Wednesday 30 March 2011

मेरी डायरी का एक गीला पन्ना

आज मैं फिर से रोई ...बहुत दिन बाद....अचानक रोने का मन हो गया, ऐसा नहीं था .. पर जो एक भारी सा पत्थर रखा था मेरे अन्दर , वो बस आज जैसे संभल नहीं पाया ..सुबह से ही आँख में किरकिरी सी थी...शायद पत्थर पिघलना शुरू हो गया था ..पर मैं ही समझ नहीं पाई.. ..  दिन तो जैसे -कैसे गुज़र ही गया ..पर रात घिरते ही जैसे वो बोझ और नहीं उठा सकी और वो एकदम से जैसे  किसी बिन बुलाये मेहमान की तरह टपक पड़ा ... बस बह निकला,  आँखों के रास्ते ...

पर मैं गलत वक़्त पर रोई ...शाम के वक़्त रोना कोई सही वक़्त तो नहीं है ना...जी हाँ..जब आप चीख कर, चिल्ला कर, जोर से अपने हाथों को पटकते हुए रोना चाहते हैं ..तब हर वक़्त सही वक़्त नहीं होता ....

जब रोई तो लगा कि सब कुछ उलट-पुलट दूं..कुछ तोड़ दूं...कुछ फेंक दूं..कुछ ऐसा कर डालूँ कि जिससे उस  पत्थर का छोटा सा भी टुकड़ा मेरे अन्दर बचा न रह जाए... 

लेकिन घर में ऐसे ..इस तरीके से रो नहीं सकती..क्यों ???...क्योंकि घर में, घर के लोग हैं  जो मुझे रोता  नहीं देख सकेंगे ....कम से कम इस तरह तो नहीं ही देख सकते ..और ना ही मैं अपनी सूजी हुई आँखें उनको दिखा पाउंगी....और अब तक के अनुभव से कह सकती हूँ कि रोने के लिए घर बिलकुल ही गैर-मुनासिब  जगह है..पर अब तक मुझे दुनिया का ऐसा  कोई कोना नहीं मिला है..जहां मैं रोऊँ.. चिल्लाऊं ..तो कोई मुझे ना देखे..ना सुने ...ना आकर पूछे कि क्यों ?..क्या..?...किसलिए ??....ना कहे कि अब बस..बहुत हुआ...बस होने दो ..जो हो रहा है...
 पर दुनिया में ऐसा एक कोना ढूंढना बड़ा मुश्किल है..बहुत कोशिशें कीं ...कि इस पत्थर के पिघलने के लिए कोई महफूज़..दूर..अकेली जगह मिल जाए..कोई ऐसा ज़मीन का टुकड़ा , आसमान का हिस्सा, क्षितिज का नज़ारा ..जहां बस मेरे भर खड़े रहने या बैठने की जगह हो....पर बताया ना  ये  बहुत मुश्किल है.. ..

कोई कह सकता है कि जाओ....अपने दोस्तों के पास जाओ...वहाँ रोओ..वहाँ कोई सवाल या जवाब न होगा.पर मैं कहती हूँ ये भी कोई  तरीका नहीं ..जिन पत्थरों का बोझ हमसे खुद तो   संभल  नहीं रहा, उसे  दूसरों पर भला क्यों लादा जाये....और फिर क्यों बेकार किसी की सहानुभूति के लफ्ज़ सुने जाएँ जो अक्सर उम्मीदों, तसल्ली और स्नेह के आवरण में लिपटे होते हैं..

इसलिए बहुत अरसे से मैंने एक ख़ास, बहुत बढ़िया और कारगर तरीका रोने के लिए ढूंढ निकाला है..मैं रोती  हूँ ..पर बेआवाज़....इतनी ख़ामोशी से कि कभी-२ तो रो लेने के थोड़ी देर  बाद  मुझे खुद भी याद नहीं रहता कि अभी थोड़ी देर पहले मेरी आँखें गीली थीं ...कि मेरी आवाज़ गले में ही अटक गई थी...कि  कुछ देर के लिए मैं खुद में  ही खो गई थी..


पर मैंने कहा ना कि ये बढ़िया तरीका... हमेशा ही काम करे ऐसा कोई ज़रूरी नहीं..कभी कभी आप जोर  से चीखना चाहते हैं ..पर हम है पढ़े-लिखे , समझदार, अक्लमंद , सभ्य किस्म के लोग....ऐसे कैसे गंवारों कि तरह गला फाड़ कर रो सकते हैं. ...आखिर कुछ तो फर्क है ही....उनमे और हममें ...


