छत का पंखा तेज़ गति से चल रहा था .. नवम्बर के आखिरी दिन थे और ऐसी कोई गर्मी भी अब नहीं थी। लेकिन ऐसे में भी वीरेन के माथे से पसीना बह रहा था। उसकी आँखें छत के पंखे को घूर रही थी, एकटक ... कमरे में जीरो बल्ब जल रहा था जिसकी हलकी रौशनी में उसका भावहीन चेहरा और पथराई आँखें एक डरावना दृश्य बना रही थी। अचानक वो उठा, एक झटके से और तेज़ क़दमों से अपने फ्लैट से बाहर निकल गया .. चलता गया .. सड़क पर भीड़ है, ट्रैफिक का शोर है पर वीरेन को कुछ नहीं दिख रहा .. कोई उसे नहीं देख रहा । किसी ने उसकी तरफ ध्यान भी नहीं दिया। वो चलता गया , कोई उस से टकराया तक नहीं .. सब जैसे आज वीरेन से नज़र बचा कर, अपना कंधा बचा कर ही निकल रहे थे। आज वीरेन अकेला है .. आज इतनी बड़ी दुनिया में उसका एक छोटा सा कोना भी नहीं। ऐसा कैसे और क्यों हो गया ... क्या गलत हो गया .. कौन गलत था .. कौन, कितना गलत या सही था .. और अब आगे ?? और जो पिछला बीत गया .. ?? क्या सब बीता हुआ वक़्त हो गया ? क्या कुछ नहीं लौटेगा ? क्या कोई भी नहीं लौटेगा ? क्या कभी कोई मुझसे फिर से बात नहीं करेगा वैसे ही जैसे पहले था ? क्या, क्यों, कैसे ??? सवाल ही सवाल .. बवंडर सा मचा है उसके अन्दर .. उसका दिमाग चकराने लगा है ... लगता है जैसे अभी गिर पड़ेगा .. पर वीरेन चलता गया .. उसका गला सूख रहा है ... नवम्बर की गुलाबी सर्दी की जगह जून की तपती दोपहर ने उसके शरीर और आत्मा को घेर लिया है .. उसकी आँखें सड़क पर फिसल रही है पर कहीं रूकती नहीं .. आखिर उसे रुकना पड़ा .. पैर कहीं टकराया है, शायद पत्थर है .. उसका सर घूम रहा है ..
वीरेन कब घर वापिस लौटा उस खुद ही खबर नहीं .. कैसे लौटा, नहीं पता .. वही बिस्तर है, छत का पंखा और उसको घूरती दो आँखें . पिछले चार दिन से यही चल रहा है .. दोस्तों, परिवार वालों को नहीं पता कि वीरेन कहाँ है .. उसके फोन पर मिस्ड कॉल्स और sms की संख्या बढती ही जा रही है .. पर उसने एक बार भी नहीं देखा ... खुद वीरेन को नहीं पता कि वो खुद कहाँ है .. लेकिन ऋचा इस समय कहाँ है , ये उसे ज़रूर पता है ... और उसे सवाल पूछने हैं ऋचा से .. पूछ भी चुका है पर जितने जवाब सुनता है उतना ही उसके अन्दर के तूफ़ान की चीखें बढ़ने लगती हैं।
" क्या सिर्फ यही वजह है? क्या सिर्फ यही स्पष्टीकरण है तुम्हारे पास? और वो सात साल उनके लिए क्या कहोगी ? ये सब तुमने पहले नहीं सोचा था या तुम्हे पता नहीं था ? "
"देखो वीरेन , तुम जानते हो मुझे .. मैं अपनी सारी ज़िन्दगी यहाँ नहीं गुजारना चाहती ... इतनी पढ़ाई लिखाई और उस पर इतना इन्वेस्टमेंट क्या यहाँ भारत में रहने के लिए किया था ..मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम अपने अच्छे खासे करियर और नौकरी के अवसरों को छोड़ कर मध्यप्रदेश के किसी छोटे से शहर में ये फॅमिली बिज़नेस संभालने के लिए चले आओगे ।" क्या तुम कह सकते हो कि तुम वही वीरेन हो जिस से मैंने कॉलेज में प्यार किया था ?"
" लेकिन ऋचा ये कोई मामूली बिज़नेस तो नहीं .. पैसा है, पोजीशन है, स्टेटस है सोसाइटी में .. और क्या चाहिए ?"
"मुझे यहाँ नहीं रहना .. जैसी ज़िन्दगी मुझे चाहिए वो तुम मुझे नहीं दे सकोगे। ज़रा देखो इस disgusting शहर को ... क्या मैं यहाँ रहूंगी ? मैं अपनी लाइफ स्टाइल क्या तुम्हारे इस नए एडवेंचर या वेंचर के लिए बदल डालूँ ... क्या मैं अपनी सारी ज़िन्दगी यहाँ इन मुर्गीखानों में गुज़ार दूँगी? "
"नहीं वीरेन, मुझसे ये नहीं होगा .."
और ऋचा चली गई, कनाडा .. अपने पति के साथ, जो वहाँ का परमानेंट सिटीजन कार्ड होल्डर भी है।
सब बेकार है, बकवास है, a big bullshit ..
