Wednesday 25 January 2012

बाबुल जिया मोरा घबराए, बिन बोले रहा न जाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे सुनार के घर मत दीजो।
मोहे जेवर कभी न भाए।


बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे व्यापारी के घर मत दीजो
मोहे धन दौलत न सुहाए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे राजा के घर न दीजो।
मोहे राज करना न आए।

बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे लौहार के घर दे दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाए। बाबुल जिया मोरा घबराए।


प्रसून जोशी द्वारा लिखित एक बेहतरीन रचना 

Thursday 19 January 2012

दो अलग परछाइयां

तुम और मैं दो अलग जिंदगियां हैं. हम दोनों दो अलग दुनिया हैं. हम दोनों समय के दो अलग -अलग आयाम, दो अलग टुकड़े हैं. हम कभी नहीं मिलेंगे, हम कभी नहीं जुड़ेंगे या जुड़ पायेंगे एक--दूसरे से. हम में इतना ज्यादा फर्क है कि मिलना नामुमकिन है. हमारी दुनिया, हमारे सपने, हमारे रास्ते और हमारी ख्वाहिशें सब इतनी जुदा हैं कि मिलने या साथ होने के बारे में सोचना ही असंभव है.

हम दोनों की नज़रें अलग-अलग दिशाओं में अलग अलग नज़ारे देख रही हैं. एक--दूसरे को जो नाम और जो पहचान  हमने दी  है, उनका अर्थ भी हम दोनों के लिए अलग-अलग है.और इसलिए हम दोनों दो अलग  दुनिया, दो अलग वक़्त हैं जो कभी एक--दूसरे से नहीं मिल सकते. हम दोनों सिर्फ दो अलग इंसान ही नहीं, उस से भी ज्यादा "हम दोनों" जैसा कहने के लिए कोई आधार तुम्हारे और मेरे बीच नहीं है. जो है तो सिर्फ "हम" जैसा कुछ होने का वहम, कहीं कुछ एक परछाईं सा, एक नाज़ुक धागा जो "हम" होने के वहम को बनाये हुए है. लेकिन "हमदोनो" ही जानते हैं कि  ये सिवाय वहम के और कुछ भी तो नहीं.

Sunday 15 January 2012

ख़्वाबों - ख्यालों का बुलबुला : इन्टरनेट

इन्टरनेट एक महासागर है. प्रशांत महासागर से भी ज्यादा गहरा सागर. इसका विस्तार हमारी धरती से भी आगे तक चला गया है (ब्रह्मांड का कौनसा कोना या कोई दूर दराज की आकाशगंगा सब ही तो मौजूद है सिर्फ एक क्लिक पर).  इस सागर की गहराई ऐसी है कि संसार के सारे सागरों का पानी भी इसमें समा जाए फिर भी जगह बची रहेगी. इस सागर में आप मन चाहे जितना तैर सकते हैं, डूबना चाहे तो वो भी संभव है, इसकी गहराई का कोई अंत नहीं है.. लेकिन इन्टरनेट के संसार के पास ऊँचाई  का आयाम नहीं है, उसकी तलाश भी बेकार है..यहाँ से आप कहीं ऊपर उठ सकते हैं या किसी हिमालय की ऊँचाई को नाप सकते हैं..ऐसा ख्याल मुझे तो  समझ नहीं आता... मगर पिछले कुछ वक़्त से कुछ  ख्याल मन में आ रहे थे .. अब इसे मेरा पूर्वाग्रह  कहिये या अनुभव या मेरा observation या खाली दिमाग की कसरत...

इन्टरनेट एक आभासी दुनिया है, एक virtual reality virtual world ...है ना.. पर फिर भी यहाँ हम जिन लोगों से मिलते हैं वो असली होते हैं (अब यहाँ fake profiles को छोड़ दीजिये). वो नाम, वो तसवीरें, उनके जीवन और उसमे होने वाली घटनाएं भी असली और सच होती हैं (कुछ हद तक....बाकी...भगवान् जाने).. उनसे हम बातें करते हैं, साथ - साथ हँसते हैं, हंसाते हैं, कभी कभी दुखी भी हो जाते हैं (शायद ..) कभी उन में से किसी को याद भी करते हों...पर फिर भी यहाँ कोई चीज़, इंसान, कोई रिश्ता (नाम चाहे जो रख लीजिये) वो हमेशा के लिए नहीं होता..जब तक  स्क्रीन ऑन है तब तक आप हैं और इन्टरनेट का असली या नकली(जैसा भी) संसार है. एक बार स्विच ऑफ किया तो सब वहीँ ख़त्म. इन्टरनेट का महासागर, उसके जीव जंतु, झाडी-पौधे  सब वहीँ सो जाते हैं..उनका अस्तित्व बस उस स्क्रीन पर आकर रुक जाता है (कभी कभी असल ज़िन्दगी में भी आ जाते हैं, फोन या personal मीटिंग के ज़रिये..पर..)