और इसलिए मैं तो उस दिन भी खुल कर नहीं रो पायी जिस दिन मेरे लिए सचमुच आसमान ही टूटा था....कम से कम उस वक़्त मुझे तो ऐसा ही लगा था..हाँ ये और बात है कि कहने वाले कहेंगे... कि ...ups and down ...raise  and fall ...let  down ...let  go ....तो जब उस वक़्त  गले से आवाज़ ना निकली...  तो अब ही ऐसा कौनसा आसमान सर पर आ पड़ा है..कि एक अकेला कोना ढूंढ निकालने के लिए सड़क पर मुंह उठाये , जिस दिशा  में समझ आये..उस तरफ चल दें हम..

नहीं आसमान नहीं टूटा है...कोई धरती भी नहीं फटी है ना कोई बिजली ही गिरी है....ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है..बस एक पत्थर है..जो पिघल कर निकलना चाहता है...पर उसे  रास्ता नहीं  मिल रहा...इसलिए...इसलिए ....धरती के एक कोने की तलाश है....उस कोने में चाहे आसमान में बादल ना  हो ....चाहे उस धरती के टुकड़े पर हरी घास ना हो...पर हो एक टुकड़ा ज़मीन, कहीं......मिले किसी को तो बताइयेगा..या आपको पहले ही मिल चुका हो तो भी बताइयेगा.. 

Thursday 17 March 2011

रजनीगंधा --भाग :2

"सौम्या" अगले कुछ क्षणों  तक उस लड़के की तरफ देखती रही , जैसे सोच रही थी कि क्या वो पुराना परिचय इतना प्रगाढ़ था कि उसके लिए ये अजनबी (हाँ अजनबी ही कहा जाना चाहिए क्यूंकि सौम्या अभी  तक उसका नाम नहीं जानती थी, कितनी अजीब सी बात थी पर सच थी.. ) इतना खुश हो रहा है . फिर शांत और संयत  आवाज़ में कहा, "मैं आपका नाम भूल गई हूँ"....कहते हुए मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया  और उत्तर की अपेक्षा में उसकी और देखने लगी ..पर शायद वो लड़का कुछ बेहतर प्रतिक्रिया या यूँ कहें कि एक गर्मजोशी और प्रसन्नता से भरी आवाज़ की अपेक्षा कर रहा था. खैर कुछ सेकंड के लिए लगा कि वो थोडा निराश हुआ है, फिर अगले ही पल संभल कर उसने कहा, " आप भूली नहीं है,  हम दोनों का ऐसा कभी कोई औपचारिक परिचय कभी हुआ नहीं कि नाम बताने की नौबत आई हो ...वैसे मेरा नाम "जय"  है और आपका नाम सौम्या है  इतना मैं जानता हूँ." 
मुझे हैरानी हुई, पर क्या कहूँ ये समझ नहीं आया...और मैं वही उलझी हुई निगाहों से उसे  देखने लगी ...क्या कहूँ , कुछ कहना तो चाहिए पर क्या....पहचान का जो सूत्र ये अजनबी उर्फ़ जय ढूंढ लाया है..वो धागा अब भी मेरी स्मृति में दर्ज है...जैसे किसी किताब के पन्नों में हम गुलाब की पत्तियां छुपा के रखते हैं .. ...पर जिस तरह समय के साथ वो पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी खुशबू कम  होने लगती है , कुछ वैसा ही अहसास मुझे भी हो रहा था ....पर मैं ये ज़ाहिर  नहीं करना चाहती थी..लेकिन मेरी ख़ामोशी और चेहरे की सपाट भाव-भंगिमा ने माहौल को और ज्यादा  असुविधाजनक बना दिया ..खैर फिर जाने कहाँ से दिमाग में  कुछ स्पंदन हुआ और मुझे शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार के सारे सबक याद आ गए ..

 मैंने मुस्कुराने की भरपूर कोशिश करते हुए कहा, "this is really surprising to meet you once again, that too here in rishikesh..I never anticipated any such thing ".( ये अंग्रेजी बड़ी सुविधाजनक भाषा है, इसमें बगैर किसी परेशानी के  बड़ी से बड़ी औपचारिक बात को बड़े सहज ढंग से कह दिया जाता है ..और हमारा लहजा भी बेहद  casual हो जाता है .)   खैर, इस एक वाक्य  ने माहौल को काफी हल्का बना दिया और जय को भी लगा कि वो unwanted - entry नहीं है. इतने में निशिता ने उसे  हमारे साथ बैठने का भी निमंत्रण दिया जिसे उसने ये कहते हुए नकार दिया कि " आप को देखकर, मैं  बस यूँही मिलने आ गया ". 