वीरेन अपने आप में ही बोले जा रहा है .. छत का पंखा वैसा ही तेज़ चल रहा है। उसका चेहरा विवर्ण होता जा रहा है .. आईने के सामने खडा वो चीख रहा है, उसी पागलपन की हालत में उसने कांच को जोर से मार कर तोड़ दिया .. उसके हाथ और बांह से खून बहने लगा और तभी एक धारदार कांच का टुकड़ा उसने अपने हाथ में उठा लिया .. और शायद वो टुकड़ा अभी अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ता इसके पहले ही दरवाजे पर घंटी बजी । और ऐसा लगा जैसे वीरेन एकदम से किसी गहरी नींद से जागा हो .. कांच का टुकड़ा हाथ से गिर गया . कुछ देर बाद जाकर उसने दरवाजा खोला ... वहाँ अब कोई नहीं था।
"बेटा कब तक ऐसा चलेगा .. कब तक तू ऐसे ही .."
"प्लीज माँ .."
"अच्छा , सुन आज मुझे आश्रम जाना है तू भी चलेगा साथ में?"
"मैं??"
और यही कोई एक घंटे के वाद वीरेन माँ के साथ एक बड़े से हॉल में बैठा किसी गेरुए वस्त्र पहने, हलकी दाढ़ी और गेरुए कपडे से ही सर को ढके हुए, किसी उम्रदराज लेकिन प्रभावशाली व्यक्ति का प्रवचन सुन रहा था। कहना मुश्किल है कि वीरेन सच में सुन रहा था या सिर्फ देख रहा था या खुद में ही कहीं गुम था . आखिर प्रवचन भी ख़त्म हो गया, सबको प्रसाद दिया गया और जब वो गेरुए कपड़ों वाला आदमी भी जाने लगा तो वीरेन की माँ ने उसे जाकर कुछ कहा और फिर इशारे से वीरेन को भी बुलाया. वे श्रीमान थोड़ी देर तक कुछ कहते रहे समझाते रहे वीरेन को जो सब उसने सुना और फिर भूल गया .
पर उस दिन के बाद जैसे कैसे भी, माँ रोज़ या हर दूसरे दिन अपने उदास बेटे को आश्रम ले जाने लगीं। इस उम्मीद में कि उसका मन संभल जाएगा (आश्रम और साधू सन्यासियों के प्रवचन मन को बहलाने की चीज़ नहीं होते ) . कुछ दिन और बीते और अब खुद वीरेन को भी वहाँ अच्छा लगने लगा .. प्रवचन होता था , वो सुनता था .. उसमे ज़िन्दगी की व्यर्थता, हमारे चारों और मोह माया के बंधन, हमारे जीवन के वास्तविक लक्ष्य यानी मोक्ष प्राप्ति और इस जीवन में वास्तविक सुख कैसे पाएं और ऐसी जाने कितनी बातों का जिक्र रहता था .
वीरेन का थका हुआ मन था और उलझा हुआ दिमाग था .. ऋचा के जाने के बाद वैसे भी उसके लिए संसार सचमुच मोह माया जैसी ही कोई बेकार सी चीज़ बन गया था और आश्रम उसका नया शगल था .. यहाँ कुछ तो बात थी .. माहौल बेहद शांत रहता है, जैसे कोई अदृश्य सा aura यहाँ की दीवारों, छत और हर छोटी बड़ी चीज़ को घेरे हुए है। सबसे शांत और रहस्यमय व्यक्तित्व था, स्वामी अमृतानंद जी का। जैसा उनका नाम था वैसा ही उनका aura था .. धीमी और गहरी आवाज़ ... बस सुनता ही जाए इंसान। स्वामीजी ने वीरेन की माँ को तसल्ली दी थी और अपने ही अंदाज़ में भविष्यवाणी भी की थी, कि उसका बेटा फिर से अपनी ज़िन्दगी में रम जाएगा, उस बेकार सी लड़की की कोई परछाई भी उस पर बाकी नहीं रहेगी। और इसलिए जब वीरेन ने अपनी शामें और कभी कभी दोपहर भी आश्रम में बिताने शुरू किये तो माँ को कोई ऐतराज नहीं हुआ।
"अरे संतों की सेवा तो जितनी करो उतनी कम है ... इतने साल तो कभी गया नहीं .. अब जाकर कुछ सदबुद्धि आई है ".
अब वीरेन को नहीं पता कि उसे कौनसी सदबुद्धि या और कोई बुद्धि मिल गई है पर वहाँ जाना उसे ज़रूर अच्छा लगता है . वहाँ से किताबें लाकर पढना , उनका अर्थ समझना और ये महसूस करना , यकीन करना कि दुनिया में कोई तो है जिसे हम दिल खोल कर अपना हाल बता सकते हैं उसके आगे रो सकते हैं और उम्मीद भी कर सकते हैं हमारी प्रार्थनाओं और पुकार की कहीं तो सुनवाई होगी ही .. हो भी रही होगी . (वैसे अब वीरेन की प्रार्थनाएं ना तो करियर को लेकर थी ना और किसी सुख सुविधा के लिए, ऋचा का तो खैर अब सवाल ही नहीं उठता था) अब उसकी प्रार्थनाये अपने लिए शान्ति और एक नए रास्ते की खोज के लिए हैं । वीरेन को विश्वास हो चला है कि इस नश्वर संसार में अब और कुछ नहीं बचा जो देखा नहीं, जिसका अनुभव नहीं किया और जिसकी कोई ख्वाहिश बाकी रह गई।
"कहाँ है आजकल, कोई खबर ही नहीं तेरी ?"