पर ये सारा मामला उतना सीधा, सरल और साधारण भी नहीं है...अभी कुछ दिन-हफ्ते हुए एक किताब पढ़ी,  "I Too had a Love Story"  और फिर एक दिन यूँही किसी ब्लॉग को छान रही थी, वहाँ कुछ  budding या already "बेस्टसेलर" लेखकों की आने वाली या आ चुकी किताबों का विवरण दिया हुआ था.. अब संयोग से जिन  २-४ किताबों का introduction मैंने पढ़ा, वो सब लव stories थीं, शुरुआत इन्टरनेट से, फिर फोन और उसी में सारा किस्सा शुरू होकर राम जाने कौन कौन से ट्विस्ट-turns  लेता जाता है..असल ज़िन्दगी में उस इन्सान से मिलना या उसको जानना तो अभी दूर किसी ५-६वे अध्याय में होगा...कहानी तो फिलहाल शुरू हो गई और अच्छे से चल भी गई...मैं यहाँ उन किताबों या उनके लेखकों का कोई मज़ाक नहीं बना रही..आखिर ये किताबे और उनकी कहानियाँ बाज़ार में खूब बिकती हैं तो ज़रूर कुछ वजह से ही..

पर ऐसा क्यों हो रहा है कि हम इन्टरनेट पर अपने लिए ऐसे रिश्ते तलाश कर रहे हैं, रिश्ते बना रहे हैं और उनको बनाए भी रखना चाह रहे हैं( शायद..यकीन से नहीं कह सकती..) कारण ये है कि इन्टरनेट हमारी ज़िन्दगी का एक विस्तार, एक ब्रांच, एक नया आयाम बन गया है. जो खूबसूरत है, जहाँ हर पल कुछ नया है, जहाँ विकल्पों की कोई कमी नहीं, जो आपको तब तक अपनी गोद में खिलाता रह सकता है जब तक आप चाहें.... यहाँ बहुत सी सहूलियतें हैं  (अपनी असली पहचान  बताइए, ना बताइए..बढ़ा - चढ़ा कर बताइए..जो मन करे सो बताइए, कौन आ रहा है आपको देखने या पूछने..) पर जब इतना सब कुछ यहाँ अनिश्चित है, विश्वास करना ज़रा मुश्किल है, तब क्यों लोग यहाँ अपने लिए दोस्त और जाने कौन कौन से सम्बन्ध तलाश लेते हैं..उनकी असल ज़िन्दगी में ऐसी कौनसी कमी है या क्या ऐसा है जो मिल नहीं रहा वहाँ, इसलिए यहाँ इन्टरनेट पर ढूँढने चले आये हैं.. मेरे एक मित्र तलत बारी ने इन्टरनेट इस्तेमाल करने वालों के बारे में एक बहुत सटीक बात कही..उनके अनुसार तीन किस्म के लोग यहाँ आते हैं..

१. एक वो, जो अपनी frustration (कुंठा) दूर करने आते हैं (कुंठा कैसी भी हो सकती है..वो सवाल यहाँ नहीं है).
२. दूसरे वो,  जिनके लिए  इन्टरनेट खुद को एक सेलेब्रिटी की तरह पेश करने का जरिया है. फोटो अपलोड करना, उन पे ढेर सारे कमेंट्स आना, अनगिनत दोस्त (जाने-अनजाने)...
३. तीसरे वो है,  जिनके लिए ये इन्टरनेट एक गुड्डे -गुडिया का खेल है. यहाँ गुड्डा भी अच्छा है, गुडिया भी बहुत अच्छी है..उनके लिए ये सारा कुछ एक प्यारी सी  खूबसूरत फिल्म की तरह चल रहा है.

मेरे ख्याल से बहुत से और लोग भी उपर्युक्त  व्याख्या से सहमत होंगे..