"लेकिन आप यहाँ कैसे और आजकल क्या कर रहे हैं?"    मेरा ये  सवाल जय के लिए काफी उत्साहवर्धक साबित हुआ क्योंकि  उसकी वो पहले वाली मुस्कराहट अब वापिस लौट आई  और कुछ संक्षेप, कुछ विस्तार और कुछ बेहद दिलचस्पी से उसने बताना शुरू किया ,  "मैं यहाँ दोस्तों के साथ हिमालयन mountaneering इंस्टिट्यूट  में ट्रेनिंग के लिए आया था. basic  course ख़त्म करने के बाद यहाँ कुमायूं हिमालय  में trekking की. और इसके बाद उसने कुछ trekk pass और पहाड़ों के स्थानीय नाम बताये जहां वो लोग अब तक जा चुके थे,,  ये सब नाम मेरे लिए अजनबी ही सही पर काफी दिलचस्प थे. देखा जाये तो अब तक मेरे सभी दोस्त जय में काफी रूचि लेने लगे थे..   
जय और आगे कहता गया कि वो आजकल एक फ्रेंच कंपनी का बिज़नस develpoment manager है और   भी पता नहीं क्या- क्या......  

जाते-जाते उसने मेरा फोन नंबर माँगा जो कुछ झिझकते हुए मैंने दे भी दिया ..कहने की ज़रुरत नहीं कि शाम तक उसके massage और एकाध कॉल भी आ गए..अगले दिन हमें वापिस जाना था और जय का जब फोन आया तब हम ऋषिकेश से आधा  रास्ता तय कर चुके थे..उसे शायद ये लगा था कि जाने से पहले मैं उस से मिल कर जाउंगी लेकिन अब मैं इतनी अच्छी  कब से हो गई .   

पर जय को उपेक्षित करना आसान नहीं था..जयपुर के उस workshop कि स्मृति अभी इतनी भी धुंधली नहीं हुई थी और ना मैं उस संक्षिप्त सी और कभी कभी ही होने वाली बातचीत को और उस मुस्कुराते चेहरे को भूल सकी थी..इसलिए घर लौट कर भी मेरा जय से फोन, mail  के ज़रिये संपर्क बना रहा... अब ऐसा तो नहीं कह सकती थी कि मुझे जय से प्यार हो गया था या ऐसा कभी कुछ था , पर  मैं आसानी से उसे खुद से परे नहीं हटा पा रही थी... लेकिन इतना ज़रूर था कि  मेरे अन्दर के एक खाली कोने को जय की  उपस्थिति   ने भर दिया था... वक़्त अपने तरीके से गुज़रता रहता है...कहीं एक अजनबी शहर में मिला कोई पुराना परिचित ..कब आपका बड़ा अच्छा दोस्त बन जाता है ..कुछ पता नहीं चलता ...

और कभी कभी तो उस अजनबी की एक आदत सी हो जाती है.. और शायद जय अब "सौम्या" की आदत बनता जा रहा था... वक़्त अपनी गति से चलता जा रहा था..कुछ और महीने बीते ..और समय के साथ अब इसे हम दोस्ती कह लें या और कोई समीकरण बनाएं ..जो भी था..कुछ ऐसा कि जो अच्छा लग रहा था..और जिसकी अब आदत होने लगी थी. लेकिन  फिर भी जय और उसके किस्से, कहकहों, उसके साथ लड़ने-झगड़ने के अलावा और भी दुनिया थी,  है  और हमेशा रहनी ही है.

जय में मेरी बढती दिलचस्पी को सबसे  पहले निशिता ने पकड़ा और तोप के गोले की तरह उसने  एक सवाल मेरी तरफ उछाला .." तुझे जय पसंद है ना ?"

उसके चेहरे पर एक तीखी सी मुस्कराहट  थी , जैसे उसने कोई बहुत बड़ा राज़ जान लिया है और अब अपनी  इस सफलता की पुष्टि मुझसे चाहती हो...

"अच्छा लड़का है, पर ऐसा भी कुछ नहीं सोचा है मैंने..पर हाँ, "we are  good  friends " (बताया था ना  कि  अंग्रेजी बड़ी सरल भाषा है)

"अच्छा, good friends !!!!!!!!!, उसने कभी  कुछ कहा तुझसे???"