"बस यूँही .. "
" अच्छा सुन आज चलते हैं, वहीं ... तू पहुँच जाना। कहाँ रहता है आजकल ?"
"कहीं नहीं बस माँ को आश्रम ले जाता हूँ तो वहीँ देर हो जाती है .." एक सीधा सरल बहाना जो बेकार गया .
"क्या??? आश्रम ... तू कब से इन जगहों पर जाने लगा ..क्या चक्कर है भाई ??"
अरे कुछ नहीं ...अच्छा मैं आ जाउंगा।"
लेकिन वीरेन कहीं नहीं गया , कभी नहीं गया। उसे जाने में दिलचस्पी ही नहीं। उसने कहीं जाना ही छोड़ दिया ... साथ ले जाने वालों के साथ कभी कभार जाता पर फिर जल्दी लौट आता . वो ठिकाने, वो महफिलें, वो दोस्तों का मेला ..सब बेमजा और बेगाना होने लगा था ..जाने कैसा हो गया था वीरेन का मन, लगता था जैसे इंसानों के इस जंगल में उसका कहीं कोई संगी साथी नहीं .. केमिस्ट्री, जियोग्राफी और मैथमेटिक्स अब सब अर्थहीन होने लगे थे ... कोई कहता कि वीरेन अब आधुनिक देवदास बनेगा, कोई कहता नहीं ये तो नया ही अवतार लेगा .. कोई कोई हँसते कि इसका दिमाग खराब हो गया है ... कुछ इलाज की ज़रूरत है। कहने वाले दोस्त -यार सब ने आखिर तंग आकर कहना और पूछना और याद दिलाना भी छोड़ दिया . उन्होंने मान लिया कि वीरेन को अब कुछ नहीं समझाया जा सकता।
पर वीरेन को अब कुछ नहीं बनना है .. बीते दिनों का एक छोटा सा टुकड़ा भी याद नहीं करना . बीती हुई कोई चीज़ वापिस नहीं चाहिए। पर फिर भी उसे कुछ तो चाहिए, कुछ .. एक अपमान सा महसूस होता है उसे .. लगता है जैसे उसका अपना एक हिस्सा छिन गया है। बदला चाहिए उसे .. पर फिर सोचता कि बदला किस से ले .. किस बात का .. और लेने या छीन सके ऐसा क्या शेष रहा।
आश्रम आकर एक अच्छी चीज़ ये हुई कि वीरेन के मन को यहाँ कुछ सुकून और शांति मिलने लगी। इस जगह आकर उसे लगता जैसे दुनियादारी और उसके नुमाइंदों की परछाई भी उससे दूर भाग गई है। उसे नफरत हो गई है रिश्तों से, शब्दों के जंजाल से, चेहरों के नकाब से और अंतहीन सामाजिक व्यवहारों के तरीकों से ... जिनमे आप लोगों को नापसंद करते हुए भी उनसे निभाते चले जाते हैं , सामने हंस हंस के बोलते हैं और मुंह फेरते ही बुराइयां गिनाने लग जाते हैं। जहां ज़रूरत के, लालच के सम्बन्ध है। जहां लोग अपने अलावा बाकी हर इंसान में, हर चीज़ में खामियां निकालते फिरते हैं। जिस चीज़ से शिकायत है उसी से चिपके हुए हैं। जहां हर कोई अपनी ही सफलता, समृद्धि और उपलब्धि के गीत गाये जा रहा है, दूसरों को उनकी कमतरी का अहसास दिलाये जा रहा है। जहां हर तरफ घुटन है, हवा में सड़े गले मांस की बदबू है ... और कई सारे पुराने कंकाल हैं .. जाने किन किन नामों का कफ़न ओढ़े हुए ...
वीरेन को सांस लेना भी मुश्किल लगता है इस हवा में ... यहाँ रहना और जीना उसकी बर्दाश्त से बाहर है। पर जिम्मेदारियों और दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता इसलिए इस बोझ को उठाये वीरेन भागता फिरता है दिनभर ...
और अब वीरेन कुछ तलाशने में जुट गया है, उसे ऐसा लगता है जैसे वो इस आस पास के माहौल से belong नहीं करता .. उसे कहीं और होना चाहिए .. ये हर रोज़ का गल्ले का हिसाब, ये खरीद - बेचान के समीकरण, ये मुनाफे और घाटे का हिसाब ...इनमे अब उसका मन नहीं टिकता .
उसकी प्यास नहीं मिटती .. उसकी तृष्णा शांत नहीं होती .. सवाल के बिच्छू डंक मारते ही रहते हैं। सब से दूर कहीं खो जाने, किसी अनजानी मगर उजली मिटटी में मिल जाने का उसका मन चाहता है।
वीरेन अपने इन सब सवालों को स्वामी अमृतानंद के सामने रख देता .. और हैरानी की बात ये भी थी कि आजकल अब वो बहुत दार्शनिक नज़रिए से सोचने और सवाल करने लगा था।
"ऐसा क्यों होता है ... वैसा क्यों नहीं होता ? और अगर ऐसा ही होना है तो फिर हम क्या सिर्फ मूक दर्शक है अपने ही जीवन की घटनाओं के ?"
