Wednesday, 26 July 2017

अथ प्रतीक कथा ---- दूसरा वर्शन


अपने दोनों हथेलियों  पर अपना सर टिकाये, कोहनियां मेज़ पर  चिपकी हुई ,  प्रतीक  शायद आराम कर रहा है।  पास में परदे के पीछे से एक रसोइया कभी कभी इधर दुकान में झाँक लेता है , दोपहर होने आई है  लेकिन यूँही खाली बैठे हैं।  वैसे ये बीच का वक़्त यूँ  ठाले बैठे ही गुज़रता है , सुबह लोग आते हैं।  वो जो सामने दरवाजा है कांच का बड़ा सा , वहीँ से एक एक कर  लोग अंदर आते हैं  और प्रतीक उनको देखने पढ़ने की कोशिश करता रहता है।   

अमूल बटर की खुशबू  दुकान में  हर समय मौजूद रहती है।  इस खुशबु में प्रतीक को कुछ याद नहीं रहता।   भूलने के लिए भी कोई शगल चाहिए और प्रतीक का शगल है  आलू परांठा  पर अमूल बटर की एक्स्ट्रा परत ।  
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कितनी देर से सोया  हुआ है प्रतीक।  इस कमरे के शोर गुल  की गूंजती हुई  चुप के बीच प्रतीक  सोया है। जब जागेगा तब दुनिया कैसी दिखेगी ?  दुनिया प्रतीक को  कैसे देखेगी ? प्रतीक कब तक सोयेगा ? जगाते हैं तो भी नहीं जागता, लगता है कि  बहुत थक कर सोया है।  

बिस्तर के दोनों तरफ एक जंगल है मशीनों का, टिम टिम करती छोटी छोटी बिंदी जैसी लाइटें  और तारें और ट्यूब  और उन ट्यूब से बहता पानी जैसा कुछ तरल और खून जैसा लाल कोई द्रव धीमे धीमे प्रतीक के शरीर में बूँद बूँद टपकता रहता है।  और  इस सबके   बीच प्रतीक शांत , तसल्लीबख्श  अंदाज़ में सोया रहता है।  लोग आते हैं जाते हैं , बैठे भी रहते हैं लेकिन प्रतीक को कोई नहीं जगाता।  उसे अभी और सोना है ऐसा डॉक्टर  ने बताया है।   कौन जाने कौनसा सूरज उसे जगायेगा ?

नींद के लिए क्या कुछ नहीं करते लोग ... एक गहरी खामोश और सपनों से  भरी नींद के लिए।  और प्रतीक को वही गहरी खामोश नींद  मिली है , बिना मांगे , बिना चाहे , बिना कहे।  कब उठेगा प्रतीक इस नींद से ? 

नींद की गोलियों के पत्ते को हाथ में दबाये , कभी अपने माथे को छूना और कभी प्रतीक के माथे को , दादा जी कितना  कुछ सोचते हैं !!!!  अब बस उनकी ड्यूटी ख़त्म होने वाली है रात को यहां सोने के लिए छोटा अभी आता होगा।  दोपहर बाद से ही वो यहां आकर बैठ जाते हैं , अपने  बड़े बेटे के इस इकलौते बेटे की देखरेख के लिए  और ज्यादातर वक़्त केवल उसे देखने के लिए।  कौन जाने प्रतीक कब जाग जाए !!! 

छोटे काका ड्यूटी पर टाइम से पहुँच गए।  आज ये उनकी तीसरी रात है इस   आई सी यू के बाहर।  लेकिन प्रतीक पिछली सात रातों से जागा  नहीं है।  रात भी  अपनी पारी  की ड्यूटी पूरी करके सुबह वापिस घर लौट जाती है , छोटे काका भी सुबह चले जाते हैं फिर प्रतीक के पापा आ जाते हैं।    

आठवें  दिन की सुबह प्रतीक जाग गया। शरीर हरकत करता है , आँखें इधर उधर देखती हैं,  कान सुनते हैं। 

धीरे धीरे  मशीनें कम हुईं।  फिर  कमरा बदल गया।  एक महीना गुज़र गया।

 और  जीवन की कहानी का एक अध्याय समाप्त होकर दूसरा शुरू हुआ ।  प्रतीक ने कितनी ही बार उस कहानी को मन में दोहराया , जब लद्दाख गया था, जहां ट्रैकिंग और क्लाइम्बिंग करते दोस्तों के संग  खूब सारी  तसवीरें और वीडियो और फिर कहीं एक जगह पैर फिसला था और उसके बाद कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद नींद आ गई थी।  और जब जागेगा  तो  सिर्फ ये हॉस्पिटल और पास बैठे परिवार वाले बस इतनी ही दुनिया है।  हेड इंजरी कहा था ना  डॉक्टर ने।  वक़्त लगता है रिकवरी में, प्रतीक को भी वक़्त की ही ज़रूरत है।