"ओफ्फ्हो, निशि, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, ऐसा कोई सीन नहीं है , बेकार ख्याली पुलाव मत बना" .
खैर उस वक़्त बात आई -गई हो गई. पर शायद ऐसा नहीं था.. अब  जैसे जय के बात करने या कुछ कहने या पूछने के तरीके में, मैं कुछ फर्क महसूस कर रही थी..कभी-२ कोई बात कहते -कहते रुक जाना या उसे अधूरा ही छोड़ देना ..समझ नहीं आ पा रहा था.. पर फिर उसने एक दिन सीधे से ही सवाल कर दिया .." तुम शादी कब कर रही हो ..."
सवाल कोई बहुत अप्रत्याशित  तो नहीं था ..अक्सर दोस्त, रिश्तेदार ऐसा सवाल पूछते ही हैं और इसलिए मैंने भी बेफिक्र तरीके से यूँही टालने भर के लिए कह दिया कि "कर लूंगी जब कोई पसंद का लड़का मिल जाएगा"...

"और क्या पसंद है तुम्हारी?" ये अगला सवाल था. मुझे समझ नहीं आय़ा कि वो ऐसे ही पूछ रहा है या सचमुच उसे जानने में दिलचस्पी है या पता नहीं क्या..लेकिन इस मुद्दे मेरी दिलचस्पी ना देखकर उसने आगे कुछ नहीं पूछा.

खैर, उन दिनों ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी की  फिकर मम्मी और निशिता के लिए दुनिया का सबसे अहम् मुद्दा बन गई थी. लगभग हर तीसरे-चौथे दिन मेरे सामने कोई  ना कोई नाम, उससे जुडी जानकारियाँ और संभव हो तो तसवीरें भी रख दी जातीं. जितनी बार मैं मम्मी या पापा को किसी रिश्ते के बारे में या किसी लड़के के बारे में बात करते सुनती , उतनी ही बार मेरा दिल कांपने लगता, बस यही मनाती कि किसी भी बहाने , कारण से ये रिश्ता, ये नाम रिजेक्ट हो जाए. और सचमुच ऐसा हो भी  जाता, कभी हमारी तरफ से तो कभी दूसरी तरफ से कोई ना कोई ऐसी वजह बन जाती कि शुरू होता सूत्र वहीँ समाप्त हो जाता. और मैं चैन की  सांस ले लेती. (कुछ देर के लिए ही सही). फिर सोचती कि ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई अंत नहीं? ..

निशिता के पास भी जैसे बात करने के लिए यही एक विषय था.." तो कुछ सोचा तुमने, कुछ तय हुआ ..?" मेरा नकारात्मक  जवाब सुनकर मुझ पर नाराज़ होती...अब जब निशिता का ये हाल था तो मम्मी के कहने -सुनाने के बारे में अलग से क्या बताया जाए..

पर इस सारी माथा-पच्ची में,  मैं जैसे इस पूरी प्रक्रिया से दूर भागने लगी थी. मेरा द्वंद, जाने कौनसी   अनजानी चिंताएं और कुछ न तय कर पाने की  उलझन बढती ही जा रही थी. और जब ऐसे ही एक बोझिल दिन पर जब माँ और निशिता फिर से  मेरी शादी और उस से जुडी परेशानियों पर बात कर रही थीं....और माँ ने हमेशा कि तरह कहा...
"पता नहीं कब होगी इसकी शादी, मैं तो अब थक गई हूँ...? कब कोई लड़का मिलेगा.."
उस समय अचानक से यूँ लगा कि इतना बड़ा सिरदर्द और इसकी वजह मैं...निशि कुछ कहने वाली थी पर उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने सपाट आवाज़ में कहा.." मेरी शादी की  अब आप लोग फिकर करना बंद कर दें... मुझे नहीं करनी शादी. मुझे किसी से शादी नहीं करनी."

"क्या बोल रही है.. पागल हो गई है क्या ?" मम्मी गुस्से में कहने लगी...निशि ने मुझे चुप रहने का इशारा किया लेकिन मैं सब कुछ सुनी-अनसुनी करते हुए वहाँ से चली आई.. कुछ और सूझा नहीं तो छत पर चली गई.. निशि मेरे पीछे आई..

"ये क्या नाटक है सौम्या?  क्यों नहीं करनी शादी?  क्या हो गया ?"

"कुछ नहीं..."

"अब ये मत कहना कि तू अब भी वैभव के बारे में सोच रही है?"

" No, he is a closed chapter and whatever happened was good for both of us."

"फिर...क्या बात है?"

"किसी को पसंद करती है तो वो भी बता दे..कोई बात अगर मन में है तो बताती क्यों नहीं? "

ये मम्मी की  आवाज़ थी जो हमारे पीछे आकर  खड़ी हो गई थी.  मैं वैसे ही चुप खड़ी रही.

"आंटी आप जाइये, मैं बात कर रही हूँ ना.." निशिता फिर मेरी तरफ मुड़ी..और मैं सर नीचे लटकाए जाने कौनसे  शून्य में घूर रही थी..

