भारतीय सड़कें कितना बड़ा दिल रखती हैं। कभी लगता है कि सड़कें हैं या कोई इमामबाड़ा .... फल सब्ज़ी के ठेले, चाट वाले, घास बेचने वाले, फ़ास्ट फ़ूड वाले और भी पता नहीं, क्या क्या बेचने वाले के ठेले या स्ट्रीट काउंटर सड़क किनारे जगह बनाये एक परफेक्ट फ्रेम की तरह सुशोभित होते हैं। अभी तो हमने सड़क किनारे या फुटपाथ पर या चौड़े डिवाइडर पर रहने, बसने या सोने वाले भिखारियों का तो अभी तक कुछ नक्शा ही नहीं निकाला !!! और इस सबके साथ, भारतीय सड़कों की स्थाई विशेषता जो अब कह लीजिये कि इन सड़कों की शोभा को बढ़ाते हैं या बिगाड़ते हैं, वो हैं खड्डे, टूटी फूटी सड़क के पत्त्थर, मिटटी और कीचड के टापू। सडकों पर जो स्थाई रूप से गाय, कुत्ते समेत कई तरह के पशु प्राणी निवास करते हैं, उनकी संख्या का तो कोई हिसाब ही नहीं। कितना संसार बसा हुआ है इन सड़कों पर। इतने पर भी अपनी शाही सड़कों पर हिंदुस्तान मजे से, पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा है। बिना रुके, बिना ट्रैफिक सिग्नल की परवाह किये , बगैर ब्रेक लगाए; बस दौड़ रहा है। "हर लिमिट की हाइट पर चढ़ के डांस बसंती " ( एक फिल्म का लिरिक्स)
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Saturday, 19 February 2022
अमेज़न के जंगल और शहर की सड़क
सड़क के किनारे या सड़क पर ही दुकानें हैं, ढाबे हैं ; जिनका फैलारा सड़क तक खिंचा हुआ है। कभी कभी मुझे लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था और राजनितिक व्यवस्था सब कुछ सडकों पर ही रहती - चलती है। सड़क किनारे भिखारी अपने परिवार सहित टपरों में या अकेले एक कम्बल लपेटे पड़े रहते हैं। रैली, जुलूस, झांकी, प्रदर्शन, धरना यह सब भी सड़क पर चलता है. यहां तक कि जगह हो या ना हो लेकिन देवी देवताओं के थान, देवरे भी किसी चौराहे, नुक्कड़ पर जगह निकाल कर स्थापित कर दिए जाते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता। कहने का लब्बोलुआब यह रहा, कि एक भारत ऐसा भी है कि जिसकी समस्त संरचनाएं, रचनाएं, ताने - बाने और जीवन व्यव्हार सब कुछ सड़क से जुड़ा है, सड़क पर हो रहा है, सड़क पर चल रहा है। हिंदुस्तान सड़क पर जी रहा है।
सड़कें भी इस धीर गंभीर गुरुत्तर दायित्व को खूब समझती हैं। इसलिए जैसे कैसे करके भी हर व्यवहार के लिए, हर रचना के लिए ( ईश्वरीय, मानवीय ) जगह बना ही देती हैं। कभी किसी को निराश नहीं करती। यहां जगह ही जगह है ; इतनी जगह कि राजा का महल भी एडजस्ट हो जाए ; बस अगर कुछ एडजस्ट नहीं होता तो वह है दिन ब दिन बढ़ता ट्रैफिक !!!