" और इस जीवन के परे इस संसार के परे सच में कोई स्वर्ग है क्या ? ये मोक्ष क्या है ..और अभी जो नरक इस जीवन में झेल रहे हैं वो मरने के बाद के नरक के अतिरिक्त यानी एक्स्ट्रा addition है क्या ?"
उसका सबसे बड़ा सवाल था कि इस आम साधारण ज़िन्दगी को असाधारण कैसे बनाया जाए ???? स्वामी अमृतानानद सुनते .. मुस्कुराते .. अपनी आँखों को थोडा सा बंद करते फिर अपने नज़रिए और ज्ञान के मुताबिक़ जवाब देते। कई बार वीरेन के सवाल शांत हो जाते कई बार नहीं भी होते।
अपने काबिल बेटे के बदले रंग ढंग और उसका नई चाल ढाल घरवालों की खासतौर पर पिता का सरदर्द बन रही है और माँ ये सोचती कि कोई नहीं सब ठीक हो जाएगा ... वीरेन की शादी हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा ..पर लड़का माने जब ना। अब उसे शादी नहीं करनी अपना परिवार, गृहस्थी, बीवी ये सब शब्द वीरेन को बेहद दकियानूस और बोझ लगते हैं ... (जिसके साथ सात साल गुज़ारे जब वही ज़िन्दगी में साथ निभाने को राज़ी ना हुई तो ये मम्मी और डैड की ढूंढी हुई राजरानी कौनसा साथ निभाएगी )
और फिर इसी मुद्दे पर घर में बहसें चलती ... लम्बी लम्बी .. जिनका कोई निष्कर्ष नहीं था .. वीरेन शादी नहीं करेगा और ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढता फिरेगा ... माँ और बूढ़े पिता के माथे पे मारे चिंता के पड़ने वाली रेखाएं और गहरी होती जातीं ... ज़िन्दगी अपने इन चेहरों से बेहाल हो उठी थी।
कुछ हफ्ते, महीने बीते ... वीरेन को इतना तो समझ आ ही गया कि ऋचा वाला अध्याय ना उसकी कोई व्यक्तिगत असफलता है, ना उसका अपमान और ना ही उसकी कोई गलती ... बीती ज़िन्दगी को जब सोचता, बैंगलोर, मुंबई और पूना में गुज़रे सालों को याद करता।। वो सच में ज़िन्दगी का एक बेहद खुशगवार वक़्त था .. बेफिक्री थी .. भविष्य के सपने थे ..वीरेन तो अब भी वही है पर अब उसे लगता कि अपनी ज़िन्दगी को ऐसे किसी आयाम पर ले जाए जहां ये सो-कॉल्ड असफलताएं , ये निराशाएं और वो पूरी ना हुई ख्वाहिशें अपने आप में ही छोटी पड़ जाएँ। कुछ ऐसा जो उसे इस दकियानूसी माहौल से दूर ले जाए। अब उसे ना स्टेटस चाहिए था, ना पैसा, ना कोई और चीज़ अब उसकी आँखों को आकर्षित कर पा रही है ... पैसा और उस से खरीदी जाने वाली ख़ुशी अब ख़ुशी नहीं लगती थी .. स्टेटस तो पहले भी था और अभी भी है पर उसे बना संवार के रखने की कोशिशें सिवाय बोझ के और कुछ नहीं ...
लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं निकाल सकते हम कि वीरेन को इस संसार से, इस तथाकथित नश्वर संसार से कोई वितृष्णा हो गई थी या उसने वैराग्य लेने का इरादा कर लिया था। अगर कोई गौर से देखता तो समझ पाता कि वेरेन दरअसल अपने ही तरीके से उस भूतकाल से छुटकारा पाने की कोशिश में लगा था .यानी उसके हिसाब से ज़िन्दगी वापिस नार्मल ट्रैक पर आ रही थी।
पर अभी सब कुछ नार्मल कहाँ हुआ है .. जब हम सोचते हैं कि अब सब ठीक है तभी ज़िन्दगी अपने तरीके से कोई यू टर्न लेती है। एक अच्छी खासी शाम को, एक लम्बे वक़्त के बाद दोस्तों के साथ एक पूरी शाम और शायद रात भी गुज़ार देने का इरादा बनता, पर घर से कोई ज़रूरी काम के लिए फोन आया और वीरेन रवाना हुआ . मस्ती से, आराम से अपनी बाइक चलाते हुए .. रास्ते से कुछ सामान लेना था , इसलिए वीरेन रुका शहर के सबसे व्यस्त चौराहे के सामने वाले बाज़ार की किसी दूकान पर। दूकान पर भीड़ थी, उसका नंबर आने और सामान मिलने में अभी वक़्त लगना था .. इसलिए उसकी आँखें यूँही "बाज़ार दर्शन" करने लगी .. और निगाहें रुकी चौराहे पर बने सर्किल के किनारों पर बैठे एक परिवार पर .. उसमे बच्चे थे, बड़े भी थे और वो भिखारी ही थे। पर वीरेन ने कुछ और भी देखा ... उसने हँसते हुए बच्चे देखे, अपने से छोटों को हाथ से कुछ खिलाते हुए , बड़े प्यार से आपस में बतियाते हुए परिवार के लोग देखे, एक दुसरे से हंसी मजाक करते हुए, किसी नन्हे को गोद में खिलाते हुए एक काले गंदे से भिखारी को भी देखा। ऐसा लग रहा था कि उन लोगों को इस वक़्त इस पूरे जहान में किसी से कोई लेना देना नहीं .. ये जो शाम का भागता दौड़ता ट्रैफिक है, ये बाजारों की व्यस्तताएं, ये भीड़ का शोर .. किसी बात से कोई मतलब नहीं उनको। चौराहे पर बसी अपनी ही उस टेम्पररी दुनिया में खुश थे।
ये नज़ारा जैसे वीरेन के दिल पर नक्श हो गया। वो घर लौटा और एक बार फिर से "खो" गया ... उसी चौराहे पर, उन भिखारियों की हंसी में।
To Be Continued ...