"सौम्या तू क्या सोचती है ...अपनी ख़्वाबों की  दुनिया से बाहर निकल. क्या लगता है तुझे कि,  कोई सपनों का राजकुमार तेरे लिए धरती पर उतर आएगा.?"
उसने धीरे से  मेरा  हाथ पकड़ कर कहा..

"मुझे कोई राजकुमार नहीं चाहिए ..और सपने मैंने कभी देखे नहीं."  मैंने धीमी लेकिन
एक सूखी गंभीर आवाज़ में कहा.

"तो क्या सारी ज़िन्दगी अकेले ही गुजारनी है?"
"क्यों अकेले नहीं रहा जा सकता क्या??  क्या शादी करना ज़रूरी है ..लोग बिना शादी किये ज़िन्दगी नहीं गुजारते ?"

"बेकार की बातें मत कर ..ये कोई मज़ाक नहीं है. तू सोचती है कि  सारी उम्र यूँही अकेले बिता सकती है  ..बिना किसी साथी के ? तुझे कुछ अंदाज़ा भी है ज़िन्दगी की कडवी  हक़ीक़तों का ??"

मैं अब भी वैसी ही चुप रही पर एक असहमति या विरोध या और कोई भाव कह लें, वो चेहरे पर साफ़ ज़ाहिर था.

निशि और ज्यादा चिढ गई, झल्ला गई, " मेमसाहब अगर आपको लगता है कि,  आप दुनिया से जुदा कोई अनूठा नमूना हैं तो ये ग़लतफ़हमी दूर कर लें." ....फिर जैसे अचानक उसे कुछ सूझा, उसने पूरी गंभीरता से मेरे चेहरे पर अपनी नज़रें ज़मा दी..." Jai..it's Jai..I knew that.."

जय इस सब में  कहां से आ गया..मैं बिफर पड़ी.." he has nothing to do with this..don't drag him into my personal matter."

"alright, then what is the matter?"

"बस अब मैं रोज़- रोज़ की इन बातों से तंग आ चुकी हूँ . एक बेकार की कवायद लग रही है,  मैं रिश्तों  को किसी समझौते या बेस्ट deal की तरह नहीं ले सकती . और  ये सब मुझे किसी बाज़ार के जैसा लग रहा है ....जैसे हम कपडे खरीदने जाते हैं ... दस पीस try  करने के बाद कहीं एक चीज़ पसंद आती है..कुछ वैसा ही लग रहा है.."


कुछ देर के लिए निशिता चुप हो गई, फिर जैसे उसने थकी हुई सी आवाज़ में कहा .. "चल रहने दे इस वक़्त इन सब बातों को. अभी तुझे कुछ समझाने से कोई फायदा नहीं."

इस पूरे चैप्टर के बाद भी कहीं कुछ ना बदला  और ना बदलने की कोई उम्मीद ही थी. वही  सब  अजनबी नाम और उनकी बातें..  इसी बीच एक  बात और हो गई...एक पब्लिक policy  research इंस्टिट्यूट में मेरी PhD application  approve  हो गई.  इंस्टिट्यूट NCR में ही था..हालांकि घर से दूर पर delhi से बहुत ज्यादा दूर  नहीं. तो बस इसे एक नई शुरुआत मान कर, घरवालों को थोड़ा समझा कर और निशि के ढेर सारे instructions साथ लेकर मैं चली आई एक नई जगह,  एक नए landscape के बीच....

शुरू के कुछ दिन तो मुश्किल बीते,  कभी ये  तो कभी वो समस्या ..पर जैसे-तैसे २-३ महीने गुज़रते  ना गुज़रते आदत पड़ने लगी,  अच्छा भी लगने लगा और सबसे बड़ी बात मुझे यूँ लगा कि जैसे मेरा क्षितिज अब बहुत विस्तृत हूँ गया है ..ऊँचा, खुला, आसमान जैसे अनंत की  खोज करने के लिए उकसा रहा हो...कुछ दिन बाद मुझे एक ऑनलाइन magazine के लिए कुछ education एंड policy  based articles लिखने का भी  ऑफर मिला ..काम शुरू में तो मुश्किल लगा..लेकिन धीरे- धीरे हर हफ्ते के एक नए task  की  आदत पड़ने लगी..



मेरे यहाँ आने के बाद से २-३ महीने में निशिता अपनी official  मीटिंग  के बहाने ३-४ चक्कर तो मेरे अपार्टमेन्ट के  लगा ही चुकी थी और अब निश्चिन्त होने लगी थी कि मैं यहाँ ठीक से और आराम से रहूंगी. और जय तो खैर हर weekend या १० दिन में एक बार तो मुझसे मिलने आ ही जाता था. समय अब भी गुज़र  रहा था पर अब वो पहले वाला बोझ नहीं था. पर उन दिनों जय में आये बदलाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

और आखिर वो दिन, वो लम्हा भी आय़ा जिसका मुझे कुछ - कुछ अंदाज़ा तो होने लगा था पर मैं फिर भी उसे  एक वहम  समझकर दूर हटा रही थी.

