन है ?"

"नहीं, इसे मैंने एक उपन्यास में पढ़ा था।   क़ुर्रतुल ऐन हैदर के नावेल आखरी शब् के हमसफ़र।   और उसमे .... "

"मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए  था कि  तुम्हारे साहित्य की दुकान वहीँ एक जगह खुलती और  बंद  होती है। "

"एक बात बताओ, दो साल तक तुमको कभी मेरी याद नहीं आई ? तुमने कभी फ़ोन करने तक की जहमत नहीं की उन दिनों।   शायद इसलिए कि  तुम और मैं दोनों बोर हो गए थे ?  मुझे ये अजीब सा लगता है कि  दो बरस अजनबी बने रहने के बाद, एक बार फिर से परिचय का सागर उमड़ना।  ठीक वैसे जैसे पढ़ाई के दिनों में रोज की   बतकहियाँ  .... तुम्हे कैसा लगता है ?"

"मुझे कुछ भी नहीं लगता , मैं इतना दिमाग नहीं लगा सकता तुम्हारी तरह. .  मुझे दिन  भर के छत्तीस हज़ार काम होते हैं, अब तुम सरकारी बाबू हो, काम कुछ है नहीं तो बस ख्याली बहस शुरू। "

"हाँ, और तुम खालिस कॉर्पोरेट वाले बाबू हो।  तुम्हारे छत्तीस हज़ार कामों की लिस्ट में मेरा  नंबर कहाँ आ सकता है ?"

"तुम खुद ही नहीं चाहती थी कि तुम्हे कोई याद करे, कांटेक्ट करे ....  क्या तुम चाहती थी ?'

"इस अंतहीन बहस  का कोई फायदा नहीं. ये सब समय और दिलचस्पी की बातें हैं। "

"तुम हमेशा इस तरह का कोई डायलाग चिपका कर बात बदलने का हुनर रखती हो ।  मैं  पूछता हूँ कि क्या तुम चाहती थीं  कि  कोई तुम्हे याद करे, फोन करे , मिलने आये  ?"

"शायद हो सकता है कि मैं ऐसा ही चाहती थी पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। "

"और इस नौटंकी की वजह ?"

"मैं अपने आप को  miserable   नहीं दिखाना चाहती , किसी की दया की मोहताज नहीं होना चाहती  .... "

"Miserable तो तुम अभी भी हो।  इतना कितना सोचती हो और कोई किसी का मोहताज नहीं  बन जाता।  और जो तुम दूसरों के लिए सोचती हो वैसा दुसरे नहीं सोचेंगे क्या तुम्हारे लिए ?"

"मेरे ख्याल से हम कहानी लिखने बैठे थे, उसकी आउटलाइन सोच रहे थे. "

"हाँ,  कहानी लिखो; कुछ वही घिसा पिता सपाट सा।  तुम्हारी इमेजिनेशन को एक फ्रेशनेस की ज़रूरत है।  ताज़ी धुप, हवा और पानी ....  बाहर आओ इस किताबी किस्से से। '

"बाहर बारिश हो रही है , तिरछी बारिश है शायद।  खिड़की के कांच पर बौछार दिख रही है। "

"ये बारिश के दिन हैं. मौसम हर चार महीने में बदलता है।  तुम अपना मौसम क्यों नहीं बदलतीं ? तुम्हारा कैलेंडर तो .... "

"मुझे अब बारिश अच्छी नहीं लगती।  सारे रास्ते  बंद , धूप ताजी हवा का अता  पता नहीं।  सब तरफ सीलन। "

"कौनसा मौसम अच्छा है , जिसमे तुमको ताज़ी हवा दिखती है ?"

"सब एक से हैं।  सपाट और सीधी  लकीर जैसे। "

"अगर कभी मौसम बदला तो क्या तुमको बदलाव अच्छा लगा था ? या लगता है ?  तुम इतना सवालों और संदेहों में क्यों उलझती हो  ये तुम्हारा  एक  खोल में बंद बेवकूफाना  किस्म का   इंटेलेक्ट ; साइलेंट ट्रीटमेंट फॉर अदर्स।  तंग नहीं हो जाती तुम इन सबसे ?"

"साइलेंट ट्रीटमेंट अपना सेल्फ रेस्पेक्ट और वैल्यू  जताने का एक तरीका है। "

"हाँ, ज़रूर ; फिर भले ही उस तरीके से खुद अपना ही नुकसान  हो जाए।  और किसको वैल्यू दिखानी है ? क्या तुम सोचती हो कि  किसी बात को सुलझाने का यही सही तरीका है ?"

"ये सुलझाने का नहीं, बात को ख़त्म करने का तरीका है।   एक रॉयल साइलेंस  .... जब लोग आपको taken  for  granted  लेने लगते हैं या जब कोई चीज़ समझ या पसंद  से बाहर हो तब। "

"गॉड  सुनयना,  तुम इस किस्म के बोगस निष्कर्ष पर कैसे पहुँचती हो ? ये taken  for  granted  वाला ?  ये तुम्हारी अपनी  Insecurity  है, इसे दूसरों की गलती कहना बंद करो। "

"सुनयना, तुम्हे अब शायद याद भी नहीं  कि तुम्हारा ये रॉयल साइलेंस कितना लम्बा चला था और उस साइलेंस को तोड़ने की और तुम तक  पहुँचने की कितनी  कोशिशें की थीं. मैंने।   याद है तुमको ??  फिर तुम एक दिन नींद से जागीं  अपने उसी पुराने Attitude  और अवतार में और तुमने सोचा  कि  लो सब कुछ पहले जैसा हो गया। "

'तुम आज इतने Cruel  और सख्त क्यों हो रहे हो ?"

"क्योंकि मैं तुम्हारी इस ड्रामा स्टोरी से ऊब गया हूँ।  तुम वक़्त के धागे कस  के रखने की कोशिश कर रही हो  जबकि वक़्त भागता जा रहा है। "

"बारिश अभी भी चल रही है. कब रुकेगी ?"

"मैं कोई इन्दर देवता का सेक्रेटरी हूँ जो मुझे पता होना  चाहिए।  खैर,  मैं चाय  बना रहा हूँ  तुम भी पियोगी ?"

"नहीं, मैं चाय नहीं पीती। "

"तो  ग्रीन टी , कॉफ़ी , लेमन टी ?"

"नहीं अभी सिर्फ ठंडा दूध बिना शक्कर का, उस से मेरी .... "

"तुम और तुम्हारे नुस्खे। कभी इन लकीरों के बाहर आकर देखा है तुमने ?"

"मुझे यही सूट होता है। "

"अब इस वक़्त तुम सचमुच Miserable  ही लग रही हो। "

"क्यों ?"



क्रमशः