लहसुन के ढेर के बीच मैं एक काजू हूँ। दिखता भी हूँ मगर पहचान में नहीं आता। जानता हूँ कि लहसुन गुणों की खान है, आम आदमी का खास सहारा है। दवा है, स्वाद है , नुस्खा है, रौनक है सब है। लेकिन मैं भी अपनी मर्ज़ी से काजू नहीं बना। मुझे आलू गाजर मूली कांटा झाडी घास कुछ भी बनाया जा सकता था लेकिन कुदरत ने मुझे काजू ही बनाया। यूँ मैं भी मीठे स्वाद की शान हूँ, मिठाई की रौनक और कीमत हूँ। मेरा अपना जलवा है लेकिन मैं सिर्फ उन्हीं का साथी हूँ जो मेरी कीमत चुका सकें। वैसे काजू बन पाना भी आसान नहीं था। मेरे साथ के कितने बीज सड़ गए, फूल को पक्षी खा गए या फल निकला तो उसमे कीड़े लगे, कभी हवा उड़ा ले गई कभी और कुछ। इन सब में, मैं और मेरे कुछ खुश किस्मत साथी पूरा फल बने और समय आने पर खेत से मंडी तक का सफर तय कर यहां पहुंचे। बस यहां आकर किस्मत पलट गई, बनिए की दुकान के बजाय मैं इधर लहसुन प्याज के ढेर पर गिर गया। और बस क्षण भर में मेरी जाति बदल गई , अब मैं लहसुन हूँ। लेकिन जब मुझे देख कर पहचाना जायेगा तब शायद खुश होकर खरीदार मुझे ये सोच कर खायेगा कि लहसुन के भाव काजू मिल गया। मुझे सब्ज़ी में नहीं डाला जायेगा, बस यूँही खा लिया जायेगा स्वाद बदलने की खातिर। इसलिए मैंने कहा ना कि काजू बनना मेरे हाथ में नहीं था। फिर भी अभी के लिए लहसुन के ढेर के बीच मैं एक काजू यहां पड़ा हूँ। यह सब लहसुन मुझे देखते हैं और बार बार इधर उधर ठेल देते हैं। इनके लिए मैं घुसपैठिया, अतिक्रमणकारी और बाहरी। और मेरे लिए ये अजनबी, विजातीय और अमित्र।
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