...जय ने वही कहा या मुझसे पूछा जिसका अंदाज़ा निशि को  काफी पहले हो गया था. लेकिन उस वक़्त मैं जय को वो जवाब नहीं दे पायी जिसकी उसे  ख्वाहिश  थी  और जो निशि के लिए  " ये तो होना ही था"  वाली बात होती.

कारण, वजह सिर्फ इतनी थी कि ज़िन्दगी में पहली बार बार मुझे लग रहा था कि मैं खुले आसमान के नीचे खड़ी अपनी आँखों से विस्तृत क्षितिज को पार करती जा रही हूँ.  पहली बार लग रहा था कि ज़िन्दगी सिर्फ शादी-ब्याह -घर -परिवार नहीं और भी कुछ है.  मैं सिर्फ एक perfect bride के अलावा भी कोई नाम-पहचान-ख्वाब हूँ  और ये सब समंदर की एक ऐसी लहर की  तरह था जिस पर surfing करते मैं थक नहीं रही थी. ....और जब,  जय ने वो सवाल सामने रखा तो समन्दर  और लहरों के रोमांच के बावजूद  घर, मम्मी और जाने कितने चेहरे आँखों के आगे तैर गए.... "क्या मैं इतना बड़ा फैसला अकेले ले सकती हूँ?" .....लेकिन अगले ही पल मैंने अपना सर झटक कर उस ख्याल को ही दूर हटा दिया ...

 
जय से सिर्फ इतना कहा..." आज नहीं, अभी नहीं ...फिर कभी..फिर कहीं..."

"ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे... कल की कुछ खबर नहीं..लेकिन आज इस वक़्त को यहीं थोड़ी देर और ठहर जाने दे .."

Wednesday 9 March 2011

तसवीरें जो बोल सकतीं तो कहतीं ...

तसवीरें जो बोल सकतीं तो  हमें बतातीं, उन तस्वीरों के बारे में जो कहने भर को बोल नहीं सकतीं पर फिर भी कितनी बातें कह जाती हैं...आवाजें जो कभी हम तक आती हैं और कभी रास्ते में ही खो जाती हैं.... 

तस्वीरें जो बोल सकतीं तो हमें  बतातीं ...तस्वीरों में क़ैद चेहरों की कहानियाँ, किस्से, अफसाने और हकीकतें...

तस्वीरें जो बोल सकतीं तो हमें सुनाती उन आँखों की कहानी, उस दिल का हाल जो इन तस्वीरों को देख के कभी कभी खुश होता है, उदास होता है, कभी रोता है और कभी -कभी नफरत करने लगता है... 
तस्वीरें जो बोल सकतीं तो कहती कि  वो महज़ कागज़ के टुकड़े पर छपी किसी की परछाईं भर नहीं हैं, बल्कि किसी की पूरी ज़िन्दगी को बयान कर सकने की काबिलियत भी रखतीं हैं. .....  


तस्वीरें जो बोलतीं तो हमें बतातीं उन लम्हों के बारे में जब वो एक तस्वीर ली गई थी. उस इंसान के बारे में कि उसके ..दिल-दिमाग में क्या कुछ चल रहा था जब वो तस्वीर ली गई थी..   


तस्वीरें जो बोलतीं तो सुनाती कहानियाँ उन लम्हों  की , कि जब हम उन तस्वीर को देख कर गुज़रे वक़्त को, उस एक खास लम्हे को, उस इंसान को याद कर लेते हैं  ...जो उन तस्वीरों से  झांकता हमसे पूछ रहा है, क्यों भूल गए ना मुझे.. पता था कि ऐसे एक दिन भूल ही जाओगे, इसलिए तो तस्वीर ले ली थी कि एक दिन याद कर पाओ , दोहरा पाओ उस वक़्त को, एक बार फिर से जी सको उस क्षण को जो अब हाथ से फिसल गया है...  


तस्वीरें जो बोलतीं तो हमें ये ज़रूर कहती कि हमें एल्बम में , कंप्यूटर के किसी फोल्डर में बंद रहना बिलकुल अच्छा नहीं लगता ..कि जब हम कई कई दिन तक फोटो फ्रेम पर जमी धूल नहीं हटाते, कि जब हम एक बार भी रुक कर उनकी  तरफ नहीं देखते, कि जब वो महज़ दीवार या टेबल पर पड़ा एक शो पीस बन जाती हैं ..तब तस्वीरें कहती कि नहीं ये हमें ज़रा भी अच्छा नहीं लग रहा.... 
 