वक़्त रेत की तरह हाथ से फिसलता है।  

और इसी वक़्त की ऊँगली थामे प्रतीक और उसके मम्मी पापा दिल्ली , अहमदाबाद और मुंबई के हॉस्पिटल्स के चक्कर अगले कुछ महीनों तक काटते रहे।  और आखिर साल भर बाद जब अस्पतालों में जाने,  वहाँ रहने इलाज  करवाने का दौर ख़त्म  हुआ तब तक धरती  अपनी धुरी  पर  एक पूरा चक्कर  काट चुकी थी। प्रतीक की बैंगलोर सिलिकॉन वैली वाली  नौकरी जो उसका स्टेटस सिंबल और परिवार का गर्व थी,  जा चुकी थी। प्रतीक घर पर आराम करता है।  

रिश्तेदारों में किसी के बेटे  या बेटी का सिलेक्शन जब कभी  आई आई टी ,  इंजीनियरिंग  के कोर्स में या किसी ऐसी ही प्रतिष्ठित नौकरी में होता और बधाइयां दी जाती,  तब प्रतीक की मम्मी को अपने बेटे का डिस्टिंक्शन से पास होना, सेमेस्टर में टॉप करना और फिर कैंपस सिलेक्शन  में सबसे आगे रहना सब याद आता। प्रतीक  इतना सब याद नहीं करता , उसकी मेमोरी ज़रा कमज़ोर हो चली है , कभी कुछ याद करता है तो कभी कुछ भूल जाता है।  डॉक्टर ने  कह रखा है ज्यादा दिमाग खपाने की ज़रूरत नहीं।  जो भूल गए सो बढ़िया और जो याद है उतने से ही काम  चलाओ।

काम चलाने को, अस्पताल के रिहैबिलिटेशन सेशंस के बिल चुकाने को  और सबसे बड़ी बात ज़िन्दगी को वापिस पटरी पर लाने के लिए  कोई काम चाहिए।  और इस काम चलाने की कश्मकश के बीच प्रतीक कई बार सोचने की कोशिश करता है कि इस तरह यूँ अचानक ज़िदगी कैसे पलटा खा गई ?? वो बंगलौर का वेल फर्निश्ड फ्लैट, दोस्तों के संग धमाचौकड़ी और  वो सुनहरे दिन ....   सब कुछ कहाँ गया ? और अब उस फील्ड में वापसी भी संभव नहीं।  अब तो यहीं कुछ रास्ता निकालना होगा।  और इस  चिंता करने योग्य मुद्दे को लेकर भी प्रतीक कभी चिंता  नहीं कर पाता , क्योंकि अब इतना सब सोचने के लिए  प्रतीक के पास कल्पनाएं और ख्याल नहीं है।  मम्मी पापा को ज़रूर  प्रतीक के भविष्य की चिंता है ,  उसके आर्थिक और वैवाहिक भविष्य की भी चिंता है।  


"पिक एन पैक"   ये नाम कैसा रहेगा ,  शार्ट एंड स्वीट !!!!" प्रतीक का आईडिया। 

"कुछ और भी सोच , ये तो बहुत अँगरेज़ टाइप लग रहा है ", पापा को नहीं जमा। 

" अच्छा फिर,  "देसी ढाबा " कैसा रहेगा ?" 

" हाँ ये फिर भी थोड़ा सा ठीक है , पर कुछ और बढ़िया नाम सोच। "

" पिक एन  पैक ही ठीक है पापा , अब इतना तो कोई बड़ा रेस्टॉरेंट  हैं नहीं अपना। टेक अवे ही तो कर रहे हैं। " प्रतीक ने मुरझाई सी आवाज़ में कहा।  

"बेटा , शुरुआत तो छोटी ही होती है. खैर  आजकल के हिसाब से ये नाम भी सही है। " 

 "पिक एन  पैक"    फ़ास्ट फ़ूड , कुल्छे, परांठे , छोले भटूरे और आइस क्रीम वगैरह  पैक करवाइये,  टेक अवे पार्सल के लिए फोन पर आर्डर करिये  और यहीं बैठना चाहें तो जगह ज़रा छोटी है।  दुकान में घुसते ही सामने एक काउंटर है जहां प्रतीक बैठेगा उसके पीछे बाईं तरफ किचन का दरवाजा दीखता है  और दुकान के दोनों तरफ की दीवारों पर एक से दुसरे कोने तक  स्टील की लम्बी मेज़ लगवाई गई है और  प्लास्टिक के कुछ स्टूल रखे हैं।  परांठों और कुल्छों की कुछ  वैराइटियां हैं , भटूरे और पूरियां भी तीन चार तरह के मिलेंगे।  और  गेंहूं की चपाती  तो हर समय आर्डर पर  उपलब्ध है।  

