Friday, 12 June 2015

ज़िन्दगी का खटराग

काश कि  एक बोहेमियन जैसी ज़िन्दगी होती। 


ये ख्याल अचानक आया कि  काश ऐसा बंजारों जैसा जीवन होता, एक अनवरत यात्रा, जिसका कोई ठौर ठिकाना, ठहराव, कोई मकान या निशान नहीं होता। सिर्फ ज़रूरत भर का सामान और साथ चल सके जितने ही रिश्ते … जब तक चलते रहे तब तक ज़िन्दगी और जब थम जाए तब  … 

ये जो ज़माने भर का खटराग हमने अपने आस पास फैला रखा है ... सजे संवरे  घर, करीने से संजोये गए रिश्ते, दफ्तर और दोस्तों की बतकहियाँ, महफिलें और कहकहे …यह सब हम अपने कन्धों पे उठाये फिर रहे हैं, कितना बोझ …दुनियावी तौर तरीकों और कायदों का बोझ,  कि  जिस समाज में रहते हो वहाँ के सलीके को सीखो। 

और अक्सर इस बोझ से थककर  कभी हम पहाड़, नदी, समंदर का किनारा तलाशते हैं तो कभी  अगला जन्म सुधारने की कसरत में लग जाते हैं. यानी एक नया खटराग पालने लगते हैं.      

अगर मुझसे पूछिए तो मेरी ज़िन्दगी में बोहेमियन हो सकने जैसा कोई मौका मौजूद नहीं है. यहां व्यस्तताए हैं, ज़िम्मेदारियाँ और कमिटमेंट्स हैं, हर ख्वाहिश के पूरे हो सकने का सामान मौजूद है लेकिन बस यही एक इच्छा कि  एक लम्बी ना ख़त्म होने वाली सड़क हो और उस पर हम चुपचाप चलते जाए. 

कहने को ये भी कहा जा सकता है कि  ये बोहेमियन होना कौन बड़ी बात है,  अकेले दुनिया से भागकर अपने में जीना तो कोई भी कर ले; दुनिया में रहकर यहां की ज़िम्मेदारियाँ निभाओ, जो लिया है उसे वापिस सूद समेत लौटाओ। और ये क्या अजब सा शौक पाला  है, बोहेमियन या बंजारा होने का ?? समझदार, दुनियादार लोग ऐसे खटराग नहीं पालते।

इस बंजारे वाले खटराग को मैं अपने जीवन के बीत रहे वक़्त में देखती हूँ, रोज़; क्षण प्रतिक्षण। ये कुछ इस तरह बीत रहा है कि  मुझे इसके चलने-रुकने का अहसास लगातार होता रहता है लेकिन मैं लगातार इस से ग़ाफ़िल होने का नाटक करती रहती हूँ. ये ऐसी दोहरी ज़िन्दगी है जो एक ही साथ दो अलग दिशाओं में चल रही है, एक तरफ अपने बोहेमियन होने के अहसास के साथ और दुसरे अपने सभ्य सामाजिक पैमानों पर संभल कर कदम ताल करती हुई.  मेरे ख्याल से हम सब दोहरी ज़िंदगियाँ जीते हैं, या नहीं ??? कौन जाने। 
मैं तो जी ही रही हूँ. अंदर से मुझमे कुछ दबा छिपा है जो ज़ोरों से चीख रहा है, बाहर निकलने को छटपटा रहा है और बाहर से मैं हंसती, खिलखिलाती, मुस्कुराहटें बिखेरती  और मासूमियत और नफासत छलकाती, लहकती फिरती हूँ. हर रोज़ कितने झूठ बोलती हूँ मैं खुद से और कितने सच छिपाती हूँ मैं दूसरों से.