The second part of the story is Here
वीरेन कब घर वापिस लौटा उस खुद ही खबर नहीं .. कैसे लौटा, नहीं पता .. वही बिस्तर है, छत का पंखा और उसको घूरती दो आँखें . पिछले चार दिन से यही चल रहा है .. दोस्तों, परिवार वालों को नहीं पता कि वीरेन कहाँ है .. उसके फोन पर मिस्ड कॉल्स और sms की संख्या बढती ही जा रही है .. पर उसने एक बार भी नहीं देखा ... खुद वीरेन को नहीं पता कि वो खुद कहाँ है .. लेकिन ऋचा इस समय कहाँ है , ये उसे ज़रूर पता है ... और उसे सवाल पूछने हैं ऋचा से .. पूछ भी चुका है पर जितने जवाब सुनता है उतना ही उसके अन्दर के तूफ़ान की चीखें बढ़ने लगती हैं।
" क्या सिर्फ यही वजह है? क्या सिर्फ यही स्पष्टीकरण है तुम्हारे पास? और वो सात साल उनके लिए क्या कहोगी ? ये सब तुमने पहले नहीं सोचा था या तुम्हे पता नहीं था ? "
"देखो वीरेन , तुम जानते हो मुझे .. मैं अपनी सारी ज़िन्दगी यहाँ नहीं गुजारना चाहती ... इतनी पढ़ाई लिखाई और उस पर इतना इन्वेस्टमेंट क्या यहाँ भारत में रहने के लिए किया था ..मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम अपने अच्छे खासे करियर और नौकरी के अवसरों को छोड़ कर मध्यप्रदेश के किसी छोटे से शहर में ये फॅमिली बिज़नेस संभालने के लिए चले आओगे ।" क्या तुम कह सकते हो कि तुम वही वीरेन हो जिस से मैंने कॉलेज में प्यार किया था ?"
" लेकिन ऋचा ये कोई मामूली बिज़नेस तो नहीं .. पैसा है, पोजीशन है, स्टेटस है सोसाइटी में .. और क्या चाहिए ?"
"मुझे यहाँ नहीं रहना .. जैसी ज़िन्दगी मुझे चाहिए वो तुम मुझे नहीं दे सकोगे। ज़रा देखो इस disgusting शहर को ... क्या मैं यहाँ रहूंगी ? मैं अपनी लाइफ स्टाइल क्या तुम्हारे इस नए एडवेंचर या वेंचर के लिए बदल डालूँ ... क्या मैं अपनी सारी ज़िन्दगी यहाँ इन मुर्गीखानों में गुज़ार दूँगी? "
"नहीं वीरेन, मुझसे ये नहीं होगा .."
और ऋचा चली गई, कनाडा .. अपने पति के साथ, जो वहाँ का परमानेंट सिटीजन कार्ड होल्डर भी है।
सब बेकार है, बकवास है, a big bullshit ..
वीरेन अपने आप में ही बोले जा रहा है .. छत का पंखा वैसा ही तेज़ चल रहा है। उसका चेहरा विवर्ण होता जा रहा है .. आईने के सामने खडा वो चीख रहा है, उसी पागलपन की हालत में उसने कांच को जोर से मार कर तोड़ दिया .. उसके हाथ और बांह से खून बहने लगा और तभी एक धारदार कांच का टुकड़ा उसने अपने हाथ में उठा लिया .. और शायद वो टुकड़ा अभी अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ता इसके पहले ही दरवाजे पर घंटी बजी । और ऐसा लगा जैसे वीरेन एकदम से किसी गहरी नींद से जागा हो .. कांच का टुकड़ा हाथ से गिर गया . कुछ देर बाद जाकर उसने दरवाजा खोला ... वहाँ अब कोई नहीं था।
"बेटा कब तक ऐसा चलेगा .. कब तक तू ऐसे ही .."
"प्लीज माँ .."
"अच्छा , सुन आज मुझे आश्रम जाना है तू भी चलेगा साथ में?"
"मैं??"