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कांच के दरवाजे से अब धूप आ रही है,  दरवाजा खुलता है,  कोई स्टूडेंट्स आये हैं , स्टूल पर बैठे हैं और आलू परांठा दही राजमा  दाल और सादा परांठा  के आर्डर हवा में तिरने लगे हैं।  रसोइये  के लिए साँस लेने का भी वक़्त नहीं,  प्रतीक की नज़रें उस धूप के टुकड़े पर हैं जो खुले दरवाजे के ज़रिये दुकान के अंदर  तक पसर गया है।  अचानक उस रौशनी में  हवा की  परछाइयाँ  तैरने लगीं।  स्टील की लम्बी मेज़ पर थालियां सजने लगी हैं और परांठे की ऊपरी परत पर मक्खन का सुनहरा इंद्रधनुष दमक रहा है।  खाने वाले ने खुद से कहा , " इतना  ऑयली  है।"  ये ऑइल उसके चेहरे पर चमकने लगा है।  

प्रतीक ने देखा - पढ़ा।  

"अरे सुन  मास्टर , परांठों पर मक्खन ज़रा कम लगाया कर , आजकल के बच्चों से इतना ऑइल खाया नहीं जाता। " 


*Image Courtesy : Google 

Monday, 3 July 2017

प्रतीक : एक कथा

दुबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट  

"फ्लाइट  आने में अभी और कितनी देर है ?" उसने अपने आप से पूछा।

सिक्योरिटी चेक का कॉल आने पर थोड़ी राहत महसूस हुई।  अचानक ये मुल्क, ये खूबसूरत आसमान छूता,  सपनों की दुनिया जैसा ये शहर ,  अब उसके लिए बिलकुल अजनबी हो गया था। एकदम अचानक से कि आज सुबह आप सो कर उठे और आपको बताया गया कि चलो सामान बाँध लो , जाने का वक़्त आ गया और  बंजारे का सफर अब फिर से शुरू हुआ ही चाहता है। उसे अभी ऐसी कोई जल्दी नहीं थी यहां से जाने की ; वो अब खुद को यहीं का रहवासी मांनने लग गया था।  उसके  लिए बंजारे वाला जीवन अब  समाप्त हो चुका  था और ठहराव वाला मोड़ जिंदगी में बस अभी आया ही था।  उसके लिए जिसका नाम प्रतीक था।  उसने आस पास देखा कितने सारे लोग खड़े थे,  दिल्ली जाने वाली फ्लाइट के इंतज़ार में , उसके जैसे लोग।  पर नहीं, सब उसके जैसे कहाँ है ?  प्रतीक भीड़ में होकर भी भीड़ नहीं है।  

ये 2009  का दुबई है, जब इकनोमिक क्राइसिस ने दुनिया  की  इस तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, स्काई स्क्रैपर्स के मुल्क, शॉपिंग और टूरिस्ट  डेस्टिनेशन के लिए मशहूर  और रियल एस्टेट के स्वर्ग को हिला डाला था।  अखबार और न्यूज़ चैनल बता रहे हैं कि  बड़ी बड़ी रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन कंपनियां अपने कर्मचारियों को काम से निकाल रही हैं, घर वापिस भेज रही हैं।  प्रतीक भी घर जा रहा है।  लगभग सात साल इस स्वर्ग में बिताये हैं, अब वहाँ घर वापिस जाकर क्या करेगा ? उसके लिए अब नौकरी, पैसा, करियर, अलाना फलाना , लक्ज़री, सोसाइटी , सब कुछ यहीं दुबई में था।  अब वो "दुबई पलट "  बन गया था।  थोड़े दिन के लिए या कुछेक हफ़्तों के लिए घर लौटना और फिर  वापिस उड़ जाना अपने स्वर्ग में।  और अब इस तरह अचानक घर वापसी का  फरमान, नौकरी से निकाला  जाना , एक  बोल्ट फ्रॉम दि ब्लू की तरह था।