तस्वीरें जो कह पाती तो हमसे ये भी कहतीं या हमें ये अहसास दिलातीं कि देखो हम सिर्फ एक ठहरा हुआ लम्हा या कोई वाकया भर  नहीं..हम तुम्हारा ही अतीत, आज और आने वाले कल का आइना हैं... हमें देखो और जानो कि कल तुम कैसे  थे, आज तुम क्या हो और कल कैसे हो जाओगे या  हो जाना चाहोगे.. 


 तस्वीरें जो बोलती तो बताती ..नहीं..नहीं ..याद दिलातीं ..तस्वीरों से झांकते  उन चेहरों की, जाने -पहचाने, अजनबी, भूले-बिसरे  , कभी कहीं  मिले, कहीं देखे, कभी बतियाये, और फिर आगे बढ़ गए..तस्वीरों में छुपे चेहरों के पीछे वे अनगिनत चेहरे जो हमें ज़िन्दगी ने दिखाए, समझाए और पहचान करवाई..उन चेहरों की जिनको तस्वीरों के सहारे की कोई ज़रुरत नहीं पर फिर भी उन्हीं की  तस्वीरें हम अपने आस-पास देखना चाहते हैं....

 तस्वीरें जो कह पातीं तो कितना कुछ कहतीं , पर क्या वो सचमुच ही हमारी ही भाषा में बात करती या उनकी कोई अलग भाषा होती होगी..अब ये तो  नहीं पता पर हाँ... वो जो भी कहतीं उस समझना मुश्किल तो नहीं होता ना.... 

तस्वीरें जो बोल सकतीं तो हमें इतना तो ज़रूर समझाती  कि इन तस्वीरों से जो खूबसूरत लम्हे झलक रहें हैं  वो महज़ पुरानी याद नहीं, वो हमारे आज की  मुस्कान, कल की  आशा और आकांक्षाएं  और हमेशा का साथ हैं..

तस्वीरें जो बोलती तो जाने और क्या -क्या कहतीं पर उनका कहा हम सुन पाते या अनसुना करते या सुन तो लेते, मान भी लेते पर फिर भूल जाने का अभिनय भी करते ...


तस्वीरें जो बोलतीं तो कहतीं....

Picnic Adventures Part – 4




However, the moment Christie Sir announced a new destination to go, most of the group members expressed excitement and enthusiasm in loud voice, as if they were waiting only for this moment

We started walking in to the direction as per showed by Christie, soon we all divided in two groups. One headed by Pandit Jee and another by Christie Sir himself. I was with Sir’s group where Yogita chose Pandit Jee and so the other guys (I mean Devil Manoj and his gang). The reason behind this grouping was that some members wanted to go by the extremely rough hilly area whereas some like me preferred lesser tough and smooth way. Soon we understand that there is no easy way or smooth way when you are on a picnic with Christie Sir. Pandit Jee took his group from an easy route though his group wanted to tread over rocks and we people took a wrong turn in search of smooth way and finally reached once again in to slippery black stones.   

Here the most disastrous thing happened with me, I was already somehow dragging myself among those small slippery rocks and sand dunes. Suddenly I felt some unease in my right foot or say in my sandal. Something was disturbing; I was not able to raise my steps properly..I stopped and looked down, ok, so now this was remained…my right foot sandal’s buckle strip was out of its place, in short, it was broken. That moment, I looked over towards the sky and whispered, why me, why me only, cannot you find anyone else or is this your extra love that you are showering on me in abundance…grrrrr . This is the limit, in fact it is out of limit...now how can I tell this to anyone, these idiot boys will laugh on me and say that I am making excuses to go back and to escape the rough path. Already Pankaj and Sandeep had a bet with Yogita that I will not be able to walk the entire path on foots and Sir would need to send me back to the bus which was waiting for us at the valley of fort.

Anyway, I have to prove these jokers not just wrong but have to teach them a good lesson, so they can never make fun of me. Therefore, I did not tell anything to anyone and kept walking on those sandy tracks without any complaint. After a walk of half an hour or more, we reached to our destination. Another Shiva Temple called “Pantheshwar Mahadev”. I guess, it was a right name because the track we have walked so far was rough and covered with small sand dunes and pebbles.