अब यह सड़क की महिमा गाते गाते मेरी खोज पूर्ण दृष्टि जा पड़ी ऑफिस के परिसर में सब तरफ लगे पेड़ों पर, घर से ऑफिस आते जाते रास्ते में लगे पेड़ों पर। यह पेड़ हैं या कोई दो मंजिला तिमंजिला बिल्डिंग। इनकी ऊंचाई इमारत के बराबर ही है ; बस एक समस्या है, यह बेचारे ज़रा छितरे, पीले, सूखे, थके या एकदम उदासीन से मालूम होते हैं। इन्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे ये पेड़ जाने कब से यहां इस जगह पर ऐसे ही खड़े हैं, पड़े हैं, विराजमान हैं। इनको इस आती जाती फानी दुनिया से कोई लेना देना नहीं। गाहे बगाहे यह अपने आस पास नज़र डाल लेते होंगे फिर वापिस अपनी ध्यानावस्था में तल्लीन हो जाते होंगे या सोचते होंगे कि आखिर यह क्या तमाशा दिन रात मचा रहता है; एक मिनट को भी शान्ति क्यों नहीं है ??? तो रोज सर्दियों के दिनों में धूप सेंकते वक़्त इन ऊँचे पेड़ों को देख कर अचानक से मुझे अमेज़न के वर्षा वन याद आने लगे। अब पूछिए कि अमेज़न के वर्षा वन और सड़क और पेड़ और घने जंगल ; इन सब में भला क्या कनेक्शन है ? या क्या हो सकता है ? खैर, सवाल है तो जवाब भी है; कनेक्शन तो खैर है।
कनेक्शन इस तरह से है कि जहां आज सड़क है, शहर है, बस्ती है, वहाँ कभी जंगल था। जहां आज जंगल है वहाँ आने वाले वक़्त में सड़कें होंगी, बस्ती होगी और ट्रैफिक होगा। दूसरा कनेक्शन ये है कि सडकों पर धूप , धूल , धुंआ, मिटटी, कचरे के ढेर सब कुछ एक साथ फैला रहता है। लेकिन ये जंगल और इनके पेड़ और इनकी हरी छतरियां धूप को भी ज़मीन तक पहुंचने से रोक देती हैं. याद है, वर्षा वनों का एरियल व्यू !!! हरे पेड़ों के शामियाने से ढंकी छुपी ज़मीन !!! लेकिन फिर भी इन्हीं वर्षा वनों के कारण हमारी ये धरती सांस लेती है, इन्हीं जंगलों से पृथ्वी हरियाली कहलाती है।
शहर के पेड़ों को जब देखती हूँ तो लगता है कि इनमें हरियाली की वैसी चमक नहीं है, यह प्रदूषण या खर दूषण किसी ना किसी चीज़ के मारे हैं। इनकी बिखरी डालियाँ, भूरी सूखी टहनियां, छितराई हुई पत्तियां और ज़मीन की तरफ झुकती सूखी मुरझाई हुई बेलें। हर पेड़ अपने आप में एक पोज़ है, एक एक्सप्रेशन है किसी इमोशन या इम्पल्स का। ऐसा लगता है कि हर एक पेड़ एक अलग अस्तित्व है, एक नाम है, पहचान है जैसे इंसान की नाम पहचान होती है वैसी ही। नाक नक़्श, डालियों का झुकाव या फैलाव, तने की छाल की रंगत और बनावट। क्या पेड़ों की भी कोई चॉइस होती होगी कि ऐसे नहीं वैसे दिखने चाहिए हमको या ऐसा क्यों दिखें, वैसे ही क्यों ना लगें हम !!! कुछ रंग ढंग का शौक !!! ऐसा कुछ होने की संभावना होती होगी क्या ?? Trees
किस दिशा की तरफ देख रहा है ये पेड़ ? किस कोण त्रिकोण या चतुर्भुज या समकोण को नाप रहीं हैं इसकी टहनियां और इस पेड़ पर पलती हुई बेलें ? हर पेड़ का अपना एक ढंग है, एक ढब है, एक कोई अंदाज़ है जिसमें एक कथा निरंतर कही जा रही हो। आते जाते, गुज़रते सभ्यता के परिवर्तनों और विकास के प्रमाण हो सकने की कथा। शहरों के पेड़, सड़क किनारे लगे पेड़, सिटी प्लानिंग के अंतर्गत बनाई गई ग्रीन बेल्ट ; यह सब हरियाली में गिने जाते हैं ; शहर की हरियाली !!! पर फिर इस हरियाली में हरापन क्यों नहीं है ? यह सब्ज़ हरा रंग होने के बजाय पीला भूरा, चित्तीदार कत्थई रंग कहाँ से आ गया ?
Image Courtesy : Google
Blog Link : My Old Post on Trees
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