हिंदुस्तान के रेगिस्तानी कोने में फैला उसका शहर ; अब उसके लिए कोई आकर्षण नहीं जगाता था , वहाँ रह कर इतना पैसा और ऐसे ठाट बाट कमाए जा सकते हैं ?  क्या अब कोई नौकरी वहाँ ऐसी मिलेगी जिसमे इतनी तनख्वाह हो या कोई बिज़नेस करेगा ? ये बहुत बड़ा और भयानक सा सवाल था।  और जिसका जवाब धुल भरी सड़कों और  चिलचिलाती धूप में ढूंढ़ना प्रतीक के लिए किसी आपदा या विपदा से कम नहीं था।  

"सब बेकार बातें हैं, अभी तो मेरा वीसा भी साल भर के लिए वैलिड है अभी दो महीना पहले ही तो renew  करवाया था।  और क्या क्राइसिस !! चार छह महीने में सब सही हो जायेगा।  आखिर ये शेख लोग कुछ तो करेंगे ही। जनरल  मैनेजर भी बोल रहा था कि तेरे को वापिस बुला लूँगा।" 


दो महीने बाद : घर यानी जोधपुर 

" अरे यही एक नौकरी गई है दुनिया के सारे रास्ते तो बंद नहीं हो गए हैं। नौकरी के ऑफर तो आये ही हैं , मैं ही ज्वाइन  नहीं कर रहा हूँ  . तुम थोड़ा धीरज रखो। "

' कब तक धीरज रखूं, जब सगाई हुई थी तब तुम दुबई में सत्तर हज़ार महीने वाली नौकरी कर रहे थे और अब 15 -20  हज़ार वाली नौकरी की बात कर रहे हो। " 

"तुम आखिर  क्या कहना चाहती हो ? मुझे भी  चिंता है  कोशिश कर रहा हूँ कि  जैसे ही हालात सुधर जाएँ तो  चला जाऊँगा। " 

" रहने दो , कुछ नहीं होने का । "  और फोन कट गया।  

थोड़े दिन और कुछ बोझिल हफ्ते बीते।  फिर महीने भी बीते। इन्ही  दिन हफ़्तों के बीच  प्रतीक की सगाई टूट गई क्योंकि सौभाग्यकांक्षिणी को अपने भावी सौभाग्य की बेहद फिक्र थी ।  पंद्रह बीस हज़ार वाली नौकरी  प्रतीक को अब रास आ नहीं रही और एक लोकल कॉलेज के M B A  को पचास हज़ार जोधपुर तो क्या जयपुर में भी नहीं मिलेंगे।  

"दोबारा दुबई चला जाऊं ? वीसा अभी वैलिड है कोशिश  करूँगा तो नौकरी का कुछ जुगाड़ बैठ जाएगा और अब तो सात आठ महीने हो गए हैं मेरे कुछ फ्रेंड्स तो चले भी गए वापिस।  अब तो हालात सुधर रहे हैं। " 

एक सांस में सारी  कथा बांच दी प्रतीक ने और नेहा के पतिदेव सुमित यानी प्रतीक के जीजा जो फुटवियर का होलसेल व्यापार करते हैं  मुंह खोले चाय का कप हाथ में लिए धैर्य की पूंछ पकडे,  सुनने और समझने की कोशिश कर रहे हैं।  

" यहीं मेरे साथ बिज़नेस कर लो फुटवियर का , क्यों इतना परेशान होते हो। साल दो साल में  जम जायेगा बिज़नेस।  अब देखो बैठे बैठे इतने महीने भी तो निकाल दिए ना। "

"अभी कहाँ इतना कमाया है कि बिज़नेस सेट करने के लिए पैसे  ब्लॉक कर दूँ।  ये तो अभी दो साल हुए जो ये कंपनी ज्वाइन की थी , इसके पहले तो कम ही थी सैलरी , फिर घर बनवाया  और भी खर्चे ... " प्रतीक का मन नहीं हो रहा था इतना सब बोलने का पर बोलना पड़  रहा था।  

तो फिर तय हो गया, प्रतीक वापिस दुबई जाएगा। 

दिल्ली एयरपोर्ट पर एक बार वापिस फ्लाइट के इंतज़ार में खड़ा  है  प्रतीक।  लगता है कि अपनी पहली नौकरी के लिए, पहली "मुसाफिरी" ( समुद्र  यात्रा ) के लिए जा रहा है। एक बार फिर अपने उसी स्वर्ग में वापिस जाना  जहां से कुछ महीने पहले इसलिए निकलना पड़ा कि कंपनी ने ही नौकरी से निकाल दिया था. तो अब दूसरी कंपनी  ने दुबारा नौकरी दी है, बैग में सारे कागज़ हैं  और उन कागज़ों में प्रतीक की सारी  समस्याओं ,  ख्वाहिशों और ख्वाबो की चाबियां  छिपी हैं. प्रतीक के मन में  उत्सुकता है, घबराहट है और बहुत जल्दी है , कि  बस एक बार वापिस नौकरी पे लग जाऊं।  इस बार मार्केटिंग की नौकरी मिली है, पूरे गल्फ और एशियाई बाज़ारों में घूमना पड़ेगा।  प्रतीक को अलग अलग मुल्कों की खूबसूरती इस वक़्त दिल्ली  एयर पोर्ट पर ही बिखरी दिखाई दे रही है। 