और यही कोई एक घंटे के वाद वीरेन माँ के साथ एक बड़े से हॉल में बैठा किसी गेरुए वस्त्र पहने, हलकी दाढ़ी और गेरुए कपडे से ही सर को ढके हुए, किसी उम्रदराज लेकिन प्रभावशाली व्यक्ति का प्रवचन सुन रहा था। कहना मुश्किल है कि वीरेन सच में सुन रहा था या सिर्फ देख रहा था या खुद में ही कहीं गुम था . आखिर प्रवचन भी ख़त्म हो गया, सबको प्रसाद दिया गया और जब वो गेरुए कपड़ों वाला आदमी भी जाने लगा तो वीरेन की माँ ने उसे जाकर कुछ कहा और फिर इशारे से वीरेन को भी बुलाया. वे श्रीमान थोड़ी देर तक कुछ कहते रहे समझाते रहे वीरेन को जो सब उसने सुना और फिर भूल गया .
पर उस दिन के बाद जैसे कैसे भी, माँ रोज़ या हर दूसरे दिन अपने उदास बेटे को आश्रम ले जाने लगीं। इस उम्मीद में कि उसका मन संभल जाएगा (आश्रम और साधू सन्यासियों के प्रवचन मन को बहलाने की चीज़ नहीं होते ) . कुछ दिन और बीते और अब खुद वीरेन को भी वहाँ अच्छा लगने लगा .. प्रवचन होता था , वो सुनता था .. उसमे ज़िन्दगी की व्यर्थता, हमारे चारों और मोह माया के बंधन, हमारे जीवन के वास्तविक लक्ष्य यानी मोक्ष प्राप्ति और इस जीवन में वास्तविक सुख कैसे पाएं और ऐसी जाने कितनी बातों का जिक्र रहता था .
वीरेन का थका हुआ मन था और उलझा हुआ दिमाग था .. ऋचा के जाने के बाद वैसे भी उसके लिए संसार सचमुच मोह माया जैसी ही कोई बेकार सी चीज़ बन गया था और आश्रम उसका नया शगल था .. यहाँ कुछ तो बात थी .. माहौल बेहद शांत रहता है, जैसे कोई अदृश्य सा aura यहाँ की दीवारों, छत और हर छोटी बड़ी चीज़ को घेरे हुए है। सबसे शांत और रहस्यमय व्यक्तित्व था, स्वामी अमृतानंद जी का। जैसा उनका नाम था वैसा ही उनका aura था .. धीमी और गहरी आवाज़ ... बस सुनता ही जाए इंसान। स्वामीजी ने वीरेन की माँ को तसल्ली दी थी और अपने ही अंदाज़ में भविष्यवाणी भी की थी, कि उसका बेटा फिर से अपनी ज़िन्दगी में रम जाएगा, उस बेकार सी लड़की की कोई परछाई भी उस पर बाकी नहीं रहेगी। और इसलिए जब वीरेन ने अपनी शामें और कभी कभी दोपहर भी आश्रम में बिताने शुरू किये तो माँ को कोई ऐतराज नहीं हुआ।
"अरे संतों की सेवा तो जितनी करो उतनी कम है ... इतने साल तो कभी गया नहीं .. अब जाकर कुछ सदबुद्धि आई है ".
अब वीरेन को नहीं पता कि उसे कौनसी सदबुद्धि या और कोई बुद्धि मिल गई है पर वहाँ जाना उसे ज़रूर अच्छा लगता है . वहाँ से किताबें लाकर पढना , उनका अर्थ समझना और ये महसूस करना , यकीन करना कि दुनिया में कोई तो है जिसे हम दिल खोल कर अपना हाल बता सकते हैं उसके आगे रो सकते हैं और उम्मीद भी कर सकते हैं हमारी प्रार्थनाओं और पुकार की कहीं तो सुनवाई होगी ही .. हो भी रही होगी . (वैसे अब वीरेन की प्रार्थनाएं ना तो करियर को लेकर थी ना और किसी सुख सुविधा के लिए, ऋचा का तो खैर अब सवाल ही नहीं उठता था) अब उसकी प्रार्थनाये अपने लिए शान्ति और एक नए रास्ते की खोज के लिए हैं । वीरेन को विश्वास हो चला है कि इस नश्वर संसार में अब और कुछ नहीं बचा जो देखा नहीं, जिसका अनुभव नहीं किया और जिसकी कोई ख्वाहिश बाकी रह गई।
"कहाँ है आजकल, कोई खबर ही नहीं तेरी ?"
"बस यूँही .. "
" अच्छा सुन आज चलते हैं, वहीं ... तू पहुँच जाना। कहाँ रहता है आजकल ?"
"कहीं नहीं बस माँ को आश्रम ले जाता हूँ तो वहीँ देर हो जाती है .." एक सीधा सरल बहाना जो बेकार गया .
"क्या??? आश्रम ... तू कब से इन जगहों पर जाने लगा ..क्या चक्कर है भाई ??"
