यह अपने ही भीतर का डर है, सूनापन है जिसके मारे इंसान अपने चारों और सुरक्षा घेरा या लकीर खींचने के फेरे में निरंतर एक या दूसरा जतन करता जाता है पर वह लकीर कभी भी पूरी नहीं होने पाती, सुरक्षा का भाव कभी भी पूरा नहीं आने पाता क्योंकि जहां आरम्भ ही उलटी चाल से हुआ तो मध्य और अंत तक बोलावा चलावा सीधा कैसे होगा ??? यह तो जैसे ऐसा खेल है कि " चूंकि मुझे ऐसा लगता है या मुझे ऐसा विश्वास है कि मुझे सदैव ही चतुराई का प्रदर्शन करते रहना चाहिए और उसे दुनिया दारी में मनवाने के लिए एक सख्त सा लबादा ओढ़े रखना चाहिए और आवश्यक होने पर पत्थर काँटा जैसा व्यवहार करने को तत्पर" .
पर इतना सब सर्कस के करतब करके हम कहाँ जाकर रुकते हैं ?? वहाँ जहां हमारे आस पास सभी एक दुसरे के चतुर सूजन होने की परीक्षा लेने को हर समय तत्पर हैं या वहाँ जहां हर क्षण आदमी यह सोच सोच कर ही चौकन्ना है कि कहीं कोई गलती ना हो जाए और चतुराई मय भोंडी अकड़ के प्रदर्शित होने से ना रह जाए।
और एक अजब खेल देखती आई हूं और अब तो जैसे देखते ही मुंह फेर कर दूर कहीं छिप जाने का मेरा मन होता है । क्योंकि यह खेल है लोगों का और मेरे लिए यह एक फांस को तरह है। लोग बड़ी ही सादगी और सहजता से सत्य के तालाब में झूठ का नाला मिलाते हैं और कभी झूठ के सागर में सत्य का जाल बिछाए रखते हैं। यह एक स्थापित सामाजिक व्यवहार बन गया है। इसे हमने खुद स्वीकृति दी है, मान लिया कि अब यह सब चलता है। यह झूठ का साथ हमारे रोजमर्रा के जीवन में इस तरह बन गया है कि अब हम मानसिक रूप से पहली अपेक्षा झूठ की रखते हैं और अंतिम अपेक्षा सत्य की। और यह सच झूठ का खेला हम सबके जीवन के हर सड़क, मोड़, चौराहा, गली जेड पगडंडी में इतना seamless और smooth होता है जितना कि फिल्म के एक्टर्स की कॉस्मेक्टिक सर्जरी । उकता नहीं जाते लोग इस सब प्रपंच से; पहले एक बात कहना फिर उसके विपरितार्थक दूसरी बात फिर दोनो ही बातों को अपनी अपनी जगह पर सही ठहराने, मनवाने और तर्कसंगत घोषित करने की एक पूरी कवायद। थकते नहीं लोग !!!
मैं बरसों से यह सर्कस देख देख कर उकता गई हूं । दुनिया समाज के नजरिए की खातिर जान समझ कर भी आंख झुका लेती हूं कि कौन प्रश्न प्रतिप्रश्न करे। पर जब अपने निजी जीवन में भी मेरा वास्ता ऐसे झूठ के जाल से जब भी पड़ा, वह दुखदायक ही रहा । हर बार प्रण किया कि अब कभी किसी का झूठा थाल हमारे पाचन हेतु नहीं परोसने देंगे; पर फिर मंदबुद्धि और निरे मूर्ख भी ऐसे ही थोड़े ना कहलाए हैं !!!
झूठ बोलना,, धड़ल्ले से बोलना, डंके की चोट पर झूठ बोलना और फिर उतना ही ऊंची आवाज और सीना तान कर कहना कि " हां तो, क्या हुआ !!! अब क्या कर लेंगे साहब आप हमारा !!! क्या कर लीजिएगा !!" यह एक ऐसी बेहयाई और मानव को दी गई वाणी का अपमान है कि सोचती हूं यह जो ऐसे आज अभी इस क्षण में यह शब्द तुम्हारे मुंह से निकले और कुछ घड़ी बीतने बाद वह शब्द बदल गए या उन शब्दों का प्रयोग अन्य स्थान पर अन्य व्यक्ति के साथ भी ; क्या तुमको कभी अपना कहा हुआ कुछ याद नहीं आता या इस सारी उचित अनुचित की परिभाषा से परे जाकर मानव के बजाय कोई और प्रजाति बन गए हो ???
यह सारे झूठ और चतुराई के लबादे आदमी ने अपनी अस्थाई और तुरंत के सुख खातिर ओढ़ रखे हैं। यह अपने ही भीतर की कमियों को स्वीकार ना कर पाने या अपने कामना की पूर्ति येनकेन कर लेने की स्थिति है, यह कभी ना पूरी होने वाली कथा है। और जब एक का सुख दूसरे के सुख और आराम की सीमा रेखा को लांघ कर अपना सुख का दायरा दूसरे के आराम वाले स्थान में स्थापित करता है तब ????
" सुख की नींद में मीत हमारे देस पराए सोए हैं, सुख की नींद में"
( पंक्तियां एक मशहूर हिंदी गैर फिल्मी गीत से हैं)
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