साल भर बाद 

"दुबई का नाम सुनते ही लोग दस शर्तें लगा देते हैं।  शादी के बाद साथ ले जाएगा कि  नहीं ? लड़की को वहाँ नौकरी करनी पड़ेगी ? और जब से ये दुबई की अर्थव्यवस्था में गिरावट हुई है तब से लोग  अब दुबई के नाम से ही बिदक जाते हैं।" 

"पैसे भी तो दुबई से ही मिल रहे हैं।  वहाँ इंडिया में कौन दे रहा इतनी तनख्वाह ?"  प्रतीक झुंझला रहा है।  

"बेटा, यहीं कोई बिज़नेस कर लेता या नहीं,  मन नहीं है तेरा यहां रहने का ?"  माँ  क्या कहे ,  एक तरफ लगता है कि  लड़का लौट आये फिर चिंता है कि यहां कोई भविष्य फिलहाल तो दिखाई नहीं देता।  अभी कुछ साल वहीँ रह के कमा ले फिर तो आखिर आना ही है।  पर आजकल दुबई सेटल्ड लड़कों के लिए लड़की तलाशना बड़ी मुसीबत हो गई है।  गए वो ज़माने जब दुबई के नाम से ही रिश्ता आ जाता था , अब तो आया रिश्ता भी  दुबई का नाम से ही ...
दुबई अब सुरक्षित भविष्य की कोई गारंटी नहीं है , क्या पता कब निकाल दें ? या ना भी निकाले पर आखिर कभी  तो छोड़ना पड़ेगा ही; अब सारी  ज़िन्दगी वहाँ रहना तो अच्छे भले के बस  नहीं।  सुना है वहाँ बच्चों की पढ़ाई, अस्पताल के खर्चे और घर के किराए बहुत महंगे हैं।  

दो साल बीते  

"पिंटू तू जल्दी घर आ।  पापा की तबियत ठीक नहीं , अस्पताल एडमिट कराया है कल रात , तू आ जाएगा तो मम्मी को हिम्मत बंधेगी। " सुमित ने  फोन पर इस से ज्यादा और कुछ नहीं कहा।  

दुबई से जोधपुर तक  समंदर और ज़मीन की  जो दूरी है उसे प्रतीक ने इतनी तेज़ी से पार किया कि लगता है कि कहीं कोई दूरी है ही नहीं।   तीन दिन के बाद धरती और आसमान के बीच जो दूरी है उसे प्रतीक के पापा ने पार किया बगैर किसी जल्दी के।  

अब आगे क्या ... दुबई अब बहुत दूर हो गया है। घर खाली हो जाएगा मम्मी के लिए अगर प्रतीक दुबई चला गया। 

बिज़नेस वो भी फुटवियर का,  जिस से अभी तक प्रतीक बचता आया था क्योंकि बिज़नेस का कोई खास अनुभव नहीं और पूँजी गंवाने का डर  भी है। कहना आसान है लेकिन बाजार में स्पर्धा में टिकना बेहद मुश्किल।  पर अब इस बाजार के समंदर में कूदने के अलावा कोई और  चारा भी नहीं।  सुमित के साथ माल खरीदी और फिर रिटेलर को सप्लाई के तौर तरीके, व्यापार का रंग और ढंग सब कुछ ध्यान से सीखा प्रतीक ने।  महीनों की "ट्रेनिंग"  और  "प्रैक्टिकल"  के बाद  अब प्रतीक ने खुद का रिटेल काउंटर यानी दुकान शुरू की है, शहर के एक सबसे व्यस्त बाज़ार में जहां  फैशन के ट्रेंड शुरू होते और ख़त्म होते हैं।  यहां किराया ही इतना महंगा है दूकान का लेकिन फिर नाम भी है कि इस "बाजार" में दूकान है।  