अरे कुछ नहीं ...अच्छा मैं आ जाउंगा।"
लेकिन वीरेन कहीं नहीं गया , कभी नहीं गया। उसे जाने में दिलचस्पी ही नहीं। उसने कहीं जाना ही छोड़ दिया ... साथ ले जाने वालों के साथ कभी कभार जाता पर फिर जल्दी लौट आता . वो ठिकाने, वो महफिलें, वो दोस्तों का मेला ..सब बेमजा और बेगाना होने लगा था ..जाने कैसा हो गया था वीरेन का मन, लगता था जैसे इंसानों के इस जंगल में उसका कहीं कोई संगी साथी नहीं .. केमिस्ट्री, जियोग्राफी और मैथमेटिक्स अब सब अर्थहीन होने लगे थे ... कोई कहता कि वीरेन अब आधुनिक देवदास बनेगा, कोई कहता नहीं ये तो नया ही अवतार लेगा .. कोई कोई हँसते कि इसका दिमाग खराब हो गया है ... कुछ इलाज की ज़रूरत है। कहने वाले दोस्त -यार सब ने आखिर तंग आकर कहना और पूछना और याद दिलाना भी छोड़ दिया . उन्होंने मान लिया कि वीरेन को अब कुछ नहीं समझाया जा सकता।
पर वीरेन को अब कुछ नहीं बनना है .. बीते दिनों का एक छोटा सा टुकड़ा भी याद नहीं करना . बीती हुई कोई चीज़ वापिस नहीं चाहिए। पर फिर भी उसे कुछ तो चाहिए, कुछ .. एक अपमान सा महसूस होता है उसे .. लगता है जैसे उसका अपना एक हिस्सा छिन गया है। बदला चाहिए उसे .. पर फिर सोचता कि बदला किस से ले .. किस बात का .. और लेने या छीन सके ऐसा क्या शेष रहा।
आश्रम आकर एक अच्छी चीज़ ये हुई कि वीरेन के मन को यहाँ कुछ सुकून और शांति मिलने लगी। इस जगह आकर उसे लगता जैसे दुनियादारी और उसके नुमाइंदों की परछाई भी उससे दूर भाग गई है। उसे नफरत हो गई है रिश्तों से, शब्दों के जंजाल से, चेहरों के नकाब से और अंतहीन सामाजिक व्यवहारों के तरीकों से ... जिनमे आप लोगों को नापसंद करते हुए भी उनसे निभाते चले जाते हैं , सामने हंस हंस के बोलते हैं और मुंह फेरते ही बुराइयां गिनाने लग जाते हैं। जहां ज़रूरत के, लालच के सम्बन्ध है। जहां लोग अपने अलावा बाकी हर इंसान में, हर चीज़ में खामियां निकालते फिरते हैं। जिस चीज़ से शिकायत है उसी से चिपके हुए हैं। जहां हर कोई अपनी ही सफलता, समृद्धि और उपलब्धि के गीत गाये जा रहा है, दूसरों को उनकी कमतरी का अहसास दिलाये जा रहा है। जहां हर तरफ घुटन है, हवा में सड़े गले मांस की बदबू है ... और कई सारे पुराने कंकाल हैं .. जाने किन किन नामों का कफ़न ओढ़े हुए ...
वीरेन को सांस लेना भी मुश्किल लगता है इस हवा में ... यहाँ रहना और जीना उसकी बर्दाश्त से बाहर है। पर जिम्मेदारियों और दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता इसलिए इस बोझ को उठाये वीरेन भागता फिरता है दिनभर ...
और अब वीरेन कुछ तलाशने में जुट गया है, उसे ऐसा लगता है जैसे वो इस आस पास के माहौल से belong नहीं करता .. उसे कहीं और होना चाहिए .. ये हर रोज़ का गल्ले का हिसाब, ये खरीद - बेचान के समीकरण, ये मुनाफे और घाटे का हिसाब ...इनमे अब उसका मन नहीं टिकता .
उसकी प्यास नहीं मिटती .. उसकी तृष्णा शांत नहीं होती .. सवाल के बिच्छू डंक मारते ही रहते हैं। सब से दूर कहीं खो जाने, किसी अनजानी मगर उजली मिटटी में मिल जाने का उसका मन चाहता है।
वीरेन अपने इन सब सवालों को स्वामी अमृतानंद के सामने रख देता .. और हैरानी की बात ये भी थी कि आजकल अब वो बहुत दार्शनिक नज़रिए से सोचने और सवाल करने लगा था।
"ऐसा क्यों होता है ... वैसा क्यों नहीं होता ? और अगर ऐसा ही होना है तो फिर हम क्या सिर्फ मूक दर्शक है अपने ही जीवन की घटनाओं के ?"
" और इस जीवन के परे इस संसार के परे सच में कोई स्वर्ग है क्या ? ये मोक्ष क्या है ..और अभी जो नरक इस जीवन में झेल रहे हैं वो मरने के बाद के नरक के अतिरिक्त यानी एक्स्ट्रा addition है क्या ?"