दरअसल, हम सब एक खूबसूरत ख्वाब तलाश कर रहे हैं, ऐसा ख्वाब जो हर तरह से सही है, मुकम्मल है, अच्छा है, प्यारा सा लगता है और हम चाहते हैं कि वो बस यूँही बना रहे.  और जो हमारी असल ज़िन्दगी में हमें मिल नहीं  पा रहा या मिल भी रहा हो तो भी  और बेहतर या और ज्यादा  की चाह हमें यहाँ  इस आभासी दुनिया में ले आती है. हम बस यहाँ अपनी पसंद की एक दुनिया बना लेते  हैं, जिसके  आवरण में हम अपने  असल ज़िन्दगी के पैबंद और कमियों को बड़ी सफाई से छुपा लेते हैं..ये सोच कर कि असल ज़िन्दगी में  न सही, इस छलावे की  दुनिया में तो हम, हमारा जीवन रंगीनियों से लबरेज़ नज़र आये..

   इसी ख्वाब या मृग मरीचिका की खोज इन्टरनेट में पूरी हो रही है..जहाँ हर कोई खुद को परफेक्ट रूप में पेश करता है, यहाँ हर कोई cheerful  है, full ऑफ़ energy है, cool  है और बस "बहुत अच्छा है". दिल को अच्छा लगता है, क्योंकि अभी तक यहाँ स्क्रीन पर हम उस इंसान के या उस रिश्ते के सिर्फ एक ही पक्ष को तो देख पाएं हैं, अभी दूसरा पक्ष जो असल व्यावहारिक ज़िन्दगी में होता है, उस से तो  वास्ता पड़ा ही नहीं..कब पड़ेगा इसका अता  पता भी नहीं..ये खुली आँखों का ख्वाब जो हम नेट के ज़रिये देख रहे हैं उसका ज़मीनी रंग कैसा है, कैसा नहीं है, क्या असल में वो ख्वाब ठीक वैसा ही है जैसा वो नेट पर दिखाई दे रहा है? और सबसे बड़ी बात क्या असल में कहीं सचमुच उस ख्वाब का कोई अस्तित्व भी है? शायद ना हो..शायद हो भी..पर दोनों ही सूरतों में हमारे हाथ क्या लगना है??   सम्बन्ध की जो गर्माहट हमें इन्टरनेट के ज़रिये महसूस हो रही है, जो महत्व हमें मिलता नज़र आता है,  जो जगह हम अपने लिए और उन दूसरों के लिए बना कर बैठे हैं, असलियत में उसकी कहीं कोई अहमियत है भी या नहीं...उन लोगों की नज़र में, अपनी नज़र में..अगर असल ज़िन्दगी  में वो इंसान हमें मिलते तो क्या तब भी उनके साथ वैसा  ही रिश्ता बन पाता...

या ऐसा क्यों है कि असल ज़िन्दगी में जो लोग, रिश्ते हमारे  आस-पास हैं,  उनमे कुछ कमी सी लगती है?

देखा जाए तो,  इन्टरनेट कुछ और नहीं पर शब्दों का एक बेहद हसीन  इंद्रजाल है, जिसमे हम खुद को और दूसरों को उलझाए और बहलाए रखते हैं...जहाँ हर बात का (Hello, Good Morning , Good Night  कहने  तक ) का एक customized version होता है दो लोगों के बीच..पर अगर नहीं  होता तो असल ज़िन्दगी में उनको बाँध सके,  ऐसा कोई एक धागा नहीं होता..हो भी नहीं सकता..भौगोलिक दूरियां..अगर हम ना भी माने तो भी और बहुत सी दूरियां इस समाज और दुनियादारी के लिहाज से महत्त्व रखती ही हैं..एक सीमा आती है, जब हम चाहते हैं कि ये सपना,  ये  इन्टरनेट का इंद्रजाल सच हो जाए, स्क्रीन से बाहर निकल आये.  हम या तो इसे पूरी तरह पा लेना चाहते हैं..या फिर इसे ख़त्म ही कर देना चाहते हैं..किसी नशे की आदत की तरह ख़त्म तो ये हो नहीं सकता, बस एक के बाद एक तसवीरें, नाम बदलते रहते हैं. कल तक  जिन से हम महीनों तक बातें कर रहे थे..अपनी खुशियाँ, सुख-दुःख साझे कर रहे थे.. अचानक या धीरे धीरे से, इस या उस कारण से उनके साथ communication कम होता जाता है और आखिर पूरी तरह ख़त्म भी हो जाता है.