दिन चलने लगे , हफ्ते और महीने भी चले गए। सात आठ महीने बीत चले । सुमित काम सिखा सकता था, बिज़नेस का हुनर नहीं। दूकान नहीं चली, पंडित ज्योतिषी कहते हैं कि चमड़ा या जूता जैसी चीज़ का कारोबार प्रतीक को नहीं फल सकता इसलिए .... इसलिए इस दुकान के साथ साथ प्रतीक ने अपनी जमा पूँजी का एक बड़ा हिस्सा  घाटे में डुबा दिया।  अब, जेब खाली है।  शादी के लिए रिश्ते,  जब दूकान शुरू की थी तब आया करते थे लेकिन तब बिज़नेस जमाने के चक्कर में प्रतीक टाल  गया  और जैसे जैसे दूकान के घाटे में होने की बात फैलनी शुरू हुई तो सब रिश्ते उड़न छू हो गए।  

अब फिर से प्रतीक घर बैठा है। वापिस नौकरी की तलाश की लेकिन फिर वही पुराना  खटराग कि  15-20 हज़ार मिलेंगे मुश्किल से और खटना पड़ेगा 12 -16  घंटे। नौकरी है या कि बंधुआ मजदूरी और उस पर सेठ की डाँट फटकार भी सहो। अब इतना त्याग प्रतीक से हो  नहीं  पाता है।

कभी कभी पुरानी तसवीरें देखता है, जब दुबई में था तब कैसा था ....  एकदम गोरा गुलाबी रंग, हलकी सी दाढ़ी रखता था। उस चेहरे से नज़रें आसानी से हटती नहीं थी। हलकी धीमी आवाज़ और यूँ सामने देखते हुए भी कहीं दूर देखती हुई नज़रें ... ये प्रतीक का सिग्नेचर स्टाइल था।  और अब .... अब भी कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है।  आस पास के दूकानदार ही कहते थे कि प्रतीक गल्ले पे बैठने वाला बनिया नहीं किसी बड़ी फर्म के सजे धजे दफ्तर में बैठा सेठ साहब लगता है। पर अब लगने से क्या होता है। वक़्त बदल गया है और वक़्त ने प्रतीक को भी बदल दिया है पर आवाज़ और चाल ढाल की नफासत नहीं बदली है। कहीं कुछ तो बचा रहे।

पर अब बचा ही क्या है जो इस वहां को पाले रखा जाए कि "हम" कुछ अलग हैं।

साधारण होना और वो भी भीड़ में शामिल होना कितना आसान और सुविधाजनक है ये बात पहली बार प्रतीक को समझ आई।  कम्बख्त इतनी देर से समझ आई कि  प्रतीक का  मन किया कि उस पुराने वक़्त की याद को भी फाड़ कर फेंक दे।  पर यादें ज़रा मजबूत किस्म के पदार्थ की बनी होती हैं कि जितना ज़ोर लगाते हैं उतनी ही ज्यादा फैलती और बिखरती जाती हैं पारे की तरह। जाने कौनसे कागज़ या प्लास्टिक या मिटटी या धातु की बनी होती हैं  


फिर घूम फिर कर,  ये सब फिलोसोफी भूल कर ,  प्रतीक कुछ दिन-हफ्ते  सुमित के साथ  उसके दूकान पर बैठा ;  वक़्त गुज़ारने के लिए या कुछ सीखने के लिए  काम भी किया लेकिन दुकान पर सेठ नौकर का रिश्ता अलग है और जीजा साले का अलग है।  कुछ महीने तक एक दोस्त की ट्रेवल एंड टूर एजेंसी में  भी भागीदार बना और फिर जो पैसा कमाया उस से  दोस्त खुद ही टूर करने हांगकांग निकल गया और प्रतीक जोधपुर के उसके ऑफिस को ताला  लगा कर वापिस घर बैठ गया। और अब खाली बैठा घर में मम्मी की रसोई में हेल्प करता है।   क्या हेल्प करता है या रसोई को   बिगाड़ता है ये अभी निश्चित रूप से कहना मुश्किल है।  पर कुछ तो खटर  पटर  करता ही है रसोई में।  वक़्त गुजारने का अपना अपना शगल है साहब। पैसा जेब  में हो  तो शगल और शौक के खर्चे उठाये जा सकते  खाली जेब हो तो सारे शौक  शगल दिमागी फितूर कहलाते हैं।

क्यों,  क्या कहते हैं आप ?? 