उसका सबसे बड़ा सवाल था कि इस आम साधारण ज़िन्दगी को असाधारण कैसे बनाया जाए ???? स्वामी अमृतानानद सुनते .. मुस्कुराते .. अपनी आँखों को थोडा सा बंद करते फिर अपने नज़रिए और ज्ञान के मुताबिक़ जवाब देते। कई बार वीरेन के सवाल शांत हो जाते कई बार नहीं भी होते।
अपने काबिल बेटे के बदले रंग ढंग और उसका नई चाल ढाल घरवालों की खासतौर पर पिता का सरदर्द बन रही है और माँ ये सोचती कि कोई नहीं सब ठीक हो जाएगा ... वीरेन की शादी हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा ..पर लड़का माने जब ना। अब उसे शादी नहीं करनी अपना परिवार, गृहस्थी, बीवी ये सब शब्द वीरेन को बेहद दकियानूस और बोझ लगते हैं ... (जिसके साथ सात साल गुज़ारे जब वही ज़िन्दगी में साथ निभाने को राज़ी ना हुई तो ये मम्मी और डैड की ढूंढी हुई राजरानी कौनसा साथ निभाएगी )
और फिर इसी मुद्दे पर घर में बहसें चलती ... लम्बी लम्बी .. जिनका कोई निष्कर्ष नहीं था .. वीरेन शादी नहीं करेगा और ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढता फिरेगा ... माँ और बूढ़े पिता के माथे पे मारे चिंता के पड़ने वाली रेखाएं और गहरी होती जातीं ... ज़िन्दगी अपने इन चेहरों से बेहाल हो उठी थी।
कुछ हफ्ते, महीने बीते ... वीरेन को इतना तो समझ आ ही गया कि ऋचा वाला अध्याय ना उसकी कोई व्यक्तिगत असफलता है, ना उसका अपमान और ना ही उसकी कोई गलती ... बीती ज़िन्दगी को जब सोचता, बैंगलोर, मुंबई और पूना में गुज़रे सालों को याद करता।। वो सच में ज़िन्दगी का एक बेहद खुशगवार वक़्त था .. बेफिक्री थी .. भविष्य के सपने थे ..वीरेन तो अब भी वही है पर अब उसे लगता कि अपनी ज़िन्दगी को ऐसे किसी आयाम पर ले जाए जहां ये सो-कॉल्ड असफलताएं , ये निराशाएं और वो पूरी ना हुई ख्वाहिशें अपने आप में ही छोटी पड़ जाएँ। कुछ ऐसा जो उसे इस दकियानूसी माहौल से दूर ले जाए। अब उसे ना स्टेटस चाहिए था, ना पैसा, ना कोई और चीज़ अब उसकी आँखों को आकर्षित कर पा रही है ... पैसा और उस से खरीदी जाने वाली ख़ुशी अब ख़ुशी नहीं लगती थी .. स्टेटस तो पहले भी था और अभी भी है पर उसे बना संवार के रखने की कोशिशें सिवाय बोझ के और कुछ नहीं ...
लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं निकाल सकते हम कि वीरेन को इस संसार से, इस तथाकथित नश्वर संसार से कोई वितृष्णा हो गई थी या उसने वैराग्य लेने का इरादा कर लिया था। अगर कोई गौर से देखता तो समझ पाता कि वेरेन दरअसल अपने ही तरीके से उस भूतकाल से छुटकारा पाने की कोशिश में लगा था .यानी उसके हिसाब से ज़िन्दगी वापिस नार्मल ट्रैक पर आ रही थी।
पर अभी सब कुछ नार्मल कहाँ हुआ है .. जब हम सोचते हैं कि अब सब ठीक है तभी ज़िन्दगी अपने तरीके से कोई यू टर्न लेती है। एक अच्छी खासी शाम को, एक लम्बे वक़्त के बाद दोस्तों के साथ एक पूरी शाम और शायद रात भी गुज़ार देने का इरादा बनता, पर घर से कोई ज़रूरी काम के लिए फोन आया और वीरेन रवाना हुआ . मस्ती से, आराम से अपनी बाइक चलाते हुए .. रास्ते से कुछ सामान लेना था , इसलिए वीरेन रुका शहर के सबसे व्यस्त चौराहे के सामने वाले बाज़ार की किसी दूकान पर। दूकान पर भीड़ थी, उसका नंबर आने और सामान मिलने में अभी वक़्त लगना था .. इसलिए उसकी आँखें यूँही "बाज़ार दर्शन" करने लगी .. और निगाहें रुकी चौराहे पर बने सर्किल के किनारों पर बैठे एक परिवार पर .. उसमे बच्चे थे, बड़े भी थे और वो भिखारी ही थे। पर वीरेन ने कुछ और भी देखा ... उसने हँसते हुए बच्चे देखे, अपने से छोटों को हाथ से कुछ खिलाते हुए , बड़े प्यार से आपस में बतियाते हुए परिवार के लोग देखे, एक दुसरे से हंसी मजाक करते हुए, किसी नन्हे को गोद में खिलाते हुए एक काले गंदे से भिखारी को भी देखा। ऐसा लग रहा था कि उन लोगों को इस वक़्त इस पूरे जहान में किसी से कोई लेना देना नहीं .. ये जो शाम का भागता दौड़ता ट्रैफिक है, ये बाजारों की व्यस्तताएं, ये भीड़ का शोर .. किसी बात से कोई मतलब नहीं उनको। चौराहे पर बसी अपनी ही उस टेम्पररी दुनिया में खुश थे।
ये नज़ारा जैसे वीरेन के दिल पर नक्श हो गया। वो घर लौटा और एक बार फिर से "खो" गया ... उसी चौराहे पर, उन भिखारियों की हंसी में।
To Be Continued ...