कोई कह सकता है कि इतने लम्बे वक़्त से जिन लोगों से हम बात कर रहे हैं,  उनको इतना या उतना जानते हैं..क्या उन पर भी विश्वास ना करें? क्या अपनी बुद्धि पर भी नहीं? तो इसका जवाब भी तलत ने बड़ी सरलता से दिया.." लम्बे वक़्त तक एक इंसान से बातचीत खुद उस इंसान को ही भुला देती है कि वो क्या है? पहले वो हमें बताता है कि वो कौन है, क्या है. फिर हम उसे बताते हैं कि वो ऐसा है या वैसा है या कैसा है.. और फिर सामने वाला भी उसी बात को सही, सच मान कर reply करता जाता है."  

 और इस तरह ये एक श्रृंखला चलती जाती है. यहाँ इन्टरनेट पर हम हर रोज़ नए नए रंग में रूप में उस सामने वाले इंसान की नज़र और पसंद के हिसाब से ढलते जाते हैं. और इस तरह अलिफ़ लैला का ये किस्सा कभी ना ख़त्म होने की तर्ज़ पर चलता रह सकता है..कम से कम तब तक, जब तक कि दोनों में से एक को कोई और बेहतर, ज्यादा दिलचस्प "विकल्प" ना मिल जाए..और इसलिए जैसा कि
 मैंने शुरुआत में कहा था, यहाँ इस सागर में आप डूब सकते हैं, तैर सकते हैं, लेकिन फिर भी अंत में थक कर सूखी ज़मीन का कोई कोना, कोई किनारा  तलाशना ही पड़ता है..


लेकिन इन्टरनेट का सपना नहीं रुकता..एक की जगह कोई दूसरा आ जाता है..दूसरे  की जगह तीसरा, यानी यहाँ किसी की कोई ख़ास जगह या भूमिका नहीं है. .हमारे नश्वर संसार का सबसे अच्छा उदाहरण है इन्टरनेट..मेरे एक इन्टरनेट वाले दोस्त ने ही एक बार मुझसे  कहा था कि, एक दिन ये सब कंप्यूटर, इन्टरनेट केबल्स, ये सब crash  हो जायेंगे तो क्या तब हम बात नहीं करेंगे एक दूसरे से? तब क्या हमारा एक-दूसरे के लिए  कोई अस्तित्व नहीं होगा? क्या उस सूरत में हम कभी नहीं मिलेंगे?

सवाल अपनी जगह बिलकुल वाजिब थे पर  मैं इन सारे सवालों का कोई जवाब नहीं दे पायी थी..जवाब था भी नहीं मेरे पास.. और मजे की बात ये है कि उस सवाल करने वाले से अब मेरी सच में बिलकुल बात नहीं होती...ऑनलाइन होते हुए भी, visible होते हुए भी नहीं....


Saturday 7 January 2012

ज़िन्दगी इस पार, ज़िन्दगी उस पार

यहाँ से वहाँ तक...ज़िन्दगी के इस छोर से उस अनंत  तक जाने वाले दूसरे छोर तक एक नए रास्ते,  नई दिशा और नए सपने की तलाश है..ज़िन्दगी के इस किनारे से उस दूसरी तरफ के किनारे तक, जहाँ मेरी नज़रों का विस्तार नहीं पहुँच सकता ..उस किनारे के रंग-ढंग, आकार और रूप को मैं अभी से जान लेना चाहती हूँ....जान लेने के लिए पा लेने के लिए और थाम कर रख लेने के लिए मैं बेकरार हूँ...ज़िन्दगी इस पार से चलकर जब तक उस पार  पहुंचेगी, तब तक का इंतज़ार बहुत लम्बा और थका देने वाला लगता है..ऐसा लगता है कि वक़्त बहुत कम बचा है, बहुत थोड़े  से लम्हे हैं  जिनमे बहुत सारी दूरियां तय कर लेनी हैं, बहुत सी दिशायें और रास्ते जान लेने हैं...धरती के इस छोर पर खड़े वक़्त को उसके वर्तमान आयाम से अलग कहीं किसी और आयाम तक ले जाना है.. 

ज़िन्दगी इस पार या ज़िन्दगी उस पार..इस छोर से उस छोर तक, कि जिसके आगे अनंत आकाश की सीमा आरम्भ होती है..जहाँ से अगर लड़खड़ा के कदम फिसल भी जाएँ, पैरों का संतुलन बिगड़ भी जाए तो भी free -fall की तरह अनत में खो जाने, उसमे मिल जाने का अहसास हो...

ऐसा एक पल ज़िन्दगी का इस पार या उस पार..इस छोर पर या उस छोर पर...आकाश और धरती के बीच जहाँ नज़रों का भ्रम जन्म लेता है ..उस क्षितिज की तलाश में ...