"यार ये जो छोटे मोटे  फ़ूड स्टाल  खड़े रहते हैं जगह जगह , इनकी मेनू लिस्ट भी सिंपल है और ज्यादा लम्बी नहीं है फिर भी कितनी भीड़ रहती है इनके यहां।" पिज़्ज़ा का स्लाइस खाते खाते प्रतीक ने उन सब ठेले वालों रेहड़ी वालों को गौर से देखा जो इस खूबसूरत बगीचे को चारों तरफ से एक गोल बाजार की तरह घेरे हुए थे।  क्या नहीं मिलता इन छोटे से फ़ूड काउंटर्स पर ;  पिज़्ज़ा, हक्का नूडल्स,  मचुरियन, चिली पनीर, स्प्रिंग रोल्स, मोमोज़, फ्राइड राइस और अपने हिंदुस्तानी चटपटे स्नैक्स की तो बहार है।  पाव  भाजी से लेकर वड़ा  पाव और पानी पूरी से लेकर छोले कुल्छे।  

"यार सीधी बात है कि  लागत बेहद  कम है जिस से कीमत भी बहुत वाजिब हो जाती है  और लिमिटेड आइटम एक रेहड़ी वाला  बेचता है तो ऐसा कोई सामान की बर्बादी भी नहीं और इसलिए पब्लिक भीड़ लगाती है। ये पिज़्ज़ा यहां साठ  रूपए में मिलता है वहाँ  रेस्टोरेंट में डेढ़ सौ में पड़ेगा, डोसा सांभर ये लोग तीस चालीस रूपए में दे देते हैं और रेस्त्रो वाला सौ में देगा।"  आशीष, प्रतीक का बेरोजगारी के  दिनों का साथी है, यहीं इधर ही कहीं  गली मोहल्ले में रहता है। 

"पर यार क्वालिटी और कुकिंग स्टाइल प्लस एम्बिएंस ...."

" जिसको हफ्ते में तीन दिन बाहर खाना है उसके  लिए तो ये ठेले ही बढ़िया हैं. और तू बोल क्या कमी है इस सिंपल चीज़ पिज़्ज़ा में, रोस्ट अच्छा किया हुआ है और टेस्ट भी ठीक है। अब तू वापिस अपने दुबई वाले मोड में मत घुस जाना। "

"बात तो सही है तेरी।"  इतने काम दाम में  मार्गरिटा पिज़्ज़ा मिलेगा क्या ? प्रतीक को फिर से उन यादों पर झुंझलाहट आई जो उसे किसी पिज़्ज़ा ब्रांड आउटलेट की तरफ खींचती थी।

 प्रतीक का ध्यान अब उस किचन नाम की जगह पर था जहां अभी सैंडविच तैयार किया जा रहा था, एक तरफ तवे पर भाजी गरम हो रही थी और पाव सेके जा रहे थे , मेयोनेज़ का डब्बा वापिस किनारे पर रखा जा चुका  था ।  उसने गौर से उस काउंटर को देखा, एक तरफ  ओवन रखा था जिसमे  सैंडविच पिज़्ज़ा रोस्ट होते हैं और बिजली का कनेक्शन पास की दुकान से लिया गया है।  फिर उसने उन लड़को की तरफ देखा जो इस किचन को चला रहे थे;  एकदम एक्सपर्ट कुक की   तरह काम करते हुए ,  जिनके कपड़ों पर तेल मसालों के दाग हैं , किसी एक ने ऐप्रन भी डाल रखा है गले में।  प्रतीक ने उस शाम वहाँ खड़े खड़े  ग्राहकों की संख्या और उनके ऑर्डर्स  का एक मोटा मोटा  हिसाब लगाया और फिर एक गहरी सांस ली।  


"अपना घर इधर मेन रोड पर होने के कारण सारा दिन गाड़ियों का शोर, धुंआ ही पीछा नहीं छोड़ता। " 

मम्मी की नींद डिस्टर्ब हो गई क्योंकि बाहर एक ट्रक और फिर कुछ बसें तेज़ हॉर्न बजाती बसें  एक के बाद एक निकली। ये घर प्रतीक के पापा ने जब ख़रीदा था तब यहाँ से  करीब एक किलोमीटर की दूरी पर कुछेक सरकारी दफ्तर थे और बाकी सब तरफ  घर बने थे।  अब यहां सड़क पर आमने सामने  एक व्यस्त  बाजार, बस स्टैंड,  बैंक, मिठाई की दुकानें, एक सरकारी डिस्पेंसरी और एक बड़ा होटल  भी   बन गया है।  एकाध कैफ़े टाइप रेस्टोरेंट भी खुल गए हैं , आइस क्रीम पार्लर भी हैं।  