 After walking for more than half hour under the hot sun, I was badly tired, in fact, everyone was tired and we desperately wanted to take some rest.  At first glance, Temple premise was not much attractive or eye catching so at once we felt disappointed  ...Even some of us started whispering about it. Above all, the priests and other sewadaars of temple were busy in some preparations, big baskets of fruits, sweets and flowers were kept here and there, a kind of rush was inside the temple premise, everyone was busy with something. Only we were there like aliens, who were looking at everything as we have not seen any such thing ever before. However, Pandit Jee realized our poor condition and led us towards a passage, nobody was there, nor even baskets of fruits etc. The floor was quite cool and most of all, ceiling fans were there to provide us few moments of comfort. The moment we all sat on floor, I spoke in a bit loud voice, “biggest luxury of the day”, Garima, Pankaj, Sandeep and many others shook their heads to endorse my words. Meanwhile I whispered in Yogita’s ear, “Breaking news, my sandal got broken up.”

“When?”

“When we were coming here, in the middle of way, strip got broken”.
“Humm...” she winked at me and than a very clever smile ran on her face.
“…I want to see how you are going to manage it.”

“I am already managing. I walked all the way, without telling anyone about my shoe.”

“hehehehe…carry one honey”, she was looking at me with a merciless smile. It raised my temper but somehow I managed to keep myself smiling and calm. 

Soon Christie Sir came and scolded us, “stand up lazy bones, come I will show you the thing, for what we have come here”.

Awww..now what..   

He took us to the backside of Temple and my god what is that... Everyone was surprised to see, there was a huge fountain cum waterfall cum rockery made by granite and other stones. It was looking awesome. The stones were shining like mirror and water was flowing upon them like melted mercury. Rockery and fountain patterns were carved with different type of stones in natural and vibrant shades.

The whole structure was built with 2-3 stages and each level was reachable through the stairs that were built at a side of fountain cum rockery. At the top, it was the mouth of fall and rockery was situated at down levels with wide streams of water. The whole ambiance seemed like an oasis in the middle of a desolate desert. Everybody enjoyed a lot, some took bath under the fall, and some were busy with splashing and throwing water on others and so on... Even the “Zulfon Wali Haseena” also removed the veil of attitude and took part in all those activities. (What, I did not tell you about “Zulfon wali Haseena” in the previous parts of the story, how is this possible, Haseena was an important member of our “Picnic Paltan”) anyway better late than never…so let me introduce you with our sweet Zulfon wali Haseena who was looking amazing in that fabulous hairstyle.

In morning when I reached to institute, I found few guys were sitting on chairs and as I already mentioned in the first part that most of the faces were unknown for me. But one face attracted my attention, a person sitting on corner chair, his hair were on his forehead in some entangled shape/style and were also looking wet, as if he just washed them or soaked them in water. His entangled hair were giving him a very strange look, not a bad one but quite strange, usually boys do not get such looks. At first, I could not understand the mystery behind those pretty Zulfein.. Nevertheless, than some people revealed his secret, GEL made those ringlets on his forehead and curls on his head.  But I wont say that we girls liked his style, we were in fact laughing at him and than this title, “Zulfon wali Haseena” came in to my mind.

However, now it was time to go back to Bhooteshwar Mahadev to collect our miscellaneous bags and baskets of lunch and other few things. I thought that now once again we need to follow the same route to reach to our bus. But another surprise was waiting for us. The way back to Bhooteshwar Temple happened to be an easier one, I don’t know why or how,  when we followed almost the same path and my sandal created number of difficulties. Specially, when Christie Sir chose a small hillock to climb over in between the way. That rock had few cactus plants also, so no need to tell you that I almost escaped a couple of times, to get tangled with cactus.  When we reached to Shiva Temple, our bus was already there. Sir called the driver up to the temple to pick us. Soon we reached back to our institute, we sang a number of songs in the bus. Bhavesh Bhaiyyaa told me few choupayees of Ramayana e.g. “Chitrakoot ke ghat par… ....Tulsidas chandan ghise tilak kare Raghuveer.”, and I even quickly memorized them.


P.S. This picnic was a hilarious experience for me.  Many amazing things happened during the picnic that I have not mentioned here due to limitation of story. Few of them are, when Yogita, Garima, Manoj and other guys climb on the tree like monkeys and Pandit Jee took some interesting snaps of them. 

When Bhavesh Bhaiyya tried to get the snack basket from Christie Sir and each time, he refused to hand over it. 

When Garima got scared with an old, weak monkey at Rani-Sar and and she refused to get down from stairs as that monkey was sitting on opposite wall, somehow we brought her down.  

When Haseena tried to impress Yogita and Anukriti one by one and each time was failed. First Yogita beat him in target practice of pebbles and later on Anu refused to even look at him, poor guy all his labour done with hairs went in vain.

So here, I am ending this story, hope you all enjoyed it and got some idea that how much I loved to be a part of this Real Life Drama.


First part of the story is  Here

Third part of the story is  Here