रसोई 


घर के बाहर के बरामदे नुमा हिस्से को टीन शेड से कवर किया गया, कुछ कुर्सी टेबल लगाईं गई, एक काउंटर लगाया है और काउंटर के पीछे पर्दा है जिसके पीछे रसोई है।  बाहर एक  साइन बोर्ड सड़क पे लगा दिया गया है, "भाई की रसोई" . मेनू कार्ड जो एक कागज़ पर छापा है जिसे लेमिनेट करवा दिया गया है,   काउंटर पे रखा है और ऐसे कुछ और मेनू  टेबल्स पे भी रखे हैं।  मेनू के व्यंजन वहीँ हैं, सैंडविच, पिज़्ज़ा, पाव भाजी, चाउमीन वगैरह और हाँ प्रतीक ने कुछ वैरायटी भी दी है. "शाही सब्ज़ियां" और थाली यानी केवल फ़ास्ट फ़ूड ही नहीं पूरा भोजन का इंतज़ाम है ; वैसे सब्ज़ियां भी सीमित हैं, शाही पनीर, दाल फ्राई, मौसमी हरी सब्ज़ियां, गट्टे की सब्ज़ी  वगैरह।  

जैसे तैसे रसोई चल ही निकली, रोज के हज़ार  बारह सौ का गल्ला हो जाता है. प्रतीक ने मार्केट रिसर्च की और अपने शाही पनीर का दाम  साठ रूपए का हाफ प्लेट कर दिया जिसमे इतना पनीर और ग्रेवी देता है कि दो आदमी पेट भर के खा सकें।  दाल और भाजी भी महज़  चालीस रूपए   में इतनी कि दो जनो का पेट भी भरे और जेब भी राजी रहे।

बस केवल एक बात अजीब थी कि प्रतीक उस ढाबे के सस्ते और सादे सेटअप में फिट नहीं था क्योंकि वो चाह के भी  ना तो ढाबे वालों जैसा दीखता है  ना उसके हाव भाव और बोल चाल  में ढाबा समा पाया। ग्राहकों से उतना ही बोलता है जितना बोलने भर से काम चल जाए  और वो भी अपनी उसी खास धीमी  आवाज़ में।  कपडे आज भी सलीके से, और खुद के कद काठी पर फबने वाले ही पहनता है;  यूँ खड़ा रहे तो लोग उसे ही ग्राहक समझ बैठते हैं  पर फिर जब आगे बढ़ कर प्रतीक उनसे पूछता है कि ,  " हाँ, क्या चाहिए आपको?"  तब ग्राहक समझ पाते हैं !!!!  पर खाना प्रतीक अच्छा बनाता  है।  ग्राहक भी इस बात को प्रतीक से ज्यादा समझते हैं  और इसलिए ये ढाबा तो  सस्ता सा  लगता लेकिन मालिक ज़रा  महंगा सा  और ढाबे वाला नहीं लगता।

खैर।

"बेटा,  अब ये रिश्ता ठीक ही लग रहा है , अब मैं तो थक गई हूँ।  और इन लोगों ने खुद आगे बढ़ के बात चलाई  है, लड़की की फोटो भी साथ भिजवाई  है।  देख ज़रा , ज़रा सांवली है और थोड़ी वजन में भी तुझसे ज्यादा लग रही है  पर ठीक है।  इसके घरवालों ने कहा है कि अगर कभी भविष्य में तू अपने इस रेस्टोरेंट को और अच्छा बनाना चाहे तो वे लोग मदद भी करेंगे। "

 ये आखरी बात ज़रा हल्की आवाज़ में कही थी मम्मी ने , क्योंकि इस एक बात के पीछे ये सच भी छिपा है कि  प्रतीक का ढाबा अभी इतना नहीं  चलता कि अपने दम  पर वो इसका विस्तार कर सके।  कुर्सियों के सीट कवर अब थोड़े मटमैले हो गए हैं और मेनू कार्ड का  लेमिनेट भी ज़रा गन्दा सा हो गया है।  पर फिर भी काम तो चल ही रहा है। प्रतीक ने तस्वीर को सरसरी नज़र से देखा फिर उस नाम को फेसबुक  ढूंढा।   वहाँ और भी तसवीरें थीं; एक ज़रा सांवली रंगत वाली ज़रा मोटी  और चेहरे में एक तीखापन और अजीब सा हल्कापन लिए एक लड़की।  प्रतीक को अपने नफीस अंदाज़ की याद एक  बार भी नहीं आई और उसने हाँ कह दी।  

शुभ विवाह के बाद अब प्रतीक की पत्नी ज्योति भी रेस्टोरेंट के काम में हाथ बंटाती है।  परदे के पीछे की रसोई में वो भी प्रतीक के साथ खाना बनाती है और प्रतीक खुद सर्व करता है , बहुत से लोग पैक करवा के ले जाते हैं और बहुत से यहीं खाते हैं।  ज्योति को देख कर  लोगों को लगता है कि वो इस ढाबे की मालकिन है, उसका चेहरा और व्यक्तित्व इस ढाबे को आत्मसात कर  गया है और ढाबे के लिए  प्रतीक  के बजाय ज्योति को अपना  कहना ज्यादा आसान था।